शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

देवी-देवताओं की जय क्यों बोलते हैं?

 

हम देवी-देवताओं, साधु-महात्माओं की जय बोलते हैं। भारत माता की भी जय भी बोलते हैं। विशिष्ट दिवंगत हस्तियों की भी जय बोलने का चलन है। आशीर्वाद के रूप में भी इस शब्द का उपयोग किया जाता है। क्या आपने कभी विचार किया है कि जय बोलने का अर्थ क्या है?

वस्तुत: जय शब्द का अर्थ होता है जीत। स्पष्ट रूप से जीत से ही इस शब्द का आशय है। प्रकृति में सदा सकारात्मक व नकारात्मक शक्तियों के बीच संघर्ष जारी रहता है। यही उसका स्वभाव है। हमारी इच्छा ये होती है कि सकारात्मक शक्तियों की ही जीत हो। उसी में हमारी भी भलाई होती है। जब हम देवी-देवताओं की जय बोलते हैं तो इसका अर्थ ये है कि उनकी सदा जीत हो। जीत किससे? स्वभाविक रूप से दानवों से। आसुरी शक्तियों से। हालांकि हम जय बोलने वालों को ये पता नहीं होता कि हम ऐसा क्यों बोल रहे हैं, हम तो उनकी महानता के आगे नतमस्तक होने का भाव रखते हैं, लेकिन वास्तविक भाव ये होता है कि देवी-देवताओं की सत्ता सदैव कायम रहे। सकारात्मक शक्तियों की जीत हो। इसमें तनिक याचना का भी भाव सम्मिलित होता है।

ऐसा नहीं है कि हमारी दुआ से, याचना से, कामना से उनकी जीत होनी है, शब्दों से प्रतीत भर ऐसा होता है, बल्कि आशय भिन्न है। हमारा यकीन है कि उनकी तो सदा जीत ही है। एक तरह से यह आदरपूर्वक, प्रशंसा सूचक शब्द है। उनकी जय का उद्घोष मात्र है। हम जय के नारे के माध्यम से उनकी महानता का बखान कर रहे होते हैं।

इसी प्रकार भारत माता की जय के मायने हैं कि विश्व में उसकी विजय पताका सदा फहराती रहे। इसी तरह विशिष्ट व्यक्तियों की जय के मायने हैं कि उनकी कीर्ति सदा कायम रहे।

जहां तक किसी के आशीर्वाद के रूप में इस शब्द का प्रयोग करने की बात है तो उसका अर्थ ये है कि हमारे अभिवादन के प्रत्युत्तर में आशीर्वाद देने वाला हमारी जीत होने का वरदान दे रहा होता है। जीत की कामना कर रहा होता है।

जय हो, यह एक जुमला भी है। कोई भी जब कुछ अच्छा कार्य करता है या सफलता हासिल करता है तो भी हम जय हो कह कर उसका अभिनंदन व उत्साहवद्र्धन करते हैं। किसी ने कोई अच्छी बात कही हो तो भी प्रत्युत्तर में जय हो कह कर उसका समर्थन करते हैं।

वाकई बहुत कीमती शब्द है ये। जय हो।


-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 17 अगस्त 2020

उनका नाम हंसमुख सोगानी होना चाहिए था

आपने हंसमुख शब्द सुना होगा। ये उन लोगों के लिए प्रयुक्त होता है, जो जब हंस या मुस्करा नहीं रहे होते हैं, शांत चित्त होते हैं, तब भी उनके चेहरे से हंसी प्रस्फुटित होती है, मुख मंडल पर मुस्कराहट बिखरी होती है। हरदिल अजीज श्री नवीन सोगानी इसके साक्षात उदाहरण थे। शायद ही उन्हेंं कभी किसी ने चिंतामग्र देखा हो। यथा नाम, तथा गुण की बात करें तो उनका नाम हंसमुख सोगानी होना चाहिए था। यूं नवीन शब्द भी कम सार्थक नहीं। नवीन के मायने होते हैं हर पल नया, तरोताजा। बेशक उनकी भीतर की ताजगी ही मुखार्विंद पर मुस्कराहट बन कर थिरकती थी। प्रकृति के क्रूर हाथों ने उनको हमसे छीन लिया है।

स्वर्गीय श्री सोगानी की गिनती अजमेर के चंद सजीव लोगों में होती थी। सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, शायद ही ऐसी कोई रचनात्मक गतिविधि होगी, जिसमें उनकी हिस्सेदारी न रही हो। रचनाधर्मिता निभाने वाली लगभग सभी संस्थाओं में उनकी मौजूदगी रेखांकित की जाती थी। राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल करवाने के लिए चल रहे आंदोलन से वे सदा जुड़े रहे। अजमेर वासियों के जीवन में उत्सव के रंग भरने वाले फागुन महोत्सव, कवि सम्मेलन, अजमेर लिटरेचर फेस्टिवल, अजयमेरु सांस्कृतिक समारोह सहित अनेक कार्यक्रमों में उनकी अहम भूमिका रही। सुर सिंगार, आनन्दम जैसी कितनी ही संस्थाओं में उनकी भूमिका सूत्रधार सी होती थी। मीडिया कर्मियों से उनके गहरे रिश्ते रहे और अजयमेरू प्रेस क्लब की गतिविधियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। अजमेर की बहबूदी के लिए बुद्धिजीवियों का कोई भी समूह जुटे, उनकी उपस्थिति दस्तक देती थी। समाजसेवा तो मानो उनका धर्म ही था। लायंस क्लब, महावीर सेवा समिति, अपना घर, वृद्धाश्रम आदि का कोई कार्यक्रम हो, ऐसा हो ही नहीं सकता कि वे वहां मौजूद न हों। सबसे बड़ी बात ये कि प्रसिद्धि की चाह उन्हें छू तक नहीं पाई। केवल कर्म में ही यकीन रखते थे। ऐसे सहज और सरल व्यक्ति विरले ही होते हैं। सच में वे अजमेर के लाल थे।

वे कितनी बड़ी शख्सियत थे, इसका अनुमान हास्य और व्यंग्य के जाने-माने हस्ताक्षर श्री रासबिहारी गौड़ की इस भावाभिव्यक्ति में झलकती है:- सुर सिंगार संस्था का संगीत हो, आन्नदम के ठहाके, लिटरेचर फेस्टिवल के सत्र या गांधी जी जिंदा हैं का मंचन.....बिना नवीन जी सम्भव ही नहीं थे।

बेशक अब उनकी भौतिक उपस्थिति असंभव हो गई है, मगर उनके व्यक्तित्व की महक सदा के लिए अजमेर की आबोहवा में रह कर सबको सुवासित करती रहेगी। 

ऐसे अनूठे प्रकाश स्तम्भ को शत् शत् नमन।

-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 16 अगस्त 2020

मां-बहिन पर गालियां क्यों?

