गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

आदमी को स्तन क्यों होते हैं?

क्या आपके दिमाग में कभी यह सवाल आया है कि आदमी के स्तन क्यों होते हैं? उनका क्या उपयोग? औरतों को तो इसलिए होते हैं कि क्योंकि जब वह बच्चे को जन्म देती है तो उसके पोषण के लिए प्रकृति उनमें दूध उत्पन्न करती है, मगर आदमी के स्तन तो किसी भी काम के नहीं। आदमी का एक यही अंग ऐसा है, जिसका ताजिंदगी कोई उपयोग नहीं होता। आम तौर पर आदमी में ये अविकसित व सुप्त अवस्था में ही होते हैं। किसी-किसी के बड़े भी हो जाते हैं, मगर उनका कोई उपयोग नहीं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि प्रकृति ने आदमी को स्तन क्यों दिए?
मेरे जेहन में भी ये सवाल उभरा है। इसका जवाब तलाशने की बहुत कोशिश की, मगर फिलवक्त तक सटीक उत्तर नहीं मिल पाया है। हां, इतना जरूर समझ आया है कि यह इस बात का प्रतीक हैं कि आदमी में कुछ मात्रा में स्त्रैण हार्मोन भी होते हैं। होंगे ही, क्योंकि मनुष्य की उत्पत्ति स्त्री व पुरुष के मिलन से होती है और हर एक में दोनों के गुणसूत्र विद्यमान होते हैं। बस प्रतिशत का ही फर्क होता है, जिसकी वजह से कोई मेल तो कोई फीमेल पैदा होता है।
खैर, स्तन भले ही दूध की ग्रंथी है, मगर कहीं न कहीं इसका नस-नाडिय़ों के संतुलन से भी संबंध है। जब धरण टल जाती है तो नाड़ी वैद्य एक डोरी लेकर नाभि से पहले एक स्तन की दूरी नापता है और फिर दूसरे की। यदि दोनों की दूरी समान हो तो वह यही बताता है कि धरण नहीं टली है, पेट में दर्द किसी और वजह से है। यदि दूरी में फर्क आता है तो वह कहता है कि धरण टल गई है और झटके दे कर नाडिय़ों को संतुलित करता है। इसका मतलब ये हुआ कि जैसे नाभि पूरे शरीर की नस-नाडिय़ों का केन्द्र स्थान है, वैसे ही स्तन के बिंदु भी कहीं न कहीं नाडिय़ों के संतुलन का हिस्सा हैं।
दूसरी बात ये कि भले ही आदमी के स्तनों में दूध उत्पन्न नहीं होता, मगर हैं तो वे स्तन ही। भले ही सुप्त अवस्था में हों। यह नजरिया तब बना, जब ओशो के एक प्रवचन में यह सुना कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस काली माता की भक्ति में इतने लीन हो गए कि जीवन के आखिरी दौर में उनका शरीर स्त्रैण हो गया। उनके स्तन अप्रत्याशित रूप से बढ़ गए व उनमें से दूध टपकने लगा। इसके यही मायने हैं कि पुरुष के शरीर में जो स्तन हैं, वे वाकई स्तन ही हैं, तभी तो स्वामी रामकृष्ण के स्तनों में से दूध आने लगा।
चूंकि आदमी के स्तन प्रतीकात्मक हैं, इस कारण यदि किसी के स्तन बढ़ जाते हैं तो उसके लिए शर्मिंदगी का कारण बन जाते हैं। विज्ञान की भाषा में बात करें तो असल में यह एक बीमारी है, इसको गाइनेकॉमस्टिया कहते हैं। टेस्टोस्टेरोन या एस्ट्रोजन हार्मोन के असंतुलन के कारण पुरुषों के स्तन बढ़ते हैं।। वैज्ञानिक शोध में यह भी सामने आया है कि लैवेंडर और चाय के पौधों के तेल के कारण युवकों के स्तन असामान्य रूप से बढ़ जाते हैं। इन तेलों में आठ ऐसे केमिकल होते हैं, जो हमारे हार्मोन्स पर प्रभाव डालते हैं। ज्ञाातव्य है कि लैवेंडर और टी ट्री पौधों से जुड़े तेल कई उत्पादों में पाए जाते हैं। साबुन, लोशन, शैम्पू और बाल संवारने वाले उत्पादों में इन तेलों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा भी पाया गया है कि जिन लोगों ने इन तेलों का इस्तेमाल बंद किया तो उन्हें बढ़ते स्तन को काबू में करने में मदद मिली है।
जानकारी के अनुसार पुरुषों के स्तन बढऩे के मामले बढऩे लगे हैं। उसकी वजह हार्मोनल चैंजेज के साथ जिम जाने वालों में स्टेरॉयड का प्रयोग करने व लाइफ स्टाइल से जुड़े मामले इसके लिए जिम्मेदार हैं।
आखिर में एक रोचक बात। हालांकि ये अपवाद मात्र है, मगर है दिलचस्प। यह एक सामान्य सी बात है कि जो युवती गर्भ धारण करती है तो उसका जी मिचलाने लगता है। यदि यही समस्या पिता बनने वाले युवक के साथ भी हो तो चौंकना स्वाभाविक है। एक खबर के मुताबिक 29 साल के हैरिस ऐशबे की मंगेतर को उनका पहला बच्चा होने वाला था। हैरिस का भी जी मिचलाने लगा। उसके स्तन बढऩे लगे। डॉक्टरों ने बताया कि वह एक तरह के मेडिकल कंडिशन का शिकार हो गया है, जिसे कौवेड सिंड्रोम कहते हैं।

-तेजवानी गिरधर
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कोई आदमी खो जाए तो चक्की उलटी घुमाई जाती है

हमारे यहां कई प्रकार के टोटके प्रचलन में हैं। उनमें से एक दिलचस्प और उपयोगी टोटका आपकी नजर है।
यदि परिवार का कोई सदस्य खो जाए अथवा घर छोड़ कर चला जाए और उसका कोई पता न हो तो उसे वापस बुलाने के लिए घर में रखी आटे की चक्की, जिसे मारवाड़ी में घटूला व सिंधी में झंड कहा जाता है, उसे उलटा घुमाया जाता है। सलाह दी जाती है कि परिवार के जिस भी व्यक्ति को समय मिले, वह चक्की को कुछ समय तक उलटा घुमाता रहे। ऐसा बार-बार किया जाए। ऐसा करने पर घर से गया हुआ व्यक्ति लौट कर आ जाता है।
इस टोटके का भेद समझने की कोशिश की जाए तो यही प्रतीत होता है, जैसे ही चक्की को उलटा घुमाते हैं तो वहां निर्मित शक्ति घर से गए हुए व्यक्ति को अपनी ओर खींचती है। उसके मन में घर लौटने की भावना उत्पन्न करती है। खिंचाव अधिक होने पर वह लौट ही आता है। संभव है यह टोटका कोई भौतिक वस्तु के खोने पर भी काम आ सकता है क्योंकि हमारे साथ रहने के कारण उसमें भी हमारी प्राण शक्ति का अस्तित्व होता है।

