मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

दरगाहों, गुरुद्वारों व दरबारों में सिर क्यों ढ़कते हैं?

आपने देखा होगा कि दरगाहों, गुरुद्वारों व सिंधी दरबारों में सिर ढ़कने की परंपरा है। इस परंपरा का सख्ती से पालन भी किया जाता है। दरगाहों में अमूमन टोपी पहनने की परंपरा है। टोपी न हो तो रुमाल से सिर ढ़कते हैं। गुरुद्वारों में पगड़ी न होने पर रुमाल का इस्तेमाल किया जाता है। कई सिंधी दरबारों में टोपी की व्यवस्था होती है, लेकिन आम तौर पर रुमाल से ही सिर ढ़का जाता है। अगर आपने लापरवाही में सिर नहीं ढ़ंका है तो अन्य श्रद्धालु आपको तुरंत टोक देते हैं। सिर ढ़कने की परंपरा क्यों है, यह सवाल कभी आपके जेहन में भी उठता होगा। मैने इस बारे में कई लोगों से चर्चा की। अनेक लोग इसे महज एक परंपरा मानते हैं और इसकी वजह नहीं जानते। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि इसे आदर का सूचक मानते हैं। कुछ जानकार लोग इसका धार्मिक कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके पीछे भी एक साइंस है।
आइये, जरा इस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि धर्म स्थलों में शुद्ध व पवित्र भाव होने के कारण किसी क्षण विशेष में शक्तिपात होने की संभावना रहती है। हमारा शरीर में उस शक्तिपात को सहन करने की क्षमता नहीं होती। विक्षिप्त होने अथवा मृत्यु होने का खतरा रहता है। चूंकि टोपी या रुमाल, यानि कि कपड़ा, कुचालक होता है, इस कारण वह शक्तिपात होने की स्थिति में उसे रोक देता है। आपने यह भी देखा होगा कि हिंदुओं में तिलक करते समय भी सिर ढ़कने की परंपरा है। अगर उस वक्त कपड़ा उपलब्ध नहीं है तो सिर पर हाथ रखते हैं। हालांकि हम जब हाथ रखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आदर का सूचक है, लेकिन उसके पीछे भी शक्तिपात होने की संभावना का तर्क दिया जाता है। वैसे हाथ रखना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि हाथ कुचालक नहीं है। अलबत्ता रुकावट जरूर है। ऐसी मान्यता है कि भ्रूमध्य में अदृश्य तीसरा नेत्र सुप्तावस्था में विद्यमान है। तिलक से प्रतिष्ठित करने पर उस स्थान के जागृत होने की संभावना रहती है। इसे कुंडलिनी जागरण भी कहा जाता है। उस अवस्था में शक्तिपात होने की भी संभावना होती है। यज्ञादि में दौरान भी सिर पर कुशा या मौली का धागा रखने की परंपरा है। इसका संबंध भी कदाचित शक्तिपात से ही होगा।
हमारे यहां मंदिर में प्रवेश व आरती के वक्त, अरदास के समय और किसी के पैर छूने के दौरान, बड़े-बुजुर्गों के सामने स्त्रियां आवश्यक रूप से साड़ी अथवा चुन्नी के पल्लू से सिर ढ़कती हैं। इसे एक मर्यादित आचरण के रूप में लिया जाता है। इस मर्यादा की पालना मुस्लिमों में अधिक पायी जाती है। वे नमाज के वक्त सिर ढ़कते ही हैं। आपने देखा होगा कि मदरसों में जाते वक्त छोटे-छोटे बच्चे टोपी पहनते हैं और बच्चियां चुन्नी ओढ़ती हैं। सिख तो सदैव पगड़ी पहनते हैं। गांवों में अलग-अलग तरह की टोपियां व साफे पहनने का चलन है। इस पर चर्चा फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
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सोमवार, 30 दिसंबर 2019

अंत्येष्टि के दौरान कपाल क्रिया होने पर वहां मौजूद लोग जगह क्यों छोड़ते हैं?

आपने देखा होगा कि जब हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो कपाल क्रिया के दौरान लोग एक-दूसरे को जगह छोडऩे को कहते हैं, अर्थात जिस स्थान पर हम बैठे होते हैं, उसे बदलने को कहा जाता है। सभी ऐसा करते भी हैं। मैने इस बारे में अनेक लोगों से बात की कि जगह क्यों छोड़ी जाती है, मगर किसी को यह जानकारी नहीं है कि इसकी वजह क्या है? अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए मैंने अनेक पुस्तकें खंगाली। मुझे याद नहीं कि इस बारे में कहां पढ़ा, मगर इस बारे में इशारा करती कुछ बातें मेरे ख्याल में है।
ऐसी मान्यता है कि अंत्येष्टि के दौरान मृत आत्मा देह में ही कपाल के भीतर ब्रह्मरंद्र में होती है। कपाल की हड्डी चूंकि बहुत मजबूत होती है, इस कारण उस पर घी डाल कर उसे तोड़ा जाता है। बताते हैं कि कपाल क्रिया करने पर ही आत्मा की देह से मुक्ति होती है। देह से मुक्त उसे इसलिए किया जाता है, ताकि वह आगे की यात्रा को प्रस्थान करे। कपाल क्रिया से पहले तक उसका अटैचमेंट न केवल अपने जलते शरीर से अपितु आसपास के दृश्य भी होता है। उस अटैचमेंट को समाप्त करने के लिए श्मशान में मौजूद सभी लोग कपाल क्रिया होते ही अपनी-अपनी जगह छोड़ कर दूसरी जगह पर बैठते हैं और नए नया दृश्य बन जाता है। एक झटके में जब पुराना दृश्य आत्मा को नहीं दिखाई देता तो स्वाभाविक रूप से उसका श्मशान स्थल से डिटेचमेंट हो जाता है। यानि कि यदि दृश्य नहीं बदला जाए तो आत्मा का पुराने दृश्य से संबंध बना रहेगा और वह श्मशान स्थल से मुक्त नहीं हो पएगी। हम समझ सकते हैं कि वर्षों तक भौतिक शरीर व दुनिया में रहते हुए हमारा कितना गहरा संबंध हो जाता है। शरीर जलने के बाद आत्मा यहीं अटकी रहना चाहती है। उसे जबरन कपाल से मुक्त कराना होता है। इतना ही अंत्येष्टि के दौरान मौजूद दृश्य से भी उसका संबंध विच्छेद कराने का प्रयास करना होता है। यह मेरी नजर में बैठा तथ्य है, हो सकता है वास्तविकता कुछ और हो। मेरा यह दावा नहीं कि मैं ही सही हूं।
आपने देखा होगा कि अंत्येष्टि के बाद जब परिजन घर लौटते हैं तो कपाल क्रिया करने वाला देहलीज पर मृत आत्मा से अपने संबंध का जोर से उच्चारण करता है। जैसे पिताजी, बाबोसा, दादाजी इत्यादि। इस का कारण जानने की मैंने बहुत कोशिश की है, मगर अभी तक जानकारी नहीं मिल पाई है। हो सकता है, ऐसा मृत आत्मा का आह्वान करने के लिए किया जाता हो ताकि वह श्मशान के बाद घर पर आ जाए। शास्त्रों में बताया गया है कि तेरह दिन पर आत्मा का वास घर में ही रहता है। उसके बाद की यात्राओं का वर्णन गरुण पुराण सहित अन्य शास्त्रों में मौजूद है।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com 

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

धरने प्रदर्शनों में खाये धक्के

पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान एक रैली निकालने की तैयारी हो रही थी। श्रीनगर रोड स्थित सुख सदन पर नेताओं व कार्यकर्ताओं का जमावड़ा  हो रखा था। मैं भी वहीं खड़ा था। अचानक मेरे एक फोटोग्राफर मित्र मेरे पास आए, जो कि दैनिक भास्कर में साथ काम किया करते थे। वे बोले मैं आपकी ये हालत देख कर अफसोस में हूं। ऐसा कहते-कहते उनकी आंखें नम हो गईं। वे बोले- एक जमाना था कि जब ये नेता आपके पैर छुआ करते थे। कांग्रेस के हों या भाजपा के, आपसे मिलने के लिए उनको प्रेस के बाहर इंतजार करना पड़ता था। क्या रुतबा था। मैं उस वक्त का चश्मदीदी गवाह हूं। अपनी खबर व फोटो छपवाने के लिए आपसे कितनी अनुनय-विनय किया करते थे। और आज ये ही धरने-प्रदर्शन के दौरान फोटो खिंचवाने के चक्कर में आपको धक्का देकर आगे निकलने की कोशिश करते हैं। नेता क्या, कार्यकर्ता तक ये नहीं देखते कि वे किसे धक्का दे रहे हैं। क्यों चले आए राजनीति में?
मेरे मित्र का ऑब्जर्वेशन सही है। उनका सवाल भी वाजिब है। पता मुझे भी था कि राजनीति में जाने पर मुझे क्या खोना पड़ सकता है। पत्रकारिता में जिसने सदैव निष्पक्षता का ख्याल रखने की कोशिश की हो, वह बिना किसी पॉलिटिकल बैक ग्राउंड व आर्थिक संपन्नता के राजनीति में कैसे और क्यों आ गया, इस पर तफसील से फिर कभी बात करेंगे। जरूर करेंगे। करनी ही है। मगर फिलहाल इतना कि पिछले दोनों विधानसभा चुनावों में अजमेर उत्तर से मेरी प्रबल दावेदारी थी। मैं जानता था कि जो लोग मुझे एक पत्रकार के नाते सम्मान दे रहे हैं, वे ही बाद में कंधे से कंधा भिड़ाएंगे। फिश प्लेटें भी गायब करने की कोशिश करेंगे। बेशक मेरी भी गरज रही, इस कारण गम खाने को तैयार रहा। दोनों बार जिन भी वजहों से टिकट नहीं मिला, उस पर फिर चर्चा करेंगे, लेकिन कुछ लोगों ने जिस प्रकार अपनी असली औकात दिखाई तो थोड़ा मलाल हुआ। हालांकि मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं, मगर इस बहाने संबंधों की हकीकत का पर्दाफाश हो गया। मुझे मेरे धर्म से मतलब, उन्होंने जो किया, वो उनका धर्म था। उनका क्या, राजनीति का यही धर्म है। वे अपनी जगह ठीक ही थे। मैं उनका शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे जमीनी हकीकत से रूबरू कराया। खुदा हाफिज।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

क्या राजनीति आदमी की इंसानियत भी छीन लेती है?

