शनिवार, 30 नवंबर 2019

गांधीजी के दर्शन में कीजिए सकारात्मकता के दर्शन

विद्वान हमें जीवन में सकारात्मक बने रहने की सीख देते हैं। वे कहते हैं कि कितना भी कष्ट हो, कैसी भी परेशानी हो, धैर्य से उसे सहन करें और सकारात्मकता बरकरार रखें। बुराई में भी उसके अच्छे पक्ष को देखें। ऐसा कहना बहुत आसान है, मगर उसे दैनंदिन जीवन में अपनाना जरा कठिन है। उसकी वजह ये है कि सैद्धांतिक रूप में हमें यह उपदेश लगता तो सही है, मगर जैसे ही परेशानी आती है, हम उपदेश भूल कर उसी परेशानी पर केन्द्रित हो जाते है। उपदेश को हम सुनते तो हैं, मगर गुनते नहीं हैं। जब तक वह हृदयंगम नहीं होगा, एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देने के समान ही रहेगा।
वस्तुत: उसे अपने जीवन में उतारने की हमारी मानसिक तैयारी नहीं होती। मानसिक तैयारी के लिए मन को समझाना बहुत जरूरी है। मन की बड़ी महत्ता है। मन कितना महत्वपूर्ण है, यह इस उक्ति से समझ में आएगा कि मन के हारे जीत है, मन के जीते जीत। यानि कि जैसा मन होगा, वैसा ही हमारा चिंतन होगा, वैसी ही हमारी सोच होगी और जाहिर तौर पर हमारा कृत्य के भी उसी के अनुरूप होगा। तभी जीत हासिल होगी। एक और उक्ति आपने सुनी होगी- जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। इसका भी भाव कमोबेश यही है कि जैसा हमारा दर्शन होगा, जैसी हमारी सोच होगी, वैसी ही सृष्टि हमारे इर्द-गिर्द निर्मित हो जाएगी।
खैर, बात सकात्मकता की। यूं तो इसके अनेक उदाहरण हैं, जैसे आधा भरा व आधा खाली गिलास, मगर जो उदाहरण मुझे सर्वाधिक प्रिय है, वह आपसे साझा करता हूं। किस्सा यूं है- गांधीजी के आश्रम में नियमित रूप से आने वाला एक साधक प्रतिदिन शाम को शराब की दुकान पर जा कर शराब पीता था। एक बार आश्रम के अन्य साधकों ने उसे शराब की दुकान पर देख लिया। उन्होंने इसकी शिकायत गांधीजी से की कि हमारे आश्रम का एक साधक शराब पीता है। वह आश्रम में आ कर आपके उपदेश तो सुनता है, मगर उस पर उसका कोई प्रभाव क्यों नहीं पड़ रहा? इसके अतिरिक्त हमारे आश्रम के साधक के शराब की दुकान पर जाने से आश्रम की बदनामी भी होती है। लोग क्या कहेंगे? गांधीजी का शिष्य शराबी है? गांधीजी ने धैर्य से उनकी बात सुनी और कहा कि यह तो बहुत अच्छी बात है। आप यह क्यों सोचते हो कि हमारे आश्रम का साधक शराब पीता है, ये क्यों नहीं सोचते कि एक शराबी हमारे आश्रम में आता है। इसका अर्थ ये है कि भले ही वह शराबी है, मगर फिर भी आश्रम में आता है, अर्थात उसमें सुधार की ललक है, सुधार की संभावना है। गांधीजी का यह जवाब सकारात्मक सोच का सटीक उदाहरण है।
-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

