शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

मैं अजमेरीलाल हूं

यूं तो अजमेर में रहने वाला हर आदमी अजमेरीलाल है। अजमेर का लाल है, मगर असल में अजमेरीलाल एक व्यक्तित्व है। एक करेक्टर है। एक चरित्र है। अनूठा, विलक्षण। मेरे जैसा अजमेर के अलावा दुनिया में कहीं नहीं। मैं समझदार भी हूं, झक्की भी हूं। सहनशीलता की पराकाश्ठा में जीता हूं। प्रषासनिक असफलताओं को सहन करने की आदत सी पड गई है। षांतिप्रिय हूं। फालतू का पंगा नहीं करता। पंगे में पडता ही नहीं। जाहि विधि राखिए, ताहि विधि रहिये महामंत्र को मानता हूं। पानी पांच पांच दिन में मिले तो भी चुप रहता हूं। स्मार्ट सिटी बनाने की घोशणा होने पर ताली बजाता हूं, खुष होता हूं, मगर लूट मचे तो आंख मूंद लेता हूं। अपने हक को जानता हूं, मगर उसे छीन कर नहीं, बल्कि औपचारिक मांग कर इतिश्री करने की प्रवृत्ति है। यही मेरी तकलीफ का असल कारण है। परेषानी का सबब। समझता सब हूं, मगर थका हुआ हूं। तभी तो अजमेर को टायर्ड व रिटायर्ड लोगों का षहर कहा जाता है। गनीमत है कि मुझे अन्याय होता दिखाई तो देता है, मगर उसके खिलाफ मुट्ठी तक नहीं तानता। तनिक डरपोक भी हूं। अफसरों और नेताओं को मस्का लगाने में माहिर। जैसे ही किसी थाने में कोई नया सीआई तैनात होता है, या उसका जन्मदिन होता है तो पहुंच जाता हूं माल्यार्पण करने। फिर उसे फेसबुक पर साझा करता हूं। छपास भी हूं। मुझे पता है कि किस जगह पर खडे होने पर अखबार में फोटो छपेगी। बेषक बुद्धिजीवी हूं, बुद्धु नहीं, मुखर दिखता हूं, मगर हूं दब्बू। सच जानता हूं, समझता हूं, मगर स्वार्थ की खातिर झूठी तारीफ में भी पीछे नहीं रहता। सक्षम हूं, कुछ कर सकता हूं, मगर कोई टास्क सामने आ जाए तो पडोसी की ओर ताकता हूं। ऐसी अनुर्वरा जमीन पर कभी कभी वीर कुमार पैदा होता है, मगर उसे देख कर भी मेरे खून में रवानी नहीं आती। 

कभी भोला नजर आता हूं तो कभी चतुर। षाबाषी दीजिए कि चंट-चालाक-कुटिल नहीं हूं। सज्जन हूं। सदाषयी हूं। दयालु हूं। सहृदय हूं। मदद को तत्पर। कोराना काल में यह साबित कर चुका हूं। कुल जमा बहुत प्यारा हूं। मुझे अपने आप से बहुत प्यार है। जरा गौर करेंगे तो मेरे जैसे अजमेरी लालों के चेहरे आपकी दिमागदानी में घूमने लग जाएंगे। काष मुझे चंबल का पानी पीने को मिल जाए।


मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

क्या सिंधियों के लिए इष्ट देव झूलेलाल की सवारी पल्ले का सेवन उचित है?

क्या सिंधियों का अपने इष्ट देव झूलेलाल जी की सवारी मछली यानि कि पल्ला का सेवन करना जायज है? यह सवाल इन दिनों समाज में चर्चा का विषय बना हुआ है। पल्ले का सेवन करने वालों पर तंज करने वालों का तर्क है कि भला कोई अपने ही इष्ट देव की सवारी को खाता है? क्या कभी देखा है कि कोई गणेश जी की सवारी चूहा खाता हो? क्या कभी अन्य देवी देवताओं की सवारी पशु-पक्षी आदि का किसी को सेवन करते देखा है? तर्क में वाकई दम है। लेकिन पल्ले का सेवन करने वालों का कहना है कि अन्य देवी देवताओं की सवारी पशु-पक्षी सामान्यतः भी भोज्य नहीं हैं। भला चूहा कौन खाता है? शेर कौन खाता है? जबकि पल्लव तो मांसाहार में सर्वाधिक स्वादिष्ट व पोष्टिक माना जाता है। यहां तक कई तो इसे प्रसाद के रूप में भी स्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि भले ही झूलेलाल जी पल्लव पर सवार हो कर अवतरित हुए, मगर पल्लव पूजनीय दरिया का फल है, उसे वर्जित क्यों माना जाना चाहिए। वस्तुतः यह पूरी तरह से व्यक्तिगत और पारिवारिक परंपराओं पर निर्भर करता है। सिंधी समुदाय में कई लोग मांसाहारी होते हैं और मछली का सेवन करते हैं, लेकिन कुछ सिंधी परिवार, विशेषकर झूलेलाल जी के पक्के भक्त इसे वर्जित मानते हैं और शाकाहार को प्राथमिकता देते हैं।

https://youtu.be/FCed4_0FczA


सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

सिंधियों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल पाएगा?