शीर्षक पढ़ कर आप कहेंगे ये भी कोई लेख है। ये भी कोई लिखने का विषय है। मगर मुझे लगा कि इस लगभग अछूते विषय का भी छिद्रान्वेषण करना चाहिये, क्योंकि इससे हमारी गंदी सोच का पता चलता है। आत्मावलोकन करना कोई बुरी बात नहीं।

एक जमाना था, जब गुस्सा आने पर श्राप दिया जाता था। वह फलित भी होता था। यहां तक कि मानव योनि में अवतार धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण तक को गांधारी का श्राप भुगतना पड़ा था। उस जमाने में वरदान भी फलित होता था। इसका वैज्ञानिक आधार तलाशेंगे तो नहीं मिलेगा, मगर ऐसा विश्वास है कि श्राप व वरदान हुआ करते थे।

अब जमाना बदल गया है। अब वरदान व श्राप का चलन नहीं है। असल में अब वह क्षमता ही नहीं रही। अब किसी पर गुस्सा आने पर उसको अपशब्द कहे जाते हैं। अपने मन के क्रोध को तुष्ट करने के लिए गाली दी जाती है। गाली के माध्यम से सामने वाले को अपमानित किया जाता है। मगर अफसोसनाक व शर्मनाक बात ये है कि दो व्यक्तियों के झगड़े में एक-दूसरे की मां-बहिन को घसीटा जाता है, उनका संबोधन करते हुए गाली दी जाती है, जबकि उनका विवाद से कोई लेना-देना नहीं होता। उन्हें जबरन घसीटा जाता है। हालांकि गाली बाप-दादा व खानदान तक को भी दी जाती है, जातिसूचक अपशब्द भी कहे जाते हैं, मगर अमूमन दी जाने वाली गालियां मां-बहिन पर बनी हुई हैं। यह और भी अधिक शर्मनाक है कि ये यौन-उत्पीडऩ से जुड़ी हुई हैं। इससे आदमी की  मानसिकता का पता लगता है कि उसकी सोच कितनी कुत्सित है। और उसने मां-बहिन को क्या समझ रखा है। यानि नारी को वह यौनेच्छा पूर्ति करने वाली वस्तु समझता है। 

हमारे यहां सर्वाधिक प्रचलित गाली साला, जिसमें अब किसी को अश्लीलता नजर नहीं आती, वह भी साफ तौर पर महिला के प्रति गंदी सोच से बनी हुई है। यदि हम किसी को साला गाली देते हैं, इसका मतलब है कि हम जबरन उसकी बहन को अपनी पत्नी बता रहे हैं। हद हो गई। जानकारी के मुताबिक सेंसर बोर्ड ने हिंदी सिनेमा में इस गाली को प्रतिबंधित कर रखा है। साले का जिक्र आया है तो साली से जुडी एक बात भी साझा किए देता हूं। हम कितने गंदे हैं, इसका एक उदाहरण देखिए। यह न जाने कहां से चलन में आ गया कि साली यानि आधी घरवाली। संभव है जिसने पहली बार यह जुमला उपयोग में लिया होगा तो यह सोच कर कि साली चूंकि पत्नी की बहिन है, इस कारण हमारे स्वभाव, जरूरतों आदि के बारे में बहुत कुछ जानती है,  चूंकि बहिनें आपस में बहुत गुप्त बातें भी करती हैं। ऐसे में वह आधी घरवाली जैसी हो गई। इसमें कोई अश्लीलता नहीं, मगर बाद में इस जुमले के अर्थ बदल गए। वैसे साली बहिन के समान होती है, उसे इसी नजर से देखना चाहिए। अंग्रेजी में तो उसे सिस्टर इन लॉ ही कहा गया है। हो सकता है ऐसे लोग भी हों, जो साली को बहिन ही मानते हों, मगर यह एक कडवी सच्चाई है कि कई लोग उसे बहिन के नजरिये से नहीं देखते। कुछ और भाव ही रखते हैं। कम से कम ठीक वह भाव तो कत्तई नहीं होता, जो बहिन के प्रति होता है। जरा सोचिये कि अगर आपके आपके साढू आपकी पत्नी को आधी घरवाली कह कर पुकारें तो आपको कैसा लगेगा?

अश्लील शब्दों का प्रयोग किए बिना गाली देने के अनेक उदाहरण हैं। जैसे जब हम किसी को यह कहते हैं कि अगर असली बाप की औलाद है तो ये कर के बता, तो इसका मतलब ये कि हम उसकी मां पर गंदा लांछन लगाने की कोशिश कर रहे हैं। गालियों के मनोविज्ञान पर काम कर चुके एक विद्वान ने रामायण का जिक्र करते हुए आवरण में छिपी गाली का उल्लेख किया है कि वशिष्ट मुनि ने केकयी को ऐसा कहा कि अगर भरत दशरथ की औलाद है तो वह राजगद्दी स्वीकार नहीं करेगा। यह भी एक भद्दी गाली है, भले ही इसमें किसी अश्लील शब्द का प्रयोग नहीं किया गया हो। 

केवल मां-बहिन ही नहीं, समलैंगिता वाली गालियां भी चलन में हैं। अर्थात गाली देने के लिए यौन व्यवहार को इंगित करते हुए अपशब्द कहे जाते हैं। 

हालांकि यह सही है कि जैसे हम सामान्य तौर पर भगवान का नाम लेते हैं तो अमूमन जेहन में भगवान नहीं होता, कोरे शब्द होते हैं, उसी प्रकार मां-बहिन की गाली देते वक्त वैसा भाव नहीं होता, केवल शाब्दिक प्रहार ही होता है। सच तो ये है कि गाली ने अब तकिया कलाम का रूप धारण कर लिया है। बात-बात में बिना प्रयोजन के गाली। मैंने ऐसे लोग देखे हैं जिनके हर वाक्य में गाली होती है, जबकि उनका ऐसा कोई भाव नहीं होता। हम इतने आदी हो चुके हैं कि दुश्मन की तो छोडिय़े, मित्र से बात करते हुए भी गालियां बकते हैं और मित्र बुरा नहीं मानता, क्योंकि वह जानता है कि यह केवल बकी गई है, कही नहीं गई। 