धैर्य को निकटता से जाना कुवेरा जी में

श्री आर. डी. कुवेरा
जीवन की एक बड़ी हकीकत ये है कि वक्त कैसा भी हो, अच्छा या बुरा, वह बदलता ही है। कभी एक जैसा नहीं रहता। उसकी इस उठापटक में जो धैर्य रखते हैं, वे सरवाइव कर जाते हैं और जो विचलित हो जाते हैं, वे निपट जाते हैं। इस सिलसिले मेें मुझे मेरे अभिन्न मित्र, स्वामी न्यूज के एमडी श्री कंवल प्रकाश किशनानी की एक बात सदा याद रहती है। वे ब्रह्मलीन स्वामी श्री हिरदाराम साहब के हवाले से बताते हैं कि घड़ी की सुइयां निरंतर चलती रहती हैं, परिवर्तनशील हैं, न तो वे उत्कर्ष के चरम बारह के अंक पर टिकती हैं और न ही धूल चाटने के प्रतीक साढ़े छह बजने पर अटकती हैं। जीवन में भी ऐसा ही है। सर्वश्रेष्ठ समय सदैव नहीं रहता और न ही बुरा से बुरा वक्त स्थाई होता है। हमारा विवेक इसी में है कि जीवन में साढ़े छह बजने पर हताश न हों, धैर्य रखें और बारह बजने पर फूल कर कुप्पा न हों। जब अच्छा वक्त तो ज्यादा से ज्यादा भले काम करें और बुरा वक्त आने पर उसके बीतने का इंतजार करें। इसे यूं भी तो कहा जाता है कि ऐसी कोई रात नहीं, जो सुबह के दर्शन न करवाती हो। बस धैर्य रखने की जरूरत है।
धैर्य रखने के लिए कहना आसान है, मगर धैर्य रखना बेहद कठिन है।  मैने धैर्य रखने की इस कीमिया को करीब से देखा है। पिता तुल्य, मगर पर्याप्त वयांतर के बावजूद मेरे मित्र श्री आर. डी. कुवेरा में। पेशे से पत्रकार हैं और वर्तमान में हयात बुजुर्ग पत्रकारों में सबसे वरिष्ठ। उम्र होगी तकरीबन 85 साल। उनकी भौतिक उपलब्धि में शुमार है विरासत में दो पुत्रों श्री अनूप कुवेरा व श्री कमल कुवेरा को शहर के प्रतिष्ठित व्यवसाइयों में शुमार करवाना। मैंने अपने जीवन में उनसे ज्यादा धैर्यवान और पॉजीटिव व्यक्ति नहीं देखा। क्रोध भी उन्हें कभी नहीं आता। कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, कभी निराश व हताश नहीं होते। बुरे से बुरे में भी अच्छाई पर ध्यान केन्द्रित करने की उनकी विधा को सलाम करता हूं। उनसे करीब तीस साल से दोस्ती है। जाहिर है, कई मौके आए होंगे, जब विपरीत परिस्थिति का निर्माण हुआ होगा, मगर वे सदा सकारात्मक बने रहते हैं। व्यवस्था के खिलाफ मेरे मन में कई बार गुस्सा भर जाता है, मगर वे सदैव यही सिखाते हैं कि धैर्य रखो। सकारात्मकता में जीयो। कोई भी निर्णय गुस्से में मत करो। उनके स्टैंडिग इंस्ट्रक्शन हैं कि जब भी गुस्से में निर्णय करना हो, एक बार मुझ से जरूर मिल लेना। उनकी बात मानने की बहुत कोशिश करता हूं। कुछेक बार जरूर उनकी सीख पर अमल किया, मगर अधिकतर स्वाभिमान की खातिर बिना उनको बताए निर्णय ले ही लेता हूं। घाटे में भी रहता हूं, मगर आत्मा के साथ समझौता कैसे कर सकता हूं। वे सिखाते हैं कि वक्त की नजाकत व मजबूरी को देखते हुए समझौता करके टिके रहो, जबकि मैं ईगो के चक्कर में रणछोड़दास बन जाता हूं।
कुवेरा जी ने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे, मगर कभी विचलित नहीं हुए। जब उनके जवान पोते का एक सड़क दुर्घटना में निधन हुआ तो मैने देखा कि वे स्थितप्रज्ञ की तरह निर्विकार भाव से व्यवहार कर रहे थे। बेशक उनके भीतर भी झंझावात उठता होगा, मगर हरि इच्छा को इतनी सहजता से स्वीकार कर लेना वाकई अनूठा गुण है। पिछले काफी दिन से उनकी धर्मपत्नी बीमार चल रही थीं। वे खुद भी घुटने के चार ऑपरेशन करवाने के कारण तकलीफ में हैं, फिर भी सच्चे दिल से पत्नी की सेवा कर रहे थे। इतना सब कुछ होने के बाद भी दैनिक नवज्योति के प्रधान संपादक श्री दीनबंधु चौधरी के जीवन पर लिखे गए गौरव ग्रंथ के प्रकाशन में पूरे मन से लगे हुए रहे। इस काम से निवृत्त होने के पश्चात अस्वस्थ होने के बाद भी आए दिन फोन करते हैं कि चलो कुछ और करते हैं।
हाल ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। जीवन संगिनी का इस वयोवृद्ध अवस्था में साथ छोड़ जाना बहुत बड़ा वज्राघात है। धैर्य की इस प्रतिमूर्ति को ईश्वर इसे सहने की और अधिक क्षमता प्रदान करे, ऐसी प्रार्थना है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, 27 नवंबर 2019

भगवान दयालु नहीं है?

एक कहावत है कि जो होता है, वह अच्छे के लिए होता है अथवा जो होगा, वह अच्छे के लिए होगा। मैं इससे तनिक असहमत हूं। मेरी नजर में हमारे साथ वह होता है, जो उचित होता है। उसकी वजह ये है कि प्रकृति अथवा जगत नियंता को इससे कोई प्रयोजन नहीं कि हमारा अच्छा हो रहा है या बुरा। प्रकृति तो वही करती है, जो हमारे कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार उचित होता है। अच्छा या बुरा तो हमारा दृष्टिकोण है। जो हमारे अनुकूल होता है, उसे हम अच्छा मानते हैं और जो प्रतिकूल होता है, उसे बुरा मानते हैं।
वस्तुत: प्रकृति निरपेक्ष भाव से काम करती है। जैसे सूरज की रोशनी अमीर पर भी उतनी ही गिरती है, जितनी की गरीब पर। सज्जन पर भी उतनी ही, जितनी दुष्ट पर। इसी प्रकार बारिश न तो महल देखती है और झोंपड़ी, वह तो सब पर समान रूप से गिरती है।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जिन भी विद्वानों ने उपर्युक्त कहावत कही है, उसके पीछे हमें सकारात्मक बने रहने का प्रयोजन है। अगर बुरा भी हो रहा होता है तो, जो कि उचित होता है, उसमें अच्छाई पर ही नजर रखने की प्रेरणा है। यह सही भी है कि अच्छाई व बुराई का जोड़ा है, जो अच्छा है, उसमें कुछ बुरा भी होता है और जो बुरा होता है, उसमें भी कुछ अच्छा होता है। हम निराश न हों, इसलिए कहा जाता है कि भगवान जो कर रहे हैं, उसमें जरूर हमारी भलाई है। यह सिर्फ मन को समझाने का प्रयास है। आपने यह उक्ति भी सुनी होगी- जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। अर्थात प्रकृति जो कर रही है, उसमें राजी रहें, वही हमारी नियति है, चूंकि उसके अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। बेहतर ये है कि हम उसे हमारे लिए उचित मान कर स्वीकार कर लें।
इसी कड़ी में यह बात जोड़ देता हूं। वो यह कि यह बात भी गलत है कि भगवान कृपा के सागर है, दयालु हैं। वे तो कर्म के अनुसार फल देते हैं। यदि बुरे कर्म करेंगे तो बुरा फल देंगे और अगर हम कर्म अच्छे करते हैं तो वह उसके अनुरूप अच्छा फल देने को प्रतिबद्ध हैं। दयालु तो तब मानते, जब कि हम कर्म तो बुरे करें और भगवान की कृपा से फल अच्छा मिले। ऐसे में कर्म का सिद्धांत झूठा हो जाता। पुन: दोहराता हूं कि परम सत्ता निरपेक्ष है। दया व क्रोध को वहां कोई स्थान नहीं। हां, इतना जरूर है कि चूंकि हमें कर्म करने की स्वतंत्रता मिली हुई है, इस कारण हम अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों के प्रभाव को कम कर सकते हैं।
मेरे ख्याल में एक बात और है। सही या गलत, पता नहीं। वो यह कि यदि हम बुरा कर्म कर चुके हैं और उसके बाद भगवान की भक्ति करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, माफी मांगते हैं, तो प्रायश्चित करने के उस भाव की वजह से, सच्चे दिल से गलती मानने से, कदाचित बुरे कर्म का बंधन कुछ कट जाने का भी सिद्धांत हो, जिसकी वजह से बुरे कर्म का उतना बुरा फल न मिलता हो, इस कारण भगवान को दयालु बताया जाता हो।
कुल जमा बात ये है कि यदि हम हमारा भला चाहते हैं तो अच्छे कर्म करें, बुरे कर्म करके माफी की अर्जी क्यों लगाएं?

