सोमवार, 30 नवंबर 2020

दूल्हा तोरण क्यों मारता है?


इन दिनों शादियों का सीजन है। विचार आया कि शादी की विभिन्न परंपराओं में एक प्रमुख रिवाज पर चर्चा की जाए। लगभग सभी को जानकारी होगी कि दूल्हा जब दुल्हन के घर पर बारात लेकर पहुंचता है तो वह द्वार पर टंगे तोरण को अपनी तलवार को छुआ कर उसे मारने की रस्म अदा करता है। कुछ लोगों को हो सकता है कि इस परंपरा की वजह पता हो, मगर अधिसंख्य इसके रहस्य से अनभिज्ञ हैं। 

इस सिलसिले में दो किंवदंतियां प्रचलित हैं। पहली इस प्रकार है:-

बताते हैं कि किसी भी शादी के दौरान जब दूल्हा दुल्हन के द्वार पर पहुंचता था तो वहां तोते के रूप में बैठा तोरण नामक एक राक्षस दूल्हे के शरीर में प्रवेश कर स्वयं शादी कर लेता था। एक बार एक राजकुमार जैसे ही दुल्हन के द्वार पर पहुंचा तो उसने वहां बैठे राक्षस रूपी तोते को मार डाला। कहते हैं कि तोरण मारने की परंपरा तभी से आरंभ हुई। ज्ञातव्य है दुल्हन के द्वार पर लकड़ी के बना तोरण लगाया जाता है, जिसमें तोता बना होता है। वह राक्षस का प्रतीक होता है।

दूसरी किंवदंती के अनुसार एक राजकुमारी जब छोटी थी तो उसकी मां कहा करती थी कि मेरी चिडिय़ा जैसी बिटिया, तुमको बड़ी होने पर किसी दिन कोई चिड़ा आ कर तुझे ले जाएगा। पास ही पेड़ पर बैठा चिड़ा यह सुना करता था। एक दिन यह देख कर वह अचंभित रह गया कि राजकुमारी की  शादी होने जा रही है और एक राजकुमार उसके दरवाजे पर खड़ा है। निराश हो कर उसने राजा के सामने फरियाद की। राजा ने रानी से पूछताछ की तो चिड़े की बात सही निकली। इस पर रानी ने कहा कि वह तो यूं ही प्यार में कहा करती थी, इसका अर्थ ये तो नहीं कि सच में किसी चिड़े से शादी करवाएगी। राजा ने जब अपनी बेटी की शादी चिड़े से करवाने से इंकार कर दिया तो वह अपने समुदाय को इकट्टा करके युद्ध पर उतारू हो गया। युद्ध में राजा हार गया। जैसे ही वह राजकुमारी को ले जाने लगा तो देवी-देवताओं में खलबली मच गई। उन्होंने कहा कि राजकुमारी व चिड़े से उत्पन्न संतान कैसी होगी? उन्होंने चिड़े व उसकी सेना को बहुत समझाया। आखिरकार वे मान गए, मगर एक शर्त रख दी। वो यह कि दूल्हे को चिडिय़ा प्रजाति से माफी मांगते हुए उसके नीचे से गुजरना होगा। इसके लिए दुल्हन के द्वार पर तोरण लटकाया जाएगा, जिस पर चिडिय़ाएं बनी होंगी और दूल्हा उनके नीचे से गुजरेगा। बाद में यह परंपरा बन गई। रहा सवाल तलवार टच करने का तो उसका अर्थ ये है कि वह ऐसा करके उनका अभिनंदन कर रहा है।

जिन को इन दोनों किंवदंतियों की जानकारी नहीं है, वे तोरण निर्माता आजकल तोरण पर गणेश जी का चित्र लगा रहे हैं। उनका प्रयोजन  विघ्न विनायक को द्वार पर बैठाना है, ताकि शादी निर्विघ्न संपन्न हो जाए।


-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 29 नवंबर 2020

आकाशवाणी कहीं आत्मा की आवाज तो नहीं?


हम आकाशवाणी को रेडियो के जरिए सुनी जाने वाली आवाज के रूप में जानते हैं, सुन चुके हैं, लेकिन शास्त्रों-पुराणों में जिस आकाशवाणी का जिक्र आता है, वह हम में से किसी ने नहीं सुनी। न ही हमारी अग्रज पीढ़ी ने। इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जिनमें परम सत्ता ने आकाश के जरिए संदेश दिए हैं, उनके विस्तार में जाए बिना हम उस जिज्ञासा पर ध्यान केन्द्रित करते हैं कि आकाशवाणी होती क्या है? क्या वाकई आकाश भी बोल सकता है? क्या परम सत्ता आकाश के माध्यम से बोलती है या बोल सकती है? सवाल कई हैं? आकाशवाणी किस भाषा में होती थी? क्या इंग्लैंड में अंग्रेजी में और भारत में हिंदी में होती होगी? क्या भारत में भी अलग-अलग प्रांतों में भिन्न-भिन्न भाषाओं में होती थी? क्या आकाशवाणी सभी को सुनाई देती थी, या फिर ईश्वर को जिसको संदेश देना होता था, उसी को सुनाई देती थी? ऐसा भी हो सकता है कि किसी जमाने में आकाशवाणी हुआ करती हो, मगर अब नहीं, इसलिए हमें उस पर यकीन नहीं होता।

वस्तुत: धरती पर मनुष्यों में जरूर भिन्न भागों में भिन्न भाषाएं विकसित हुईं, लेकिन आकाश की भी कोई भाषा होती होगी, इस पर सहसा यकीन नहीं होता। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस प्रकार आत्मा की कोई आवाज नहीं होती, उसी प्रकार आकाश की भी कोई आवाज नहीं होती। आप कह सकते हैं कि आत्मा की भाषा होती है, लेकिन वस्तुत: वह आत्मा की नहीं, बल्कि हमारी बुद्धि में फीड हो रखी भाषा की विचार शृंखला होती है। हम विचार जरूर अपनी भाषा में करते हैं, मगर आत्मा की आवाज तो एक अनुभूति है। एक अहसास है। उसकी कोई भाषा नहीं होती। आपने महसूस किया होगा कि जब आप कोई गलत काम करने जा रहे होते हैं तो कम से कम एक बार भीतर से यह अहसास आता है कि वह हमें नहीं करना चाहिए। कई बार हमें ऐसा तीव्र आभास होता है कि हमारा अमुक काम होने वाला है, और वह हो जाता है। वह आत्मा की ही आवाज है। इसे अंग्रेजी में इन्ट्यूशन कहते हैं। इसी को हम छठी इंद्री कह सकते हैं। कभी-कभी इल्यूजन या भ्रम भी हो सकता है।