हालांकि जब औरतें आपस में लड़ती हैं तो कुछ अलग किस्म की गालियां बकती हैं, यथा वैधव्य को लेकर, मगर अधिसंख्य यौनाचार को लेकर ही होती हैं। अंग्रेजी में जैसे बिच शब्द के संबोधन से गाली दी जाती है, ठीक उसी प्रकार हिंदी में वैश्या सूचक शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं। यह कितना हास्यास्पद है कि कई ऐसी औरतें भी हैं, जो पुरुषों द्वारा उपयोग में ली जाने वाली गालियों का इस्तेमाल करती है। उन्हें समझ ही नहीं होती कि वे कर क्या रही हैं। भले ही वे प्रचलित गालियों का उपयोग गुस्से का इजहार करने के लिए कर रही हों, मगर उन्हें ये ख्याल ही नहीं होता कि वे नारी होते हुए भी नारी जाति को अपमानित करने वाला कृत्य कर रही हैं।

जरा गहराई में जाएं तो यह ख्याल में आता है कि मां-बहिन की गालियां पुरुष प्रधान समाज की देन है। बेशक हमने नारी को बहुत सम्मान का दर्जा दिया हुआ है, शक्ति स्वरूपा मानते हैं, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि वह मात्र दिखावा है। मौलिक बात ये है कि पुरुष ने महिला को भोग की वस्तु समझ रखा है। कहीं न कहीं पुरुष यौनाचरण को अपनी बहादुरी मान कर बैठा है।

ऐसा तो है नहीं कि किन्हीं भाषा विज्ञानियों ने बैठ कर गालियों का निर्माण किया हो, वो तो आम बोलचाल में प्रयुक्त की जाने लगी हैं। लेकिन इससे यह तो पता लगता ही है कि आम पुरुष की अपनी मां और बहिन के अतिरिक्त अन्य महिलाओं के प्रति वास्तव में उसके मन में सम्मान कितना है। वस्तुत: यह पुरुष का विद्रूप चेहरा है। मुझे यह घोर विसंगति लगती है कि हम सभ्य समाज कहलाते हैं, मगर हमारा पुरुष सैक्स में इतना डूबा हुआ है कि अपशब्द के लिए सैक्स को इंगित करने वाली गालियों का उपयोग करता है। 

प्रसंगवश बता दें कि भाषा विज्ञान की दृष्टि से जोधपुर की मारवाड़ी भाषा सर्वाधिक शिष्ट मानी जाती है। उसमें गाली भी बहुत सभ्य तरीके से दी जाती है। यथा- थे म्हारी बात कोनी मानी तो म्हारी जूती थांके सिर पर बिराजेला। अर्थात वह साफ तौर पर जूते मारने की चेतावनी दे रहा है, मगर सभ्यता के आवरण में।

-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 15 अगस्त 2020

ध्यान करने का सबसे आसान तरीका क्या है?

मैं कोई योगी नहीं हूं। एक साधारण सा साधक हूं। साधारण साधक कहना भी शायद कुछ ज्यादा हो जाएगा। ध्यान के अनुभव में जरूर उतरा हूं, लेकिन मैं अपने आपको ध्यान के बारे बताने के लिए अथोरिटी नहीं मानता। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि अब मैं ध्यान के बारे में चर्चा करने जा रहा हूं। अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि एक पाठक मित्र के आग्रह पर। उन्होंने ध्यान के संबंध में भी कुछ लिखने का अनुरोध किया है?

ध्यान की व्याख्या करने की बजाय में सीधी-सीधी बात करना चाहता हूं। जहां तक मेरी समझ है, यह एकाग्रता का चरम बिंदु है। व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसे किस विधि से ध्यान करने में सुविधा होगी। चूंकि इस दुनिया में हर व्यक्ति इकलौता अर्थात यूनीक है, इस कारण हर व्यक्ति का मानसिक स्तर व आत्मिक शक्ति उसकी वैयक्तिक विशेषता होती है। उसे ध्यान की कौन सी विधि आसान लगती है, या आसान रहेगी, यह उसी पर निर्भर करता है। अलबत्ता पारंगत गुरू जरूर बता सकता है कि किस को कौन सी विधि अपनानी चाहिए, चूंकि वह उसके भीतर प्रवेश करने में सक्षम होता है। 

मैं सिर्फ अपने अनुभव की बात करता हूं। ध्यान मूलत: एकाग्रता की परिणति है। मैंने भिन्न विधियों से ध्यान के प्रयोग किए हैं। किसी विधि में ध्यान जल्द लग जाता है, जबकि किसी में कुछ वक्त लगता है। ध्यान का सबसे पहला प्रयोग पानी पीने के दौरान किया। बाद में वह अभ्यास में आ गया। जब भी पानी पीता हूं, केवल पानी पीने पर ही ध्यान लगा देता हूं। कैसे पानी गले से नीचे उतर रहा है, उसे गहरे से अनुभव करने की कोशिश करता हूं। यह एक छोटा सा प्रयोग है, लेकिन यह ध्यान की दिशा में एक कदम बन सकता है। प्रयास करता हूं कि जब भी कोई भी काम करूं, तब केवल उसी पर एकाग्र रहूं। इससे मुझे ध्यान की समझ आई।

भ्रूमध्य पर ध्यान एकाग्र करना, ओम की बाहर से सुनाई देने वाली ध्वनि अथवा स्वयं उच्चारण करते हुए उस पर ध्यान एकाग्र करना, त्राटक करना आदि जैसे अनेक प्रयोग किए हैं, मगर मेरी नजर में सबसे आसान विधि है श्वांस पर ध्यान केन्द्रित करना। वजह ये कि इसमें विशेष प्रयास नहीं करना होता। सर्वविदित है कि श्वांस आती है और जाती है। भीतर प्रवेश करती है और बाहर निकलती है। स्वत:। उसके लिए कोई प्रयास नहीं करना होता। हां, प्राणायाम के दौरान अलबत्ता श्वांस लेने व छोडऩे की अवधि और उसकी गति पर नियंत्रण करने के लिए प्रयास करना पड़ता है, लेकिन एक सीमा तक वह संभव है। वस्तुत: श्वांस पर हमारा कोई जोर नहीं। हम उसे रोक नहीं सकते। अपनी ओर से चलाने का तो कोई सवाल ही नहीं है। तो मैने इस विधि को चुना। प्रकृति प्रदत्त माध्यम के साथ सहयोग करते हुए। इसमें करना ये होता है कि हम अपना पूरा ध्यान श्वांस की गति पर केन्द्रित कर लेते हैं। वह आ रही है, जा रही है, उसी के साथ मन को जोडऩा होता है। जोडऩा शब्द भी ठीक नहीं है, सिर्फ उस को ख्याल में रखना है। मन स्वत: जुड़ जाएगा। धीरे-धीरे अभ्यास से हम मन को जोडऩे की अवधि बढ़ा सकते हैं। जैसे ही मन पूरी तरह से श्वांस की गति से जुड़ जाता है, हम ध्यानस्थ होने लगते हैं। मन तिरोहित होने लगता है। विचार शून्य होने लगते हैं। विचार शून्य होते ही हम ध्यान में स्थित हो जाते हैं। सबसे बड़ी बात ये है कि ऐसा कभी भी, कहीं भी, किसी भी मुद्रा में किया जा सकता है। यह उतना आसान नहीं है, जितना सहजता से बताया गया है, लेकिन अभ्यास से संभव है।