राजनीति में न दोस्ती और न ही दुश्मनी स्थाई होती है। ऐसा कहा जाता है। है भी। यानि कि राजनीतिक संबंध अस्थाई होते हैं। असल में वह नफे-नुकसान का मामला है। उनमें सामान्य मानवीय व्यवहार व सदाशयता का कोई मूल्य नहीं होता। चलो जैसा भी है, ठीक है। मगर क्या राजनीतिक व्यक्ति निरपेक्ष रूप से भी मानवीय व्यवहार भूल जाता है, इसका अंदाजा मुझे नहीं था। इसका साक्षात्कार हाल ही मेरे एक मित्र, जो कि राजनीति में हैं, युवक कांग्रेस के जाने-माने नेता रहे हैं और उनसे मेरे संबंध राजनीति की वजह से नहीं, ने कराया। मैं उनका बहुत बहुत आभारी हूं कि उन्होंने मुझे इस अनुभव से गुजारा। उनके नाम का जिक्र इसलिए नहीं करूंगा, क्योंकि यह अनुभव लिखने का प्रयोजन उनको टारगेट करना नहीं, बल्कि महज अपना अनुभव साझा करना है। वह भले ही अपनी मर्यादा से च्युत हो गया, मुझे अपनी मर्यादा में ही रहना है।
हुआ यूं कि मैं यूआईटी के पूर्व अध्यक्ष श्री धर्मेश जैन के गांधी भवन के सामने रेलवे केम्पस में हाल ही में उद्घाटित रेस्टोरेंट में शुभारंभ समारोह में मौजूद था। मैं अपने एक और मित्र, जो कि भाजपा में हैं, के साथ खड़ा था। मैंने देखा कि युवक कांग्रेस के नेता रहे मित्र ने समारोह स्थल में एंट्री ली है। मैने अपने भाजपाई मित्र को बताया कि देखो, वो जो शख्स हैं, मेरे अभिन्न मित्र हैं। उनसे मेरे गहरे ताल्लुक हैं। इसकी जानकारी कांग्रेस के सभी नेताओं व कार्यकर्ताओं को भी है। मैं इंतजार कर रहा था कि वे निकट आएं तो उनसे मुलाकात हो। जैसे ही वे मेरे सामने आए तो उन्होंने जो हरकत की तो मैं सन्न रह गया। उनकी नजरें मेरी नजरों से टकराईं। नजरों की मात्र एक पल मुलाकात के बाद उन्होंने हठात अपनी नजरें हटा लीं और आगे बढ़ गए। वह पल मेरे जेहन में तीर की तरह घुस गया। मैं समझ ही नहीं पाया कि ये क्या, क्यों व कैसे हो गया? मेेरे भाजपाई मित्र के चेहरे ने भी सवालिया निशान की आकृति ले ली। मैं निरुत्तर था। निरुत्तर क्या, बहुत आहत था। कुछ क्षण के लिए मेरी जुबान पत्थर की सी हो गई। अपने आप को संभाला। जुबान से सिर्फ यही निकला- कमाल है, उसने मुझे पहचानने से ही इंकार कर दिया। इतना खास मित्र। कभी कोई विवाद नहीं हुआ, फिर भी ये व्यवहार? आखिर ये क्या है? मेरे भाजपाई मित्र ने समझाया कि हो सकता है कि जब आपकी घनिष्ठ मित्रता रही हो, तब आप उसके के लिए बहुत उपयोगी रहे होंगे। आज उसके लिए आपकी उपयोगिता नहीं होगी। तब आप भास्कर में रहे होंगे, अब नहीं हैं। आम तौर पर सभी राजनीतिक लोग ऐसे ही होते हैं। मतलब की दोस्ती रखते हैं। आपको गलतफहमी हो गई कि वह सच्ची दोस्ती थी। फिर भी, केवल राजनीतिक संबंध हों तो भले ही वे ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है, मगर वह अगर घनिष्ठ मित्र रहा है तो उसका ऐसा व्यवहार वाकई सोचनीय है। इसे अपने दिल पर न लीजिए। यही दुनिया है। उनके इस कथन में साथ मेरी बुद्धि पर पड़ा भ्रम का पर्दा हट गया। 
बहरहाल, वह पल मुझे आज भी याद आने पर बहुत तकलीफ देता है। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। उलटा मैं उनका शुक्रगुजार हूं। कितना बेशकीमती अनुभव उन्होंने मुझे दिया है। भगवान उनका भला करे।
कुछ इसी किस्म की घटनाएं पहले भी हुई हैं, अलग अंदाज में। उनका जिक्र फिर कभी। मगर ये घटनाएं पहले से विरक्त मन को दुनिया से और अधिक विमुख किए देती हैं।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

जो हम सोचते हैं वो क्या ब्रह्मांड में कहीं न कहीं विद्यमान है?

एक सवाल मेरे दिमाग में अनेक बार आता है कि हम जो कुछ भी सोचते हैं अथवा कल्पना करते हैं, क्या वह ब्रह्मांड में कहीं न कहीं विद्यमान है? यह सवाल इसलिए उठता है क्योंकि हम और हमारा दिमाग ब्रह्मांड का ही हिस्सा हैं, उससे अलग नहीं, तो जो कुछ भी दिमाग में आता है, वह ब्रह्मांड में कहीं न कहीं होना ही चाहिए। यदि वह ब्रह्मांड में मौजूद नहींं है, तो फिर हमारे दिमाग में कहां से आ सकता है?
इसी सिलसिले में एक विचार ये भी आता है कि हालांकि हम सृष्टि की ही इकाई हैं, मगर इस इकाई में भी अपनी सीमित सृष्टि बनाने की क्षमता मौजूद है। यानि कि ऐसा भी हो सकता है कि जो भी काल्पनिक दृश्य हमारे दिमाग में आता है, वह हमारी ही ओर से सृजित किया गया गया हो, भले ही वह वृहद सृष्टि में मौजूद न हो। वास्तव में सच क्या है, यह आप भी विचार कीजिए।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2019

देवी-देवताओं को भी चमचागिरी पसंद हैं?