अब सवाल उठता है कि क्या आत्मा की आवाज भीतर से आती है या कहीं और से, अखिल ब्रह्मांड से। हमारी आत्मा में ऐसी शक्तियां मानी गई हैं, जो ब्रह्मांड के संकेतों को ग्रहण कर लेती हैं। अर्थात हमारी आत्मा ब्रह्मांड से कनेक्टेड है। यूं तो ब्रह्मांड में कई ध्वनियां विचरण कर रही हैं, मगर हमें सिर्फ वहीं सुनाई देती है अथवा अनुभूत होती है, जिसके लिए हमारी आत्मा की फ्रिक्वेंसी मेल खाती है। 

इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जिसका नाम आकाशवाणी दिया गया, वह अंतरात्मा में उठी अनुभूति होगी, जिसे परमात्मा की वाणी समझा गया होगा। चूंकि हमारी ऐसी धारणा है कि भगवान ऊपर अर्थात आकाश में रहता है, तभी तो हम उसे ऊपर वाला, नीली छतरी वाला के नाम से संबोधित करते हैं, इस कारण यह मान कर कि उसने कोई संदेश दिया होगा तो उसका नाम आकाशवाणी रख दिया गया। 

आकाशवाणी अथवा ईश्वर का संदेश इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक कुरान से मेल खाता है। बताया जाता है कि कुरान वह पुस्तक है, जो हजरत मोहम्मद साहब पर किताब उतारी गई है। अल्लाह ने फरिश्तों के सरदार जिब्राइल अलै. के मार्फत पवित्र संदेश सुनाया। वे पहले सबसे ऊपर क्षितिज पर प्रकट हुए और फिर वे मोहम्मद साहब के निकट आ गए। उनके संदेश को ही कुरान में संग्रहित किया गया है। मोहम्मद साहब ने पहाड़ों पर हिरा की गुफा में अपनी इबादत के दौरान अपना पहला प्रकाशन प्राप्त किया था। इसके बाद, उन्हें 23 वर्षों की अवधि में पूरा क़ुरआन का खुलासा प्राप्त हुआ। कुरान के अनुसार मोहम्मद साहब की पहली अनुभूति एक दृष्टि के साथ थी। कुरान शब्द का पहला जिक्र कुरान में ही मिलता है, जहां इसका अर्थ है - उसने पढ़ा या उसने उचारा। यहां उचारा शब्द आकाशवाणी शब्द से मेल खाता है। बेशक इसमें मोहम्मद साहब पर जो कुरान उतरी, वह सीधे आसमान से नहीं उतरी, इसके लिए फरिश्तो के सरदार को माध्यम बनाया है, मगर वह भी आसमान अर्थात आकाश से उतरे हैं।

इसी प्रकार ईसाई धर्म की पवित्र पुस्तक बाइबिल भी ईश्वरीय प्रेरणा से लिखी गई मानी जाती है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि ईश्वर ने बाइबिल के विभिन्न लेखकों को इस प्रकार प्रेरित किया है कि वे ईश्वरकृत होते हुए भी उनकी अपनी रचनाएं भी कही जा सकती हैं। ईश्वर ने बोल कर उनसे बाइबिल नहीं लिखवाई। वे अवश्य ही ईश्वर की प्रेरणा से लिखने में प्रवृत्त हुए। अत: बाइबिल को ईश्वरीय प्रेरणा तथा मानवीय परिश्रम दोनों का सम्मिलित परिणाम है माना जाता है। यहां जिस ईश्वरीय प्रेरणा शब्द का उल्लेख है, वह आत्मा की ही तो आवाज है।

हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथ वेदों के बारे में कहा गया है कि वे अनेकानेक ऋषियों की अनुभूतियों व ज्ञान का संकलन है। अर्थात वे भी ईश्वरीय प्रेरणा से ही ऋषियों में उतरी हैं। 

हम जिसे आकाशवाणी जानते हैं, वह वो है, जिसे हम रेडियो के जरिए सुनते हैं। प्रसंगवश यह जिक्र करना अनुचित नहीं होगा कि मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया में उस आकाशवाणी के बारे में जानकारी दी गई है, जिसे हम रेडियो के जरिए सुनते हैं। आकाशवाणी भारत के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन संचालित सार्वजनिक क्षेत्र की रेडियो प्रसारण सेवा है। भारत में रेडियो प्रसारण की शुरुआत मुंबई और कोलकाता में 1927 में दो निजी ट्रांसमीटरों से हुई। 1930 में इसका राष्ट्रीयकरण हुआ और तब इसका नाम भारतीय प्रसारण सेवा अर्थात इंडियन ब्राडकास्टिंग कॉरपोरेशन रखा गया। बाद में 1957 में इसका नाम बदल कर आकाशवाणी रखा गया।


-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 28 नवंबर 2020

दीपक से दीपक क्यों नहीं जलाना चाहिए, पर रोचक प्रतिक्रिया

दीपक से दीपक क्यों नहीं जलाना चाहिए, इस शीर्षक के ब्लॉग पर प्रतिक्रिया देते हुए डॉ. अतुल दुबे ने बहुत ही रोचक जानकारी भेजी है। वह हूबहू इस प्रकार है:-

आदरणीय गिरधर भैया

नमस्ते


चीड़ की लकड़ी में अमोनियम फास्फेट का लेप लगा कर दियासलाई बनती है, जिसका आविष्कार लगभग 1830 में हुआ था, जब कि दीप प्रज्ज्वलित करने की प्रथा का पहला वर्णन तो त्रेता युग से है, जो कि लगभग पांच से सात हजार वर्ष पुराना है। यानि लगभग 190 वर्ष पहले जिसका आविष्कार हुआ और भारत के अहमदाबाद में लगभग 1895 के आसपास जब दियासलाई की पहली फैक्ट्री का निर्माण हुआ, उसके पहले तक दीप से दीप ही प्रज्ज्वलित होते होंगे। अथवा चकमक पत्थरों को परस्पर घिस कर अग्नि प्रज्ज्वलित होती थी। यहां तक कि प्रति चार वर्षों में जब ओलम्पिक टॉर्च जलाई जाती है, वो भी ग्रीस के ओलम्पियाड नामक गांव में सूर्य की रोशनी से जलाई जाती है। जहां तक रही बात पवित्रता की तो सृष्टि की सबसे पवित्र चीज तो अग्नि ही है, जो प्रत्येक तत्व को शुद्ध कर देती है।

यहां तक कि चिता तक को सनातन धर्म में यज्ञ समकक्ष माना गया है और अग्नि प्रज्ज्वलित होने के उपरांत उसकी लकड़ी से लेकर राल, घृत नारियल, शक्कर बूरा आदि का ही उपयोग किया जाता है, कोई भी ऐसी ज्वलनशील सामग्री का उपयोग नहीं किया जाता, जिसमें से दुर्गंध आती है। और तो और अर्थी में उपयोग किये जाने बांस को फाड़ कर मुखाग्नि का लोटा तो उससे बांधा जा सकता है, परंतु उसको चिता के साथ केवल इसलिये नहीं जलाया जा सकता क्योंकि उससे नीरो टॉक्सिक लैड ऑक्साइड निकलता है, जो कि मानव शरीर के लिये बहुत नुकसान दायक है।