ध्यान लगने से पहले अनेक प्रकार की अनुकूल-प्रतिकूल अनुभूतियां हो सकती हैं। कई मैने खुद अनुभव की हैं तो कुछ के बारे में जानकारी मिली है। वह भयावह हो सकती है। सुखद भी। कई प्रकार के दृश्य निर्मित हो सकते हैं। ध्वनियां सुनाई पड़ सकती हैं। विशेष गंध का अहसास हो सकता है। भिन्न प्रकार की रोशनियां अथवा तेज प्रकाश नजर आ सकता है। ध्यान के माध्यम से पिछले जन्मों की यात्रा करने वालों की पिछले जन्म की अनुभूतियां सजीव हो सकती है। किसी देवी-देवता के दर्शन हो सकते हैं, हालांकि वे वही देवी-देवता होते हैं, जो हमने पहले से चित्रों व मूर्तियों को देख कर मस्तिष्क में संग्रहित कर रखे हैं। मुझे नहीं लगता कि वे दर्शन देने आते हैं। यह भ्रम मात्र है। यह आस्था व विश्वास का मामला है, जिसका कोई तार्किक आधार नहीं है। शरीर हल्का महसूस हो सकता है। कभी आकाश में विचरण करने का आभास हो सकता है। ऐसा भी लग सकता है कि शरीर के नीचे व ऊपर का हिस्सा अलग हो गया है, जिनके बीच खाली स्थान सा प्रतीत हो सकता है। हालांकि एक ऊर्जावान सूत्र से वे जुड़े होते हैं। कभी ये भी लग सकता है कि आपकी ऊंचाई बढ़ गई है, यानि के आप जुड़े तो जमीन से हैं, मगर ऊंचे हो गए हैं। ये सब ध्यान करने की प्रक्रिया के दौरान होने वाले अनुभव हैं। उन पर अटकने का कोई मतलब नहीं है। उनके अर्थ निकालने का प्रयास करेंगे तो निकाल पाएं, न पाएं, मगर हम ध्यान के अपने मुख्य उद्देश्य से भटक जाएंगे। असल में वे बाधाएं हैं। मार्ग में आने वाले ऑब्जेक्ट्स हैं। किसी को कम तो किसी को ज्यादा रुकावटें आ सकती हैं। हम को तो सिर्फ श्वांस पर ही चित्त एकाग्र करके रखना है। जैसे ही आप ध्यानस्थ हो जाएंगे, आपको विलक्षण आनंददायक अनुभव होने लगेगा। इच्छा होगी कि वहीं पर टिके रहें। फिलहाल इतना ही। फिर कभी इस पर किसी और एंगल से चर्चा करेंगे। सनद रहे, यह मेरा अनुभव मात्र है। इससे इतर बहुत कुछ है इस क्षेत्र के बारे में जानने के लिए, वहां तक मेरी पहुंच नहीं है।


-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 13 अगस्त 2020

क्या रहस्य है उपांशु जप का?

शास्त्रों में जप तीन प्रकार का माना गया है—मानस, उपांशु और वाचिक।   वाचिक सरल, उपांशु कुछ कठिन और मानस कड़ी साधना के बाद संभव  हो पाता है। मन ही मन मंत्र का अर्थ मनन करके उसे धीरे-धीरे इस प्रकार उच्चारण करना कि जिह्वा और ओंठ में गति न ही, मानस जप कहलाता है। जिह्वा और ओठ को हिला कर मंत्रों के अर्थ का विचार करते हुए इस प्रकार उच्चारण करना कि कुछ न सुनाई पड़े, उपांशु जप कहलाता है। विद्वान उपांशु व मानस जप के मध्य जिह्वा जप नाम का एक चौथा जप भी मानते हैं। यूं तो जिह्वा जप भी उपांशु के ही अंतर्गत है, अंतर केवल इतना ही है कि जिह्वा जप में जिह्वा हिलती है, पर ओठ में गति नहीं होती और न उच्चारण ही सुनाई पड़ता है। वर्णों का स्पष्ट उच्चारण करना वाचिक जप कहलाता है। कहा जाता है कि वाचिक जप से दस गुना फल उपांशु में, शत गुना फल जिह्वा जप में और सहस्त्र गुना फल मानस जप में होता है। 

मनु महाराज कहते हैं कि उपांशु जप से मन मूर्छित होने लगता है। एकाग्रता आरंभ होती है। वृत्तियां अंतर्मुखी होने लगती हैं। इसके द्वारा साधक स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चारण मस्तक पर कुछ असर करता सा मालूम होता है।

उपांशु जप के बारे में मेरा जो अनुभव है, वह मुझे एक आलेख में झलकता है। उसमें लिखा था कि जब भी हमें हिचकी आती है तो हम स्वयं व पास बैठा व्यक्ति यही कहता है कि जरूर कोई याद कर रहा है। दिलचस्प बात ये है कि जब हम विचार करते हैं कि कौन याद कर रहा होगा और उनके नामों का जिक्र करते हैं तो जिसका नाम लेने पर हिचकी बंद होती है तो यही सोचते हैं कि उसी ने याद किया था। सवाल ये है कि यदि कोई हमें शिद्दत से याद करता है तो हिचकी आती है? मेरा ऐसा ख्याल है कि शारीरिक क्रिया तो अपनी जगह है ही, मगर इससे भी इतर कुछ तो है। मेरा विचार है कि हमारा मस्तिष्क तो सुपर कंप्यूटर है ही, जो कि पूरे शरीर को संचालित करता है, वहीं पर विचार चलते रहते हैं, मगर अमूमन विचार करने की ऊर्जा कंठ पर केन्द्रित रहती है। जरा महसूस करके देखिए। विज्ञान कहता है कि विचार की कोई भाषा नहीं होती। सही भी है। यह एक मौलिक तथ्य है। इसलिए कि जहां विचार हो रहा है, वहां केवल भाषायी वाक्य ही विचरण नहीं करते, ध्वनि, स्वाद, गंध, दृश्य आदि की अनुभूतियां भी मौजूद रहती हैं। हां, भाषायी वाक्य जरूर उस भाषा में होते हैं, जो कि आमतौर पर हम उपयोग में लेते हैं। आपने अनुभव किया होगा कि कई बार कोई बात कहने से पहले मन ही मन जब रिहर्सल होती है तो उसकी हलचल कंठ पर ही होती है। मैने ऐसे उदाहरण भी देखे हैं कि कोई व्यक्ति जो वाक्य बोलता है तो ठीक तुरंत बाद कंठ पर हुई हलचल बुदबुदाने के रूप में सामने आती है। चूंकि शब्दों का संबंध सीधे कंठ से है, इस कारण भाषा विशेष में विचार करते समय कंठ पर ऊर्जा केन्द्रित होती है। जरा गहरे में जा कर देखिए, सोचते समय भले ही वाणी मौन होती है, मगर कंठ व जीभ पर वाक्य हलचल कर रहे होते हैं। इस यूं समझिये। जैसे हम मन ही मन राम नाम का उच्चारण करते हैं तो बाकायदा जीभ पर वैसी ही क्रिया होती रहती है, जैसी राम नाम का उच्चारण करते वक्त होती है। अर्थात विचार करने के दौरान मस्तिष्क तो आवश्यक रूप से काम कर ही रहा होता है, मगर हमारी ऊर्जा, जिसे प्राण भी कह सकते हैं, कंठ पर भी सक्रिय होती है। इस ऊर्जा के कारण मस्तिष्क की तरह कंठ भी ट्रांसमीटर की तरह काम करता है। वह भी बाह्य जगत की तरंगों को ग्रहण करता है। संप्रेषण भी कर सकता है। जैसे ही हमें कोई याद करता है तो उसकी तरंगों का हमारे कंठ पर असर पड़ता है, वहां खिंचाव होता है और हिचकी आने लगती है। जैसे ही हम याद करने वाले का नाम लेते हैं तो वर्तुल पूरा हो जाता है और हिचकी आना बंद हो जाती है। ऐसा मेरा नजरिया है। हालांकि मुझे इस बात का अहसास है कि मेरी जो भी अनुभूति है, उसे ठीक से शब्दों में अभिव्यक्त नहीं पाया हूं, मगर मेरी अभिव्यक्ति उसके इर्द-गिर्द जरूर है।