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

महज 16 साल की उम्र में हुई विद्वान होने की गलतफहमी

यह शृंखला इसलिए आरंभ की है, ताकि वह सब कुछ जो मेरे जेहन में दफन है, वह आपको बांट दूं, ताकि जब मैं इस फानी दुनिया से अलविदा करूं तो इन यादों का बोझ साथ न रहे।

यह वाकया लिखते समय ऐसा लग रहा है कि आप इस पर यकीन करेंगे अथवा नहीं, लेकिन जो बीता है, उसे अभिव्यक्त करने से आपने आपको रोक नहीं पा रहा। तब मेरी उम्र महज 16 साल थी। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था। पिताजी स्वर्गीय श्री टी. सी. तेजवानी लाडनूं में हायर सेकंडरी स्कूल के प्रधानाचार्य थे। उन दिनों बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं। ज्योतिष, तंत्र-मंत्र विद्या, योग, अध्यात्म, दर्शन साहित्य, विज्ञान इत्यादि विषयों का खूब अध्ययन किया। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, महर्षि दयानंद सरस्वती सहित अनेक महापुरुषों के अतिरिक्त ओशो रजनीश को भी जम कर पढ़ा। चूंकि जैन विश्व भारती लाडनूं की चौथी पट्टी के सिरे पर है, इस कारण वहां नियमित जाना होता था, इस कारण जैन दर्शन के बारे में भी बहुत कुछ जाना। योग व ध्यान के प्रयोग भी किए। तब मुझे यह फहमी हो गई थी कि मुझे सब कुछ आता है। हर विषय पर मेरी पकड़ है। चाहे किसी भी विषय का सवाल हो, मैं जवाब दे सकता हूं। आप तो यकीन नहीं ही करेंगे, मुझे भी अब तक यकीन नहीं होता है कि उस वक्त हाफ टाइम के आधे घंटे के दौरान कैसे मेरे इर्द गिर्द समकक्ष और छोटे विद्यार्थी जमा हो जाते थे और मैं उनसे सवाल आमंत्रित करता और उनके जवाब देता था। तब मेरे अनेक शिष्य बन गए थे। अपना नाम आजाद सिंह रख लिया था। मैने अभिवादन के रूप में लव इस लाइफ व लव इस गॉड के स्लोगन दिए थे। हर शिष्य इसी अभिवादन के साथ मिलता था। स्थिति ये हो गई कि मेरे शिष्यों की माताएं, जो कि मुझ से पंद्रह-बीस साल बड़ी थीं, मेरे पास जिज्ञासा लेकर आती थीं। कई मित्र मुझे फिलोसोफर कहने लगे। मैं तब स्कूल ड्रेस के अतिरिक्त केवल खादी का कुर्ता व पायजामा ही पहनता था। सगाई भी इसी वेशभूषा में हुई। पेंट-शर्ट तो थे ही नहीं। ससुराल वालों ने जाने कैसे मुझे पसंद किया। पच्चीस की उम्र में जब शादी हुई, तब जा कर पेंट-शर्ट सिलवाए। आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो समझ ही नहीं पाता कि वह क्या था? वह कैसा आकर्षण था कि लोग मेरी ओर खिंचे चले आते थे? प्रकृति की यह कैसी लीला थी?
मैं आज भी उस काल खंड की मानसिकता व गलतफहमी के बारे में सोच कर अपने आप पर हंसता हूं कि वह कैसा पागलपन था। उसी दौर में एक बार संन्यास के लिए घर से भागा भी, वह कहानी फिर कभी।
खैर, अब तो यह अच्छी तरह से समझ आ चुका है कि दुनिया में इतना ज्ञान भरा पड़ा है कि एक जिंदगी बीत जाए तब भी उसे अर्जित नहीं किया जा सकता। मुझे अच्छी तरह से पता है कि अलविदा के वक्त तक बहुत, बहुत कुछ जानने से रह जाएगा। हालांकि यह सही है कि उन नौ साल के दौरान जितना कुछ स्वाध्याय किया, वही संचय आज काम आ रहा है। यद्यपि मैं ओशो रजनीश से कई मामलों में असहमत हूं, मगर मेरे चिंतन पर उनके सोचने के तरीके व तर्क की विधा का ही प्रभाव है। पहले जहां दुनिया का सारा ज्ञान अर्जित करने की चाह रही, वहीं अब परिवर्तन ये आ गया है कि अब दुनिया का ज्ञान तुच्छ लगने लगा है। पिछले लंबे समय से सारा ध्यान प्रकृति के रहस्य व स्वयं को जानने पर केन्द्रित हो गया है। पता नहीं, ये पूरा हो पाएगा या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

सोमवार, 25 नवंबर 2019

अदृश्य शक्तियां किसी के सपने में आ सकती हैं?