-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

शादी न हो रही हो तो किया जाता है ये टोटका

यदि किसी युवक की शादी न हो रही हो, शादी में विलंब हो रहा हो तो एक उपाय किया जाता है। वो ये कि जब किसी की शादी हो रही हो और वह जब वधु पक्ष के दरवाजे पर तोरण मारने के बाद घोड़ी से उतर रहा हो तो अविवाहित युवक अगर तुरंत घोड़ी पर बैठ जाए तो उसकी भी शादी का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। है न विचित्र परंपरा।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति में रिक्त स्थान की पूर्ति होने की व्यवस्था है। जैसे ही कोई स्थान रिक्त होता है, प्रकृति उसे भरने की कोशिश करती है। दूल्हे का घोड़ी पर बैठे होना एक स्थिति है। इसे हम दृश्य भी कह सकते हैं। जैसे ही दूल्हा घोड़ी से उतरता है, तो वह स्थान रिक्त हो जाता है। उसे अगर अविवाहित युवक तुरंत भरता है तो हालांकि तब वह दूल्हा तो नहीं बन जाता, मगर प्रकृति तत्काल बनी दूसरी स्थिति को पूर्ण करने में जुट जाती है। अर्थात प्रकृति ऐसे संयोग निर्मित करती है कि उस युवक की जल्द शादी हो जाए।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है। वो ये कि जब कोई अविवाहित युवक दूल्हे की ओर से खाली की गई जगह पर बैठता है तो हालांकि उसकी शादी नहीं होने जा रही होती, मगर प्रतीकात्मक रूप से वह दूल्हे की स्थिति निर्मित करता है, वैसा दृश्य बनाता है और प्रकृति की शक्तियां उस स्थिति को भौतिक रूप से साकार करने में लग जाती हैं।

-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 23 फ़रवरी 2020

पता लग सकता है कि मृतात्मा अगले जन्म में कहां गई?

हालांकि हम हर व्यक्ति के मरने पर उसके नाम के साथ स्वर्गीय शब्द जोड़ देते हैं, भले ही हमें यह पता भी न हो कि वह स्वर्ग में गया या नरक में।  वैसे भी हमारे यहां परंपरा है कि यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में बुरा रहा हो, तो भी उसके मरने पर हम उसकी बुराई नहीं करते। यही कहते हैं कि भला आदमी था। उसके नाम के साथ स्वर्गीय शब्द जोड़ कर यही जताते हैं कि वह स्वर्ग में ही गया होगा और सम्मान देते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी अवधारणा है कि मृतात्मा अगला जन्म लेती है। कुछ लोग मानते हैं कि मनुष्य मरने के बाद फिर मनुष्य योनि में ही जन्म लेता है। ऐसा मानने वाले पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका अगले जन्म में फिर मिलने की कामना करते हैं। कई तो अगले सात जन्म तक भी साथ होने की इच्छा जताते हैं। अब ये सात जन्म ही क्यों, छह या आठ क्यों नहीं, कुछ पता नहीं। दूसरी ओर कुछ लोगों की मान्यता है कि मनुष्य अपने कर्म के अनुसार किसी अन्य योनि में जन्म लेता है। एक जिज्ञासा ये हो सकती है कि मृतात्मा ने अगले जन्म में किस योनि में जन्म लिया है, क्या इसके बारे में ठीक-ठीक जानकारी मिल सकती है? ज्योतिष शास्त्र अथवा अन्य शास्त्रों में संभव है कि उसका वर्णन हो या कोई पद्दति हो। ज्योतिषी कुंडली देख कर यह तक बता देते हैं कि यह आपका आखिरी जन्म है, इसके बाद जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति मिल जाएगी।
खैर, एक पद्दति मेरी जानकारी में भी है, वह आपसे साझा करता हूं। जब किसी की मृत्यु शाम को होती है, और जैसा कि हमारे यहां परंपरा है कि सूर्यास्त के बाद अंतिम संस्कार नहीं किया करते, इस कारण उसे रात भर रखना होता है। उसके पास एक दीपक जलाया जाता है। बताया जाता है कि ऐसा इस कारण किया जाता है ताकि वातावरण में विचरण कर रही कोई बुरी आत्मा उसमें प्रवेश न कर जाए। खैर, जानकारी ये है कि जो दीपक पूरी रात जलता है, उसके नीचे तेल से एक आकृति बन जाती है, जो कि किसी मनुष्य, जीव-जन्तु आदि की हो सकती है। जो भी आकृति बनती है, माना जाता है कि मृतात्मा उसी योनि की ओर प्रस्थान करेगी। यह पद्दति कितनी सही है, पता नहीं, मगर चलन में है जरूर। हमारे परिवार में किन्हीं पूर्वज के बारे में बताया जाता है कि दीपक के नीचे भ्रमर का चिन्ह बन गया था, इस कारण जब भी कोई भ्रमर घर में आ जाता है तो यही मानते हैं कि अमुक पूर्वज पधारे हैं और उन्हें पानी की छींटा दे कर शांत किया जाता है। ऐसा करने पर वे चले जाते हैं।

निवेदन
आपसे निवेदन है कि यदि आप कोई प्रतिक्रिया देना चाहते हैं तो आलेख के नीचे कमेंट बॉक्स में अपना कमेंट लिखिए, ताकि पाठक आपकी जानकारी से भी भिज्ञ हो सकें।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

क्या शिव और शंकर अलग-अलग हैं?

हमारी जनचेतना में यह बात गहरे बैठी है कि शिव और शंकर एक ही हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं समझा जाता। जब भी शिव लिंग पर जल चढ़ाते हैं तो मन में त्रिशूलधारी, त्रिनेत्र व नील कंठ की प्रतिमा होती है, जिनकी जटा से गंगा निकलती है। शंकर भगवान का वाहन नंदी को माना जाता है और शिव लिंग के सामने भी नंदी बैल की प्रतिमा स्थापित की जाती है। दोनों के नाम का उच्चारण भी एक साथ किया जाता है, यथा शिव शंकर, शिव शंभू, शिव भोलेनाथ। शिव लिंग पर भी वैसा ही त्रिनेत्र बनाया जाता है, जैसा शंकर के है। दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो कि इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं। उनके अपने तर्क हैं। हाल ही शिव रात्री बीती है, तो ये ख्याल आया कि इस पर चर्चा की जाए।
जो लोग दोनों को अलग मानते हैं, हो सकता है कि उन्हें मतिभ्रम हो या फिर यह एक गूढ़ रहस्य हो, मगर उनके इस तर्क में जरूर दम है कि भगवान शंकर तो खुद ही शिव लिंग के आगे ध्यान करते हैं। ऐसी तस्वीरें मौजूद हैं। यहां तक अवतारी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भी शिव लिंग की आराधना करते हैं। अर्थात जिस परम सत्ता का प्रतीक शिव लिंग है, वह महादेव व राम से भी ऊपर हैं। वे ही सृष्टि की रचना, पालना व विनाश करने के लिए क्रमश: त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की रचना करते हैं। अर्थात महेश परमात्मा शिव की रचना हैं तो फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं। 
एक और तर्क में भी दम है। वो ये कि शंकर तो सृष्टि का संहार करते हैं, उसकी रचना व पालन का भार ब्रह्मा व विष्णु पर है, तो फिर ऐसा कैसा हो सकता है कि सृष्टि का संहार करने वाले व त्रिदेव से ऊपर जो परम सत्ता है, वह और शंकर एक ही हों? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जिस पर केवल संहार का दायित्व है, रचना व पालन का अन्य पर तो वे परम सत्ता कैसे हो सकते हैं?
सवाल ये भी उठता है कि हम जो शिव रात्री मनाते हैं, वह परमात्मा शिव की स्मृति में है या फिर महादेव शंकर की याद में? शिव रात्रि पर शिव लिंग की ही उपासना की जाती है, इससे लगता है कि शिव लिंग परमात्मा शिव का प्रतीक है। यदि भगवान शंकर ही शिव हैं तो उनका अलग प्रतीक बनाने की क्या जरूरत है। शंकर के ही समकक्ष ब्रह्मा व विष्णु के तो प्रतीक चिन्ह नहीं हैं। ऐसे में शंकर को शिव इसलिए नहीं माना जा सकता, क्यों वे तो साकारी देवता हैं, जिनकी लीलाओं का पुराणों व शास्त्रों में वर्णन है।
वेदों में भी यही लिखा है कि शिव निरंकारी है, उनका कोई आकार नहीं है, शिव लिंग तो एक प्रतीक मात्र है। बावजूद इसके यदि शिव व शंकर को एक ही मान लिया गया है तो जरूर कोई कारण होगा या फिर कोई गंभीर त्रुटि हो गई है।