इस दुनिया में आम तौर पर हर आदमी अपना मतलब सिद्ध करने के लिए चमचागिरी करता है। हालांकि ऐसे भी लोग हैं जो कि आत्म सम्मान के नाम पर चमचागिरी से परहेज रखते हैं। उनमें से एक मैं भी हूं। मैं किसी को पूरी सहृदयता से अपेक्षित सम्मान तो दे सकता हूं, मगर चमचागिरी नहीं कर सकता। उसका खामियाजा भी बहुत उठाया है, क्यों कि अधिसंख्य लोग चमचागिरी पसंद हैं। वे योग्यता व पात्रता की बजाय चमचों को प्राथमिकता देते हैं। और मैं उन चमचों से पिछड़ जाता हूं। यह बात भलीभांति समझने के बावजूद अगर मैं सफलता के विशेष सूत्र, चमचागिरी का इस्तेमाल नहीं करता तो मुझ से ज्यादा बेवकूफ भला कौन होगा? मैं झूठ नहीं बोलूंगा। भौतिक जगत में भले ही मैं किसी की चमचागिरी नहीं करता, मगर आध्यात्मिक जगत में उससे कोई परहेज नहीं रखता। यह बात दीगर है कि मैं ऐसा करके क्या मांगता हूं? सच तो ये है कि कुछ नहीं मांगता। तर्क ये कि उसे ये पता होगा कि मुझे क्या चाहिए। अगर उसे मेरी जरूरत का ही पता नहीं चलता तो फिर मांगना क्या? उसे जो उचित लगेगा, वह दे देगा। हालांकि मेरे कुछ मित्रों का तर्क है कि मां भी रोये बिना बोबा नहीं देती, मगर ये बात आज तक मेरे दिमाग में नहीं बैठी।
चलो मुद्दे पर आते हैं। आपने एक कहावत सुनी ही होगी। जिसकी लाठी, उसकी भैंस। यह जंगल में तो लागू है ही, सामाजिक व्यवस्था में भी फिट बैठती है। हर जगह ताकत की ही महत्ता है। हर ताकतवर अपने से कम ताकतवर को दबा रहा है और हर कम शक्तिमान अपने से अधिक शक्तिमान की चमचागिरी करने को मजबूर है। इस सत्य को मैने वृहत्तर स्तर पर देखने की कोशिश की है। यह पूरी प्रकृति में भी तो यह लागू होता है।
हम सब जानते हैं कि आदमी सर्वगुणसंपन्न नहीं है। न ही हो सकता है। कोई कितना भी शक्ति संपन्न क्यों न हो, एक सीमा के बाद उसे हाथ खड़े करने ही होते हैं। और तब उसे प्रकृति को सलाम ठोकना पड़ता है। वह सर्वशक्तिमान ईश्वर या किसी न किसी देवता के आगे आत्म समर्पण कर देता है। हालांकि  हम उसे आस्था का नाम देते हैं, मगर असल में है वह चमचागिरी ही। ऋगवेद में ईश्वर का महिमा गान हो अथवा किसी भी देवी-देवता की चालीसा या आरती, उसमें आपको विरुदावलि ही नजर आएगी। यानि कि हम देवी-देवताओं को रिझाने के लिए, स्वार्थ पूर्ति के लिए उनके गुणों का गान करते हैं। वह भी चमचागिरी ही तो है। बस फर्क ये है कि गुणगान शब्द सुसंस्कृत है और चमचागिरी शब्द घटिया। चलो गुणगान तक तो ठीक है, मगर चमचागिरी का आलम ये है कि हम देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए उन्हें प्रसाद तक अर्पित करते हैं। अर्जी लगाते हैं कि हमारी अमुक मनोकामना पूरी होगी तो इतने रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगा। देवता का अर्थ है, जो हमें देता है। जैसे वरुण देवता, वायु देवता, सूर्य देवता, अग्नि देवता, धरती माता इत्यादि। वे सब हमारे जीवन के आधार हैं। कैसा विरोधाभास है कि जो हमें देते हैं, उन्हीं को हम दे कर पटाने की कोशिश करते हैं। प्रसाद चढ़ाने के विधान का जो भी रहस्य हो, मगर मोटे तौर पर तो यही सही है न कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा करके हम उन्हें प्रसन्न कर रहे हैं और वे भी अपनी दी हुई भौतिक वस्तु के अर्पण से प्रसन्न हो रहे हैं।
यदि ये सही है कि प्रसाद चढ़ाने व गुणगान करने से देवी-देवता राजी होते हैं, तो इसका अर्थ ये है कि वे भी चमचागिरी पसंद हैं। उन्हें भी अपनी जय जयकार पसंद है। देवी-देवता ही क्यों, इस सृष्टि को उत्पन्न करने, पालन करने और संहार करने वाले ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी आराधना करने पर वर देते हैं। उसमें मेरिट-डिमेरिट कुछ नहीं देखते। तभी तो राक्षस उन्हें रिझा कर वर हासिल कर लेते हैं। बाद में उसी वर का उपयोग वे देवताओं के खिलाफ करते हैं। देवता परेशान हो कर त्राहि-त्राहि माम करते हैं, तब जा कर वे उनकी रक्षा करते हैं। समझ में नहीं आता कि क्या वर दाताओं को यह ख्याल नहीं होता कि वे जिसे वर दे रहे हैं, वह उसका पात्र है भी या नहीं? या फिर उन्हें यह पता ही नहीं होता कि जिसे वे वर दे रहे हैं, उसके मन में क्या दुर्भावना है? या फिर आराधना के वक्त राक्षस पूर्ण सद्भावी होते हैं और वर हासिल करने के बाद उसका दुरुपयोग करते हैं? या उनको तो इससे सरोकार है कि किसने उनकी आराधना के लिए कितनी कठोर तपस्या की है? जो कुछ भी हो, मगर इतना तय है कि आराधना अर्थात चमचागिरी से वे प्रसन्न होते हैं। हो सकता है कि मुझे इस सत्य का दर्शन पूर्ण रूप से नहीं हो रहा हो, नहीं ही हो रहा होगा, मगर जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, उससे मेरा नजरिया ये ही बना है कि चमचागिरी कोई बुरी बात नहीं है, वह करनी ही चाहिए, चूंकि पूरी प्रकृति का विधान यही है।
फिलहाल इतना ही। फिर कभी और गहरा गोता लगाएंगे कि चमचागिरी व आराधना का गूढ़ अर्थ क्या है?
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

भूख भी एक यज्ञ है, समय पर आहुति दो

बात तकरीबन 1990 की है। मैं तब कुछ दिन पूर्व ही दैनिक न्याय से इस्तीफा दे चुका था। असल में जब वहां संपादकीय प्रभारी था, तब एक आलेख प्रधान संपादक स्वर्गीय बाबा श्री विश्वदेव शर्मा ने प्रकाशित करने के लिए मुझे भेजा। चूंकि वह सांप्रदायिक सद्भाव को प्रभावित कर सकता था, इस कारण मैने वह प्रकाशित न करने की सलाह दी। वे उस समय तो मान गए, मगर जब कुछ दिन बाद ही मैने इस्तीफा दे दिया तो तत्कालीन प्रभारी ने उसे प्रकाशित कर दिया। वही हुआ, जिसकी आशंका थी। एक समुदाय ने विरोध प्रदर्शन किया और तत्कालीन प्रबंध संपादक स्वर्गीय श्री विभु जी के विरुद्ध मुकदमा दर्ज हुआ। पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने आई। शाम कोई सात बजे का समय था। हालांकि अखबार जगत के लिए इस प्रकार के मुकदमे व गिरफ्तारी कोई खास बात नहीं, मगर परिवार की महिलाओं के लिए तो यह बड़ी बात थी। महिलाएं रुआंसी थी। बाबा के भोजन का समय हो गया था। उसमें विलंब होने लगा तो वे बोले, अरे भाई भोजन परोस दो। बाबा की धर्मपत्नी बोलीं कि मेरे बेटे को गिरफ्तार करके ले जा रहे हैं और आपको लगी है खाने की। इस पर बाबा बोले के ये महज भूख व खाने की बात नहीं है। भोजन करना एक यज्ञ ही है। आमाशय में प्रकृति प्रदत्त अग्नि प्रज्ज्वलित है और उसे आहुति देना जरूरी है। अन्यथा विकृति उत्पन्न होगी। गिरफ्तारी व जमानत पर रिहाई आदि एक सामान्य घटनाक्रम है, मगर पेट का यज्ञ ज्यादा जरूरी है। वह समय पर ही होना चाहिए। ऐसे थे बिंदास व नियम के पक्के थे बाबा। कहने की जरूरत नहीं है कि वे पक्के आर्य समाजी थे। जिन्होंने उन्हें निकट से देखा है, वे मेरी बात की ताईद करेंगे। उस वक्त मुझ सहित अन्य को भी लगा कि क्या बाबा कुछ वक्त भूख पर नियंत्रण नहीं कर सकते, मगर बाद में विचार करने पर लगा कि वे सही कह रहे थे।
चलो, भोजन करना भी एक यज्ञ है, यह बाबा का नजरिया हो सकता है, मगर यदि स्वास्थ्य के लिहाज से भी देखें तो जिस नियत वक्त पर भूख लगती है, तब आमाशय में भोजन को पचाने वाले रसायनों का स्राव शुरू हो जाता है। भूख लगती ही उन रसायनों के कारण है। अगर हम भोजन नहीं करते तो वे रसायन आमाशय को नुकसान पहुंचाते हैं। हो सकता है कि हम यह कह कर उपहास उड़ाएं कि क्या भूख पर काबू नहीं कर सकते? बेशक काबू कर सकते हैं, मगर फिर हमें उसके शरीर पर पडऩे वाले दुष्प्रभाव के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
मैने देखा है कि सरकारी कर्मचारी तो लंच टाइम होने पर समय पर भोजन कर लेते हैं, मगर व्यापारियों को ऐसी कोई सुविधा नहीं। लंच टाइम पर भी ग्राहकी लगी रहती है। मैने ऐसे कई व्यापारी देखे हैं, जो भोजन की नियमितता का पूरा ख्याल रखते हैं और कितनी भी ग्राहकी हो, टाइम पर ही भोजन करते हैं। गुजरात में तो कई व्यापारी लंच टाइम पर दुकान मंगल कर घर जा कर भोजन करते हैं और तनिक आराम करने के बाद दुकान खोलते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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धार्मिकता के साथ और ज्यादा अधार्मिक होता आदमी