हिंदुस्तान के बंटवारे के दौरान अपने हिंदू धर्म की रक्षा की खातिर भारत आए सिंधी हालांकि संख्या की दृष्टि से अल्पसंख्यक हैं, मगर क्या उन्हें कभी अल्पसंख्यक का दर्जा मिल पाएगा? हालांकि यह सवाल बहुत पुराना है, मगर हाल ही महामंडलेश्वर स्वामी श्री हंसराम जी महाराज के एक बयान से यह ज्वलंत हो उठा है। उनका कहना है कि कुछ लोग सिंधियों को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की साजिश कर रहे हैं, दरिया पंथ व झूलेलाल पंथ बनाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर कभी कामयाब नहीं हो पाएंगे, क्योंकि सिंधी मूलतः सनातनी हैं। अपने धर्म की रक्षा के लिए ही तो उन्हें पाकिस्तान में रहना गवारा नहीं था। उनकी बात में बहुत दम है। समाज के भविष्य के प्रति उनकी चिंता स्वाभाविक है। वे भविष्यदृष्टा हैं। वे जितने प्रबल सनातनी हैं, सिंधु सस्कृति के प्रति भी उतने ही समर्पित। उन्होंने समाज को सिंधु चिन्ह बना कर भेंट किया है। इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवत का सिंधी भाषा में अनुवाद करवा कर ग्रंथ प्रकाशित किया और देशभर में एक लंबी या़त्रा निकाल कर सिंधी दरबारों में स्थापित किया। सरकार से मांग कर चुके हैं कि विशाल सिन्धु तीर्थ स्थल का निर्माण करवाया जाये, जिसमें सनातन धर्म केन्द्र, गुरूकुल व्यवस्था हो। वे ऐसे पहले संत हैं, जिन्होंने सभी सिंधियों को एक मंच पर लाने में कामयाबी हासिल की। शायद उन्हें आशंका हो कि अल्पसंख्यक का दर्जा हासिल करने की कवायद के चलते कहीं वे सनातन से दूर न हो जाएं। उनकी आशंका गलत नहीं है। सूत्रों के अनुसार राजनीतिक खेल के तहत कुछ सिंधी नेता दरिया पंथ व झूलेलाल पंथ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। सिंधी सनातनी ही हैं, उनके इस दमदार तर्क के पीछे सबसे बडी दलील यह दी जा सकती है कि जब भी जनगणना होती है तो सिंधी बंधु धर्म के कॉलम में अपने आपको हिंदू बताते हैं और जाति के कॉलम में सिंधी लिखते आए हैं। हालांकि सिंधी कोई जाति नहीं है। वह तो सिंधियों का सिंध प्रांत से होने की पहचान है। यद्यपि अधिसंख्य जातियां विलुप्त हो गई हैं। अनेक जातियों के लोगों के व्यापार में शुमार होने के कारण वे सभी वेश्य कहलाती हैं।