-तेजवानी गिरधर
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क्या हिचकी आना किसी के याद करने का संकेत है?

जब भी हमें हिचकी आती है तो हम स्वयं व पास बैठा व्यक्ति यही कहता है कि जरूर कोई याद कर रहा है। दिलचस्प बात ये है कि जब हम विचार करते हैं कि कौन याद कर रहा होगा और उनके नामों का जिक्र करते हैं तो जिसका नाम लेने पर हिचकी बंद होती है तो यही सोचते हैं कि उसी ने याद किया था। इसके वैज्ञानिक व शारीरिक कारण पर भी चर्चा करेंगे, मगर क्या सही है कि यदि कोई हमें शिद्दत से याद करता है तो हिचकी आती है?
मेरा ऐसा ख्याल है कि शारीरिक क्रिया तो अपनी जगह है ही, मगर इससे भी इतर कुछ तो है। मेरा विचार है कि हमारा मस्तिष्क तो सुपर कंप्यूटर है ही, जो कि पूरे शरीर को संचालित करता है, वहीं पर विचार चलते रहते हैं, मगर अमूमन विचार करने की ऊर्जा कंठ पर केन्द्रित रहती है। जरा महसूस करके देखिए। विज्ञान कहता है कि विचार की कोई भाषा नहीं होती। सही भी है। यह एक मौलिक तथ्य है। इसलिए कि जहां विचार हो रहा है, वहां केवल भाषायी वाक्य ही विचरण नहीं करते, ध्वनि, स्वाद, गंध, दृश्य आदि की अनुभूतियां भी मौजूद रहती हैं। हां, भाषायी वाक्य जरूर उस भाषा में होते हैं, जो कि आमतौर पर हम उपयोग में लेते हैं। आपने अनुभव किया होगा कि कई बार कोई बात कहने से पहले मन ही मन जब रिहर्सल होती है तो उसकी हलचल कंठ पर ही होती है। मैने ऐसे उदाहरण भी देखे हैं कि कोई व्यक्ति जो वाक्य बोलता है तो ठीक तुरंत बाद कंठ पर हुई हलचल बुदबुदाने के रूप में सामने आती है। चूंकि शब्दों का संबंध सीधे कंठ से है, इस कारण भाषा विशेष में विचार करते समय कंठ पर ऊर्जा केन्द्रित होती है। जरा गहरे में जा कर देखिए, सोचते समय भले ही वाणी मौन होती है, मगर कंठ व जीभ पर वाक्य हलचल कर रहे होते हैं। इस यूं समझिये। जैसे हम मन ही मन राम नाम का उच्चारण करते हैं तो बाकायदा जीभ पर वैसी ही क्रिया होती रहती है, जैसी राम नाम का उच्चारण करते वक्त होती है। अर्थात विचार करने के दौरान मस्तिष्क तो आवश्यक रूप से काम कर ही रहा होता है, मगर हमारी ऊर्जा, जिसे प्राण भी कह सकते हैं, कंठ पर भी सक्रिय होती है। इस ऊर्जा के कारण मस्तिष्क की तरह कंठ भी ट्रांसमीटर की तरह काम करता है। वह भी बाह्य जगत की तरंगों को ग्रहण करता है। जैसे ही हमें कोई याद करता है तो उसकी तरंगों का हमारे कंठ पर असर पड़ता है, वहां खिंचाव होता है और हिचकी आने लगती है। जैसे ही हम याद करने वाले का नाम लेते हैं तो वर्तुल पूरा हो जाता है और हिचकी आना बंद हो जाती है। ऐसा मेरा नजरिया है। हालांकि मुझे इस बात का अहसास है कि मेरी जो भी अनुभूति है, उसे ठीक से शब्दों में अभिव्यक्त नहीं पाया हूं, मगर मेरी अभिव्यक्ति उसके इर्द-गिर्द जरूर है।
यह तो हुई एक बात। आपकी जानकारी में ये भी होगा कि जब हिचकी लगातार आती है, रुकती ही नहीं, न किसी का नाम लेने पर और न ही पानी पीने पर, तब उसे अच्छा नहीं माना जाता। इस कारण उसे बंद करने के प्रयास किए जाते हैं। जैसे कागज के लिफाफे में हवा भर कर वापस उसी हवा को अंदर लिया जाता है। कार्बन डाई ऑक्साइड के भीतर बार-बार जाने पर हिचकी बंद हो जाती है। ऐसी भी धारणा है कि लंबे समय हिचकी चलना किसी गंभीर बीमारी के आगमन का संकेत है। मृत्यु के सन्निकट होने पर भी लगातार हिचकी आती है। मृत्यु के समय लंबी हिचकी आती ही है और उसी के साथ प्राण बाहर निकल जाता है।
खैर, अब आते हैं वैज्ञानिक तथ्य पर। विज्ञान के अनुसार हिचकी हमारे के डायफ्राम सिकुडऩे से आती है। डायफ्राम एक मांसपेशी होती है, जो छाती के खोखल को हमारे पेट के खोखल से अलग करती है। ये सांस लेने की प्रक्रिया में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। फेफड़ों में हवा भरने के लिए डायफ्राम का सिकुडऩा जरूरी होता है। जब हिचकी आती है, तब डायफ्राम को नियंत्रित करने वाली नाडिय़ों में कुछ उत्तेजना होती है, जिसकी वजह से डायफ्राम बार-बार सिकुड़ता है और हमारे फेफड़े तेजी से हवा अंदर खींचते हैं। ऐसा जोर से हंसने, तेज मिर्च वाला खाना खाने, जल्दी-जल्दी खाने या फिर पेट फूलने से हो सकता है। अर्थात उत्तेजना का कारण होती है वायु। अमूमन वायु डकार से बाहर आ जाती है, लेकिन कभी-कभी ये खाने के बीच फंस जाती है। उसे निकालने की शारीरिक क्रिया ही हिचकी है।
जानकार लोग हिचकी बंद करने के उपाय भी बताते हैं, उनमें कुछ इस प्रकार हैं- ठंडा पानी पीएं या आइस क्यूब्स मुंह में रख कर धीरे-धीरे चूसें। दालचीनी का टुकड़ा मुंह में डाल कर चूसें। गहरी सांस लें, जितनी देर हो सके सांस रोकें। लहसुन, प्याज या गाजर का रस सूंघें। पिसी हुई काली मिर्च शहद के साथ चाटें। शक्कर या चॉकलेट चूसें। नीबू के रस में शहद और थोड़ा-सा काला नमक मिला कर चाटें।