मोटे तौर पर माना जाता है कि हमारे पूर्वज अधिक धार्मिक व ज्यादा आध्यात्मिक थे। हमारे बड़े-बूढ़े अधिक नैतिक थे, लेकिन अब मानवीय मूल्यों का हृास होता जा रहा है। संवेदना कम होती जा रही है। उसी के साथ पारिवारिक इकाइयां टूट कर छोटी होती जा रही हैं। पहले माता-पिता की सेवा का बड़ा महत्व था, जबकि अब सेवा के लिए टाइम ही नहीं है। मियां-बीवी नौकरी पर जाएं, ज्यादा बड़े पैकेज के लिए दूर-दराज के शहरों में नौकरी करें, तो मां-बाप को संभाले कौन? नतीजतन नित नए वृद्धाश्रम खुल रहे हैं। आदमी आत्म केन्द्रित होता जा रहा है। स्वार्थपरता बढ़ रही है। कभी वो दौर था, जब ढ़ाणी में किसी की मौत होने पर अंत्येष्टि होने तक पूरी ढ़ाणी में चूल्हा नहीं जलता था, और आज वह दौर है, जब शहरी कॉलोनियों में हर आदमी सिर्फ अपने-अपने मकान में कैद है, उसे पड़ौसी से कोई वास्ता तक नहीं। बेशक समाज की सूरत बहुत बदल गई है।
अब नजर डालें तस्वीर के दूसरे रुख पर। पिछले कुछ दशकों से हम देख रहे हैं कि धार्मिकता बढ़ रही है। धार्मिक कट्टरता में भी इजाफा हो रहा है। मंदिरों में भीड़ उमड़ती है। कई बाबाओं की पोल खुल चुकी है,मगर उनके ठिकानों पर भक्तों की कतारें अब भी लगी हुई हैं। पुराने बाबा निपटते हैं तो नए पैदा हो जाते हैं। संतों के प्रवचनों में भीड़ उमडऩे लगी है। शिव रात्रि, नवरात्रि, गणेश चतुर्थी आदि अवसरों पर बड़ी धूम मचती है। नई पीढ़ी कावड़ यात्राओं में उत्साह से हिस्सा ले रही है। गरबों के आयोजन गुजरात से आ कर राजस्थान के कोने-कोने में पसर गए हैं। उनमें युवक-युवतियां जम कर नाचती हैं। गणेश चतुर्थी पर घर-घर प्रतिमाएं स्थापित करने का चलन बढ़ा है। गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन पर भी खूब मस्ती होती है। रामदेवरा जाने वाले जातरुओं की संख्या बढ़ रही है। जगह-जगह नि:शुल्क भंडारे लगते हैं। दान-पुण्य के बहुत आयोजन होते हैं। वैष्णो देवी की यात्रा का चलन बढ़ता जा रहा है। साईं बाबा के मंदिरों में आस्था बढ़ रही है। अजमेर की ख्वाजा साहब की दरगाह सहित देश की अन्य दरगाहों में जायरीन की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है।
सवाल ये उठता है कि यदि धार्मिकता इतनी ही बढ़ रही है तो झूठ, मक्कारी, बदमाशी, भ्रष्टाचार आदि की तूती क्यों बोल रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि जो धार्मिकता बढ़ती दिखाई दे रही है, वह फैशन का एक रूप है। ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि कई बार मेरे मित्र सवाल करते हैं कि क्या आप वैष्णो देवी नहीं गए? शिरड़ी नहीं गए? एक बार जा कर आओ। मानो आप वहां नहीं गए, यानि कि जिंदगी का कोई जरूरी काम करने से चूक गए। अब उनके कहने में धार्मिकता का भाव ज्यादा है या फिर घूमने-फिरने का, उसे समझने की कोशिश कर रहा हूं।
सवाल ये भी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आदमी इतने अधिक पाप करने लगा है कि उसे धोने के लिए धर्म का सहारा लेना पड़ रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह अपने कर्म के फल से आशंकित है, इस कारण उसके उपाय के रास्ते तलाश रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि आदमी इतना तनाव ग्रस्त, अशांत, दुखी व परेशान है कि धार्मिक आयोजनों से जुड़ कर मन की शांति तलाश रहा है? ये सवाल आपके विचार के लिए छोड़ता हूं।
आखिर में धार्मिकता के कमर्शियलाइजेशन के साथ अपनी बात पूरी करता हूं। मेरे एक साधन संपन्न मित्र, जो कि बड़े धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे हैं, से मैने जब ये पूछा कि आप जो धर्म-कर्म में इतना पैसा लगाते हैं, क्या ऐसा वाकई आस्था के कारण करते हैं, तो उन्होंने धीरे अंदर की बात बताई। वो ये कि एक तो इससे सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के माने आयोजन स्थल के मंच पर प्राथमिकता मिलती है। दूसरा ये कि काला धन सफेद करने में सुविधा होती है, क्योंकि धार्मिक संस्थाओं में दान देने पर इन्कम टैक्स में छूट का प्रावधान है। तीसरा ये कि इस बहाने थोड़ा पुण्य हो जाता है। उन्होंने बताया कि अधिसंख्य प्रवचनकर्ता व कथावाचकों का बाकायदा पैकेज होता है। उससे कम से आते ही नहीं। अंदर की बात सुन कर मैं भौंचक्क रह गया। लेकिन उसका सकारात्मक पहलु ये ही ख्याल में रख कर संतोष किया कि बड़े धार्मिक आयोजनों में भले काले धन का उपयोग होता हो, मगर कम से कम आयोजन में शिरकत करने वाले लाखों लोग तो प्रवचन आदि सुन कर धर्म लाभ ले रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 15 दिसंबर 2019

कुत्ते की पूंछ सा है आदमी?

धरती पर अब तक न जाने कितने भगवान, ऋषि-मुनि, महापुरुष, युग पुरुष, चिंतक, दार्शनिक, ज्ञानी, संत-महात्मा आदि अवतरित हुए हैं। हम उत्तरोत्तर बुद्धिमान व सभ्य भी होते जा रहे हैं, मगर आदमी दिन ब दिन और बदमाश, कुटिल व स्वार्थी होता जा रहा है। तो सवाल ये उठता है कि उनके अवतरण का आखिर लाभ क्या हुआ? किताबें आदर्श, मर्यादा, सदाचार, प्रेम आदि से भरी पड़ी हैं, मगर दुनिया में आदर्शहीनता, अमर्यादित व्यवहार,  दुराचार व दुश्मनी का ही बोलाबाला है। तो क्या वे किताबें बेमानी हैं? इस किस्म के सवाल मुझे किशोरावस्था से कचोटता रहे हैं। इस बारे में मैंने अपने अंग्रेजी के शिक्षक, जो कि दार्शनिक सा जीवन जीते थे, सवाल किया। उन्होंने कहा कि क्यों फालतू के सवालों में अपना समय गंवाते हो। दुनिया जाए भाड़ में। भगवान ने आपको दुनिया को सुधारने का ठेका दे कर पैदा नहीं किया है। अपने काम से काम रखो। जीवन बहुत छोटा है, आत्म कल्याण के लिहाज से। सारा ध्यान इस पर लगाओ कि आप स्वयं कैसे बेहतर से बेहतर जीवन जीते हैं। यह दुनिया सदैव से ऐसी ही रही है। इसको सुधारने की चिंता छोड़ो। सुधार पाओगे भी नहीं। मशक्कत व्यर्थ जाएगी।
उन्होंने गीता में उल्लिखित भगवान श्रीकृष्ण के संदेश, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:, अभ्युत्थानमधर्मस्य तत्दात्मानम सृजाम्यहम का जिक्र करते हुए बताया कि इस संदेश में ही यह अंतनिर्हित है कि धर्म की हानि तो होती रहेगी और अधर्म को मिटाने के लिए भगवान भी बार-बार अवतरित होते रहेंगे। सिलसिला कहीं थमने वाला नहीं है। महापुरुष जन्म लेंगे। बेशक अपने-अपने काल खंड को प्रभावित करेंगे, मगर किसी का प्रभाव शाश्वत नहीं रहेगा। कुत्ते की पूंछ सा है आदमी। तो तुम दुनिया को सुधारने का जिम्मा मत लो, वह भगवान पर ही छोड़ दो। जरा सोचो कि खुद भगवान को ही बार-बार अवतार लेना पड़ता है, एक बार के अवतार से वे दुनिया को पूरा सुधार नहीं पाते। दुनिया में फिर से अधर्म का बोलबाला हो जाता है। ऐसे में तुम्हारी बिसात ही क्या है?
और खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि समय का एक प्रवाह है। एक धारा है। जैसे एक नदी के प्रवाह को हम रोक नहीं पाते, वैसे ही वक्त के खिलाफ चलने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यदि हम नदी की धारा को रोकने की कोशिश करेंगे तो मात्र अपने शरीर मात्र की सीमा तक सफल हो पाएंगे। और वह भी कब तक? हद से हद साठ-सत्तर साल तक। जैसे ही तुम समाप्त हो जाओगे, वह फिर से अपनी दिशा में बहती रहेगी। ये दुनिया ऐसी ही रहेगी। तो क्यों फालतू में अपना टाइम बर्बाद करते हो। काहे फिक्र करो दुनिया की? उचित ये है कि सारा ध्यान अपने पर केन्द्रित कर लो। दुनिया के कल्याण का ख्याल छोड़ो, वह तुमसे होना भी नहीं है, ज्यादा अच्छा है कि आत्म कल्याण की दिशा में बढ़ जाओ। यह सीख मेरे जेहन में गहरे पैठी हुई है, हालांकि इस पर सीमित ही अमल कर पाया हूं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक छपती ही नहीं, अगर....