यह शृंखला इसलिए आरंभ की है, ताकि वह सब कुछ जो मेरे जेहन में दफन है, वह आपको बांट दूं, ताकि जब मैं इस फानी दुनिया से अलविदा करूं तो इन यादों का बोझ साथ न रहे।

बात तकरीबन 1978 की है। उन दिनों मैंने अनेक तांत्रिक प्रयोग किए थे। एक प्रयोग का जिक्र कर रहा हूं। मैं तब लाडनूं में था और निकटवर्ती जसवंतगढ़ में विज्ञान कॉलेज में प्रथम वर्ष मैथ्स का छात्र था। मेरे एक मित्र सी. एल. तिवाड़ी तृतीय वर्ष बायलॉजी में थे। मुझे एक तांत्रिक प्रयोग के लिए श्मशान से ताजा चिता की राख लानी थी। इसका जिक्र मैंने श्री तिवाड़ी से किया तो वे बोले कि वे भी साथ चलना चाहते हैं। मैं उन्हें साथ ले गया। श्मशान में जल कर पूर्ण हुई एक चिता मिल गई, जिसके अंगारे अभी सुलग रहे थे। मैंने उससे तांत्रिक विधि से थोड़ी सी राख ली। श्री तिवाड़ी ने हड्डी का एक टुकड़ा उठाया और बताया कि वह रीड़ की हड्डी का एक गुटखा है, जिसका उन्होंने बायलॉजिकल नाम भी बताया। हम वहां से रवाना हो गए। हमें किसी मीटिंग में जाना था, इस कारण हड्डी का टुकड़ा रास्ते में एक मकान की खिड़की पर रख दिया। मीटिंग से लौटने पर हड्डी का वह टुकड़ा मैने ले लिया और घर आ गया। घर में मैने उसे अपनी किताबों के पीछे छुपा कर रख दिया। कुछ दिन बात श्री तिवाड़ी बदहवास से मेरे पास आए और एक अजीब सी बात बताई। उन्होंने बताया कि उनके एक मित्र जनाब अजीज खान, जो कि उनके क्लास फैलो हैं, को एक सपना आया है। सपने में उन्होंने चिता से राख लाने की घटना को क्रमवार देखा है। उन्होंने बताया कि वह चिता किसी साध्वी की थी। उन्होंने चौंकाने वाली बात ये भी बताई कि साध्वी की आत्मा ने मेरे किताबों पीछे छुपी हड्डी गायब कर दी है। मैं हतप्रभ रह गया कि उस घटना का सपना किसी थर्ड पर्सन को कैसे आया? दूसरा ये कि हड्डी का टुकड़ा कैसे गायब हो सकता है, जिसे कि मैने एक दिन पहले ही सुरक्षित देखा है? मैने तुरंत जा कर देखा। वाकई हड्डी का टुकड़ा गायब था। श्री तिवाड़ी ने बताया कि जब उन्होंने चिता से हड्डी का टुकड़ा उठाया था, तब उनको किसी अज्ञात शक्ति ने झन्नाटेदार थप्पड़ मारा था, मगर मारे डर के उन्होंने इसका जिक्र नहीं किया था। उन्होंने ये भी बताया कि जिस दिन की यह घटना है, उसी दिन से हर शाम के वक्त उनके हाथों से मांस जलने की बदबू आती है और वे खाना नहीं खा पाते।
इस पूरी घटना में मैं इस बात से चकित नहीं हुआ कि उस शक्ति ने हड्डी का टुकड़ा गायब कर दिया, लेकिन इस बात से अचंभित था कि एक थर्ड पर्सन को घटना का हूबहू सपना कैसे आया? श्री तिवाड़ी ने सवाल किया कि जनाब अजीज से न तो उन्होंने हमारी मित्रता और न ही घटना का कभी जिक्र कभी किया, फिर भी उनको पूरा सपना कैसे आयाï? मैं निरुत्तर था। इससे यह तो प्रमाणित होता ही है कि अदृश्य शक्तियां किसी घटना का सपना किसी को दिखा सकती हैं।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

सत्य को ही कसौटी पर क्यों कसा जाता है?