उपांशु जप भी मूलत: कंठ पर स्थित होता है। चूंकि कंठ ऊर्जा का केन्द्र है, इस कारण इस जप के परिणाम बड़े प्रभावकारी होते हैं। मैने स्वयं उसका अनुभव किया है। वह परिणाम मूलक भी होता है। जिस भी देवी-देवता अथवा इष्ट देवता के नाम पर यह किया जाता है, वहां से प्रतिक्रिया के रूप में ऊर्जा का संचार हमारी ओर होता है। आप भी इसका अनुभव कर सकते हैं।

-तेजवानी गिरधर

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बुधवार, 12 अगस्त 2020

पुरुष प्रधान, लेकिन स्त्री विशिष्ट

अनादि काल से पुरुष की प्रधानता के संबंध में पिछले दिनों जब एक आलेख लिखा तो एक पत्रकार साथी श्री बलवीर सिंह ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि भले ही पुरुष प्रधान है, मगर महिला को प्रकृति ने  अतिरिक्त शक्तियां दी हैं, जो कि पुरुष में नहीं हैं। उस लिहाज से स्त्री विशिष्ट है। उनकी बात में दम है। मुझे लगा कि इस पर भी बात होनी चाहिए।
यह बात सही है कि महिला को दूसरे दर्ज पर रखा गया है, मगर उसके भीतर की जो जीवनी शक्ति है, वह उसे पुरुष की तुलना में पहला दर्जा प्रदान करती है। पुरुष कभी उसकी बराबरी नहीं कर सकता। आगे होने का तो सवाल ही नहीं उठता।
रहा सवाल पुरुष की प्रधानता का तो उसकी वजह है। जब भी कोई दो वस्तुएं होंगी तो उनको गिनते समय कोई एक पहले और दूसरी बाद में गिनी जाएगी। दोनों को एक साथ गिनने का तो कोई उपाय ही नहीं है। चूंकि पुरुष प्रत्यक्षत: अपेक्षाकृत अधिक बलवान है, इस कारण उसकी गिनती पहले स्थान पर हो गई है। सच ये है कि पुरुष का शक्तिवान होना मुखर है, मगर स्त्री में जो शक्ति है, वह अंतर्मुखी है। दिखती भले न हो, मगर होती है जरूर।
माना जाता है कि स्त्री की छठी इंद्री पुरुष की तुलना में अधिक सक्रिय होती है। उसे पुरुष के मुखमंडल की रेखाएं देखने मात्र से, देखने के ढंग से, भाव भंगिमा से, बात करने के तरीके मात्र से पता लग जाता कि सामने वाले की मंशा क्या है। चूंकि उसमें पुरुष की तुलना में अधिक सहनशीलता होती है, इस कारण मानसिक रूप से प्रबल होती है और कष्टों को आसानी से झेल जाती है। उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होती है। जिजीविषा अधिक होती है। यही वजह है कि दुनिया में विदुरों की तुलना में विधवाओं की संख्या अधिक है। पुरुष की तुलना में वह लंबा जी लेती है। वह पुरुष की तुलना में अधिक आध्यात्मिक भी होती है। सच तो ये है कि संस्कृति की वास्तविक संवाहक स्त्री ही है। आज अगर हमारी सामाजिक परंपराएं, त्यौहार, व्रत इत्यादि जीवित हैं, तो उसकी एक मात्र वजह स्त्री है। ऐसी मान्यता है कि स्त्री पुरुषों की तुलना में अधिक ईमानदार होती है। इसी कारण नौकरी में उसे प्राथमिकता मिलती है। पुरुष कितना ही बहादुर हो, मगर जब जीवन के संघर्ष में टूटता है तो स्त्री ही उसका सहारा बनती है।
बहरहाल, इन सब क्षमताओं के बाद भी पुरुष प्रधान है। पुरुष से बराबरी का जो आंदोलन है, वह इस कारण उपजा क्योंकि पुरुष ने प्रधानता का बेजा फायदा उठा कर महिला का जम कर दमन किया। वह सहन करती गई। सहन करती गई। लेकिन आखिरकार महिला को मु_ी तानने की जुर्रत करनी पड़ी। बेशक कानून के जरिए और सामाजिक आंदोलन की वजह से उसे अब बराबरी के अवसर मिलने लगे हैं, मगर वह भी जानती है कि नैसर्गिक रूप से बराबरी हो नहीं पाएगी। इस बारे में एक जगह ओशो ने कहा है कि बराबरी के प्रयास में उसकी मौलिकता खोने का खतरा है। अगर बराबरी पर आ भी गई तो ऑरिजनल तो नहीं होगी। कॉपी तो कॉपी ही रहेगी।
मूलत: दोनों के बीच बराबरी की सोच ही गलत है। दोनों भिन्न हैं। बराबर हो ही नहीं सकते। बराबर करने की कोशिश भी बेमानी है। दोनों अपने आप में विशिष्ट हैं, मगर अधूरे हैं। वस्तुत: वे एक इकाई के आधे-आधे हिस्से हैं। मिलने पर पूरे होते हैं। अर्धनारीश्वर की कल्पना का आधार भी यही है। जैसे एक बॉल को आधा-आधा काट दिया जाए। दोनों आधे-आधे हिस्से अपने आप में अधूरे हैं। जब दोनों को मिला दिया जाता है तो पूरी बॉल बन जाती है।
प्रसंगवश यहां चाणक्य ने उस श्लोक पर भी नजर डाल लें, जिसमें स्त्री के गुणों की जानकारी दी गई है। श्लोक है:-
स्त्रीणां द्विगुण आहारो लज्जा चापि चतुर्गुणा,
साहसं षड्गुणं चैव कामश्चाष्टगुण: स्मृत:
अर्थात महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा दोगुना खाना खा सकती हैं। पुरुषों के मुकाबले उन्हें ज्यादा भूख लगती है। महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा चार गुना अधिक शर्मीली होती हैं। शास्त्रों में भी लज्जा को स्त्री का गहना माना गया है। महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा छह गुना अधिक सहनशील होती हैं। महिलाओं में  पुरुषों की अपेक्षा काम वासना आठ गुना अधिक होती है। कदाचित यही उसकी जीवनी शक्ति का राज है।
कुल जमा बात ये है कि प्रकृति सदैव संतुलन करती है। अगर किसी मामले में पुरुष को अधिक बलवान बनाया है कि किसी मामने में महिला को अधिक शक्तिवान किया है।
महिला कितनी सहनशील, साहसी व अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्र हो सकती है, इसका साक्षात अनुभव मैने निजी जीवन में मीडिया फोरम की महासचिव डॉ श्रीमती रशिका महर्षि में किया। उन्होंने अपने पति श्री दिलीप महर्षि को किडनी डोनेट करने के कष्टसाध्य कर्म को बहुत दिलेरी के साथ हंसते-हंसते किया व कभी हिम्मत नहीं हारी।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

