गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

क्या हवाई मदद हमजाद के रूप में आती है?


पिछले एक ब्लॉग में हमने छाया पुरुष अर्थात हमजाद की चर्चा की थी। हमजाद हमारी ही हूबहू कॉपी होती है और उसके पास हमसे भी कई गुना अधिक शक्तियां होती हैं। वह दूरस्थ कहीं भी जा सकता है और बहुत कुछ कर सकता है। इसी सिलसिले में कुछ उदाहरण ख्याल में आते हैं, जिनको साझा करने की चेष्टा कर रहा हूं।

मेरे कुछ सूफी मित्र हैं। वे बताते हैं कि उन्हें जब भी कोई समस्या होती है तो वे अपने गुरू को याद करते हैं। कुछ ही क्षण में गुरू हवा के रूप में आते हैं और समस्या का समाधान करते हैं। उनके आने का संकेत खुशबू से मिलता है। जिस स्थान पर उनको याद किया जाता है, वह खुशबू से महक उठता है, जो उनके आगमन का प्रमाण होता है। कुछ मामलों में तो मैने स्वयं खुशबू का अहसास किया है। ऐसा लगता है कि हो न हो इस प्रकार की हवाई मदद गुरू के हमजाद के रूप में ही आती होगी।

कुछ इसी प्रकार के प्रकरण आसाराम बापू के मामले में जानकारी में आए हैं। हालांकि अब वे यौनाचार के आरोप की वजह से जेल में हैं, मगर उनके प्रवचनों के दौरान ऐसे अनेक मामले प्रकाश में आए हैं, जिनमें उनके शिष्य अपने संस्मरण बताते हैं कि वे किसी स्थान पर संकट में थे, तब उन्होंने आसाराम बापू को याद किया और वे किसी न किसी रूप में मदद को आए थे। हालांकि उनका इस तरह से शिष्यों की मदद को आने की वजह से उनके शिष्य उन्हें भगवान के रूप में देखने लग गए, या फिर उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखने लगे, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वे भी अपने हमजाद को मदद के लिए भेजा करते होंगे। उन्होंने भी हमजाद को सिद्ध कर रखा होगा। इसका उनके कथित चारित्रिक दोष से कोई संबंध नहीं। ज्ञातव्य है कि इसी प्रकार की अनेक सिद्धियां तो राक्षसों के पास भी होती हैं, जिनसे वे देवताओं को परेशान करते रहे। 

खैर, ऐसे ही अनेकानेक प्रकरण शास्त्रों में बताए गए हैं, जिनमें अपने इष्ट को सच्चे दिल से याद करने पर वे साक्षत नहीं तो किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार के प्रयोग का तनिक अनुभव मुझे भी है। बहुत ही आवश्यक होने पर मैंने अपने इष्ट से सहायता ली भी है। किंतु वह मेरा भ्रम है या आत्मिक शक्ति का चमत्कार, कह नहीं सकता, वह विचारणीय है, मगर इतना सुनिश्चित है कि मदद मांगने पर मदद आती ही है। यहां किंतु शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया है कि कई बार खुद की ही आत्मिक शक्ति काम कर जाती है, मगर उसका श्रेय इष्ट को ही देना ठीक लगता है।

एक प्रकरण आध्यात्मिक पत्रिका कल्याण में बहुत पहले पढ़ा था। वो यह कि एक शिक्षक हनुमान जी के परम भक्त थे। वे स्कूल जाने से पहले नियमित रूप से हनुमान जी की स्तुति किया करते थे। एक दिन किसी कारणवश उन्हें विलंब हो गया। नियम से बंधे हुए थे, इस कारण देरी होने के बावजूद स्तुति करने बैठ गए, मगर साथ ये भी चिंता थी कि स्कूल में देर से पहुंचने पर हैडमास्टर नाराज होंगे। बहरहाल, जब वे स्तुति करने के बाद एक घंटा विलंब से स्कूल पहुंचे। जाते ही हैडमास्टर के कमरे में गए और विलंब से आने के लिए क्षमायाचना की। हैडमास्टर ने कहा कि क्यों मजाक कर रहे हैं आप तो ठीक समय पर आ गए थे और बाकायदा एक क्लास भी ले चुके हैं। शिक्षक तो आश्चर्यचकित रहे गए। वे समझ गए कि निश्चित रूप से हनुमान जी ही उनकी शक्ल में पढ़ाने पहुंच गए होंगे। हालांकि हनुमान जी अतिविशिष्ट हैं और उन्हें अकेले हमजाद की सिद्धि तो क्या, अन्य अनेक सिद्धियां हासिल हैं। वे तो खुद अष्ट सिद्धि और नव निधि के दाता हैं। मगर मोटे तौर पर समझ में यही आता है कि वे भी हमजाद के रूप में मदद को पहुंचते होंगे। हनुमान जी तो सार्वभौमिक व चिरायु हैं। उनके भक्त भी लाखों में हैं। इस कारण एक साथ अनेक स्थानों पर उपस्थित हो सकते होंगे।