किसी भी योजना के पूर्ण रूप से सफल होने के लिए उसका ब्लू प्रिंट बनाया जाना जरूरी है। विशेष रूप से उसके आर्थिक पक्ष को ठोक-बजा कर सुनिश्चित करना तो बहुत ज्यादा आवश्यक है। यह एक सामान्य सा तथ्य है, जो कि मैं पहले से जानता हूं, फिर भी मुझे इसके साक्षात दर्शन अजमेर  के इतिहास, वर्तमान व भविष्य पर लिखित पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस ने करवाए। मेरी किस्मत में ठोकर खा कर ही ठाकर बनना लिखा था। इस पुस्तक ने भरोसे की भैंस पाडा लाती है, वाली कहावत से भी साक्षात्कार करवाया। कहते हैं कि गलतियां इंसान से होती ही हैं, लेकिन विवेकी वही है, जो गलती को सुधार ले। मुझ मूर्ख ने एक बार गलती होने पर भी नहीं सुधारी।  दैनिक नवज्योति के प्रधान संपादक श्री दीनबंधु चौधरी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाशित पुस्तक दीनबंधु चौधरी गौरव ग्रंथ की प्रसव पीड़ा भी बहुत वेदना पूर्ण रही। उस बारे में बात फिर कभी। अभी अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक की बात।
असल में यह प्रस्ताव मौलिक रूप से नगर पालिका सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी व मेरे बड़े भाई समान आदरणीय श्री सुरेश गर्ग का था। बहुत साल पहले उनके बड़े भ्राता श्री कमल गर्ग ने शहर के प्रमुख लोगों के व्यक्ति परिचय की पुस्तक बनाने की प्रयास किया था। उसकी पांडुलिपि भी बन गई, मगर वह प्रकाशित नहीं हो पाई थी। कदाचित वह अधूरा सपना पूरा करने का ही श्री सुरेश गर्ग का विचार रहा हो। हालांकि हमने पुस्तक को प्रकाशित  करने पर होने वाले व्यय का अनुमान लगा लिया था और उसके लिए जुटाई जाने वाली राशि के बारे में अंदाजा लगा लिया था, मगर उसकी सुनिश्चित व्यवस्था नहीं की।
खैर, हमने आजाद साप्ताहिक के भूतपूर्व प्रधान संपादक स्वर्गीय घीसूलाल जी पांड्या की ओर से कोई चालीस साल पहले प्रकाशिक पुस्तक  को ख्याल में रखा। इसी प्रकार कर्नल टॉड व स्वर्गीय श्री हरविलास शारदा की अजमेर के इतिहास पर लिखित पुस्तक को भी सामने रखा।
पुस्तक में व्यक्ति परिचय के अतिरिक्त अजमेर के बारे में मोटी-मोटी जानकारी देने का विचार था, मगर मेरी एक गंदी आदत के कारण पुस्तक का स्वरूप ही बदल गया। किसी भी विषय की गहराई में जाने और बेहतर से बेहतर करने की प्रवृत्ति के चलते मैंने अजमेर के इतिहास व वर्तमान पर अनेक अध्यायों पर काम करना शुरू कर दिया। नतीजतन यह एनसाइक्लोपीडिया व थीसिस सा दुरूह कार्य बन गया। मैने इतनी मेहनत की, इतनी मेहनत की कि उसका शब्दों में वर्णन करना असंभव है। पुस्तक का तकरीबन अस्सी फीसदी काम पूरा होने के बाद ख्याल आया कि इसके प्रकाशन के लिए अपेक्षित धन राशि नहीं जुटाई जा सकेगी। मुझे लगा कि इस पुस्तक का हश्र भी श्री कमल गर्ग के प्रयास की तरह होगा। श्री सुरेश गर्ग की ओर से प्रारंभिक रूप से जुटाई गई राशि के भी डूबने का खतरा था। ऐसे में इस कथानक में यकायक किसी देवता की भांति स्वामी न्यूज के एमडी श्री कंवल प्रकाश किशनानी का प्रवेश हुआ। वे मेरे अनन्य मित्र हैं। उन्होंने संकल्प लिया कि इस पुस्तक को किसी भी सूरत में प्रकाशित करेंगे। उन्होंने न केवल प्रकाशन से पूर्व आर्थिक संसाधन झोंके, अपितु पूरा व्यय जुटाने के लिए विज्ञापन भी हासिल किए। जब पांडुलिपि बन गई तो हम दोनों ने शहर के जाने-माने डिजाइनर जनाब जमाल भाई के साथ मिल कर एक-एक पेज की डिजाइन तैयार की। कई बार रात के तीन-तीन बजे तक काम किया। और पुस्तक प्रकाशित हो गई। मेरी इस संतति को देख कर मुझे वैसा ही आनंद मिलता है, जैसा किसी मां को प्रसव पीडा के बाद संतान के पैदा होने पर होता है। विचार आया कि उसका विमोचन तत्कालीन केन्द्रीय राज्य मंत्री श्री सचिन पायलट के हाथों से करवाएंगे। मैने स्थानीय कांग्रेसी नेताओं की मदद लेने की सोची, मगर एक भी नेता ऐसा नहीं मिला, जो कि हमें उनसे मिलवा सके। आखिरकार एडीटीवी के तत्कालीन अजमेर ब्यूरो चीफ मोईन भाई ने सहयोग किया। उन्होंने ही श्री पायलट से अपॉइंटमेंट दिलवाया। श्री पायलट पूर्व परिचित थे। उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी। विमोचन स्थानीय कनक सागर समारोह स्थल पर हुआ, जिसमें अजमेर के भाजपा व कांग्रेस के सभी नेता, बुद्धिजीवी, व्यापारी व पत्रकार साथी मौजूद थे। किसी पुस्तक का ऐसा विमोचन समारोह शायद पहले कभी नहीं हुआ होगा। श्री पायलट ने पुस्तक के लिए मेरी तो सराहना की ही, मगर साथ ही ये उद्गार भी व्यक्त किए कि ऐसे ऐतिहासिक कार्य का श्रेय उन लोगों को भी जाता है, जिन्होंने इसके प्रकाशन में मदद की। सीधे तौर पर उनका इशारा श्री किशनानी व श्री सुरेश गर्ग की ओर था। पुस्तक के यज्ञारंभ के लिए श्री सुरेश गर्ग और पूर्णाहुति के लिए श्री कंवल प्रकाश किशनानी का बारंबार आभार।
मैं स्वीकार करता हूं कि मैं श्री किशनानी का चाहे कितना आभार मानूं, मगर ऋण से कभी उऋण नहीं हो पाऊंगा। उनको बारम्बार साधुवाद।
बात समाप्त करने से पहले आखिरी बात। दैनिक नवज्योति के प्रधान संपादक श्री दीनबंधु चौधरी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रकाशित पुस्तक दीनबंधु चौधरी गौरव ग्रंथ, जिसका कि मैने संपादन किया, ने मुझे मूर्ख साबित कर दिया। एक गलती के बाद लगातार दूसरी गलती के लिए मैं अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा। उसकी कहानी फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

रात के बारह बजे क्यों तोड़ते हैं व्रत?

एक सृष्टि वो है, जो हमारे चारों ओर विद्यमान है, उसके हम अंग हैं, हम उसी के अनुरूप उठते-बैठते, खाते-पीते हैं, हम उससे बंधे हुए हैं, मगर एक सृष्टि वह भी है, जो हम निर्मित करते हैं। हमारे आस-पास। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि का कथन उसी संदर्भ में है। ऐसा नहीं है कि जैसी हमारी दृष्टि होगी, पूरी की पूरी सृष्टि भी वैसी ही हो जाएगी। वजह ये कि सृष्टि नियंता की तरह हम उतने शक्तिमान नहीं हैं, हमारी शक्ति की सीमाएं हैं। जैसे पूरी सृष्टि के शाश्वत व सार्वभौमिक नियम हम पर लागू होते हैं, वैसे ही हमारी बनाई हुई सृष्टि के नियम भी हम को प्रभावित करते हैं। एक सीमा तक।
आपने देखा होगा कि कई बार मंगलवार या शनिवार अथवा किसी और वार का व्रत रखने वाले किसी पार्टी में होते हैं तो कहते हैं कि आज अमुक वार है, मेरा व्रत है, अत: रात के बारह बजे दूसरा वार शुरू होने पर ही अन्न अथवा मदिरा का सेवन कर पाऊंगा। सवाल ये उठता है कि हम अपनी हिंदू संस्कृति के तहत व्रत रखते हैं तो उसमें वार का नियम भी हिंदू संस्कृति का लागू होगा, रात बारह बजे वार बदलने का नियम तो आंग्ल नियम है। हमारे यहां तो सूर्योदय के समय नया वार शुरू होता है, जो कि दूसरे दिन सूर्योदय तक रहता है। अर्थात कोई भी वार दिन से शुरू होता है और उसके बाद उस वार की रात आती है। इसी प्रकार इस्लामिक परंपरा में पहले रात व बाद में दिन शुरू होता है। तभी तो जुम्मे अर्थात शुक्रवार से पहले आने वाले गुरुवार को जुम्मेरात कहते हैं।
मुद्दा ये है कि आपने यदि मंगलवार को व्रत रखा हुआ है तो वह अगले दिन सुबह सूर्योदय तक चलना चाहिए, जबकि अमूमन लोग रात बारह बजे ही वार बदलने वाले नियम को मानते हुए बारह बजते ही व्रत तोड़ देते हैं। आपने ये भी देखा होगा कि जो व्यक्ति मंगलवार का व्रत रखता है तो वह सोमरात की रात बारह बजे से पहले खा-पी लेता है, वह मानता है कि बारह बजे मंगलवार शुरू हो जाएगा, जबकि वह गलत है। इस बात को लेकर आपने कई बार मित्र मंडली में बहस होती हुई देखी होगी।
मेरा ऐसा अनुभव है कि कोई भी व्यक्ति जो भी नियम अपने लिए बनाता है, वह उस पर लागू होता है, उसमें संस्कृति के अनुसार बने हुए नियम का कोई अर्थ नहीं होता। यदि हमने मंगलवार की रात बारह बजे वार बदलने की धारणा अपने मन में कायम कर रखी है तो वही हमें प्रभावित करेगी। यदि हम उस धारणा को भंग करेंगे तो कदाचित वह प्रतिकूलता दे सकती है। और एक बार प्रतिकूलता मिली तो हमारा यकीन मजबूत हो जाता है कि मैंने अपना बनाया हुआ नियम तोड़ा, इस कारण प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हुई। वस्तुत: यह हमारी आस्था का सवाल है। एक गीत आपने सुना होगा- मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी। ताजा मुद्दे पर यह पंक्ति सटीक बैठती है। मेरी नजर में इसका मानसिक खेल ये है कि जैसे ही किसी कारणवश हम अपनी निर्मित धारणा, जिसे कि हम लघु सृष्टि भी कह सकते हैं, के विपरीत कोई काम करेंगे, तो हमारे भीतर अपराधबोध उत्पन्न होगा, जो कि हमारी मानसिक शक्ति को कमजोर करेगा व मन में आशंका उत्पन्न होगी। कदाचित प्रतिकूल परिणाम भी हो सकता है। दूसरी ओर जिसने इस प्रकार वार का नियम नहीं बना रखा है तो उस को कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक और उदाहरण देखिए। परंपरागत रूप से कुछ लोग मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल-नाखून आदि नहीं काटते, जबकि अनेक लोग बाल काटते समय वार को कोई अहमियत नहीं देते। दोनों प्रकार के लोगों पर अपने-अपने हिसाब से बनाई गई धारणा काम करती है। यह ठीक है कि जब भी मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल नहीं कटवाने की परंपरा शुरू हुई, उस वक्त उसके कोई तार्किक कारण रहे होंगे। हमारे दैनंदिन जीवन में प्रतिदिन में हम अनेकानेक परंपरागत नियमों का पालन करते हैं, मगर आपने देखा होगा कि समय बदलने के साथ वे नियम टूटे भी हैं और उनमें शिथिलता आई है। अब किसी ने नियम तोड़ा है तो उसे नुकसान हुआ ही है या होगा और किसी ने नियम पाला है तो उसे बहुत फायदा हुआ ही है या होगा, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।
यूं नियम की बड़ी महत्ता है, इस पर विस्तार से कभी और बात करेंगे।
आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। प्रकृति के मामले में हमारा बोला हुआ तथ्य पूर्ण सत्य होगा, इसकी संभावना कम है, क्योंकि प्रकृति में दो और दो चार नहीं होता। कभी पांच तो कभी तीन हो जाता है। यही वजह है कि प्रकृति समझ में नहीं आती। वस्तुत: यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 7 दिसंबर 2019

तो फिर राम रहीम, आशाराम, स्वामी चिन्मयानंद और सेंगर जैसे आरोपियों का भी एनकाउंटर क्यों नहीं किया जा रहा?