दूसरी बात, दियासलाई से पूजा के दीप या हवन की अग्नि प्रज्ज्वलित करना तो वैसे भी इसलिये शास्त्र सम्मत नहीं क्योंकि बांस या फिर कोई भी ऐसी अग्नि, जो गंध या विषैली गैस का उत्सर्जन करे वो पवित्र कामों में निषेधित है। मुझे मेरी अल्पमति से जितना समझ आया उतना लिख दिया, यदि कोई गलत लिख दिया हो तो कृपया मेरा मार्गदर्शन करें।

डॉ. दुबे जी की प्रतिक्रिया के सिलसिले में मेरा निवेदन है कि मेरा ब्लॉग एक आध्यात्मिक मान्यता की जानकारी पर आधारित है। इससे भिन्न मान्यताएं भी हो सकती हैं। उन्होंने जो जानकारी साझा की है, वह भी सही है। मैं श्री दुबे का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने विषय से जुड़े अन्य पहलु साझा किया है, जो कि जानकारी में इजाफा करने वाला है।

जिन दोस्तों ने ब्लॉग नहीं पढा है, उनकी सुविधा के लिए उसका लिंक ये हैः-

https://tejwanigirdhar.blogspot.com/2020/11/blog-post_27.html

डॉ. दुबे का परिचय इस प्रकार है:-



-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

दीपक से दीपक क्यों नहीं जलाना चाहिए?


हमारे यहां दीप से दीप जले की बड़ी महिमा है। ज्ञान के प्रसार के लिए इस उक्ति का प्रयोग किया जाता है। व्यवहार में यह बिलकुल ठीक भी है। एक व्यक्ति से ही दूसरे में ज्ञान का प्रकाश जाता है और उससे आगे वह अन्य में। इस प्रकार यह सिलसिला चलता रहता है। मगर धर्म के जानकार कहते हैं कि एक दीपक से दूसरा दीपक नहीं जलाना चाहिए। हर दीपक को नई दियासलाई से जलाने की सलाह दी जाती है। सवाल ये उठता है कि यह मान्यता कैसे स्थापित हुई?

सामान्यत: हमें एक दीपक से दूसरे दीपक को जलाने में कुछ भी गलत प्रतीत नहीं होता। चाहे दीपक से जलाओ या दूसरी दियासलाई से, क्या फर्क पड़ता है? अगर हमें अधिक दीपक जलाने हैं तो यह निरी मूर्खता ही होगी कि हर दीपक को जलाने के लिए नई दियासलाई काम में लें। तो फिर धर्म के जानकार अलग-अलग दीपक को अलग-अलग जलाने की सलाह क्यों देते हैं?

बताया जाता है कि जब हम किसी दीपक को जलाते हैं तो वह अग्नि की एक इकाई होती है। जिस भी देवी-देवता के नाम दीपक जलाया गया है, वह उसी के नाम होता है। उसको शेयर नहीं किया जा सकता। यदि हम उसी दीपक से दूसरा दीपक जलाते हैं तो वह जूठन के समान हो जाता है। जब हम किसी का जूठा नहीं खाते तो एक देवता की जूठी अग्नि दूसरे को कैसे अर्पित कर सकते हैं। मान्यता है कि ऐसी जूठी अग्नि दूसरे दीपक के देवता को स्वीकार्य भी नहीं होती।

कुछ जानकार कहते हैं कि दीपक से दीपक जलाने से ऋण का भार बढ़ता है। इसके पीछे क्या तर्क है, क्या विज्ञान है, पता नहीं। हो सकता है ऐसा इसलिए माना जाता हो एक दीपक की ज्योति दूसरे दीपक के लिए उधार लेने की घटना हमारे जीवन में ऋण लेने के रूप में घटित होती हो।

प्रसंगवश इस जानकारी पर भी चर्चा कर लेते हैं। एक दियासलाई से सिर्फ एक ही सिगरेट जलाने का भी चलन है। हद से हद दो सिगरेटें जलाई जाती हैं। तीसरी सिगरेट तक के लिए दियासलाई बच जाने पर भी उसे बुझा कर नई दियासलाई जलाई जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह चलन तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा की मान्यता के कारण है। कुछ लोग बताते हैं कि इसका चलन सेना से आया। सैनिकों की मान्यता है कि लगातार एक के बाद एक सिगरेट एक ही दियासलाई से जलाने पर एक रेखा निर्मित होती है। दुश्मन को पता चल जाता है कि वहां सैनिक पंक्तिबद्ध खड़े हैं और वह आक्रमण कर सकता है।


-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 24 नवंबर 2020

क्या भगवान प्रसाद ग्रहण करते हैं?


स्थूल व तार्किक बुद्धि का एक सवाल है कि हम भगवान की मूर्ति के आगे जो प्रसाद चढ़ाते हैं, क्या वह उसे ग्रहण करती है? अगर ग्रहण करती है तो वह कम क्यों नहीं होता? अगर मूर्ति प्रसाद का अंश मात्र भी ग्रहण नहीं करती तो फिर प्रसाद चढ़ाने का प्रयोजन क्या है? सवाल वाजिब है।

इसी से जुड़ा सवाल है कि जब सब कुछ भगवान का ही दिया हुआ है तो वही उसे अर्पण करने का क्या मतलब है? जिसने संपूर्ण चराचर जगत  बनाया है, सारे भोज्य पदार्थ उसी की देन हैं। उसी का अंश मात्र अर्पित करने से उसे क्या फर्क पड़ता होगा?

भगवान की मूर्ति भोग ग्रहण करती है या नहीं, इस शंका का समाधान एक प्रसंग कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

एक शिष्य ने अपने गुरू से यह प्रश्न किया। इस पर उन्होंने पुस्तक में अंकित एक श्लोक कंठस्थ करने को कहा। एक घंटे बाद गुरू ने शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं। इस पर शिष्य ने शुद्ध उच्चारण के साथ श्लोक सुना दिया। गुरू ने पुस्तक दिखाते हुए कहा कि श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो वह तुम्हारी स्मृति में कैसे आ गया? स्वाभाविक रूप से शिष्य निरुत्तर हो गया। गुरू ने समझाया कि पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है । तुमने जब श्लोक पढ़ा तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया, लेकिन पुस्तक में स्थूल रूप में अंकित श्लोक में कोई कमी नहीं आई। इसी प्रकार भगवान हमारे प्रसाद को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के प्रसाद में कोई कमी नहीं आती।