असल में कोई पच्चीस साल पहले भी सिंधियों को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की कवायद हुई थी। अजमेर में भी काफी हलचल हुई थी। वरिष्ठ वकील व कांग्रेस नेता अशोक मटाई ने गहन अध्ययन किया। बहुत मेहनत की। उन्हें लगता था कि कानूनी लडाई ठीक से लडी जाए तो सिंधियों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है, मगर उनको समाज का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया। जैसे किसी जमाने में जैनियों ने जनगणना के वक्त धर्म के खाने में जैन लिखने की मुहिम चलाई, वैसी सिंधी समाज में नहीं चल पाई। असल में सिंधियों को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की मांग के पीछे यह भाव कत्तई नहीं था कि वे सनातनी हिंदू धर्म से पृथक होना चाहते थे। वे चाहते थे कि विस्थापित होने की त्रासदी के बाद पुनर्स्थापित होने के संघर्ष में सत्ता का सहयोग मिल जाए। जैसे अन्य अल्पसंख्यकों को विशेष परिलाभ हैं, उसी प्रकार अल्प संख्या वाले सिंधियों को भी मिलने चाहिए। हिंदू धर्म की मान्यताओं व परंपराओं का पालन करते हुए उन्हें आर्थिक रूप से सरकारी संबल मिल जाए। अलग दर्जे को ऐसे समझा जा सकता है, जैसे मुसलमान होने के बावजूद खुद्दाम हजरात को अलग दर्जा हासिल है। जैसे हिंदू होते हुए भी तीर्थ पुरोहितों को अलग दर्जा मिला हुआ है। चलो, पाकिस्तान से आने के बाद अलग राज्य, अलग भूभाग नहीं मिल पाया, मगर कम से कम अपने धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की बिना पर कुछ तो विशेष अधिकार मिल जाएं। कदाचित अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल करने की वजह से ही यह आभास हुआ होगा कि सिंधी सनातन से अलग होना चाहते हैं। भला जो जमात सनातन की रक्षा के लिए अपनी जमीन जायदाद छोड कर भारत आई, यहां नए सिरे से आजीविका का संघर्ष किया, वह सनातन को छोडने की कल्पना भी कैसे कर सकती है?  

तस्वीर का दूसरा पहलु यह है कि संविधान के प्रावधानुसार केवल अलग धर्म वालों को ही अल्पसंख्यक घोषित किया जा सकता है। ऐसे में सनातन को मानने वाले सिंधियों को अल्पसंख्यक घोषित किया ही नहीं जा सकेगा। अल्पसंख्यक होने के लिए कानून में जो मापदंड हैं, उन्हें सिंधी पूरा नहीं करते। अलबत्ता सिंधी भाशा व संस्कृति के वाहक सिंधियों का अल्पभाषायी होने का दावा मजबूत बना रहेगा। इसमें कोई दोराय नहीं कि झूलेलाल जी सभी सिंधियों के इष्ट देवता हैं, मगर अल्पसंख्यक होने का यह आधार पर्याप्त नहीं। कोई अलग पंथ बना लें तो बात अलग है। वैसे एक बात है कि अगर सभी सिंधी अपने इष्ट देवता के प्रति एकनिष्ठ हो जाएं तो कम से कम उन्हें अन्य पंथों में जाने से रोका जा सकता है। सच तो यह है कि ज्यादा खतरा यह है कि वे इष्टदेवता झूलेलाल जी के होते हुए अन्य पंथों में जा रहे हैं। 

प्रसंगवश यह जानना उचित रहेगा कि एक समय वह भी था कि कुछ सिंधियों ने अल्पसंख्यक के नाते आरक्षण की मांग की थी, मगर पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी यह कह इंकार कर दिया कि सिंधियों को आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वे पुरूशार्थी हैं। यह बात सच भी है। आज बीपीएल श्रेणी में जीने को मजबूर एक बडे तबके के बावजूद अनेक सिंधी न केवल अर्थ संपन्न हो चुके हैं और परमार्थ के भी काम जम कर रहे हैं। तभी तो कहते हैं कि सिंधी किसी भी स्तर की मेहनत करने को तैयार रहता है, मगर भीख नहीं मांगता। यह सिंधियों के लिए गौरव की बात है। जिसे पूरी दुनिया मानती है। सिंधियों के अल्पसंख्यक होने का मुद्दा समाप्त होता नजर नहीं आता, मगर ज्यादा जरूरी यह है कि सिंधी अपनी सभ्यता, संस्कृति व भाषा को कायम रखने पर ध्यान रखें। आपस में और बच्चों से सिंधी भाषा में ही बात करें। अगर भाषा व संस्कृति ही नहीं बचा पाए तो केवल नाम मात्र को सिंधी कहलाएंगे।

आखिर में बहुत पीडादायक बात। भले ही हिंदू होने के कारण संविधान में स्थापित कानून के तहत सिंधियों को तकनीकी रूप से अल्पसंख्यक का दर्जा न मिल पाए, मगर वे विशिष्ट दर्जे के हकदार तो हैं। विस्थापन के बाद जीरो से उठने के यातनातुल्य सफर का जो दर्द सिंधियों ने सहा है, उसका अहसास केवल सिंधी ही कर सकते हैं। हों भले सनातनी, मगर जिस महान सिंधु घाटी की सभ्यता का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी सनातनता कायम रहनी ही चाहिए। इल्तजा यही है कि सिंधी भाषा व संस्कृति की रक्षा के लिए शासन का समर्थन मिल जाए।

-तेजवाणी गिरधर

7742067000 

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