-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

क्या उम्र बढ़ाई जा सकती है?

मौत अंतिम सत्य है, यह हर आदमी जानता है, मगर मरना कोई नहीं चाहता। मौत से बचना चाहता है। रोज लोगों को मरते देखता है, मगर खुद के मरने की कल्पना तक नहीं करता। इसी से जुड़ा एक सत्य ये भी है कि हर व्यक्ति लंबी उम्र चाहता है। यही जिजीविषा उसे ऊर्जावान बनाए रखती है। दिलचस्प बात ये है कि जन्मदिन पर हमें पता होता है कि हमारी निर्धारित उम्र, यदि है तो, में एक और साल की कमी हो गई है, मगर फिर भी खुशी मनाते हैं। समझ ही नहीं आता कि किस बात की खुशी मनाई जाती है? क्या इस बात की कि इसी दिन हम इस जमीन पर पैदा हुए थे? पैदा तो लाखों-करोड़ों लोग हो रहे हैं, मर भी रहे हैं, उसमें नया या उल्लेखनीय क्या है? मेरा नजरिया ये है कि अगर वाकई हमने इस संसार में आ कर कुछ उल्लेखनीय किया है तो समझ भी आता है कि लोग हमारा जन्मदिन मनाएं, वरना सामान्य जिंदगी में जन्मदिन मनाने जैसा क्या है? या फिर ये भी हो सकता है कि तनाव भरी जिंदगी में जन्मदिन के बहाने हम खुशी का आयोजन करते हैं। इस मौके पर सभी लोग हमारी लंबी उम्र की दुआ करते हैं। सवाल ये उठता है कि क्या वाकई ऐसी दुआओं से उम्र लंबी होती है? यदि हम मानते हैं कि हर आदमी एक निर्धारित उम्र लेकर पैदा हुआ है तो फिर हमारी अधिक जीने की इच्छा या दुआ से क्या हो जाएगा? मन बहलाने से अधिक इसका क्या महत्व है?
किसी व्यक्ति विशेष की उम्र बढ़ाई जा सकती है या नहीं, यह अलग विषय है, मगर यह सच है कि आयुर्वेद सहित जितने भी विज्ञान हैं, वे सार्वजनिक रूप से इस प्रयास में जुटे हैं कि निरोगी रहते हुए उम्र को बढ़ाया जाए। औसत आयु बढ़ी भी है। शिशु मृत्यु दर घटाई जा सकी है। विज्ञान मानता है कि आदमी 14 मैच्योरिटी पीरियड्स तक जी सकता है। एक मैच्योरिटी पीरियड में तकरीबन 20 से 25 साल माने जाते हैं। अर्थात आदमी अधिकतम 350 साल जी सकता है। यह एक बेहद आदर्श स्थिति है। हालांकि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार आदमी की उम्र एक सौ साल मानी जाती है, बावजूद इसके ऐसे अनेक लोग हैं जो एक सौ साल से भी तीस-पैंतीस साल अधिक जीये। आज भी हम सुनते हैं कि अमुख शहर में अमुक व्यक्ति एक सौ पच्चीस साल में उम्र में मरा। यानि शतायु की अवधारणा औसत आयु के रूप में की गई है। यही वजह है कि शतायु होने की दुआ की जाती है।
अब बात करते हैं इस पर कि क्या हम अपनी आयु को बढ़ा सकते हैं? यह एक मौलिक तथ्य है कि अमूमन आदमी की मौत किसी बीमारी की वजह से होती है। या फिर बूढ़े होने के कारण शरीर के विभिन्न अंगों के शिथिल होने पर आदमी अंतत: मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यदि स्वास्थ्य बरकरार रखा जा सके या बुढ़ापे को रोका जा सके तो और अधिक जीया जा सकता है।
विज्ञान मानता है कि उम्र बढऩे के साथ सेंससेंट सेल बढ़ते हैं। यदि इनको शरीर से हटाया जा सके तो आयु को बढ़ाया जा सकता है। केवल इतना ही काफी नहीं है। उसके लिए यह भी जरूरी है कि विशेष प्रकार का प्रोटीन, जो स्वस्थ सेल में होता है. वह शरीर में बढ़ाया जाए।
धरातल कर सच ये है कि लगभग पचास साल के बाद अमूमन ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां घेरने लगती हैं। हार्ट अटैक व ब्रेन हैमरेज के कारण अचानक मौत हो जाती है। इन बीमारियां से बचने के लिए आदर्श जीवन पद्धति अपनाने की सीख दी जाती है। शुद्ध जलवायु पर जोर दिया जाता है। शुद्ध जल का पान करने की सलाह दी जाती है, क्योंकि लगभग 70 प्रतिशत रोग जल की अशुद्धता से ही होते हैं। इसी शुद्ध वायु की भी महिमा है। वायु प्रदूषण से बचने को कहा जाता है। प्राणायाम करने को कहा जाता है। अच्छी नींद भी स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक मानी जाती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए ध्यान की भी महिमा बताई गई है।
ध्यान की बात आई तो एक बहुत महत्वपूर्ण बात याद आ गई। आपने सुना होगा कि अमुक ऋषि डेढ़ सौ साल जीये। तीन सौ साल तक जीने की भी किंवदंतियां है। वह कैसे संभव हो सका? जानकारों का मानना है कि भले ही हमारी तथाकथित निर्धारित उम्र वर्षों में गिनी जाती हो, मगर सच ये है कि जन्म के समय ही यह तय हो जाता है कि अमुक व्यक्ति का शरीर कितनी सांसें लेकर मृत्यु को प्राप्त होगा। अर्थात सांस लेने व छोडऩे की अवधि को बढ़ा कर भी उम्र बढ़ाई जा सकती है। जैसे मान लो हम एक मिनट में दस बार सांस लेते हैं, लेकिन यदि एक मिनट में एक ही बार सांस लें तो हमने नौ सांसें बचा लीं। यानि हमारी उम्र नौ सांस बढ़ गई। प्राणायाम में सांस को बाहर या भीतर रोका जाता है। इन दोनों प्रक्रियाओं के पृथक-पृथक लाभ हैं, मगर दोनों में ही एक लाभ ये भी होता है कि सांसों का बचाव हो जाता है व उतनी ही उम्र बढ़ जाती है। हमारे ऋषि-मुनियों-योगियों ने प्राणायाम से ही अपनी उम्र बढ़ाई है। आपको पता होगा कि कछुए व व्हेल मछली की उम्र बहुत अधिक होती है, उसका कारण ये है कि उनकी श्वांस लेने और छोडऩे की गति आदमी से बहुत कम है। वृक्षों में पीपल व बड़ के साथ भी ऐसा ही है। उनकी सांस की गति काफी धीमी है, इसी कारण उनकी उम्र अधिक होती है।
कुल जमा निष्कर्ष ये निकलता है कि प्रकृति हमारी उम्र की गणना दिनों या वर्षों में नहीं करती, बल्कि वह उसका निर्धारण सांसों की गिनती से करती है। योगी बताते हैं कि जब भी हम सांस को रोकते हैं तो उस अवधि में समय स्थिर हो जाता है। रुक जाता है। अर्थात भौतिक उपायों के अतिरिक्त यदि हम नियमित प्राणायाम करें तो अपनी उम्र को बढ़ा सकते हैं।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
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सोमवार, 17 फ़रवरी 2020