-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 22 फ़रवरी 2021

बहुत रहस्यपूर्ण है चालीस का अंक


यूं तो हर अंक का अपना महत्व है, लेकिन विशेष रूप से प्रकृति और अध्यात्म में चालीस के अंक की बहुत अधिक अहमियत है। चाहे हिंदू हो या मुसलमान, या फिर ईसाई धर्म, सभी में चालीस का खास योगदान है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कहीं न कहीं प्रकृति में चालीस का अंक कोई गूढ़ रहस्य लिए हुए है। इसीलिए सभी धर्मों ने इसका उपयोग किया है।

इस्लाम की बात करें तो यह सर्वविदित है कि इबादत चालीस दिन की जाती है। ज्ञातव्य है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती जब अजमेर आए तो आनासागर के पास स्थित पहाड़ी पर 40 दिन का चिल्ला किया था। यहां से इबादत करने के बाद जब ख्वाजा साहब ने दरगाह शरीफ वाले स्थान की ओर जाने लगे तो कहते हैं कि उनकी जुदाई में पहाड़ के भी आंसू छलक पड़े थे। उसके निशान आज भी मौजूद हैं। क़ुरआन साफ़-साफ़ बयान करता है कि रोज़ा पिछली उम्मतों पर भी वाजिब था। रोज़ा रखने के कई फायदे हैं। कुरआन में ही अल्लाह फरमाते हैं कि रोज़ा इंसानी रूह को मजबूत करता है।

इसी प्रकार इमाम हुसैन की शहादत पर मुसलमान 40 दिन तक शोक मनाते हैं। जानकार बताते हैं कि हमारे पेट में एक निवाला भी हराम का हो तो चालीस दिन तक इबादत कबूल नहीं होती। चालीस दिन का खेल देखिए कि जो जगह लगातार चालीस दिन सुनसान होती है या आबाद नहीं होती तो वहां पर हवाई मखलूक या प्रेत-आत्माएं डेरा जमा लेती हैं। इसीलिए जिस स्थान का उपयोग नहीं हो रहा होता है, तो भी वहां नियमित रूप से दिया-बत्ती की जाती है। 

चालीस की संख्या का बाइबिल में भी बहुत महत्व है। कहते हैं कि चालीस की संख्या न्याय या परीक्षा से सम्बन्धित सन्दर्भों में अक्सर पाई जाती है, जिसके कारण कई विद्वान इसे परख या परीक्षा की संख्या भी समझते हैं।

बाइबिल के पुराने नियम में जब परमेश्वर ने पृथ्वी को जल प्रलय से नष्ट कर दिया, तो उसने 40 दिन और 40 रात तक वर्षा को आने दिया। मूसा के द्वारा मिस्री को मार कर मिद्यान भाग जाने के पश्चात मूसा ने 40 साल तक रेगिस्तान में पशुओं के झुंड की रखवाली में बिताए थे। मूसा 40 दिन और 40 रात तक सीनै की पहाड़ी पर थे। मूसा ने 40 दिन और 40 रात तक इस्राइलियों की ओर से परमेश्वर के आगे हस्तक्षेप करने के लिए विनती की।

एक व्यक्ति को एक अपराध के लिए प्राप्त होने वाले कोड़ों की अधिकतम संख्या चालीस निर्धारित थी। इसी प्रकार इस्राइल के जासूसों को कनान की जासूसी करने में 40 दिन लगे थे। इस्राएली 40 साल तक जंगल में भटकते रहे। 

नए नियम में, यीशु की परीक्षा 40 दिन और 40 रात तक की गई थी। यीशु के पुनरुत्थान और स्वर्गारोहण के बीच 40 दिन थे।