वस्तुत: प्रसाद चढ़ाना एक भाव है, कृतज्ञता प्रकट करने का। और भाव की ही महिमा है। कहा तो यहां तक जाता है कि अगर हमारे पास पुष्प, फल, मिष्ठान्न आदि नहीं हैं तो भी अगर हम कल्पना करके सच्चे भाव से उसे अर्पित करते हैं तो वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भौतिक रूप से प्रसाद चढ़ाने का। अर्थात महत्व पदार्थ का नहीं, बल्कि भाव का है। उससे भी दिलचस्प बात ये है कि भगवान को चढ़ाया हुआ प्रसाद दिव्य हो जाता है। भले ही उसमें रासायनिक रूप से कोई अंतर न आता हो, तो भी उसके एक-एक कण में दिव्यता आ जाती है। यह भी एक भाव है। तभी तो कहते हैं कि प्रसाद का तो एक कण ही काफी है, जरूरी नहीं कि वह अधिक मात्रा में हो। इसके अतिरिक्त प्रयास ये भी रहता है कि वह अधिक से अधिक के मुख में जाए। यह भी एक भाव है, सबके भले का।

एक आरती में तो बाकायदा एक पंक्ति है कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा। ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि कृतज्ञता प्रकट करते समय यह अहम भाव न आ जाए कि मैने कुछ अर्पित किया है। 

प्रसंगवश यह जान लीजिए कि श्रीमद् भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति तदहं भक्तयुपहृतमश्नामि प्रयतात्मन। अर्थात जो कोई भक्त प्रेमपूर्वक मुझे फूल, फल, अन्न, जल आदि अर्पण करता है, उसे मैं सगुण प्रकट होकर ग्रहण करता हूं। इसी प्रकार वेद कथन है कि यज्ञ में हृविष्यान्न और नैवेद्य समर्पित करने से व्यक्ति देव ऋण से मुक्त होता है।

हमारे यहां भिन्न-भिन्न देवताओं को भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रसाद चढ़ाने की परंपरा है। विष्णुजी को खीर या सूजी के हलवे का नैवेद्य चढ़ाया जाता है। शिव को भांग और पंचामृत का नैवेद्य पसंद है। हनुमानजी को हलुआ, पंच मेवा, गुड़ से बने लड्डू या रोठ, डंठल वाला पान, केसर भात, इमरती आदि अर्पित करते हैं। मान्यता है कि लक्ष्मीजी को सफेद और पीले रंग के मिष्ठान्न, केसर-भात बहुत पसंद हैं। दुर्गाजी को खीर, मालपुए, मीठा हलुआ, पूरणपोळी, केले, नारियल और मिष्ठान्न बहुत पसंद हैं। माता सरस्वती को दूध, पंचामृत, दही, मक्खन, सफेद तिल के लड्डू तथा धान का लावा पसंद है। गणेशजी को मोदक चढ़ाते हैं। भगवान श्रीराम को केसर भात, खीर, धनिए का भोग, कलाकंद, बर्फी, गुलाब जामुन आदि पसंद हैं। भगवान श्रीकृष्ण को माखन और मिश्री का नैवेद्य बहुत पसंद है। माता कालिका और भगवान भैरवनाथ को लगभग एक जैसा ही भोग लगता है। हलुआ, पूरी और मदिरा उनके प्रिय भोग हैं।

एक रोचक बात देखिए। भगवान को हम हमारा ही विराट रूप मानते हैं। इसी कारण जैसे मौसम के अनुसार हमारा भोजन परिवर्तित होता है, तो प्रसाद भी हम वैसा ही चढ़ाते हैं। यहां तक कि सर्दी में भगवान की मूर्ति को गरम वस्त्र पहनाते हैं। भला मूर्ति को भी कोई ठंड लगती है? मगर ये हमारा भाव है। और कहते भी हैं कि भगवान भाव के भूखे हैं। तभी तो वे शबरी के झूठे बेर भी ग्रहण कर लेते हैं।


-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

मूर्ति के दर्शन के वक्त आंखें बंद न किया कीजिए

आंख एक खिड़की है, अच्छी व उपयोग चीजें ही अंदर आने दें


आंख हमारे शरीर की एक खिड़की है, जिसके माध्यम से हम बाह्य जगत से जुड़ते हैं। यूं ध्वनि व स्पर्श के जरिए भी हम ब्रह्मांड से संपर्क में हैं, लेकिन दृश्यमान जगत से संबंध का माध्यम तो नेत्र ही हैं। उसी के जरिए हम जगत से जुड़े अनुभव आत्मसात करते हैं, जिसे कि दर्शन कहते हैं। इसकी बड़ी महत्ता है। इसका हम पर सीधे प्रभाव पड़ता है। इसी कारण महात्मा गांधी ने यह स्लोगन दिया कि बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत करो। तात्पर्य ये है कि अगर हम बुरा देखेंगे तो हमारे भीतर बुरे विचार आएंगे। बुरा सुनेंगे तो बुरे ख्याल मन में प्रवेश करेंगे और अंतत: हम बुरा करने लग जाएंगे। कामुक दृश्य देखने को भी इसलिए मना किया जाता है क्योंकि उससे मन काम-वासना से भर जाता है। इसी प्रकार हिंसक फिल्में देखेंगे तो मन में हिंसा का भाव जागृत होगा।

आइये, अब विषय के विस्तार में चलते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि सुबह जागने पर दोनों हथेलियों को जोड़ कर उसके दर्शन करने चाहिए। इससे शुभ दिन की शुरुआत होती है। इसके लिए एक श्लोक सर्वविदित है-

ओम् कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती।

करमूले च गोविंद, प्रभाते कुरुदर्शनम्।।

अर्थात हथेली के सबसे आगे के भाग में लक्ष्मी, मध्य भाग में सरस्वती और मूल भाग में श्रीगोविंद निवास करते हैं। यानि कि जुड़ी हुई हथेलियों को देखने से मां लक्ष्मी, मां सरस्वती व परात्पर परब्रह्म गोविंद के दर्शन होते हैं।

शास्त्रानुसार दोनों हाथों में कुछ तीर्थ भी होते हैं। चारों उंगलियों के सबसे आगे के भाग में देव तीर्थ, तर्जनी के मूल भाग में पितृ तीर्थ, कनिष्ठा के मूल भाग में प्रजापति तीर्थ और अंगूठे के मूल भाग में ब्रह्म तीर्थ माना जाता है। इसी तरह दाहिने हाथ के बीच में अग्नि तीर्थ और बाएं हाथ के बीच में सोम तीर्थ व उंगलियों के सभी पोरों और संधियों में ऋषि तीर्थ है।

शिव स्वरोदय में बताया गया है कि सुबह उठने पर नासिका में जिस तरफ का स्वर चल रहा हो, उसी तरफ के हाथ से सबसे पहले धरती पर स्पर्श करना चाहिए। उसी के दर्शन करने चाहिए। चूंकि धरती को माता माना गया है, इसलिए सुबह उठते ही धरती पर अपने पैर रखने से पहले माता से क्षमा याचना इन शब्दों में करनी चाहिए-

ओम् विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पाद स्पर्श क्षमश्वमेव।