कानूनी पेचीदगियों व लंबी न्यायिक प्रक्रिया से त्रस्त पूरा देश बलात्कार के आरोपियों के एनकाउंटर पर जिस प्रकार तालियां बजा रहा है, वह ये सवाल खड़ा करता है कि क्या न्यायालयों को बंद करके कानून की पालना व दंडाधिकार पुलिस को दे दिए जाने चाहिए? जब यह एनकाउंटर वास्तविक व उचित न्याय है तो अब तक दर्ज सारे बलात्कार प्रकरणों के दोषियों का भी एनकाउंटर  होना चाहिए, अन्यथा उन सभी पीडि़ताओं के साथ अन्याय हो जाएगा? कैसी विडबंना है, हम गुस्से में इतने अंधे हो चुके हैं कि आम तौर जिस पुलिस को हम जालिम व भ्रष्ट मानते हैं, आज उसी की पूजा रहे हैं।
सोशल मीडिया पर सवाल उठाए जा रहे है कि तो फिर राम रहीम, आशाराम, स्वामी चिन्मयानंद और सेंगर जैसे आरोपियों का भी एनकाउंटर क्यों नहीं किया जा रहा? इसमें कोई दोराय नहीं कि न्याय न मिलने और न्याय में हो रही देरी के चलते ही लोगों का न्यायपालिका से विश्वास उठता जा रहा है, पर यदि पहले से ही भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी पुलिस को इस तरह से एनकाउंटर करने की छूट मिल जाएगी तो इसकी क्या गारंटी है कि पुलिस इस माहौल का दुरुपयोग नहीं करेगी?
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

अपनी प्रार्थना खुद ही बना लो

प्रार्थना का बड़ा महत्व है। ऋषियों-मुनियों व विद्वानों ने भगवान व देवी-देवताओं की जितनी भी प्रार्थनाएं बनाई हैं, बहुत चिंतन-मनन से रची गई हैं। वे किसी भी ईष्ट को रिझाने के लिहाज से संपूर्ण होती हैं। निश्चित रूप से वे प्रभावकारी भी होती हैं, अगर हम उसके अर्थ को जानते हुए पूरे भाव से करें। मगर अमूमन होता ये है कि हमें प्रार्थना का अर्थ पता ही नहीं होता। यदि अर्थ पता भी होता है तो कई बार पूरे मनोयोग से नहीं करते। नतीजतन वह जिस भी देवी-देवता के लिए की गई है, उस तक पहुंचती ही नहीं। ऐसे में उनका फल कैसे मिल सकता है?
जो प्रार्थना सरल हिंदी में होती है, उसका अर्थ तो हमें पता होता है, उसमें केवल भाव को संयुक्त करना होता है, मगर संस्कृत, संस्कृत निष्ट, अन्य भाषा या क्लिस्ठ हिंदी भाषा की प्रार्थना का अर्थ आम आदमी के समझ में नहीं आता। वह की तो जाती है, मगर चूंकि उसके शब्दों के साथ भावना नहीं जुड़ पाती है, इस कारण निष्फल ही होती है। विभिन्न मंत्रों का शाब्दिक अर्थ जाने बिना अथवा ठीक से उच्चारण किए बिना ही बोला जाता है तो वह भी निष्फल ही होता है। प्रार्थना तो छोडि़ए, जब हम भगवान शब्द का उच्चारण कर रहे होते हैं, तब भी अमूमन उसके साथ भाव नहीं जोड़ते। जैसे किसी ने आप से पूछा कि क्या हाल-चाल है, तो हम जवाब देते हैं कि भगवान की कृपा है। जरा गौर कीजिए, क्या जब हम भगवान शब्द बोलते हैं तो उस वक्त हमारे जेहन में भगवान की कल्पना होती है? आम तौर पर नहीं होती। ऐसे में उसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता। 
आपकी जानकारी में होगा कि हमारे यहां देवी-देवताओं के नाम पर नाम रखने की परंपरा रही है। ऐसा इसलिए कि जब हम किसी को पुकारें तो अमुक देवी-देवता का स्मरण आए, मगर सच्चाई ये है कि हमारे मन में उसका ख्याल ही नहीं होता। हम केवल रटे हुए तरीके से शब्द का उच्चारण करते हैं। जैसे किसी का नाम राम लाल है तो जब हम उसे पुकारते हैं तो क्या राम भगवान का ख्याल आता है? नहीं। केवल जुबान हिलती है, उसके पीछे कल्पना या भाव नहीं होता। 
खैर, बात प्रार्थना की। एक प्रसंग मैंने किसी पुस्तक में पढ़ा था। जरा उस पर विचार कीजिए। एक बार एक गडरिया जंगल में भेड़ें चरा रहा था।  वह आसमान की ओर मुंह करके खुदा से बात कर रहा था। जाहिर है, वह अनपढ़-गंवार था, इस कारण उसे न तो प्रार्थना आती थी और न ही नमाज। वह खुदा से संवाद करता हुआ कह रहा था कि या खुदा तू आसमान में अकेला कैसे रहता होगा? मेरी भेड़ों की तरह तेरे भी जुएं पड़ जाती होंगी, वहां तेरी जुएं कौन निकालता होगा? आ, मैं तेरी जुएं निकाल दूं। स्वाभाविक है कि जो निपट गंवार गडरिया भेड़ों के साथ रहता होगा तो उसकी सोच भी वैसी रही होगी। उसी मानसिक स्तर पर सोचता होगा। उसे क्या पता कि खुदा के कोई जुएं नहीं पड़ती, मगर वह तो अपनी भेड़ों की तरह उसकी कल्पना कर रहा है। संयोग से उधर से कोई मौलवी गुजर रहा था। उसने जब देखा-सुना कि गडरिया खुदा से किस तरह की भाषा में बात कर रहा है तो उसे बहुत गुस्सा आया। वह गडरिये से बोला कि बेवकूफ ये तू क्या कर रहा है? खुदा के भी कोई जुएं पड़ती हैं? आ तुझे मैं खुदा की इबादत का तरीका बताता हूं। मैं तुझे नमाज पढऩा सिखाता हूं। गडरिया मान गया। मौलवी ने उसे नमाज पढऩा सिखाया। जैसे ही वह मौलवी वहां से आगे गया तो आकाशवाणी हुई। ऐ मौलवी, तूरे ये क्या किया? तूने मेरा एक सच्चा और भोला मुरीद छीन लिया? तूने उसकी सच्चे दिल से की जा रही इबादत उससे छीन ली? तूने बडा अनर्थ कर दिया। वह पूरी शद्दत से मुझे याद कर रहा था और तूने उसे नमाज सिखा दी। वह भला क्या नमाज का अर्थ व भाव समझ पाया होगा? जितनी बुद्धि उसकी है, उसी का इस्तेमाल करके वह मुझ से बात कर रहा था। उसकी वह इबादत मुझ तक पहुंच रही थी। तूने उसे नमाज सिखा कर अच्छा नहीं किया। तूने मेरे मुरीद व मेरे बीच नमाज की बाधा डाल दी है।
इस प्रसंग से मुझे यह ख्याल आया कि क्यों नहीं हम भी अपनी ही भाषा में भगवान की प्रार्थना बना लें। चूंकि वह हमारी बनाई हुई होगी, इस कारण उसका अर्थ हमें ठीक से पता होगा। उसके साथ हमारी भावना जोडऩा भी आसान रहेगा। एक महत्वपूर्ण बात ये भी कि हमारी जरूरत के अनुसार बनाई गई प्रार्थना ज्यादा कारगर होगी। फर्क इससे नहीं पड़ता कि प्रार्थना संस्कृत या किसी और भाषा में रची गई हो। फर्क इससे पड़ता है कि वह हमें पूरी तरह से समझ में आती हो और पूरे भाव से उसके जरिए भगवान से संवाद करें। मूलत: भावना का ही महत्व है।
आपको मेरा यह नजरिया कैसा लगा? जरा इसको आजमा कर देखिए। मैं विद्वानों द्वारा रचित प्रार्थनाओं कि खिलाफ नहीं हूं। जो भी प्रार्थना मुझे गहरे में समझ में आ गई है, वह भी जरूर उपयोग में लाता हूं। फिर भी मैने अपनी प्रार्थना अपनी कामना के अनुसार सरल हिंदी में ही बना रखी है। मेरा अकीदा है कि वह अधिक कारगर है। उस प्रार्थना को करके मुझे बहुत सुकून मिलता है क्योंकि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान से मेरी सीधी बातचीत हो रही है। मेरी माता जी पुरुषार्थ के लिये कभी कभी कहती हैं कि आपणी घोट तो नशा हो। इसका शाब्दिक अर्थ तो भांग के संदर्भ में है, लेकिन इसके मायने भी इस रूप में ले सकते हैं,  जिसकी हम चर्चा हम कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 4 दिसंबर 2019