हिंदू धर्म की बात करें तो सिंधी समुदाय इष्टदेव झूलेलाल जी की उपासना भी चालीस दिन तक की जाती है। इसे चालीहो कहा जाता है। इस दौरान लगातार चालीस दिन तक व्रत-उपवास रख कर पूजा-अर्चना के साथ सुबह-शाम झूलेलाल कथा का श्रवण किया जाता है। इन दिनों में खास तौर पर मंदिर में जल रही अखंड ज्योति की विशेष पूजा-अर्चना की जाती है और प्रति शुक्रवार को भगवान का अभिषेक और आरती की जाती है। चालीसवें की रस्म कई समुदायों में अदा की जाती है। कुछ लोगों की मान्यता है कि कोई भी मृतात्मा मृत्यु के चालीस दिन बाद आगे की यात्रा करती है।

चालीस का अंक कितना पवित्र और असरकारक है, इसका अंदाजा इस बात से भी लगता है कि हनुमान जी सहित सभी देवी-देवताओं की स्तुति के लिए चालीसाएं बनाई गई हैं।

हिंदू धर्म में छाया पुरुष या कृत्या की साधना और इस्लाम में हमजाद का अमल भी चालीस दिन तक किया जाता है। अनेक प्रकार की सिद्धियों में चालीस दिन तक अनुष्ठान करने का प्रावधान है।

वैज्ञानिक अवधारणा है कि वीर्य शरीर की बहुत मूल्यवान धातु है। भोजन से वीर्य बनने की प्रक्रिया बड़ी लम्बी है। जो भोजन पचता है, उसका पहले रस बनता है। पांच दिन उसका पाचन होकर रक्त बनता है। पांच दिन बाद रक्त से मांस, उसमे से 5-6 दिन बाद मेद बनता है और मेद से हड्डी, और हड्डी से मज्जा, मज्जा से अन्त में वीर्य बनता है। इस पूरी प्रक्रिया में 40 दिन का समय लगता है।

अनेक मामलों में चालीस की महत्ता को देख कर यह लगता है कि किसी भी स्थान की ऊर्जा की उम्र चालीस दिन होती है। उसके बाद वह क्षीण हो जाती है। ऊर्जा अर्जित करने के लिए भी चालीस दिन तक सतत प्रयास करना होता है। अर्थात इबादत की पूर्णाहुति चालीस दिन में होती है। अब ये चालीस का अंक कहां से आया, इस पर गहन शोध की जरूरत है।


-तेजवानी गिरधर

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हमारा छाया पुरुष या हमजाद हमसे भी अधिक ताकतवर होता है?


क्या आपको पता है कि हमारी ही फोटोकॉपी, हमारा ही प्रतिरूप, हमारा ही प्रतिबिंब, हमारी ही छाया या उसे क्लोन की भी संज्ञा दे सकते हैं, हमारे साथ हर वक्त मौजूद है? इतना ही नहीं, वह हमसे भी अधिक ताकतवर होता है। हम चूंकि शरीर में कैद हैं, इस कारण हमारी सीमा है, मगर हमारा हमजाद अनेक प्रकार की सीमाएं लांघ कर काम कर सकता है।

इस विषय पर चर्चा से पहले मैं बात करना चाहता हूं, मेरे पूर्व के एक ब्लॉग के बारे में, जिसमें मैंने सवाल रखा था कि दर्पण में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब का वजूद क्या है? वह आखिर है क्या? जब तक हम दर्पण के सामने खड़े रहते हैं, तब तक वह दिखाई देता है और हटते ही वह भी हट जाता है। तो जो दिखाई दे रहा था, वह क्या था? हटते ही वह कहां खो जाता है? यह सही है कि उसका अपने आप में कोई वजूद नहीं, मगर वह कुछ तो है। 

आपको जानकारी होगी कि ज्योतिषी व तांत्रिक बताते हैं कि तेल, विशेष रूप से सरसों के तेल में अपना प्रतिबिंब देख कर उस तेल को दान करने से शनि का प्रकोप कम होता है। अर्थात प्रतिबिंब अपने साथ हमारी कुछ ऊर्जा, जिसे नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं, ले जाता है। प्रतिबिंब का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सामुद्रिक शास्त्र में बताया जाता है कि अगर पानी में हमारा प्रतिबिंब दिखाई देना बंद हो जाए तो जल्द ही मृत्यु हो जाती है। अर्थात मृत्यु से पहले प्रतिबिंब बनना बंद हो जाता है।

हमारे यहां तो परंपरा है कि छोटे बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में नहीं दिखाया जाता। मुंडन के बाद ही बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में दिखाने की छूट होती है। इसकी वजह क्या है, यह खोज का विषय है। ऐसी भी परंपरा है कि दूल्हा जब तोरण मारने आता है तो उसे दुल्हन को सीधे नहीं दिखाया जाता। उनको एक दूसरे के दर्शन पहले दर्पण में कराए जाते हैं। इसका भी कारण जाना चाहिए। 