दर्शन से हम कितने प्रभावित होते हैं, इसका एक उदाहरण देखिए। किसी अनजान व्यक्ति को देखने मात्र से सुखद अनुभूति होती है, जबकि किसी के दर्शन से मत वितृष्णा से भर जाता है। ऐसा क्यों? क्योंकि हर व्यक्ति का अपना आभा मंडल होता है। जैसी उसकी आभा होगी, वैसी ही अनुभूति होगी। इसी सिलसिले में दर्शन से जुड़े एक श्लोक को भी अपने संज्ञान में लीजिए-

साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधव:।

कालेन फलते तीर्थं सद्य: साधुसमागम:।।

अर्थात संत-महात्माओं के दर्शन मात्र से ही पुण्य की प्राप्ति हो जाती है, क्यों कि वे तीर्थों के समान पवित्र होते हैं। तीर्थवास करने का सुपरिणाम तो कुछ समय के पश्चात ही प्राप्त होता है, परन्तु संतों की सत्संगति का सुपरिणाम तुरन्त ही प्राप्त होता है।

दर्शन कितना असर डालता है, इसका अंदाजा हमारे यहां प्रचलित मान्यता से होता है। बुरा दिन बीतने पर कहा जाता है कि आज सुबह न जाने किसका मुंह देख लिया? घर से बाहर प्रस्थान करने पर पानी से भरा घड़ा लिए हुए स्त्री, झाडू लगाती सफाई कर्मचारी, शव यात्रा आदि के दर्शन को शुभ माना जाता है।

दर्शन का एक बारीक तथ्य समझिए। हनुमान जी तो एक हैं, मगर उनकी अनेक मुद्राएं हैं। आप जिस मुद्रा पर ध्यान एकाग्रचित्त होंगे, वैसे ही गुण आपके भीतर प्रविष्ट करेंगे। 

वास्तुशास्त्री बताते हैं कि घर में बने मंदिर में एक ही भगवान की एकाधिक मूर्तियां नहीं रखनी चाहिए। विशेष रूप से अगर दोनों मूर्तियां आसपास या आमने-सामने हों तो उनके दर्शन करने से घर में क्लेश होता है।  इसी प्रकार खंडित मूर्ति के दर्शन करने को अच्छा नहीं माना जाता। खंडित दर्पण में स्वयं को देखने, खंडित पात्र में खान-पान को वर्जित माना गया है। 

एक महत्वपूर्ण बात। कई लोग मंदिर जाने पर मूर्ति के आगे खड़े हो कर आंखें बंद करके प्रार्थना करते हैं, वह गलत है। सदैव मूर्ति के दर्शन करते हुए प्रार्थना करनी चाहिए, तभी सुफल मिलता है। उसके सतत दर्शन करते रहिए और उसकी ऊर्जा को भीतर प्रवेश करने दीजिए। सीधी सी बात है कि दर्शन के जिस प्रयोजन से हम मंदिर गए हैं तो मूर्ति के सामने आंखें बंद करने से वह प्रयोजन ही बेकार हो जाएगा।

ऐसा नहीं कि केवल दृश्य ही हम प्रभाव डालता है। हमारे भाव पर भी निर्भर करता है कि हम किसी दृश्य को किस भाव से देखते हैं। कोई सज्जन किसी स्त्री को देख कर उसमें मां या बहिन का रूप देखता है तो कोई दुर्जन किसी पर स्त्री को देख कर वासना से ग्रसित हो जाता है। तभी तो कहा जाता है कि कोई सुरूप है या कुरूप, यह हमारी दृष्टि पर निर्भर करता है।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 19 नवंबर 2020

भगवान शिव की परिक्रमा आधी क्यों की जाती है?


धर्मस्थलों में गर्भग्रह में स्थापित मूर्ति और मजारों की परिक्रमा करने की परंपरा है। यह भी सर्वविदित तथ्य है कि परिक्रमा की दिशा घड़ी की सुई की तरह दक्षिणावृत होती है। लेकिन यह बेहद रोचक तथ्य है कि अकेले भगवान शिव अथवा शिव लिंग ही ऐसे हैं, जिनकी परिक्रमा पूरी नहीं की जाती। परिक्रमा जहां समाप्त होती है, वहीं से फिर घड़ी की सुई की विपरीत दिशा में लौटा जाता है। जहां तक भगवान शिव का प्रश्न है तो सब जानते हैं कि उनकी जटा से गंगा का प्रवाह होता है, जो कि अति विशाल है। यह मान कर कि उसे पार नहीं किया जा सकता, परिक्रमा वहीं रोक पर वापस लौट जाते हैं। इसे चंद्राकार परिक्रमा कहा जाता है। इसी प्रकार शिव लिंग पर भी चूंकि विभिन्न प्रकार के अभिषेक किए जाते हैं, जिनका निकास गोमुख से होता है, जिसे कि सोमसूत्र कहा जाता है, उसे उलांघना भी धार्मिक विधि के विपरीत माना जाता है। शास्त्रानुसार सोमसूत्र शक्ति-स्रोत है। उसे लांघते समय पैर फैलाने से वीर्य निर्मित और 5 अन्तस्थ वायु के प्रवाह पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इससे देवदत्त और धनंजय वायु के प्रवाह में रुकावट पैदा हो जाती है, जिससे शरीर और मन पर बुरा असर पड़ता है। जानकारी ये भी है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढंके हुए सोमसूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है।

ऐसी मान्यता है कि सनातन धर्म में परिक्रमा करने का चलन गणेश जी के मां पार्वती की परिक्रमा करने से शुरू हुआ। इससे जुड़ा प्रसंग ये है कि एक बार मां पार्वती ने अपने पुत्रों कार्तिकेय तथा गणेश को सांसारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पृथ्वी का एक चक्कर लगा कर आने का आदेश दिया गया।  कार्तिकेय अपनी सवारी मोर पर रवाना हुए, लेकिन गणेश अपने वाहन चूहे को देख विचार में पड़ गए कि वे इस प्रतियोगिता में कैसे प्रथम आएं? उन्होंने एक युक्ति निकाली और मां पार्वती के चक्कर लगाना आरंभ कर दिया। जब कार्तिकेय पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा कर लौटे तो देखा कि गणेश वहां पहले से मौजूद हैं तो वे चकित रह गए। इस पर गणेश ने कहा कि मां पार्वती ही संसार हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए उनकी परिक्रमा ही पर्याप्त है, उसके लिए पृथ्वी की परिक्रमा की जरूरत नहीं। 

धार्मिक मान्यता के अनुसार केवल शिव जी की आधी परिक्रमा की जाती है, जबकि मां दुर्गा की एक, हनुमानजी व गणेशजी की तीन-तीन, भगवान विष्णु की चार, पीपल के वृक्ष की एक सौ आठ परिक्रमा का विधान है। वैसे सामान्य: तीन परिक्रमा का चलन है।