एक कहावत है कि भगवान अपने भक्त की परीक्षा लेता है। अर्थात वह चैक करता है कि उसका भक्त कितना दृढ़ निश्चयी है। यह कहावत इस सवाल से जुड़ी हुई है कि अमूमन सच्चाई के रास्ते पर चलने वाले को बहुत कठिनाइयों का सामना क्यों करना पड़ता है?
जहां तक तेरी समझ है, भक्त की परीक्षा का तर्क इसलिए दिया जाता है, ताकि भक्त के अवचेतन में यह बैठ जाए कि उसे कठिन परीक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए। यानि कठिन परीक्षा भक्त की नियती है। अब भगवान नामक कोई ऐसा व्यक्ति है, जो कि निर्धारित प्रक्रिया के तहत भक्त की परीक्षा लेता है, ये तो पता नहीं, मगर इतना जरूर तय है कि जगत का सिस्टम ही ऐसा है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाला जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, उसकी कठिनाइयां बढ़ती जाती हैं। कदाचित इस वजह से कि असत्य के पीछे खड़ी शक्तियां सत्य को आगे बढऩे से रोकने के लिए उत्तरोत्तर और अधिक जोर लगाती हैं। आपने देखा होगा कि वीडियो गेम में भी तो ऐसा ही होता है। खिलाड़ी जैसे-जैसे एक स्टेज को पार कर दूसरी स्टेज पर जाने लगता है तो व्यवधान बढ़ते ही जाते हैं।
इसे दूसरे नजरिये भी देखने की कोशिश करते हैं। असल में यह जगत  दैवीय व राक्षसी शक्तियों से मिल कर बना है। दोनों का अस्तित्व है ही। अर्थात दो तत्वों से मिल कर बना है, जैसे धनात्मक व ऋणात्मक, रात व दिन, अंधेरा व प्रकाश। ऐसे ही अन्य कई उदाहरण हो सकते हैं। इस द्वैत में एक संतुलन है। उसका प्रतिशत कम व ज्यादा होता रहता है। और हम इस संसार में झूलते रहते हैं। जैसे ही एक तत्व अर्थात सत्य पर हम केन्द्रित होते हैं, दूसरा तत्व अर्थात असत्य संतुलन बनाने के लिए अपनी ताकत लगाता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि सत्य के मार्ग में बाधाएं आने लगती हैं। अगर हम ये कहें कि भगवान सत्य का अधिष्ठान है तो वह क्यों कर सत्य के मार्ग में कठिनाइयां डालता है, उलटा उसे तो मार्ग और सुगम करना चाहिए। वस्तुत: उसका कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि यह सही है कि वह सत्य का अधिष्ठान है, मगर द्वैत से बनी प्रकृति का यही विधान है। यहां दोनों तत्वों के पास ताकत है। जो ज्यादा ताकत जुटा लेता है, वही हावी हो जाता है।
यह एक बड़ा गहरा रहस्य है कि भगवान का अस्तित्व है तो शैतान का भी अस्तित्व है। और दिलचस्प बात ये है कि शैतान भी भगवान का ही क्रिएशन है, वह कोई किसी और सृष्टि से नहीं आया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब भगवान ने दैवीय शक्तियां बनाईं तो साथ में आसुरी शक्तियां क्यों बनाईं? मेरी समझ कहती है कि भगवान तो निर्विकल्प है, मगर उसकी रचना, जिसे कि हम सृष्टि कहते हैं, अर्थात उसकी जो माया है, वही विकल्प पैदा करती है। पैदा क्या, वह तो बनी हुई ही विकल्पों से है। हम उसके जाल में फंसे हुए हैं। हमारी तो बिसात ही क्या है, भगवान के अवतार तक, चूंकि इस संसार में पैदा हुए हैं, शरीर धारण किया है, इस कारण उन्हें भी सांसारिक नियमों के तहत वैसे ही रोग, कष्ट आदि से गुजरना होता है। ऐसे में हमें यह मान लेना चाहिए कि चाहे हम कितने भी बड़े भक्त क्यों न हों, कठिनाइयां तो आनी ही हैं। हम जितना भगवान के करीब होते जाएंगे, कठिनाइयां भी उतनी बढ़ती जाएंगी, जिससे घबराना नहीं है। दूसरी ओर असत्य के मार्ग पर चलने वाले को कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती, क्योंकि वह तो है ही अधोगति की ओर। ऊध्र्व गति के मार्ग पर परीक्षाएं ही परीक्षाएं हैं।
इस बारे में विद्वानों ने कहा भी है कि ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं तो रुकावटें बढ़ती जाती हैं। विभिन्न प्रकार की दैवीय शक्तियां, सिद्धियां हासिल होती हैं, ताकि हम उनके आकर्षण में फंस जाएं। कैसी विचित्र बात है कि ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में दैवीय शक्तियां ही बाधक बनने लगती हैं। जो दैवीय चमत्कारों की शक्तियों के मिलने से प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ता है, उसे आखिर में देवत्व भी छोडऩा पड़ता है। इससे ही सिद्ध होता है कि ईश्वर अद्वैत है। निर्विकल्प है। न वहां आसुरी शक्ति है और न ही दैवीय। वह इन दोनों से परे है। वहां असत्य तो नहीं ही है, सत्य भी नहीं है। यह बात गले नहीं उतरेगी। भला वहां सत्य कैसे नहीं होगा? वस्तुत: जिसे हम सत्य मान रहे हैं, वह हमारा परसेप्शन है। ईश्वर तो परम सत्य है। यहां भी सत्य शब्द का प्रयोग इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि हमें समझने के लिए यही भाषा बोलनी पड़ती है। यही समझ में आती है। जैसे कि हमने ईश्वर की परिकल्पना ऐसी की है, मानों हम मानव तो वह महामानव हो। हम सुंदर तो वह सुंदरता की पाराकाष्ठा है। सर्वगुण संपन्न है। जबकि हकीकत ये है कि वह निर्गुण व निराकार है। वह तटस्थ है। न इधर, न उधर। तटस्थ इस अर्थ में कि असुर भी उसकी आराधना करके शक्ति प्राप्त कर लेता है। महत्व आराधना का है।

-तेजवानी गिरधर
संपादक, अजमेरनामा डॉट कॉम
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गुरुवार, 14 नवंबर 2019