एक ही बार राम का नाम लिया और खेल खत्म

एकाग्रता का बड़ा महत्व है। चाहे ध्यान या समाधि में, चाहे संसार के दैनंदिन कार्यों में। जो भी काम हम एकाग्रता से करते हैं, उसके पूरे होने की संभावना बढ़ जाती है। एकाग्रता के अनेक उदाहरण भी हमारी जानकारी में हैं। सर्वाधिक चर्चित है अर्जुन और चिडिय़ा की आंख वाला प्रसंग। अर्जुन जब चिडिय़ा की आंख को भेदने की कोशिश करते हैं तो उन्हें सिर्फ आंख ही दिखाई देती है, आसपास का कुछ भी नजर नहीं आता, तभी तीर सीधा आंख के बीचोंबीच जा कर लगता है।
एकाग्रता के मायने भी हम जानते हैं। मन की सारी शक्ति लगाते हुए विचारों को एक ही जगह केन्द्रित करने को हम एकाग्रता कहते हैं। एकाग्रता से हमारी बिखरी हुई सारी शक्ति संगठित हो जाती है। जैसे एक उत्तल लैंस को सूर्य के सामने रखते हैं तो दूसरी ओर सूर्य की सारी किरणें एक ही दिशा में बढ़ते हुए एक बिंदू पर आ कर फोकस हो जाती है, और वहां रखा कागज या कपास जलने लगता है। वस्तुत: सूर्य की हर किरण में तपिश होती है और जैसे ही बहुत सारी किरणें आगे बढ़ते हुए एक जगह केन्द्रित होती है तो तापमान इतना बढ़ जाता है कि वस्तु जलने लगती है। 
विद्यार्थियों को एकाग्रचित्त हो कर पढ़ाई करने को इसलिए कहा जाता है, ताकि वे जो कुछ पढ़ रहे हैं, वह स्मृति में ठीक से संग्रहित हो जाए। यदि नजरें तो किताब में लिखी पंक्तियों पर है, मगर चित्त इधर-उधर भटक रहा है तो वह सारा पढ़ा हुआ बेकार चला जाता है, अर्थात स्मृति पटल पर अंकित होने से रह जाता है।
इसी प्रकार जब हम किसी मंदिर में मूर्ति के सामने खड़े हो कुछ अरदास कर रहे होते हैं और हमारा ध्यान बाहर रखी चप्पल पर रहता है कि कोई उठा कर न ले जाए तो अरदास फलित नहीं हो पाती। अर्थात चित्त एकाग्र नहीं है। आंखें मूर्ति को देख रही है, जुबान से अरदास के शब्द भी निकल रहे हैं और मन कहीं और है, दुकान पर है, दफ्तर पर है, घर पर है, तो अरदास ईष्ट तक नहीं पहुंचती।
एकाग्रता का एक सटीक उदाहरण मैंने ओशो के प्रवचन में सुना। उसे एकाग्रता की पराकाष्ठा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि वह हूबहू तो याद नहीं, मगर उसका सार ठीक से ख्याल में है। आप भी जानिये। एक थे भट्टोजी दीक्षित। उम्र तकरीबन 85 साल। घोर धार्मिक। प्रतिदिन सुबह-शाम मंदिर जाते। घंटा बजाते, दीया जलाते, आराधना करते, दिनभर माला फेरते। हर वक्त राम का नाम ही बुदबुदाते। उनका एक पुत्र था। उम्र तकरीबन 60 साल। घोर नास्तिक। ईश्वर में कोई आस्था नहीं। न कभी मंदिर जाता, न ही राम का नाम लेता। बाप ताजिंदगी बेटे को समझाते-समझाते थक गया कि कि बेटा मंदिर जाया कर, राम का नाम लिया कर, मगर बेटा इस कान से सुनता, दूसरे कान से निकाल देता। बाप रोजाना टोकता, मगर बेटे के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन बाप ने बहुत जोर देकर कहा, बेटा अब तो तू भी बूढ़ा होने को है। पूरी जिंदगी यूं ही गुजार दी। कभी तो राम का नाम ले। बेटा बाप की नसीहत सुनते-सुनते तंग आ गया था। उसने कहा, ठीक है आज मंदिर जाता हूं, राम का नाम लूंगा, मगर आप बैठे मेरे लौटने की प्रतिक्षा मत करना। बाप समझा नहीं। उसने सोचा, चलो बेटा आज तैयार तो हुआ। खैर, बेटा मंदिर गया। घंटा बजाया। मूर्ति के सामने खड़ा हुआ। उसने राम का नाम लिया। एक ही बार। पूरे मन से, पूरी बुद्धि से, पूरी शिद्दत से, रोयें-रोयें से, अपनी समग्र ताकत से, राम का नाम लिया एक बार और प्राण त्याग दिए।
यह प्रसंग कितना सही है, मुझे नहीं पता, मगर एकाग्रता का इससे सटीक वाकया मैने नहीं सुना। देखिए, बाप ने पूरी जिंदगी राम का नाम लेने में गुजार दी, मगर ऊपरी मन से, औपचारिकता से। चले तो बहुत, मगर पहुंचे कहीं नहीं। दूसरी ओर बेटे ने एक ही बार राम का नाम लिया, मगर मन की समग्र शक्ति से। और वह राम को उपलब्ध हो गया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

क्या मूर्ति में शक्ति होती है?

हिंदू संस्कृति में मूर्ति पूजा का बड़ा महत्व है। अधिसंख्य हिंदू मंदिर जाते हैं और मूर्ति पूजा करते हैं। मूर्ति के सामने खड़े हो कर सच्चे दिल से पूजा-अर्चना व आराधना करने से इच्छा की पूर्ति होती है, यह भी पक्की धारणा है। न केवल धारणा है, अपितु ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे प्रमाणित हो सकता है कि मूर्ति पूजा करने से इच्छित फल मिलता है।  बावजूद इसके हिंदू संस्कृति की ही एक शाखा आर्य समाज मूर्ति पूजा में यकीन नहीं रखता। सच क्या है, जरा विचार कर देखें।
असल में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती ने केवल इसी कारण मूर्ति पूजा का निषेध कर दिया कि मूर्ति में प्रतिष्ष्ठित जो देवता या भगवान खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वह भला हमारा भला क्या करेगा? ऐसा ख्याल उनमें मन में तब आया, जब उन्होंने देखा कि एक मंदिर में मूर्ति पर एक चूहा चढ़ कर मस्ती कर रहा है और मूर्ति के सामने रखा प्रसाद खा रहा है। तब उनकी सोच बनी कि एक चूहे से मूर्ति अपनी रक्षा नहीं कर पा रही है तो मूर्ति की पूजा करने से क्या लाभ? तार्किक ढंग से यह बात सही प्रतीत होती है।
इसी कड़ी में हमारी यह भी जानकारी है कि मुस्लिम आतताइयों ने देश के अनेक स्थानों पर मंदिर ध्वस्त किए, मूर्तियां तोड़ीं, मगर उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा। मूर्तियां अपनी ही रक्षा नहीं कर पाईं। ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि क्या वाकई मूर्ति में कोई शक्ति नहीं होती? बावजूद इसके  मूर्तियों में अधिसंख्य हिंदुओं की प्रगाढ़ आस्था है। अनेक ऐसी मूर्तियां संज्ञान में हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि वे चमत्कारी हैं। ज्यादा दूर नहीं जाते। निकटवर्ती नागौर जिले में मेड़ता के पास गांव में बंवाल माता का मंदिर है। यहां देवी की मूर्ति श्रद्धालुओं के सामने ढ़ाई प्याला शराब पीती है। बताते हैं कि कई वैज्ञानिकों ने उसकी जांच-पड़ताल की, मगर वे यह नहीं पकड़ पाए कि वहां कोई चालबाजी तो नहीं है। स्वयं मैंने देखा है कि देवी मां ढ़ाई प्याला शराब पीती है। रहस्य क्या है, कुछ पता नहीं। दिलचस्प बात ये है कि जिस श्रद्धालु के पास में तंबाकू होती है, उसकी शराब मूर्ति ग्रहण नहीं करती। इसको भी मैने आजमाया, तो सच निकला। ऐसी मान्यता है कि जिस श्रद्धालु का शराब रूपी प्रसाद देवी मां ग्रहण करती है, उसकी मनोकामना पूरी होती है। जिसका ग्रहण नहीं करती, उसके बारे में यह मान्यता है कि अभी देवी उससे प्रसन्न नहीं है।
बात लंबी हो रही है, मगर प्रसंगवश बताना चाहता हूं कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी मान्यता है कि शिव जी, देवी मां, हनुमान जी, गणेश जी आदि देवताओं के अतिरिक्त लोक देवता बाबा रामदेव, भैरों जी, गोगा जी आदि तो त्वरित फल देते हैं, जबकि भगवान श्रीकृष्ण व भगवान श्री राम फल नहीं देते, अलबत्ता वे आत्म कल्याण जरूर करते हैं। चूंकि हमारी रुचि भौतिक उपलब्धियों में होती है, इसी कारण देवताओं की आराधना हम ज्यादा करते हैं। इस धारणा की पुष्टि इससे होती है कि देवताओं के तो अनेकानेक मंदिर हैं, जबकि भगवान श्री राम व भगवान श्री कृष्ण के मंदिर कम हैं।
खैर, मुद्दे पर आते हैं। सवाल ये कि क्या मूर्ति में शक्ति होती है? होनी तो चाहिए, क्योंकि मूर्ति निर्जीव पत्थर या धातु की होती है, इस कारण उनकी बाकायदा विधि-विधान से प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद तो एक अर्थ में वह सजीव हो जाती है। उसमें ताकत होनी ही चाहिए।  मगर फिर वही सवाल कि तो फिर वे अपनी रक्षा क्यों नहीं कर पाती? यानि कि कौतुहल बरकरार है।
मूर्ति में शक्ति होती है, इस धारणा को बड़े पैमाने पर तब बल मिला, जब कुछ साल पहले पूरे देश में गणेश जी की मूर्तियों ने दूध पिया था। हालांकि उसकी वैज्ञानिक विवेचना भी हुई, आलोचना भी हुई। दूसरी ओर न्यायाधीशों व आईएएस अधिकारी स्तर के बुद्धिजीवियों ने भी गणेश जी को दूध पिलाया। बड़ी बहस हुई। किसी ने उसे अंध श्रद्धा करार दिया तो किसी ने वैज्ञानिक कारण बताए। हालांकि निष्कर्ष कुछ नहीं निकला।
मुझे ऐसा लगता है कि मूर्ति में अपने आप में ताकत नहीं होती। सारा रहस्य आस्था में है। हम जब उस पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो हमारी आत्मिक शक्ति उसमें प्रतिबिंबित होती है। वही आत्मिक शक्ति पलट कर चमत्कार करती है और हमें ये लगता है कि मूर्ति ने चमत्कार किया है। जिस मूर्ति की बहुत अधिक मान्यता होती है, वहां चमत्कार की संभावना इसलिए बढ़ जाती है, क्यों कि वहां बहुत अधिक लोगों की आत्मिक शक्ति मूर्ति पर केन्द्रित होती है।
ऐसा भी हो सकता है कि भौतिक या त्वरित चमत्कार मूर्ति से नहीं होते होंगे। हम अपेक्षा करें कि वह हम मानवों की ही तरह व्यवहार करे तो यह संभव नहीं है। हां, उसमें धारणा करें तो वह अदृश्य रूप से फल देती होगी।
मूर्ति ही क्यों, किसी स्थान व मजारों आदि पर भी लोग इसी प्रयोजन मत्था टेकते हैं कि वहां मनोकामना पूरी होगी। आप देख सकते हैं कि कभी-कभी अजमेर की दरगाह ख्वाजा साहब के सामने कोई फकीर या कलंदर खड़ा हो कर सवाल करता है और तब तक डटा रहता है, जब तक वह सवाल पूरा नहीं होता। यह हठ योग है। ऐसे हठियों की मनोकामना भी पूरी होती ही है। हालांकि इसका साइंस कुछ और है।
आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। वस्तुत: यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है। मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि हम न तो ये कह सकते हैं कि मूर्ति में शक्ति होती है और न ये कि वह केवल पत्थर है। कहीं है तो कहीं नहीं है। कभी है तो कभी नहीं। तभी तो जब मूर्ति के सामने कामना करने पर पूरी होती है तो कहते हैं कि वह चमत्कारी है और पूरी नहीं होती तो मूर्ति को दोष देने की बजाय खुद को जिम्मेदार मानते हैं कि हमारी श्रद्धा में ही कमी रह गई होगी।
मुझ अज्ञानी व अल्पबुद्धि को मूर्ति के रहस्य के बारे में जो कुछ समझ में आया है, वह साझा किया है। वास्तविक रहस्य क्या है, उसके आगे मैं सरंडर करता हूं। नेति नेति नेति।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, 1 दिसंबर 2019