अब आते हैं इस तथ्य पर कि परिक्रमा आखिर क्यों की जाती है? ऐसी मान्यता है कि पवित्र स्थान, मूर्ति, वृक्ष, पौधा आदि की परिक्रमा से उनके इर्द-गिर्द मौजूद आभा मंडल से सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। हमारी संस्कृति में मंदिर, नदि, पर्वत, तीर्थ, वृक्ष आदि की परिक्रमा का चलन है। दिलचस्प बात है कि पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधू अग्नि की परिक्रमा करते हैं। 

जरा और गहरे में जाएं तो देखिए, सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं और सभी ग्रहों को साथ लेकर हमारा सूर्य महासूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इतना ही नहीं, बल्कि सभी ग्रह अपनी धूरि पर भी कर रहे हैं। अर्थात यह केवल मान्यता का मसला नहीं है, बल्कि परिक्रमा या चक्र में ब्रह्मांड का गहरा रहस्य छुपा हुआ है। हर छोटा बड़े की परिक्रमा कर रहा है। समय की सूचक घड़ी में भी सुइयां चक्राकार घूम रही हैं। चक्र ही परिवर्तन व प्रगति का द्योतक है। निष्कर्ष यही कि परिक्रमा से केन्द्र तुष्ट होता है, वहीं से ऊर्जा प्राप्त होती है।

-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

क्या एक आत्मा की जगह दूसरी आत्मा को ले जाया जा सकता है?

 


हाल ही मेरे रिश्तेदारों के साथ एक ऐसा वाकया पेश आया, जिससे सवाल उठता है कि क्या यमदूत एक आत्मा की जगह दूसरी आत्मा को ले जा सकते हैं?

हुआ ये कि मेरे एक रिश्तेदार जयपुर से अहमदाबाद माइग्रेट हो रहे थे। सामान के साथ एक छोटे ट्रक में बैठ कर सफर कर रहे थे। रास्ते में उनकी छोटी बेटी अचानक अस्वस्थ हो गई। लगभग मरणासन्न हालत में आ जाने पर रास्ते में ही एक अस्पताल में भर्ती करवाया। मेरे रिश्तेदार की बुजुर्ग मां ने दुआ मांगी कि भगवान उसको तो उठा ले, लेकिन पोती को ठीक कर दे। अर्थात एक अर्थ में उन्होंने अपनी उम्र पोती को दान कर दी। इसे चमत्कार ही मानेंगे कि चंद घंटों में ही बुजुर्ग महिला की तो मौत हो गई, जबकि वह पूरी तरह स्वस्थ थी और उनकी पोती, जो कि मौत के करीब पहुंच चुकी थी, वह बिलकुल स्वस्थ हो गई।

इससे  सवाल उठता है कि क्या यह महज एक संयोग है यानि कि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है कि बुजुर्ग महिला की दुआ कबूल हो गई, जबकि वास्तविकता ये थी कि बच्ची की जिंदगी अभी बाकी थी और वह केवल बीमार हुई थी और बुजुर्ग की आयु समाप्त हो गई थी। सवाल ये भी है कि क्या दुआ वाकई कबूल हो गई? यानि कि किसी की उम्र किसी और के शरीर में शिफ्ट हो सकती है? अर्थात कोई अपनी सांसें किसी और को दान में दे सकता है। हमारे यहां ऐसा सुनने को मिलता है कि कई लोग अपनी उम्र किसी प्रियजन को लग जाने की दुआ मांगा करते हैं। समझा यही जाता है कि वह औपचारिक दुआ मात्र होती है। उसके फलित होने को सुनिश्चित नहीं माना जाता। वह मात्र प्रियजन के प्रति दुआगो के अनुराग का द्योतक है। लेकिन ताजा घटना, यदि संयोग नहीं है तो इस बात की पुष्टि करती है कि यदि दुआ सच्चे दिल से की जाए तो वह कबूल भी हो सकती है। इसका अर्थ ये भी हुआ कि उस बुजुर्ग महिला की जितनी उम्र बाकी थी, वह पोती में शिफ्ट हो गई तो वह अब उतने ही साल जीवित रहेगी, क्योंकि उसकी सांसें तो समाप्त होने वाली थीं।

आपने कई बार ये सुना होगा कि यमदूत कभी गलती से किसी की आत्मा ले जाते हैं, मगर जैसे ही उन्हें पता लगता है कि त्रुटि हो गई है तो वे वापस शरीर में आत्मा को प्रविष्ट कर देते हैं, अगर उसका अंतिम संस्कार न हुआ हो। ताजा प्रसंग में संभव है ऐसा हुआ हो कि लेने तो वे बुजुर्ग महिला की आत्मा आए हों और गलती से वे बच्ची की आत्मा लेने लगे हों और वह मरणासन्न अवस्था में आ गई हो, लेकिन जैसे ही उन्हें गलती का अहसास हुआ, तुरंत बच्ची को छोड़ कर बुजुर्ग की आत्मा को साथ ले गए हों। 

इस प्रसंग में एक बात ये भी गौर करने योग्य है कि बुजुर्ग महिला तनिक मंदबुद्धि थी। बेहद सहज व भोली-भाली अर्थात एकदम सच्ची इंसान। ऐसा संभव है कि भीतर से पवित्र इंसानों की इच्छा या दुआ शीघ्र मंजूर हो जाती हो।


-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 8 नवंबर 2020

कानूनन सज्जादानशीन तो दरगाह दीवान ही हैं


हाल ही में मैने एक फेसबुक पेज व एक वेबसाइट के उस दावे की जानकारी दी थी, जिसमें दर्शाया गया है कि ख्वाजा साहब के ऑरीजिनल सज्जादानशीन तो पाकिस्तान में हैं, जबकि सच्चाई ये है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के वर्तमान सज्जादानशीन दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान हैं और उन्होंने अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया है। इस पर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं।

जनाब पीरजादा फिरोज ने फेसबुक पर जो प्रतिक्रिया दी है, उसे हूबहू देखिए:-

पाकिस्तान माइग्रेशन पर उनकी सिविल डेथ हो चुकी है, मतलब भारतीय संविधान और कानून के तहत मिलने वाले उनके समस्त अधिकार समाप्त। भारत में यह पद खाली हो गया था और इस पद पर ख्वाजा साहब के वंशज ही विराजमान होते हैं जो उनके पाकिस्तान चले जाने पर खानदान के अन्य व्यक्ति को हस्तानांतरित हो गया। मतलब कोई अमेरिका, पाकिस्तान, लंदन, या कहीं भी चला गया तो यह पद समाप्त नहीं होगा, एक शाख से दूसरी शाख में अर्थात एक भाई के दूसरे देश माइग्रेशन पर यह पद दूसरे भाई या उसके परिवार (खानदान) के अन्य सदस्यों को हस्तानांतरित हो जाएगा। मतलब पहली शर्त यह कि ख्वाजा साहब का वंशज हों, और दूसरी यह कि वह भारत का नागरिक हो। तभी वो इस पद पर पदासीन हो सकता है।