एक गांधी को मैने करीब से देखा, जाना, समझा और जिया

चारों ओर बेईमानी का ही बोलबाला है। ईमानदार लोग भी हैं, मगर उनका अलग-अलग परसंटेज है। यानि कि न तो कोई सौ फीसदी ईमानदार है और न ही कोई सौ फीसदी बेईमान। देश, काल, परिस्थिति के साथ ईमानदारी का भी पैमान बदल जाता है। कहा तो यहां तक जाता है कि इस जमाने में ईमानदार वही है, जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिला। यानि कि मौका मिलते ही आदमी बेईमान हो जाता है। वह होना चाहे, न चाहे, हालात उसे बेईमान होने की ओर धकेलते हैं।
असल में हम दोहरे मापदंडों में जीते हैं। ईमानदारी के मेजरमेंट का फर्क देखिए। क्या यह कम विरोधाभास नहीं कि जैसे कोई व्यापारी टैक्स की चोरी करता है, अर्थात वह बेईमानी करता है, मगर अपने यहां वह ऐसे ही नौकरों का रखना पसंद करता है, जो कि ईमानदार हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम स्वाधीनता सेनानी भगत सिंह के गुण तो गाते हैं, मगर यह कत्तई पसंद नहीं करते कि हमारी औलाद भगत सिंह बन जाए। एक उदाहरण और। हम साधु-संत की पूजा-अर्चना करते हैं, मगर इसके लिए कत्तई तैयार नहीं होते कि हमारी संतान संन्यास धारण कर ले।
यह भी एक कड़वा सच है कि ईमानदार आम तौर पर तकलीफ में हैं और बेईमान मजे में, फिर भी ईमानदारी की महिमा गायी जाती है। इस पर मुझे एक फिल्मी गीत की वह पंक्ति याद आ जाती है कि किताबों में छपते हैं, चाहत के किस्से, हकीकत की दुनिया में चाहत नहीं है। यहां आप चाहत की जगह ईमानदारी शब्द को रिप्लेस कर सकते हैं। इस द्वंद्व को मैने करीब से भोगा है। पिताश्री ने बचपन से ही ईमानदारी, आदर्श, सदाशयता, सत्य की राह पर चलना सिखाया। लेकिन जैसे ही होश संभाला और दुनिया से सीधा वास्ता पड़ा तो दिखाई दिया कि यहां तो बेईमानी, चालाकी, मक्कारी व असत्य की ही तूती बालती है। चूंकि ये अवगुण घुट्टी में पीने को नहीं मिले, इस कारण दुनिया में अपने आप को मिसफिट पाता हूं।
खैर, अब मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि ईमानदारी को मैने कैसे नजदीक से जाना। पिताश्री ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे। यह एक बेटा नहीं कह रहा, उनके साथ जिन लोगों भी काम किया है, वे भी इसकी पुष्टि करते हैं। जब मैं छठी क्लास में था, तब पिताश्री जब डूंगरपुर जिले के गांव पुनाली गांव में सेंकडरी स्कूल के हैडमास्टर थे। स्कूल में एक बगीचा था, जिसमें फलदार पौधे थे। एक दिन स्कूल को चपरासी उस बगीचे से कुछ फल लेकर घर पर दे गया। पिताश्री आए तो उन्होंने पूछा कि ये कहां से आए। उनको बताया गया कि चपरासी दे गया है तो वे आग बबूला हो गए। उन्होंने तुरंत चपरासी को बुलाया और फल लौटाते हुए बुरी तरह से डांटा और सख्त आदेश दिए कि आइंदा यह गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
इसी स्कूल में उन्होंने बच्चों में ईमानदारी का सद्गुण विकसित करने के लिए एक अनूठा प्रयोग किया। एक कमरे में लंबी सी टेबल पर सभी प्रकार की पाठ्य सामग्री, पेन, पेंसिल, रबर इत्यादी रखवा कर उन पर उनकी कीमत के टैग लगवा दिए। पास ही एक गुल्लक रखवा दिया। सभी बच्चे
टैग पर लिखी कीमत देख कर वस्तु लेते और निर्धारित राशि गुल्लक में डाल देते। प्रतिदिन हिसाब लगाया जाता, तो वह बराबर मिलता।
वस्तुत: पिताश्री पर महात्मा गांधी का प्रभाव था। वे प्रतिदिन गांधी डायरी भी लिखा करते थे। सत्याग्रह की उनकी एक मिसाल देखिए। एक बार पाली जिले के सोजत गांव की स्कूल में हैडमास्टर थे। वहां किसी उद्दंड लड़के ने स्कूल के बाहर सड़क पर चोक से किसी लड़की व लड़के का नाम लिख कर उसके बीच प्लस का निशान अंकित कर दिया। जैसे ही उन्होंने देखा, वे बहुत आहत हुए और प्रार्थना के वक्त साफ कह दिया कि जब तक यह हरकत करने वाला लड़का खुद आ कर माफी नहीं मांगेगा, वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे। दो दिन बीत गए, कोई सामने नहीं आया। स्टाफ ने बहुत समझाया कि बच्चे तो शैतानी करते रहते हैं, आप क्यों शरीर का यातना दे रहे हैं, मगर वे नहीं माने। आखिर तीसरे दिन जब हरकत करने वाले लड़के ने आ कर प्रार्थना सभा में माफी मांगी, तब जा कर अनशन तोड़ा। ऐसे ही अनेक प्रकरण हैं।
पिताश्री की ईमानदारी के परिणाम की पराकाष्ठा देखिए। तब वे नागौर में वरिष्ठ उप जिला शिक्षा अधिकारी थे। अचानक हार्ट अटैक से उनका देहांत हो गया। सन् 1983 के अक्टूबर की 24 तारीख थी। घर पर कोई दो-चार सौ रुपए ही थे। बैंक अकाउंट में मात्र छह हजार रुपए थे, मगर माताजी के साथ ज्वाइंट अकाउंट न होने के कारण वे निकाले नहीं जा सकते थे। आप अंदाजा लगाइये कि एक गजेटेड ऑफीसर के निधन के वक्त अंतिम संस्कार की सामग्री तक के लिए पैसे नहीं थे, क्योंकि वह पूरी जिंदगी ईमानदारी पर जिया। तब मेरे एक बुजुर्ग मित्र सेठ गंगाराम जी ने कहा कि तुम चिंता न करो। मैं व्यवस्था कर देता हूं, खर्च हुई राशि बाद में देना। इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया। मैने देखा कि पिताश्री के समकक्ष अधिकारी व उनके परिवार बड़े मजे में हैं, जबकि हमारा परिवार आर्थिक तंगी में है।
गांधीवादी दर्शन के प्रभाव में पिताश्री सादा जीवन, उच्च विचार पर ताउम्र अमल करते रहे। एक गजेटेड अफसर अगर मितव्ययता अपनाते हुए अजमेर के जीपीओ के बाहर पुराने कोट-पेंट-शर्ट खरीद कर पहनता हो तो उसे आप क्या कहेंगे? एक-दो बार को छोड़ कर मुझे तो याद ही नहीं आता कि उन्होंने कपड़ा खरीद कर पेट-शर्ट सिलवाई हो।
बेशक मैने गांधी जी को कभी नहीं देखा, मगर उनके पद चिन्हों पर चलने वाले एक शख्स को करीब से देखा, जो कि सौभाग्य से मेरे पिताश्री थे। ऐसे पिता का पुत्र हो कर मैं धन्य हूं।

-तेजवानी गिरधर
संपादक
अजमेरनामा डॉट कॉम
7742067000, 8094767000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, 13 नवंबर 2019

राक्षस देवताओं से अधिक शक्तिसंपन्न क्यों?