आज हम बड़ी आसानी से दर्पण में अपना चेहरा देख पाते हैं, लेकिन जब इसका अविष्कार नहीं हुआ था, तब ठहरे हुए पानी में चेहरा देखा जाता था। 

इसके बाद एक अन्य ब्लॉग में लिखा था कि छाया का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं। वह हमारी अथवा किसी वस्तु की परछाई मात्र है। उसका भला क्या महत्व हो सकता है? बात ठीक भी लगती है। मगर हमारी संस्कृति में इस पर भी बहुत काम हुआ है। शिव स्वरोदय के अनुसार सूर्य के प्रकाश में पीठ करके खड़े होने पर बनने वाली छाया पर ध्यान केन्द्रित किया  जाता है। साधना पूरी होने पर छाया की आकृतियों के अनेक निहितार्थ होते हैं। 

जिन लोगों ने तंत्र विद्या के बारे में पढ़ा अथवा सुना है, उनकी जानकारी में होगा कि तांत्रिक लक्षित परिणाम पाने के लिए पर छाया का प्रयोग करते हैं। आपने ये भी सुना होगा कि ऐसे सिद्ध भी हैं, जो आपके पीछे चलते हुए  आपकी छाया को अपने वश में कर लेते हैं और इच्छित काम आपसे करवाते हैं। 

अब चर्चा करते हैं मूल विषय पर। आखिर ये छाया पुरुष या हमजाद है क्या, है कौन? जानकार लोग बताते हैं कि हमारे शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं, मगर सोयी हुई अवस्था में। हमजाद भी एक प्रकार की शक्तिशाली व मायावी शक्ति है। यदि हम उसे जागृत कर लें तो वह हमारे आदेश पर अनेक प्रकार के असंभव कार्य भी कर सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे किस्से-कहानियों में कहा जाता है कि वश में किया हुआ जिन्न हमारे हुक्म की तामील करने को तत्पर रहता है। जैसे वह सामने वाले के पर्स में रखे रुपयों तक की जानकारी दे सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तांत्रिक इसी शक्ति का उपयोग कर हमें चमत्कृत करते हैं। किसी दूरस्थ शिष्य की मदद के लिए उसके गुरू का संकट के समय उपस्थित होना, कदाचित इसी शक्ति का प्रयोग है।

जानकार लोग बताते हैं कि हमजाद को जागृत करने के लिए चालीस दिन की साधना की जाती है। इसके लिए या तो दर्पण में अपने प्रतिबिंब पर त्राटक किया जाता है, या फिर दीपक की ओर पीठ करने पर बनने वाली छाया पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसमें अनेक प्रकार की सावधानियां रखनी होती हैं।

विशेष रूप से इस्लाम में हमजाद पर बहुत काम हुआ है। हमजाद का अमल बुलाने के लिए रोजाना ये पंक्ति 777 बार पढ़ी जाती है- लाइल्लाहा इल्ला अनता सुभानल्लाह इन्नि कुंतु मिन्ज ज़वू यावाल्लिन। यह दुआ पढऩे से पहले और बाद में दुरूद इब्राहिम पढऩा होता है।

आज के वैज्ञानिक युग में हमजाद कोरी कल्पना लग सकती है, मगर जानकार लोग बताते हैं कि हमजाद का न केवल वजूद है, बल्कि वह बहुत सारे असंभव काम कर सकता है।


-तेजवानी गिरधर

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बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

क्या भगवान के नाम पर अपना नाम रखना गुनाह है?