उनकी यह प्रतिक्रिया बिलकुल सटीक है। उनका यह तर्क अकाट्य है कि पाकिस्तान माइग्रेशन पर उनकी सिविल डेथ हो चुकी है, मतलब भारतीय संविधान और कानून के तहत मिलने वाले उनके समस्त अधिकार समाप्त हो चुके हैं।

कुछ अन्य ने मुझे फोन करके प्रतिक्रिया दी कि जो भी सज्जन पाकिस्तान में रह कर अपने आप को ख्वाजा साहेब का सज्जादानशीन जाहिर कर रहे हैं, उसके पीछे जो भी तर्क हो, मगर चूंकि ख्वाजा साहब की दरगाह अजमेर में है, और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत जनाब जेनुल आबेदीन अली साहब बतौर दीवान अपने कर्तव्यों को अंजाम दे रहे हैं, इस कारण सज्जादानशीन वे ही कहलाएंगे। ज्ञातव्य है कि कोर्ट ने दीवान को मान्यता उनके ख्वाजा साहब के निकटतम संबंधी होने के नाते ही दी है। भारतीय संविधान के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम है, उससे ऊपर कोई नहीं है। यदि कोई विदेश जा कर स्वयं को उत्तराधिकारी करार देता है तो उसका भारतीय संविधान व सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रोशनी में कोई महत्व नहीं है। 

कुल जमा प्रतिक्रियाओं का निष्कर्ष ये है कि उन्हें पाकिस्तान में रहने वाले सज्जन को सज्जादानशीन कहलाने पर ऐतराज है। उनका तर्क ये है कि यदि उनके पूर्वज सज्जादानशीन पद पर रहना चाहते थे, दीवान रह कर ख्वाजा साहब की दरगाह में जरूरी रसूमात अंजाम देना चाहते थे, तो उन्हें भारत में रहना चाहिए था, पाकिस्तान क्यों चले गए? पाकिस्तान जाने के साथ ही भारतीय संविधान के मुताबिक उनका दावा समाप्त हो गया था। 

वस्तुत: यह मसला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया जाना चाहिए था, मगर संभवत: ख्वाजा साहब की महानता और उनके प्रति करोड़ों लोगों की श्रद्धा को ख्याल में रख कर महत्वपूर्ण दीवान पद की गरिमा का ख्याल में रखते हुए व्यर्थ का विवाद आरंभ करने से बचा गया है, मगर इसका परिणाम ये है कि पाकिस्तान में ख्वाजा साहब के सज्जादानशीन होने का सम्मान पाया जा  रहा है। 

इस मसले के दो पहलु हो सकते हैं। एक धार्मिक आस्था और दूसरा कानून। किसी की भी धार्मिक आस्था का सम्मान किया जाना चाहिए, मगर कानून सबसे ऊपर है। यहां मैं यह साफ करना वाजिब समझता हूं कि ये मुद्दा उठाने के पीछे दीवान साहेब या खुद्दाम हजरात की शान में गुस्ताखी करना नहीं, बल्कि एक पहलु को सामने लाना मात्र था।

-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

एक प्रेत ने बताया कि जहां भी रामायण पाठ होता है, वहां हनुमानजी उपस्थित हो जाते हैं?


यह आम धारणा है कि जहां पर भी रामायण अथवा रामचरित मानस का पाठ होता है, वहां भगवान के परम भक्त हनुमानजी अदृश्य रूप में उपस्थित हो जाते हैं। बड़ी दिलचस्प बात है कि पूरी दुनिया में कई अवसर ऐसे आते होंगे, जहां एक साथ एक ही समय में रामायण पाठ होता होगा, तो यह भी मान्यता है कि वे उन सभी स्थानों पर एक साथ उपस्थित रह सकते हैं। अर्थात सर्वव्यापक व कालतीत हैं। उनके लिए समय व स्थान की कोई भी बाधा नहीं है।

शास्त्रानुसार यह भी स्थापित तथ्य है कि हनुमानजी चिरंजीवी हैं। बताते हैं कि सीता माता ने हनुमानजी को लंका की अशोक वाटिका में राम का संदेश सुनने के बाद आशीर्वाद दिया था कि वे अजर-अमर रहेंगे। यानि कि वे चिरयुवा भी हैं। चूंकि वे अब भी मौजूद हैं व भगवान राम के  अनन्य भक्त हैं, तो इससे यह बात जुड़ती है कि वे हर रामायण पाठ में मौजूद रह सकते हैं और रहते ही हैं। प्रसंगवश बता दें कि हनुमानजी के अतिरिक्त सात अन्य भी चिरंजीवी माने गए हैं। उनमें ऋषि मार्कण्डेय, भगवान वेद व्यास, भगवान परशुराम, राजा बलि, विभीषण, कृपाचार्य व अश्वत्थामा शामिल हैं।


जहां तक राम कथा का सवाल है तो यह मान्यता है कि वह अनादि काल से जारी है। सर्वप्रथम श्रीराम की कथा शंकर भगवान ने माता पार्वती को सुनाई थी। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसका पुनर्जन्म कागभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि ने वह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। कहा जाता है कि गरुढ़ भगवान को भी उन्होंने यह कथा सुनाई। स्वयं हनुमानजी ने यह कथा एक पाषाण पर लिखी। बाद में ऋषि वाल्मीकि ने यह कथा लिखी। एक प्रसंग यह भी है कि रामचरित मानस के रचियता तुलसीदास जी काशी में राम कथा किया करते थे। उन्हें एक प्रेत ने बताया कि जहां भी रामकथा होती है, हनुमानजी वहां उपस्थित हो जाते हैं। तुलसीदास जी ने एक बार राम कथा के दौरान एक वृद्ध के रूप में हनुमानजी के दर्शन किए। इस पर उन्होंने भगवान राम के दर्शन करवाने को कहा तो हनुमानजी ने कहा कि आपको चित्रकूट में दर्शन होंगे। तुलसीदासजी ने चित्रकूट में ही भगवान राम के दर्शन किए।

राम कथा के दौरान हनुमान जी की उपस्थिति की मान्यता के चलते ही जहां भी रामायण पाठ होता है, तो वहां हनुमानजी के लिए आसन बना कर उस पर उनको आमंत्रित किया जाता है।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 5 नवंबर 2020

पाकिस्तान में हैं ख्वाजा साहेब के असली सज्जादानशीन?