क्या ऐसा कभी हुआ है कि राक्षसों ने मिल कर भगवान से प्रार्थना की हो कि उन्हें देवताओं से बचाया जाए। सदैव देवता ही राक्षसों के हाथों परेशान हो कर भगवान की शरण लेते हैं। धर्म ग्रथों में जितने भी प्रसंग व कथाएं हैं, उनमें यही दर्शाया गया है कि राक्षस अपनी शक्ति के दम पर देवताओं, ऋषियों-मुनियों को परेशान करते हैं और वे त्राहि माम, त्राहि माम कहते हुए भगवान के पास गुहार लगाते हैं। तब भगवान अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए राक्षसों का नाश करते हैं। यानि कि राक्षस देवताओं की अपेक्षाकृत अधिक शक्तिवान होते हैं। सवाल ये उठता है कि जब भगवान सदैव आखिर में सत्य की ही जीत करवाते हैं, तो देवताओं को ही इतना शक्ति संपन्न क्यों नहीं कर देते कि वे राक्षसों का मुकाबला कर सकें और बार-बार उनको भगवान की शरण में न आना पड़े।

सोमवार, 11 नवंबर 2019

शंख बजने पर कुत्ते भौंकते क्यों हैं?

यूट्यूब पर कई चैनलों में बताया गया है कि नमाज से पहले अजान की आवाज सुन कर कुत्ते भौंकते व रोते हैं। बाकायदा उसका लाइव डेमो भी दिखाया गया है। उसमें बताया गया है कि जैसे ही अजान की आवाज आती है, शैतान व आसमानी बलाएं भागने लगती हैं। वे हमें तो नहीं दिखाई देतीं, मगर कुत्तों को दिखाई दे जाती हैं। शैतान व बलाओं को भागता देख कर कुत्ते भौंकते व रोते हैं।
इसी कड़ी में मैं भी एक बात जोडऩा चाहता हूं। शाम के वक्त जब मेरी धर्मपत्नी शंख बजाती है तो घर के बाहर बैठे गली के कुत्ते रोने की आवाजें निकालने लगते हैं। यदि इसकी तुलना अजान के वाकये से जोड़ कर देखें तो यही अर्थ निकलता है कि शंख की ध्वनि सुन कर भी शैतानी ताकतें भागती होंगी और उन्हें देख कर कुत्ते रोने लगते होंगे। हो सकता है कि ये सच हो, मगर मेरी समझ कहती है कि ऐसा इस वजह से भी होता होगा कि अजान की लंबी अलाप व शंख की आवाज सुन कर कुत्तों के गले में भी ऐसी ही हू हू करने की खुजली मचती होगी। इस कारण वे लंंबी हू की आवाज निकालते हैं, जो कि रोने जैसी होती है। इसे आप यूं भी आजमा सकते हैं कि कभी कुत्तों के रोने जैसी आवाज निकाल कर देखिए, आसपास जो कुत्ते होंगे, वे भी वैसी ही आवाज निकालना शुरू कर देेंगे। यह ठीक वैसे ही है, जैसे कोई गधा जब रैंकता है तो अन्य गधे भी रैंकना शुरू कर देते हैं। जंगल में इसी प्रकार की हरकत सियार भी किया करते हैं। एक सियार के रोने पर अन्य सियार भी रोने लगते हैं।
वैसे यह भी आम जिस गली में या किसी के मकान के बाहर रात के वक्त कुछ दिन तक कुत्ता लगातार रोता है तो वहां किसी न किसी की मौत हो जाती है। धारणा यही है कि उसे यमदूत दिखाई देते हैं, जिन्हें देख कर रोता है। हालांकि ऐसी मनहूस आवाज निकालने पर हम कुत्ते को भगा देते हैं, मगर सच ये है कि वह हमें इशारा कर रहा होता है।

शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

एक कदम ने जीवन की दिशा बदल दी

स्वाभिमान बडी कीमत वसूल करता है

यह शृंखला इसलिए आरंभ की है, ताकि वह सब कुछ जो मेरे जेहन में दफन है, वह आपको बांट दूं, ताकि जब मैं इस फानी दुनिया से अलविदा करूं तो इन यादों का बोझ साथ न रहे।