अकेले ओम पर ध्यान केन्द्रित करना खतरनाक हो सकता है

ओम् की बड़ी महिमा है। इस शब्द, जो कि मूलत: ध्वनि मात्र है, के बारे में दुनिया भर के विद्वानों ने भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की हैं। जहां तक मेरी समझ है, ओम् के बारे में जितना कहा या लिखा गया है, शायद की किसी अन्य शब्द के बारे में कहा गया हो। चाहे इसकी खोज के बारे में, चाहे इसकी आकृति के बारे में, चाहे इसके अर्थ को लेकर, चाहे इसकी उपयोगिता के संदर्भ में, इतनी जानकारी उपलब्ध है, जिस पर पूरा ग्रंथ बन सकता है। वस्तुत: ओम् के बारे में जितना कुछ जानें, वह अधूरा ही रहेगा। मेरी तो धारणा यह है कि ओम् के बारे में अभी और खोज होनी बाकी है। अभी और नए अनुभव सामने आ सकते हैं।
इस सिलसिले में मुझे स्वर्गीय श्री रामसुखदास जी महाराज की बात याद आती है, जो कि उन्होंने अजमेर के सुभाष उद्यान में श्रीमद्भागवत कथा के दौरान कही थी। उन्होंने कहा था कि गीता पर उन्होंने अनेक बार प्रवचन किए हैं, गीता को बहुत कुछ जाना है, मगर जब भी वे प्रवचन करते हैं तो हर बार नए अर्थ निकल कर आते हैं। ऐसा लगता है कि हर बार कुछ छूट जाता है कहने से। इसे मैं ओम् के संदर्भ में लेता हूं।
हर बार नया अनुभव होने की बड़ी वजह है। इस दुनिया में हर व्यक्ति अनूठा है, हर आदमी अलग है, थोड़ी बहुत शक्ल मिल सकती है, मगर फिर भी यह पक्का है कि किसी भी व्यक्ति की हूबहू कॉपी असंभव है। इसी यूनिकनेस के कारण ही तो अंगूठे की निशानी को व्यक्ति की इकलौती पहचान माना गया, जिसका कि उपयोग आधार कार्ड में किया जाता है। ये तो हुई शक्ल की बात। अंदर से भी हर शख्स की अनुभूति अलग होती है। जितने भी लोगों ने ओम् को जाना है और व्यक्त किया है, बाद में जानने वालों की अनुभूति उनसे अलग ही होगी। यूनिकनेस के कारण। इसी कारण ओम् अनंत है, अनादि है।
खैर, मैं मुद्दे पर आता हूं। मैने जितना जाना, समझा, उसकी बात करता हूं। अव्वल तो ब्रह्मांड में सतत गूंज रही ओम् की ध्वनि का उच्चारण करना हमारे स्वर यंत्र के बस की बात नहीं। अलबत्ता वाद्य यंत्रों से जरूर उससे मिलती-जुलती ध्वनि उत्पन्न की जा सकती है। आप स्वयं भी इसे अनुभव कर सकते हैं। कभी निर्जन स्थान पर एकांत में अंगूठों से दोनों कान बंद कर लीजिए। आपको भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियां सुनाई देंगी, जो कि हमारे मस्तिष्क में पहले से संग्रहित हैं। कुछ अभ्यास के बाद गहरे एकाग्र चित्त होने पर आपको ओम् की ध्वनि सुनाई देगी। यही अनहद नाद है। प्रयास करके देखना, आप ठीक उसी प्रकार की ध्वनि का उच्चारण नहीं कर पाएंगे। ठीक वैसी ही ध्वनि पूरे ब्रह्मांड में गूंज रही है। उसकी अनुभूति की जा चुकी है। नासा ने तो उसे रिकार्ड तक किया है। वैसे तो उस ध्वनि को सुनने और उस पर सतत एकाग्रता से आप ध्यान में प्रवेश कर जाएंगे। जिनके लिए यह थोड़ा कठिन है, वे ध्यान करने के लिए स्वयं अपने स्वर यंत्र से उच्चारण करके ब्रह्मांड की ध्वनि से मेल करने की कोशिश कर सकते हैं। एक स्थिति के बाद मुंह से उच्चारण तो बंद हो जाएगा और ब्रह्मांड की ध्वनि ही सुनाई देने लगेगी। इस अवस्था में भय उत्पन्न होने की पूरी संभावना है, क्योंकि जब हम अपने में स्थित हो जाते हैं तो पूरी तरह से अकेले हो जाते हैं। यह अकेलापन भयभीत कर सकता है, क्योंकि हमारा आधार खो जाता है। हम सहारे में जीने के आदी हैं, इस कारण जैसे ही स्वच्छंता की स्थिति आती हो तो डर पैदा हो सकता है।
वैसे भी हम सब जानते हैं कि अकेलेपन में अमूमन हमें डर लगता है। आपने खुद अनुभव किया होगा कि रात के समय यदि हम सन्नाटे से गुजरते हैं तो अकेलापन दूर करने के लिए या तो किसी देवी-देवता के नाम का उच्चारण करते हैं या फिर कोई गाना गुनगुनाते हैं। वह गुनगुनाहट ऐसा महसूस करवाती है, मानो हमारे साथ कोई है, हम अकेले नहीं हैं। इसे समझिये। यह अकेलापन तो भौतिक मात्र है, जो डर पैदा करता है। जरा सोचिए, ध्यान के दौरान का अकेलापन कितना भयभीत कर सकता है। उसमें तो खुद के खो जाने का अंदेशा लग सकता है। मैं स्वयं उस डर से गुजरा हूं। कुछ और अनुभूतियां भी हुई हैं, जिन्हें शब्दों में अभिव्यक्त करना कठिन है। कभी संभव हुआ तो जरूर करूंगा।
फिर मुद्दे पर आते हैं। जानकरों का मानना है कि ओम् पर ध्यान केन्द्रित होने के साथ ही हम भीतर से पूरी तरह से खाली हो जाते हैं। उस खाली स्थान को भरने के लिए ब्रह्मांड में विचरण कर रही नकारात्मक शक्तियां दौड़ कर हमारे पास आ सकती हैं। परिणामस्वरूप नुकसान भी हो सकता है। कल्पनातीत अनुभूतियां हो सकती हैं। विक्षिप्तता का भी खतरा हो सकता है। अमूमन नकारात्मक शक्तियों को रोकने अथवा उनसे बचने की हमारी तैयारी नहीं होती। कदाचित किसी योगी के मार्गदर्शन में ध्यान करने पर कुछ सुरक्षा हो सके। यही वजह है कि अनेक विद्वान सलाह देते हैं कि अकेले ओम् पर ध्यान नहीं करना चाहिए। ओम् के साथ किसी भी मंत्र का उच्चारण कर सकते हैं। ओम् का उच्चारण जहां हमें ब्रह्मांड से जोड़ता है, वहीं मंत्र सहारा बन जाता है, ब्रह्मांड की समग्र शक्ति को आत्मसात करने में। वह हमें प्रोटेक्ट करता है। मंत्र के शुरू में ओम् की ध्वनि का प्रयोजन ही ये है कि पहले हम ब्रह्मांड से कनैक्ट हों और फिर उसकी ऊर्जा मंत्र के साथ जुड़ जाए। भिन्न-भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न फल होते हैं, ये तो हम सब जानते ही हैं।
यह सब मेरे स्वाध्याय, अब तक के अनुभव और अध्ययन से संग्रहित जानकारी की निष्पत्ति है। संभव है आपकी अनुभूति कुछ और हो। मेरी अनुभूति में जब भी इजाफा होगा, आपसे फिर साझा करूंगा।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