आप जो सोचेंगे, वह हो जाएगा?

जगत की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान की अपनी अवधारणा है कि कैसे जल से एक कोशीय जीव पैदा हुआ और किस प्रकार क्रमबद्ध विकास होता हुआ बंदर के बाद मानव धरती पर आया। संसार के सभी जीव देश, काल, परिस्थिति में जिस रूप में सर्वाइव कर सकते थे, वैसे ही बने। चाहे अपनी ओर से, चाहे प्रकृति नियंता की ओर से। चूंकि विज्ञान बाकायदा तर्क और प्रयोगों के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचता है, इस कारण उस पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं है। मगर साथ ही आपने शास्त्रों के हवाले से ये भी सुना होगा कि जगत की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे ईश्वर के ख्याल में आया कि जगत हो जाए और वह होता चला गया। अर्थात विचार अथवा धारणा मात्र से घटना घट जाती है। शास्त्र यह भी बताता है कि हमारी आत्मा भी ईश्वर का अंश है। फर्क सिर्फ पैमाने का, लेकिन मौलिक गुण एक सा है। आपने यह भी सुना होगा कि यत् पिंडे, तत् ब्रह्मांडे, हम संपूर्ण ब्रम्हांड के छोटे पिंड रूप हैं, अंतर सिर्फ स्केल का है।
ये सारी अवधारणाएं अपनी जगह हैं, लेकिन आज अधिसंख्य मोटीवेशनल स्पीकर्स जब व्यक्तित्व विकास की बात करते हैं तो एक सिद्धांत का जिक्र करते हैं, जिसका नाम उन्होंने लॉ ऑफ अट्रैक्शन रखा है। कैसे विचार की तरंगें वाइब्रेशन करती हुई प्रकृति में विस्तार पाती हैं और प्रकृति से हमारे संबंध को स्थापित करती है। वे वैज्ञानिक तरीके से समझाते हैं कि कैसे हम जो भी सोचते हैं, धारणा करते हैं, वह वास्तव में हो भी जाता है। वे बताते हैं कि जैसे ही हम पूरे मनोयोग से कोई धारणा करते हैं, प्रकृति की सारी शक्तियां उसे पूरा करने में जुट जाती है।
कुछ ट्रेनर्स इस सिद्धांत की आलोचना करते हैं कि यह कोरी कल्पना है, केवल सोचने मात्र से घटित कैसे हो जाएगा? उनका तर्क है कि जो कुछ भी हम चाहते हैं, उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है, सोचने मात्र से कुछ नहीं होता। अगर यह सिद्धांत सही होता तो सभी बैठे-बैठे सोचते कि वे अमीर हो जाएं और हो जाते। भला यह कैसे संभव है? धनवान बनना है तो उसके लिए कर्म करना होगा, मेहनत करनी होगी। तर्क की कसौटी पर उनकी बात वाकई सही है।
अब कुछ विद्वान इन दोनों अवधारणाओं को मिला कर बात कहने लगे हैं। उनका कहना है कि जैसा हम सोचते हैं, वह हो सकता है, प्रकृति उसमें बेशक सहयोग करती है, लेकिन उसके लिए हमें भी प्रयास करना होगा। केवल सोचने से नहीं होगा। इसे कुछ यूं भी समझ सकते हैं कि हिम्मते मर्दा, मददे खुदा। अर्थात आदमी को हिम्मत तो करनी होगी, कर्म तो करना ही होगा, तभी खुदा भी सहयोग करेगा।
कुल मिला कर तथ्य ये है कि यह बात तो पक्की है कि कुछ भी होने या पाने के लिए कर्म करना होगा, विवाद सिर्फ इतना है कि क्या केवल हमारा कर्म ही काम करता है या प्रकृति की शक्तियां भी साथ में अपनी ओर से प्रयास करती हैं।
हालांकि मैने लॉ ऑफ अट्रैक्शन को गहरे से नहीं जाना है, मगर मुझे लगता है कि यह सही हो सकता है। यदि शास्त्र के अनुसार हम ईश्वर के ही छोटे अंश हैं तो जैसे ईश्वर ने जगत की धारणा की और जगत हो गया, बन गया, वैसे ही हम यदि कुछ सोचें तो वैसा क्यों नहीं हो सकता। बस होना यह जरूर चाहिए कि पूरे मन, पूरे मस्तिष्क, पूरे कर्म की ताकत उस पर लगा दें। ईश्वर चूंकि सर्वशक्तिमान है, इस कारण बड़ा घटता है और हम चूंकि उसके छोटे से अंश हैं, इस कारण हमारी क्षमता कम है, मगर है उसके ही जैसी।
इसी तथ्य को हम इस दिशा में सोच कर भी समझ सकते हैं। आपको ख्याल में होगा कि हमें यह संस्कार दिया जाता है कि बुरा न सोचें और बुरा न बोलें। जैसे रात को निवृत्त हो कर दुकान बंद करने को हम दुकान बंद करने की बजाय दुकान मंगल करना कहते हैं। दिया बुझाने को दिया बढ़ाना कहते हैं। वजह क्या है? ऐसी मान्यता है कि पूरे चौबीस घंटे में एक क्षण ऐसा होता है, जबकि हमारी जुबान पर सरस्वती विराजमान होती है। उस क्षण में जो कहा जाता, वह घटित हो जाता है। इसका मतलब ये है कि हमारे भीतर वह शक्ति है जो, जैसा सोचते हैं, जैसा कहते हैं, वैसा कर देती है।
मन की इस शक्ति पर कुछ वैज्ञानिक प्रयोग भी हुए हैं। जैसे किसी बर्तन में भरे पानी की सतह पर तैर रहे तिनके को मन की पूरी शक्ति से दायें या बायें मुडऩे का आदेश दिया जाए तो तिनका उसकी अनुपालना करता है। आपने देखा होगा कि भवन निर्माण करने वाले मजदूर जब किसी भारी पत्थर या पट्टी को उठाते हैं तो एक साथ हैशा बोलते हैं, वह क्या है? वह अपनी भौतिक शारीरिक ताकत के साथ मन की शक्ति को भी जोडऩे का प्रयास है। और ऐसा करके वे भारी से भारी पत्थर को उठाने में कामयाब हो जाते हैं। समझा जा सकता है कि आज तो बड़ी बड़ी क्रेनों की मदद ली जाती है, लेकिन जिस जमाने में क्रेन का ईजाद नहीं हुआ था, तब मिश्र में स्थित पिरोमिडों को बनाते वक्त बड़ी-बड़ी चट्टानों को मन की सामूहिक शक्ति से ही एक के ऊपर एक रखा गया होगा।
मेरी समझ के अनुसार मन की यही शक्ति एकाग्रता व समग्र ताकत से घनीभूत हो कर पावरफुल हो जाती होगी, जो कि लॉ ऑफ अट्रैक्शन के सिद्धांत के अनुसार प्रकृति की अन्य सभी शक्तियों को भी अपने साथ मिला लेती होगी। उसी आधार पर कहा गया है कि जैसा हम चाहते हैं, वैसा हो सकते हैं, जिसमें कि प्रकृति भी पूरा सहयोग करती है। इस विषय पर फिर कभी अन्य पहलुओं से विस्तार से अपना नजरिया रखूंगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com