शनिवार, 8 अगस्त 2020

बच्चा बुहारी लगाए तो मेहमान आता है?

हम रोजाना घर में बुहारी लगाते हैं। संपन्न लोगों के घर में काम वाली बाई बुहारी लगाती है। यह एक सामान्य बात है। लेकिन अगर कभी कोई बच्चा खेल-खेल में बुहारी लगाए तो यह माना जाता है कि कोई मेहमान आने वाला है। तभी तो उसे कहते हैं कि क्या किसी मेहमान को बुला रहा है? इस मान्यता का कोई ठोस कारण अथवा वैज्ञानिक आधार विद्वानों की जानकारी में हो तो पता नहीं, मगर आम जनमानस उससे अनभिज्ञ है। वह तो इस तथ्य को परंपरागत रूप से मान्यता के रूप में ही लेता है। मैने इसके रहस्य को जानने की कोशिश की, मगर मुझे भी सटीक समाधान नहीं मिला।
जहां तक मेरी समझ है, ऐसा प्रतीत होता है कि चूंकि बच्चा सहज व सरल होता है, मन-बुद्धि विशुद्ध होते हैं, उसमें अभी सांसारिक विकृतियां नहीं प्रवेश की होती हैं, इस कारण उसकी छठी इन्द्री प्रकृति के संकेतों को ग्रहण कर लेती होगी। चूंकि हम वयस्कों की नैसर्गिक शक्तियां कई प्रकार के झूठ, प्रपंच आदि के कारण शिथिल हो जाती हैं, इस कारण हमारी छठी इन्द्री संकेत ग्रहण करने की क्षमता खो देती होगी। संभव है कि अनुभव से ऐसी मान्यता स्थापित हुई हो कि बच्चा बुहारी लगाए तो वह किसी मेहमान के आने का संकेत होता है। यद्यपि बच्चे को उस संकेत का भान नहीं होता, मगर उस संकेत की वजह से वह सहज ही बुहारी लगाने लगता होगा। ऐसा छत पर बैठे-बैठे कौए के कांव-कांव करने पर भी कहा जाता है। शायद कौवे में भी संकेत ग्रहण करने की क्षमता हो।
जहां तक बुहारी का मेहमान से संबंध है तो इस बारे में मुझे किशोरावस्था की एक घटना याद आती है। कदाचित पचास से अधिक उम्र के लोगों की भी जानकारी में हो। तब मदारी टाइप के लोग काजल की डिब्बी यह कह कर बेचा करते थे कि उसे रात को सोते समय सिरहाने के नीचे रखने पर सपने में विशिष्ट अनुभव होंगे। राजा आपक मनचाही मुराद पूरी करेगा। डेमो के रूप में वे किसी एक बच्चे से कहते थे कि वह डिब्बी में गौर से देखे। कहते थे कि राजा आने वाले हैं। देखो राजा के आगमन से पहले सफाई कर्मचारी बुहारी लगा रहा है। अब पानी का छिड़काव कर रहा है। अब दरी बिछा रहा है। और अब देखो एक राजा आ रहा है। बच्चा हां में हां मिलाता जाता था। संभव है वे बच्चे को सम्मोहित कर देते थे। अन्य बच्चे इस चमत्कार को देख कर मान लेते थे कि वह डिब्बी चमत्कारी है और वे उसे खरीद लेते थे। बाद में किसी ने डिब्बी को सिरहाने के नीचे रखने पर विशिष्ट सपना देखा या नहीं, मुझे नहीं पता, मगर किशोरावस्था की इस घटना से मेरे जेहन में यह तथ्य बैठा दिया कि किसी आगंतुक के आने से पहले स्वागत में बुहारी लगाई जाती है। यह पुरानी परंपरा है। ऐसा अमूमन हम करते भी हैं। कोई मेहमान आने वाला हो तो उससे पहले साफ-सफाई करते हैं। ऐसे प्रसंग भी आपने सुने होंगे कि विशिष्ट व्यक्ति के आने पर उसके आगे बुहारने की रस्म अदा की जाती है। इस प्रकरण का यूं ही जिक्र कर दिया। महज एक संस्मरण आपसे साझा करने के लिए। आजकल ऐसे मदारी नजर नहीं आते। न जाने कहां चले गए ऐसे लोग? न जाने कहां विलुप्त हो गई ऐसी विद्या अथवा अविद्या?