हमारी छाया में भी छिपे हुए हैं राज

पिछले एक ब्लॉग में हमने आइने में दिखने वाले प्रतिबिंब के बारे में चर्चा की थी कि हालांकि उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है, फिर भी उसकी महत्ता है। अब हम चर्चा कर रहे हैं छाया की। छाया अर्थात सूर्य अथवा रोशनी के सामने आने वाली वस्तु के पीछे बनने वाली आकृति की। हम यही जानते और समझते हैं कि छाया का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं। उसका भला क्या महत्व हो सकता है? बात ठीक भी लगती है। मगर हमारी संस्कृति में इस पर भी बहुत काम हुआ है। हमारे शरीर की छाया के बारे में बात करने से पहले हम चर्चा कर लेते हैं छाया के कारण से होने वाले सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण की। हम सब जानते हैं कि ये छाया की ही परिणाम स्वरूप घटित होते हैं। इस पर बड़े वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति में बहुत पहले ही खोज हो चुकी है कि इनका मानव सहित चराचर जगत पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यही वजह है कि ज्योतिष विज्ञानी बताते हैं कि सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण के दौरान कौन कौन से काम नहीं करने चाहिए।
आपको यह भी जानकारी होगी कि किसी व्यक्ति में असामान्य लक्षण पाए जाने पर कहा जाता है कि उस पर किसी की छाया पड गई है। अमूमन यह बात किसी भूत-प्रेत आदि के संदर्भ में कही जाती है। परियों की छाया पड जाने के बारे में भी आपने सुना होगा। किसी व्यक्ति के विचारों या आचारण पर किसी व्यक्ति का प्रभाव दिखाई देने पर भी कहा जाता है कि उस पर उस अमुक व्यक्ति की छाया पड गई है। जिन लोगों ने तंत्र विद्या के बारे में पढ़ा अथवा सुना है, उनकी जानकारी में होगा कि तांत्रिकों ने भी लक्षित परिणाम पाने के लिए छाया का प्रयोग किया है।
खैर, अब चर्चा करते हैं हमारे शरीर की छाया की। इस बारे में मुझे जो जानकारी मिली है, वह आपसे साझा करना चाहता हूं। छाया के महत्व के बारे में शिव स्वरोदय में विस्तार से चर्चा की गई है। शिव स्वरोदय भारतीय प्राकृतिक विज्ञान है। इसमें भगवान शिव प्रकृति के रहस्यों के बारे में माता पार्वती को जानकारी देते हैं।
शिव स्वरोदय में बताया गया है कि एकान्त निर्जन स्थान में जाकर और सूर्य की ओर पीठ करके खड़ा हो जाएं या बैठ जाएं। फिर अपनी छाया के कंठ भाग को देखे और उस पर मन को थोड़ी देर तक केन्द्रित करें। इसके बाद आकाश की ओर देखते हुए ह्रीं परब्रह्मणे नम: मंत्र का 108 बार जप करना चाहिए अथवा तब तक जप करना चाहिए, जब तक आकाश में भगवान शिव की आकृति न दिखने लगे। छह मास तक इस प्रकार अपनी छाया की उपासना करने पर साधक को शुद्ध स्फटिक की भांति आलोक युक्त भगवान शिव की आकृति का दर्शन होता है। यदि वह रूप (भगवान शिव की आकृति) कृष्ण वर्ण का दिखाई पड़े, तो साधक को समझना चाहिए कि आने वाले छह माह में उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। यदि वह आकृति पीले रंग की दिखाई पड़े, तो साधक को समझ लेना चाहिए कि वह निकट भविष्य में बीमार होने वाला है। लाल रंग की आकृति दिखने पर भयग्रस्तता, नीले रंग की दिखने पर उसे हानि, दुख तथा अभावग्रस्त होने का सामना करना पड़ता है। यदि आकृति बहुरंगी दिखाई पड़े, तो साधक पूर्णरूपेण सिद्ध हो जाता है।
यदि चरण, टांग, पेट और बाहें न दिखाई दें, तो साधक को समझना चाहिए कि निकट भविष्य में उसकी मृत्यु निश्चित है। यदि छाया में बायीं भुजा न दिखे, तो पत्नी और दाहिनी भुजा न दिखे, तो भाई या किसी घनिष्ट मित्र अथवा समबन्धी एवं स्वयं की मृत्यु निकट भविष्य में निश्चित है। यदि छाया का सिर न दिखाई पड़े, तो एक माह में, जंघे और कंधा न दिखाई पड़ें तो आठ दिन में और छाया न दिखाई पड़े, तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है। यदि छाया की उंगलियां न दिखाई पड़ें, तो तुरन्त मृत्यु समझना चाहिए। कान, सिर, चेहरा, हाथ, पीठ या छाती का भाग न दिखाई पड़े, तो भी समझना चाहिए कि मृत्यु एकदम सन्निकट है। लेकिन यदि छाया का सिर न दिखे और दिग्भ्रम हो, तो उस व्यक्ति का जीवन केवल छ: माह समझना चाहिए।
हालांकि मैने इस तथ्य की गहराई को अभी तक नहीं जाना है, न ही मेरा कोई अनुभव है, लेकिन शिव स्वरोदय में जिस प्रकार लिखा गया है, उससे यह तो समझ में आता ही है कि हमारे ऋषियों ने छाया का गहन अध्ययन किया है और उसका अपना विशेष महत्व है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