आजकल बच्चों के नाम अलग तरह से रखे जाने लगे हैं। कोई संस्कृत भाषा का नाम तलाशता है तो कोई अंग्रेजीदां। कोई महाभारत कालीन या रामायण कालीन पात्रों के नाम रखता है तो कोई अत्याधुनिक अंग्रेजी नाम रखता है। जैसे भीष्म, कुन्ती, कर्ण सिंह, युधिष्ठिर, भीम सिंह, नकुल, कौस्तुभ या अर्जुन और दशरथ सिंह, सीताराम, लक्ष्मण, हनुमान इत्यादि। कुछ साल पहले रमेश, वैभव, अनिल, मुकेश टाइप के नाम रखे जाते थे। नए चलन में आदि, अयान, आर्यन इत्यादि टाइप के नाम रखे जाने लगे हैं। कुछ पीछे चलें तो अमूमन भगवान के नामों में से कोई नाम रखा जाता था। जैसे राम लाल, राम दास, राम चन्द्र, गणेशी लाल, कृपायशंकर इत्यादि। अर्थात भगवान के नाम के साथ लाल या दास जोड़ा जाता था। हालांकि कुछ लोग गोविंद, सुरेन्द्र जैसे नाम भी रखते रहे हैं। जहां तक भगवान के नामों में से कोई नाम रखने की परंपरा का सवाल है, उसके पीछे कारण ये रहता होगा कि किसी को पुकारने के बहाने भगवान का नाम तो उच्चारण में आएगा। सोच यह भी रहती होगी कि ऐसा करने भगवान का स्मरण आने से उनके गुण हमारे में भी आ जाएंगे। हालांकि हकीकत ये है कि जब भी हम किसी को भगवान के किसी नाम से पुकारते हैं, तो वह केवल हमारी जुबान पर होता है, उसका उच्चारण करते वक्त भगवान की छवि हमारे जेहन में नहीं होती। 

इस बारे में एक दिलचस्प जानकारी आयतुल कुर्सी से मिली। आयतुल कुर्सी कुरान की एक आयत है, जो भूत-प्रेत आदि को भगाने या उससे बचाव के लिए पढ़ी जाती है। उसके दूसरे जुमले में कहा गया है कि वही हमेशा जिंदा और बाकी रहने वाला है। हय्य के मानी अरबी ज़ुबान में जिसको कभी मौत न आये, हमेशा जिंदा रहने वाला और कय्यूम के माने हैं, जो खुद कायम रहे और दूसरों को भी कायम रखता और संभालता हो और कय्यूम अल्लाह तआला की ख़ास सिफत है, जिसमें कोई भी उस का शरीक नहीं क्योंकि जो चीज़ें अपने बाक़ी रहने में दूसरे की मोहताज हों, वो किसी दूसरे को क्या संभाल सकती हैं। इसलिए किसी इंसान को क़य्यूम कहना जायज़ नहीं, बल्कि अब्दुल कय्यूम अर्थात कय्यूम का बंदा कहना चाहिए। जो लोग अब्दुल कय्यूम की जगह सिर्फ  कय्यूम बोलते हैं, वे गुनाहगार होते हैं। यही वजह है कि खुदा की ओर संकेत करने वाले नामों के साथ कोई न कोई लफ्ज जरूर जोड़ा जाता है।

इसका मतलब ये है कि इस्लाम में खुदा की किसी खासियत वाले नाम को रखने की मनाही है। मकसद यही है कि खुदा के नाम की मर्यादा या पाकीजगी के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ न हो। ठीक इसी तरह जो लोग राम दास, राम लाल आदि नाम रखते थे, उसके पीछे वजह ये रहती होगी कि अकेले भगवान के नाम पर नाम रखने की बजाय उसका दास या लाल कहा जाए।  वाकई यह सोच बहुत ही गहरी है। हम भला भगवान के बराबर कैसे हो सकते हैं।

आखिर में एक बात। इस्लाम में खुदा का जिक्र बहुत अकीदत के साथ लिया जाता है, जबकि सनातन धर्मावलंबियों में कुछ लोग भगवानों के नाम पर चुटकुलेबाजी से बाज नहीं आते। हां, इतना जरूर है कि शेरो-शायरी में खुदा का जिक्र कई बार मर्यादा की रेखा तोड़ता नजर आता है। कट्टर मुसलमान खुदा का जिक्र करते वक्त कान पकड़ते हैं, जबकि सूफी मत को मानने वाले खुदा से सीधे संवाद तक की बात करते हैं। नजरिये का फर्क है। सूफिज्म में आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष के बावजूद धर्म की सीमा रेखाएं शिथिल हो जाती हैं। आपने अहम ब्रह्मास्मि की तरह का एक शब्द सुना होगा अनलहक। अनलहक सूफियों की एक इत्तला है, जिसके द्वारा वे आत्मा को परमात्मा की स्थिति में लय कर देते हैं। अनलहक कहने वाला पहला सूफी था मंसूर बिन हल्लाज था। खुदाई का यह दावा आलिमों को मंजूर नहीं था, नतीजतन उसे सूली पर लटका दिया गया। इस्लामी शिक्षाओं की मौलिकता को चुनौती देने के कारण उसको इस्लाम का करार दे दिया गया।


-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com