-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

मुरारी बापू जैसे संत इसलिए होते हैं आलोचना के शिकार

यह अजीब विरोधाभास है कि धर्म का असल मकसद आदमी को जिस मंजिल तक पहुंचाना है, उस पर पहुंचने के बाद उसी धर्म के लोग विरोध में खड़े हो जाते हैं। प्रसिद्ध कथावाचक मुरारी बापू व साध्वी चित्रलेखा इसके साक्षात व ताजातरीन उदाहरण हैं। बेशक आज वे जिस मानसिक स्थिति पर पहुंचे हैं, उसमें हिंदू धर्म की ही भूमिका है, हिंदू जीवन पद्धति का ही प्रभाव है, मगर अब उनकी यह स्थिति धर्म की मर्यादाओं में ही रहने वालों को बर्दाश्त नहीं है। ज्ञातव्य है कि मुरारी बापू व साध्वी चित्रलेखा इन दिनों हिंदू धर्म के प्रबल अनुयाइयों के निशाने पर हैं। इन दोनों पर न केवल गालियों की बौछार हो रही है, अपितु उन्हें घृणा की नजर से भी देखा जा रहा है। ऐसा नहीं कि ऐसा अकेले हिंदू धर्म में हो रहा है, इस्लाम में भी यही हालात हैं।
आइये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर वह मन: स्थिति क्या है? दरअसल जितने भी धर्म हैं, उनका अंतिम लक्ष्य परम सत्ता से मिलन है। मात्र साक्षात्कार नहीं, उसी में मिल जाना। साक्षात्कार में तो दो की मौजूदगी होती है, उसी में लीन हो जाने से तात्पर्य हैं यहां। और लीन ही हो गए तो बात ही खत्म हो गई, प्रयोजन पूर्ण हो गया। यह अवस्था अद्वैत है। तभी ऋषि के मुख से निकलता है:- अहम ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। इससे ठीक पहले तक द्वैत बना रहता है। उससे भी पहले की अवस्था में संसार के प्रति समभाव आ जाता है। धार्मिक विभेद समाप्त हो जाता है। फिर अजान से भी वही भाव जागता है, जैसा कि प्रार्थना से। व्यवस्था के तहत धर्म विशेष के प्रति जो लगाव बनाया जाता है, अथवा बन ज्यादा, वह तिरोहित हो जाता है। तब आदमी को सभी धर्म एक जैसे लगने लगते हैं। भले ही वह पालना अपने धर्म की करता है, मगर दूसरे धर्म के प्रति भी उतना ही आदर हो जाता है, जितना अपने धर्म के प्रति। तभी तो मुरारी बापू को आध्यात्मिक शेरो-शायरी व अल्लाहू का आलाप सुनने-कहने में आनंद आता है। वे अल्लाह की इबादत को बड़े रस से सुनते हैं। झूमने लगते हैं। तभी तो साध्वी चित्रलेखा को यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि अगर अजान के दौरान भागवत कुछ समय के लिए स्थगित कर दी जाए तो उसमें क्या बुरा है? क्या फर्क पड़ता है कि हमने अजान की आवाज सुनाई देने पर कुछ समय के लिए भागवत कथा रोक दी। भला यह बात हिंदू धर्म की सीमाओं में बंधे लोगों को कैसे बर्दाश्त हो सकती है।
वैसे वे अपनी जगह ठीक हैं। मुरारी बापू जैसे संतों का जो सम्मान है, जो साधन संपन्नता है, वह हिंदू धर्म की मान्यताओं, शिक्षाओं आदि का प्रचार करने की वजह से है। आज उनके लाखों प्रशंसक हैं। अगर वे ही दूसरे धर्म को समान आदर देने लगेंगे तो विरोधी ये सवाल करेंगे ही न कि तो आप फिर उसी को धारण कर लीजिए। उनका यह भय स्वाभाविक ही है कि हिंदू संतों का इस प्रकार अन्य धर्मों के प्रति समादर हिंदू मतावलंबियों में अपने धर्म के प्रति शिथिलता उत्पन्न करेगा।
दूसरी ओर यह भी सच है कि हिंदू मतावलंबी आम तौर पर बहुत कट्टर नहीं होता। उसे कट्टर बनाए रखने के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ती है। अधिसंख्य हिंदुओं को आपने दरगाहों में मत्था टेकते देखा होगा। उसे सिख धर्म के गुरु नानक व गुरु ग्रंथ साहब, जैन धर्म के भगवान महावीर, बौद्ध धर्म के महात्मा बुद्ध, ईसाई धर्म के ईसा मसीह के आगे सिर झुकाने में जरा भी संकोच नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार अजमेर स्थित दरगाह ख्वाजा साहब की जियारत करने आने वालों में तकरीबन आधे हिंदू होते हैं। सोशल मीडिया पर इसका गाहेबगाहे विरोध होता है, मगर हिंदुओं पर कोई असर ही नहीं होता। यह सनातन धर्म की ही विशालता व उदारता ही है कि उसे अहम ब्रह्मास्मि कहने वालों पर जरा भी क्रोध नहीं आता।
ऐसा प्रतीत होता है कि मुरारी बापू जैसे संतों को न केवल विशेष मानसिक अवस्था में पहुंचने के कारण अन्य धर्म भी समान लगते हैं, अपितु इसकी वजह ये भी है कि वे अपेक्षाकृत उदार हिंदू धर्म में ही शिक्षित-दीक्षित होने के कारण अन्य धर्मों के प्रति आदर रखते हैं।
बात करें इस्लाम की। वहां अपेक्षाकृत अधिक कट्टरता है। पक्का मुसलमान  केवल एक खुदा को ही मानता है। बुत परस्ती वहां जायज नहीं, इस कारण वह दरगाहों में मत्था नहीं टेकता। केवल मस्जिद में नमाज अदा करता। हालत ये है कि अरब देशों के मुसलमान भारत व पाकिस्तान के मुस्लिमों को अपने से हेय मानते हैं और उन्हें हिंदुस्तानी मुसलमान कह कर संबोधित करते हैं। इस्लाम का प्रचार-प्रसार जब हिंदुस्तान में हुआ तो उसमें तनिक शिथिलता आई। सूफिज्म उसी शिथिलता का परिणाम है। सूफिज्म में आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष के बावजूद धर्म की सीमा रेखाएं शिथिल हो जाती हैं। आपने अहम ब्रह्मास्मि की तरह का एक शब्द सुना होगा:- अनलहक। अनलहक सूफियों की एक इत्तला है, जिसके द्वारा वे आत्मा को परमात्मा की स्थिति में लय कर देते हैं। सूफियों के यहां खुदा तक पहुंचने के चार दर्जे बताये जाते हैं। जो सूफी मत को मानता है, उसे क्रमश: शरीयत, तरीकत, मारफत व हकीकत पर चलना होता है। पहले दर्ज में नमाज, रोजा आदि पर अमल करना होता है। दूसरे पड़ाव में उसे एक पीर की जरूरत पड़ती है। पीर से प्यार करने की और पीर का कहा मानने की। तरीकत की राह में उसका मन-मस्तिष्क प्रकाशमान हो जाता है, अर्थात वह ज्ञानी हो जाता है, जिसे मारफत कहते हैं। अंतिम पायदान पर वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। अर्थात हकीकत से रूबरू हो जाता है। खुद को खुदा में फना कर देता हैं। मैं और तू का भेद मिट जाता है। उसी अवस्था में भीतर से यह आवाज आती है कि अनलहक। मैं खुदा हूं। अनलहक कहने वाला पहला सूफी था मंसूर बिन हल्लाज था। खुदाई का यह दावा आलिमों को मंजूर नहीं था, नतीजतन उसे सूली पर लटका दिया गया। इस्लामी शिक्षाओं की मौलिकता को चुनौती देने के कारण उसको इस्लाम का करार दे दिया गया।
मंसूर की एक आध्यात्मिक गज़़ल बहुत चर्चित है। वह उर्दू में है और चूंकि मंसूर उर्दू नहीं जानते थे, इसलिए माना गया कि उनके किसी अनुयायी ने उनकी फ़ारसी रचना का उर्दू में अनुवाद किया होगा।
उस गज़़ल की चंद पंक्तियां देखिए:-
मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।