ईश्वर वाकई अव्याख्य है

पूरी कायनात सुव्यवस्थित तरीके से चल रही है। निश्चित रूप से यह कहीं न कहीं से संचालित हो रही है। कोई न कोई तो इसे चला ही रहा है। वह भले ही हमारी तरह कोई मानव या महामानव न हो, मगर एक केन्द्र बिंदु जरूर है, एक पावर सेंटर जरूर है, जिसके इर्द-गिर्द पूरा संसार फैला हुआ है, जहां से पूरा सिस्टम गवर्न हो रहा है। उसी को हम ईश्वर या खुदा कहते हैं। जिन भी ऋषियों-मुनियों, साधु-संन्यासियों, विद्वानों व दार्शनिकों ने स्वयं को जाना है और उस परम सत्ता को जानने की कोशिश की है, वे उसे अभिव्यक्त करने की कोशिश करते रहे हैं। असल में अभिव्यक्ति हमारा मौलिक स्वभाव है। हम जो कुछ भी अनुभव करते हैं, उसे अभिव्यक्त करने की कोशिश करते हैं। उसे अन्य को शेयर करना चाहते हैं। उसकी व्याख्या करने का प्रयास करते हैं। ईश्वर को भी अभिव्यक्त करने के भरपूर प्रयास हुए हैं। मगर उसे पूरा अभिव्यक्त नहीं किया जा सका है। वेद भी उसकी व्याख्या करते करते आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं। यानि कि वह अव्याख्य है। तभी तो कहा है कि हरि अनंत, हरि कथा अनंता। अंत ही नहीं है। न आदि है, न अंत है।
वह वाकई अव्याख्य है। संभव ही नहीं है उसकी व्याख्या करना। जरा सोचिए जिस हवा के स्पर्श को हम अनुभव करते हैं, उस तक की व्याख्या नहीं कर पाते। जैसे गुड़ को चखने पर हम उसे मीठा कहते हैं। हर किसी ने उसे चखा है, इस कारण वह भी मानता है कि गुड़ मीठा है। गुड़ का जो स्वाद है, उसका नामकरण हमने मीठा कर दिया है। कुछ और नाम दे देते तो वह हो जाता। मगर यदि कोई आपसे कहे कि जरा गुड़ की मिठास की व्याख्या कीजिए कि मीठा माने क्या तो क्या हम उसे अभिव्यक्त कर सकते हैं? क्या शब्दों में बता सकते हैं? नहीं। क्योंकि मिठास अनुभव तो की जा सकती है, मगर उसकी व्याख्या संभव नहीं है। अब सोचिए कि एक भौतिक पदार्थ, जो कि दिखाई भी देता है, अपना स्वाद भी महसूस कराता है, उस तक की व्याख्या नहीं कर पाते तो भला जिसे हमने देखा नहीं, जाना नहीं, उसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है? अगर जान भी लिया है तो भी उसे शब्दों में ठीक-ठीक नहीं बता सकते। बताने की कोशिश करेंगे तो विफल हो जाएंगे। उसकी एक वजह ये भी है कि हमने जैसा और जितना जाना, उसे यदि हमने शब्दों में पिरो भी लिया हो तो भी अन्य व्यक्ति उसे समझ नहीं पाएगा, क्योंकि उसने उसे वैसा नहीं जाना-समझा, जैसा कि हमने जाना-समझा है। हां, इशारा मात्र हो सकता है। जैसे सभी को दिखाई देने वाले चांद को हम हाथ में पकड़ कर यह नहीं बता सकते कि यह रहा चांद। हम उस ओर इशारा मात्र कर पाते हैं। अर्थात ईश्वर की जितनी व्याख्याएं हैं, वे सब की सब इशारा मात्र हैं। संपूर्ण नहीं हैं।
इस सिलसिले में मुझे ओशा के प्रवचन में कहे गए एक प्रसंग का ख्याल आता है। हमें पता है कि महाकवि रविन्द्र नाथ ठाकुर ने गीतांजलि लिखी। ईश्वर की व्याख्या करने वाली इस पुस्तक पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। ओशो बताते हैं कि रविन्द्र नाथ रोजना जब मॉर्निंग वाक पर निकलते थे तो गली के नुक्कड पर अपने घर के बाहर बैठा एक बुजुर्ग उन्हें रोकता और आंख में आंख डाल कर पूछता कि क्या आपने ईश्वर को देखा है, ईश्वर को अनुभव किया है, आपने तो गीतांजलि लिखी है, इस पर वे उसका कोई जवाब नहीं दे पाते थे। हो सकता है कि वे जवाब दे भी पाते होंगे तो भी उस बजुर्ग को नहीं बताते हों कि उसे समझ में नहीं आएगा।
खैर, एक दिन जब रविन्द्र नाथ समुद्र किनारे सैर करने गए तो क्षितिज पर उगते सूर्य की लालिमा देख कर, लहरों पर अठखेलियां करती हवा की सरसराहट व पक्षियों की चहचहाहट सुन कर उस मंजर में यकायक स्तब्ध रह गए। ठहर गए। अचानक उन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हो गया। जब वे सैर करके लोट रहे थे तो उनकी मदमस्त चाल और आंखों की चमक देख कर बुजुर्ग जान गया कि आज जरूर रविन्द्र नाथ ईश्वर का साक्षात्कार करके लौट रहे हैं। आज उस बुजुर्ग की हिम्मत नहीं हुई कि वह उनकी आंखों में आंखें गढ़ा कर ये पूछ सके कि क्या तुमने ईश्वर देखा है। वह बुजुर्ग दौड़ कर घर के अंदर भाग गया।
इस प्रसंग का अर्थ ये है कि जब तक रविन्द्र नाथ ने गीतांजलि लिखी, तब तक उनका ईश्वर से साक्षात्कार नहीं हो पाया था। भले ही ईश्वर को उन्होंने बहुत कुछ जान लिया होगा और उसे अपनी रचना में अभिव्यक्त किया होगा, मगर पूरा तो बाद में ही जाना। बताते हैं कि ईश्वर से साक्षात्कार के बाद उनकी स्थिति विक्षिप्त सी हो गई थी। वे पेड़ों से लिपट कर रोया करते थे। हर जगह उन्हें ईश्वर की दिखाई देने लगा। यानि वे ईश्वरमय हो गए, मगर अपनी उस अवस्था के बारे में बताने के लायक नहीं रहे।
इस प्रसंग के मायने ये हैं कि ईश्वर से साक्षात्कार से पहले की सारी व्याख्या अधूरी है। जिस दिन जान लिया, उस दिन उसकी व्याख्या करना असंभव हो गया। इसे कहते हैं गूंगे का गुड़, यानि कि वह गुड़ की मिठास का आनंद तो ले रहा है, मगर बता नहीं सकता कि गुड़ कैसा है?

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

सोमवार, 3 फ़रवरी 2020

दर्पण में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब का वजूद क्या है?