 

यह सर्वविदित है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के वर्तमान सज्जादानशीन दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान हैं और उन्होंने अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया है।  दीवान साहब का खुद को ख्वाजा साहेब का सज्जादानशीन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक बिलकुल जायज भी है। दूसरी ओर वहीं एक फेसबुक पेज व वेबसाइट ये दावा करती है कि ख्वाजा साहब के ऑरीजिनल सज्जादानशीन तो पाकिस्तान में हैं। बेशक भारत में यहां के संविधान के मुताबिक जरूर दरगाह दीवान का दावा ही सही माना जाएगा। इसकी वजह ये भी है कि ख्वाजा साहेब की मजार शरीफ अजमेर में ही है, मगर दुनिया को ग्लोबल विलेज बना रहा इंटरनेट अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो यही जता रहा है कि ख्वाजा साहेब के असली सज्जादानशीन तो पाकिस्तान में हैं।

जनाब शैखुल मशायख दीवान सैयद इनायत हुसैन साहब के विसाल के बाद 21 सितम्बर 1959 से 8 जुलाई 1975 तक 35 वें दीवान रहे सैयद सोलत हुसैन साहब के साहबजादे सैयद नजम चिश्ती ने बताया कि आप जरा आप फेसबुक पेज Original Sajjada Nasheen of Hazrat Khawaja Syed Moin Uddin Chishti Ajmairi Public Figure पर भी गौर फरमाइये, जिसमें बताया गया है कि असल सज्जादानशीन तो पाकिस्तान में हैं। इस पर मैने न केवल उस फेसबुक पेज पर गौर किया, बल्कि उसमें दिए गए साइट के लिंक पर जा कर वह साइट भी देखी। इसमें साफ तौर पर बताया गया है कि हिंदुस्तान के विभाजन के वक्त ख्वाजा साहब के सज्जादानशीन हजरत दीवान सैयद आले रसूल अली खान पाकिस्तान चले गए। उनके 1973 में विसाल के बाद हजरत दीवान सैयद आले मुज्तबा अली खान सज्जादानशीन बने। उनके विसाल के बाद 2001 में शेखउल मशायख हजरत दीवान सैयद आले हबीब अली खान सज्जादानशीन बने। बहरहाल, उस फेसबुक पेज पर दी गई जानकारी को हूबहू यहां पेश किया जा रहा है:-

Short Description
DEDICATE TO OUR BELOVED SUFFI SAINT HAZRAT KHWAJA SYED MOEIN U DIN HASAN (RA) AND HIS DESCENDANT ,SAJJADA NASHEEN DARGAH AJMER

Long Description
Sheikh Ul Mushaikh Hazrat Dewan Syed Aalay Rasool Ali Khan (R A) has hold the Position of Sajjada Nashin Ajmer sharif in 1923 1973.After the Creation of Pakistan The Descendant of Hazrat Khawaja Ghareb Nawaz (R.A) migrated to the Pakistan. In Pakistan their stay Was With sheikh UL Islam Hazrat Qamar Ud Din Sialvi (R A) (sargodha) till 1960. After that the Descendants of khawaja sahab shifted to Peshawar. The last Dewan Who Migrated from Ajmer Sharif was Died in Peshawar in 1973 Where after the death of Hazrat Dewan Sayed Alley Rasool Ali Khan (R A) his son Hazrat Dewan Syed Aalay Mujtaba Ali Khan (R A) was appointed as Sajjada Nashin Ajmer Sharif.He followed the footstep of his great father. His services have been admitted national and international level .
A foundation store was laid down for a complex with the name Gulshan e Sultan UL hind Ajmeri complex, in 1992. Astana-e-Aaliya Moinia Chishtiya is now became the Holy Place for All chishtis as two of the descendants of Khawaja Gharib Nawaz Are Buried here .He died at the age of 81 year when he was reciting the Holy Quran.


after the death of Hazrat Dewan Syed Aalay Mujtaba Ali Khan (R A) ,his son hazrat Dewan Syed Aalay Habib Ali Khan appointed as Sajjada nashin Ajmer sharif. He has done MA (Arabic) from the University of Peshawar.He was awarded Gold Medal in MA Arabic. Genealogically he linked with Hazrat Muhammad Salalhu Alaihay Wa Ala Aalayhi Wasalam at 37 generation and at 39 with sisila e tareeqat.
The work ancestor of Hazrat Khawaja Gharib Nawaz (R A) is a golden chapter of our history.His descendants has also been working on his mission.All Pakistanis especially the people of Attock Rawalpindi and Islamabad are lucky that the descendant of Hazrat Khawaja Gharib Nawaz (R A) is among them. They proved that they are real descendants of the Hazrat Khawaja Gharib Nawaz (R A) by showing an excellent management administration and people of spiritual qualities of highest order before the creation of Pakistan.

Bio
Sheikh ul Mashaikh Hazrat Dewan Syed Aalay Habib Ali Khan appointed as Sajjada nashin Ajmer sharif in 2001. He has done MA (Arabic) from the University of Peshawar.He was awarded Gold Medal in MA Arabic. Genealogically he linked with Hazrat Muhammad Salalhu Alaihay Wa Ala Aalayhi Wasalam at 37 generation and at 39 with sisila e tareeqat.

Personal Information
Hazrat Dewan Syed Aalay Habib Ali Khan appointed as Sajjada nashin Ajmer sharif in 2001. He has done MA (Arabic) from the University of Peshawar.He was awarded Gold Medal in MA Arabic. Genealogically he linked with Hazrat Muhammad Salalhu Alaihay Wa Ala Aalayhi Wasalam at 37 generation and at 39 with sisila e tareeqat.

Phone
+923005300822

Website
http://sajjadanasheenajmer.wix.com/dargah


उनकी वेब साइट पर ख्वाजा साहेब के सिलसिले और पाकिस्तान में उनके बाद रहे सज्जादानशीन के बारे में और उनके अलावा बहुत सारी और मालूमात भी दी गई हैं।

खैर, बताया जाता है कि पाकिस्तान के लोग भले ही अजमेर में मौजूद दरगाह शरीफ की जियारत करने को आते हैं, मगर साथ ही उनके देश में मौजूद असली सज्जादानशीन की भी पूरी इज्जत करते हैं।

गौरतलब है कि जब भी कोई खादिम अपने आप को सज्जादानशीन जाहिर करता है तो दरगाह के दीवान उस पर ऐतराज करते हैं। यदि सज्जादानशीन शब्द पर गौर करें तो इसका मतलब औलाद व वश्ंाज से होता है। और जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश से दीवान ख्वाजा साहब के निकटतम उत्तराधिकारी घोषित किए जा चुके हैं तो जाहिर है जब भी कोई अपने आपको ख्वाजा साहब का सज्जादानशीन बताने की कोशिश करेगा तो उस पर दरगाह दीवान का ऐतराज आएगा ही। मगर सवाल ये है कि क्या वे इंटरनेट पर मौजूद असली सज्जादानशीन की जानकारी पर भी सवाल खड़ा कर सकते हैं। यहां मैं यह साफ करना वाजिब समझता हूं कि ये मुद्दा उठाने के पीछे दीवान साहेब या खुद्दाम हजरात की शान में गुस्ताखी करना नहीं, बल्कि एक पहलु को सामने लाना मात्र है।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

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