न हो मुल्ला, न हो बिरहमन, दुई की छोड़ कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनलहक तू कहाता जा।

मंसूर का हश्र देख कर एक लेखक ने लिखा है कि सच बोलने वालों को नादान दुनियावी लोगों ने सदैव मौत की सजा दी है। सुकरात से रजनीश तक, सब की एक ही कहानी है। यहां सच से तात्पर्य है वह अवस्था, जहां धार्मिक जीवन शैलियों की विविधता समाप्त हो जाती है। सब एक जैसे लगते हैं। और वह अवस्था धर्म से बंधे लोगों को असहज करती है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, 1 अगस्त 2020

जप करते समय माला को ढ़क कर क्यों रखते हैं?

आपने देखा होगा कि अनेक श्रद्धालु जप करते समय हाथ में फेरी जा रही माला को कपड़े अथवा गौमुखी से ढ़क कर रखते हैं। गौमुखी अर्थात गौमुख की आकृति में सिला हुआ कपड़ा, जिसमें माला सहित हाथ डाल कर जप किया जाता है। इसकी वजह क्या है?
वस्तुत: हमारे यहां मान्यता है कि योग व भोग एकांत में अर्थात छिप कर करना चाहिए। किसी की दृष्टि या उपस्थिति का व्यवधान नहीं होना चाहिए। योग के मायने योगाभ्यास व ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना अर्थात पूजा-अर्चना या स्वाध्याय है। असल में योग व प्रार्थना पूर्णत: वैयक्तिक मानी जाती है। उसमें खलल नहीं पडऩा चाहिए। हालांकि योगाभ्यास व प्रार्थना सामूहिक भी की जाती है, मगर उसका वास्तविक लाभ एकांत में करने पर ही मिलता है। वजह ये कि तभी एकाग्रता कायम हो पाती है। कई बार ऐसा संभव नहीं होता। अगर अपने घर पर अथवा सार्वजनिक स्थान पर माला फेरने का समय हो जाए तो बेहतर ये है कि माला को ढ़क कर रखा जाए। यदि आप जप करते समय माला को खुला रखते हैं तो उस पर अन्य लोगों की नजर पड़ती है। उससे दोष उत्पन्न होता है। ऐसा प्राय: देखने में आता है कि कई लोग प्रवचन सुनते समय भी माला फेरते रहते हैं, मगर यह समझ से परे है कि वे प्रवचन व नाम स्मरण या मंत्रोच्चार के बीच कैसे सामंजस्य बैठा पाते होंगे। कभी प्रवचन पर ध्यान जाता होगा तो कभी जप पर। यानि कि दोनों ही अधूरे। किसी से बातचीत करते समय भी माला फेरने से कोई लाभ नहीं हो सकता। और अगर माला के मनकों को ही फेरा जा रहा है तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है।
तभी तो कबीरदास जी कहते हैं:-
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
निहितार्थ यही है कि केवल माला के मनके फेरने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि उनके साथ मन का संबंध नहीं होगा।
इसी प्रकार भोग अर्थात भोजन व मैथुन भी एकांत में करने की सीख दी हुई है। मैथुन तो सभी लोग लोकलाज के कारण एकांत में ही करते हैं, मगर भोजन के बारे में ऐसा नहीं है। आम तौर पर एकांत में भोजन करने की सुविधा नहीं होती, इस कारण नियम में पालना कम ही हो पाती है। आजकल तो डायनिंग टेबल का चलन है, जिसमें परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठ कर भोजन करते हैं, मगर पुरानी मान्यता ये है कि भोजन करते वक्त किसी की दृष्टि नहीं पडऩी चाहिए। एक साथ बैठ कर भोजन करने से स्वाभाविक रूप से आपस में बातचीत भी होती ही है, ऐसे में हम जो भोजन करते हैं, उससे ख्याल हट जाता है। हम उसका पूरा रस नहीं ले पाते। भोजन का वास्तविक आनंद उसका पूरा रस लेने में ही तो है। इसके लिए बेहतर ये है कि हम विभिन्न सांसारिक बातों का चिंतन करने की बजाय केवल भोजन पर ही ध्यान दें। भोजन करते समय बातचीत न की जाए, इस कारण हमारे यहां कहा जाता है कि भोजन के वक्त  बात न करें, वरना वह भोजन दुष्टात्माओं को प्राप्त हो जाता है। आपने देखा होगा कि कई दुकानदार मुंह फेर कर भोजन करते हैं। प्रयोजन ये है कि एक तो ग्राहक आए तो उसे ख्याल रहे कि दुकानदार भोजन कर रहा है और वह कुछ देर इंतजार करे, दूसरा ये कि भोजन पर ग्राहक की नजर न पड़े। ऐसा मानते हैं कि भोजन पर किसी की नजर पडऩे पर उसमें दृष्टि दोष हो जाता है। इस दोष का अर्थ ये है कि अगर देखने वाला के मन में भोजन के प्रति क्षुधा का भाव आ जाए तो वह अशुद्ध हो जाता है। कई लोग दुकानों में सजाई मिठाई केवल इसी कारण नहीं खरीदते, क्योंकि उस पर न जाने कितने लोगों की ललचाई नजर पड़ी होगी। हमारे यहां तो यह तक चलन है कि भगवान के भोग लगाते समय या तो थाली को कपड़े से ढ़क कर रखते हैं या पर्दा लगा देते हैं। जब भगवान तक को एकांत में भोजन करवाते हैं तो हमें क्यों नहीं इस नियम की पालना करनी चाहिए। इसके पीछे एक भाव ये है कि मूर्ति के भोजन ग्रहण करने के चमत्कार को देखने की क्षमता हमारे में नहीं है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
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