क्या आपने कभी सोचा है कि आइने अर्थात दर्पण में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब का वजूद क्या है? वह आखिर है क्या? जब तक हम दर्पण के सामने खड़े रहते हैं, तब तक वह दिखाई देता है और हटते ही वह भी हट जाता है। तो जो दिखाई दे रहा था, वह क्या था? हटते ही वह कहां खो जाता है? यह सही है कि उसका अपने आप में कोई वजूद नहीं, मगर वह कुछ तो है। वस्तुत: प्रतिबिंब के वजूद में प्रकाश का ही महत्व है। जैसे ही हमारे चेहरे पर प्रकाश पड़ता है, तो आइने में उसका प्रतिबिंब बनता है और जैसे ही प्रकाश हटता है व अंधेरा होता है तो वह भी दिखाई देना बंद हो जाता है। विज्ञान की भाषा में यह रिफ्लेक्शन अर्थात किरणों परावर्तन है। हमारे चेहरे पर पडऩे वाली किरणें चमकीली सतह से रिफ्लेक्ट हो कर वापस लौटती हैं, और हमें अपना प्रतिबिंब दिखाई देता है। प्रतिबिंब क्या, हमारा बिंब भी किरणों के परावर्तन के कारण दिखाई देता है। प्रकाश का यही खेल छाया भी बनाता है। प्रकाश के सामने खड़े होने पर हमारे पीछे छाया दिखाई देती है। छाया यानि वह दृश्य जो कि प्रकाश की किरणें रुकने की वजह से बनती है। उसका अपने आप में कोई वजूद नहीं। हम हैं तो वह है, अन्यथा नहीं। हम सब को जानकारी है ही कि सिनेमा के पर्दे पर दिखाई देने वाले चित्र भी प्रकाश व अंधेरे का ही खेल हैं।
खैर, हम बात कर रहे थे प्रतिबिंब की। भले ही इसका स्वतंत्र वजूद नहीं, मगर इसका भी महत्व है। आपको जानकारी होगी कि ज्योतिषी व तांत्रिक बताते हैं कि तेल, विशेष रूप से सरसों के तेल में अपना प्रतिबिंब देख कर उस तेल को दान करने से शनि का प्रकोप कम होता है। जिन पर शनि की साढ़े साती का प्रभाव है, उनको ये उपाय बताया जाता है। अर्थात प्रतिबिंब अपने साथ हमारी कुछ ऊर्जा, जिसे नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं, ले जाता है। प्रतिबिंब का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सामुद्रिक शास्त्र में बताया जाता है कि अगर पानी में हमारा प्रतिबिंब दिखाई देना बंद हो जाए तो जल्द ही मृत्यु हो जाती है। अर्थात मृत्यु से पहले प्रतिबिंब बनना बंद हो जाता है।
दर्पण में बनने वाले प्रतिबिंब का उपयोग वास्तु शास्त्रानुसार भी किया जाता है। वास्तु दोष समाप्त करने के लिए स्थान विशेष पर दर्पण लटकाया जाता है। चूंकि दर्पण सिर्फ सामने का प्रतिबिंब दिखाता है, पीछे का नहीं, इस कारण आपने देखा होगा कि कटिंग पीछे कैसी हुई है, उसे दिखाने के लिए ब्यूटीशियन आगे व पीछे दर्पण रख कर वह हमें प्रतिबिंब का भी प्रतिबिंब दिखाता है।
वस्तुत: प्रतिबिंब एक भ्रम है। चूंकि हमको तो पता होता है कि वह हमारा प्रतिबिंब है, इस कारण भ्रमित नहीं होते, मगर अक्सर चिडिय़ा भ्रमित हो जाती है। आपने देखा होगा कि आइने के सामने खड़ी हो कर चिडिय़ा दिखाई देने वाले प्रतिबिंब को चोंच मारती है, चूंकि उसे भ्रम हो जाता है कि सामने कोई और चिडिय़ा है।
हमारे यहां तो परंपरा है कि छोटे बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में नहीं दिखाया जाता। मुंडन के बाद ही बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में दिखाने की छूट होती है। इसकी वजह क्या है, यह खोज का विषय है। ऐसी भी परंपरा है कि दूल्हा जब तोरण मारने आता है तो उसे दुल्हन को सीधे नहीं दिखाया जाता। उनको एक दूसरे के दर्शन पहले दर्पण में कराए जाते हैं। इसका भी कारण जाना चाहिए।
आपने ऐसा सुना होगा कि ऐसे दर्पण को बनाया जा चुका है, जिसके सामने जाने पर वस्त्र ओझल हो जाते हैं और हम पूरे नग्न दिखाई देते हैं। यह कितना सच है, पता नहीं। कदाचित एक्स-रे जैसी कोई तकनीक होगी।
दुनिया में ऐसे लोग भी हैं जो आइने में अपना प्रतिबिंब नहीं देखते। उसके पीछे उनकी धारणा ये है कि प्रतिबिंब से हमें अपनी पहचान दिखाई देती है कि लोगों कैसे दिखाई देते हैं। यदि हमारे चेहरे प्रतिबिंब हम देख लेते हैं तो उससे हमारा अटैचमेंट हो जाता है। हमें आभास होता है कि हम कैसे दिखते हैं। वह मोक्ष प्राप्ति में बाधक बनता है। मोक्ष का अर्थ ही ये है कि अपनी आइडेंटिटि मिटाना। अहम को समाप्त करना।
आज हम बड़ी आसानी से दर्पण में अपना चेहरा देख पाते हैं, लेकिन जब इसका अविष्कार नहीं हुआ था, तब ठहरे हुए पानी में चेहरा देखा जाता था। ऐसा लगता है कि दर्पण की खोज का पहला बिंदु ही पानी में चेहरा दिखाई देना रहा होगा। जानकारी के अनुसार आज से तकरीबन 8 हजार साल पहले ओब्सीडियन नाम के एक पत्थर के ऊपर पोलिश करके शीशा बनाया गया था। यह पत्थर एक ज्वालामुखीय प्रदार्थ था, जो एक कांच की तरह होता था। बताया जाता है कि लगभग 6 हजार ईसा पूर्व के आसपास एनोटोलिया अर्थात तुर्की में लोग इस पत्थर का इस्तेमाल करते थे इसी प्रकार चार हजार साल पहले मेसोपोटामिया में पॉलिश किए गए तांबे का इस्तेमाल दर्पण के रूप में किया जाता था। बाद में मिस्र वासियों ने भी इसका उपयोग किया। करीब 2 हजार ईसा पूर्व से चीन और भारत में भी तांबा, कास्य और मिश्रित धातु के द्वारा शीशे का उत्पादन किया गया। बाद में चीन में चांदी और पारे को मिला कर धातु पर कोटिंग करके दर्पण बनाना शुरू किया। सोलहवीं सदी में वेनिस शीशे के उत्पादन करने का एक केंद्र बन गया। पहले आधुनिक शीशे का आविष्कार जर्मन केमिस्ट जस्टस वॉन लाईबिग ने किया। 1835 में जर्मन केमिस्ट जस्टस वॉन लाईबिग को चांदी और गिलास से निर्मित दर्पण का आविष्कारक माना जाता है।

-तेजवानी गिरधर
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