बात सन् अगस्त 1983 की है। मेरे पिताश्री तत्कालीन वरिष्ठ जिला शिक्षा अधिकारी स्वर्गीय श्री टी. सी. तेजवानी के नागौर में निधन के बाद पूरा परिवार अपने पैतृक शहर अजमेर में लौट आया। यहां किसी अखबार में नौकरी पाने के मकसद से नागौर के सूचना व जनसंपर्क अधिकारी श्री के. बी. एल. माथुर से एक सिफारिशी पत्र अजमेर के सूचना व जनसंपर्क अधिकारी श्री देवी सिंह नरूका के नाम ले कर आया। उन्होंने मुझे तब शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे दैनिक रोजमेल के स्टेशन रोड, मार्टिंडल ब्रिज के पास स्थित दफ्तर में स्थानीय संपादकीय प्रभारी स्वर्गीय श्री राजनारायण बरनवाल के पास भेजा। उन्होंने कहा कि अखबार शुरू होने को है, लेकिन फिलहाल पूरा स्टाफ रख लिया है, अत: बाद में कभी आना। मैं वहां से दैनिक नवज्योति गया। अपने नाम की पर्ची प्रधान संपादक श्री दीनबंधु चौधरी के चैंबर में भेजी। मैं बाहर बैठा इंतजार कर ही रहा था कि वहां दैनिक नवज्योति के नागौर जिला संवाददाता श्री माणक गौड आ गए। उन्होंने वहां देख कर सवाल किया, कैसे आए? मैंने प्रयोजन बताया। वे बोले, अरे, चलो में ही आपको चौधरी जी से मिला देता हूं। वे मुझे अंंदर ले गए। मेरी तारीफ करते हुए चौधरी जी से बोले कि यह लड़का बहुत टेलेंटेड है। चौधरी जी ने बिना कोई सवाल-जवाब किए ही कह दिया कि कल ही ज्वाइन कर लो। तनख्वाह चार सौ रुपए प्रतिमाह मिलेगी। मैं नवज्योति से बाहर निकल कर सोचने लगा कि इतने बड़े अखबार में मैं काम भी कर पाऊंगा या नहीं। बड़े-बड़े पत्रकार मुझे जमने देंगे या नहीं। सोचते-सोचते गली पार कर आधुनिक राजस्थान पहुंच गया। वहां प्रधान संपादक स्वर्गीय श्री दिलीप जैन से मिला। वे पहले से परिचित थे, क्योंकि नागौर रहते हुए मैं आधुनिक राजस्थान को समाचार भेजा करता था। उन्होंने भी मेरे आग्रह को तुरंत स्वीकार करते हुए अगले ही दिन से ज्वाइन करने को कह दिया। मुझे यहां थोड़ा सा अपनापन लगा। छोटा अखबार है। लगा कि यहां जल्द ही पकड़ बना लूंगा। हुआ भी वही। दूसरे ही दिन मैंने ज्वाइन कर लिया। आरंभ में मुझे अंदर के पेजों के संपादन का काम मिला। कोई छह माह ही हुए थे कि तत्कालीन संपादकीय प्रभारी श्री सतीश शर्मा ने मेरी प्रतिभा को देखते हुए कहा कि आप फ्रंट पेज पर आ जाओ, मैं सिखाऊंगा। वे पेश से तो मास्टर थे, पत्रकारिता के भी मास्टर थे। जल्द ही मैने स्वतंत्र रूप से प्रथम पेज का संपादन आरंभ कर दिया। अपने ही मार्गदर्शन में उन्होंने मुझे एडिटोरियल का इंचार्ज भी बना दिया। यहां तकरीबन पांच साल काम किया। वहां बहुत कुछ सीखा। इसके बाद दैनिक न्याय के संपादकीय प्रभारी स्वर्गीय श्री राजहंस शर्मा ने मुझे बुलाया और कहा कि पिताश्री बाबा विश्वदेव शर्मा ने मुझ पर अखबार का दायित्व सौंपा है, मेरा विश्वास है कि आप इंचार्जशिप संभाल लेंगे। मैने ज्वाइन कर लिया। मुझे फ्री हैंड दिया गया। मैने भी जम कर बैटिंग की। इस प्लेटफार्म ने मुझे पहचान दी। दैनिक न्याय के भी कई संस्मरण हैं, जो फिर कभी शेयर करूंगा। वहां पांच साल काम करने के बाद किसी बात को लेकर स्वाभिमान की रक्षार्थ इस्तीफा दे दिया। बाबा इस्तीफा मंजूर करने को तैयार नहीं थे, मगर मेरी जिद के चलते उन्हें स्वीकार करना ही पड़ा। विदाई देते समय उस जमाने के दबंग पत्रकार की आंखें नम होने पर अपनी पीठ थपथपाई कि मैने निष्ठा व अपने काम के दम पर उनका दिल जीत लिया है।
खैर, फ्री होते हुए श्री दिलीप जैन ने बुलवा लिया। वहां कुछ समय काम किया। चूंकि मिजाज से अति संवेदनशील हूं, इस कारण फिर किसी बात पर स्वाभिमान की खातिर इस्तीफा दे दिया। जैसे ही तत्कालीन सांध्य दैनिक दिशादृष्टि के संपादक श्री राधेश्याम शर्मा को पता लगा, उन्होंने मुझे बुलवाया और कहा कि वे अब दिशा दृष्टि को सांध्य की जगह प्रात:कालीन करना चाहते हैं और उसका दायित्व मुझे सौंपना चाहते हैं। मैने प्रस्ताव तुरंत स्वीकार कर लिया। करीब दो साल काम करने के बाद वहां से भी जी उचट गया। केवल स्वाभिमान के कारण। उन्होंने भी मुझे बड़ी मुश्किल से छोड़ा। छोड़ कर घर बैठ गया। सन् 1996 में दैनिक भास्कर का आगमन हुआ। वहां के कई प्रसंग याद हैं, मगर फिलहाल इतना ही। तकरीबन आठ साल तक सिटी चीफ रहने के बाद जयपुर तबादला हो गया। वहां मुझे पहले स्टेट डेस्क पर बैठाया गया और कुछ समय बाद ही सिटी एडिशन का जिम्मा दिया जा रहा था। वह वाकई की-प्रोस्ट थी, मगर माताश्री की तबियत खराब रहने के चलते छह माह बाद ही इस्तीफा दे दिया। तत्कालीन संपादक श्री एन. के. सिंह ने इस्तीफा मंजूर न करते हुए वापस अजमेर भेज दिया। यहां तत्कालीन संपादक श्री इंदुशेखर पंचोली से पटरी बैठी नहीं, जो कि बैठनी भी नहीं थी, क्योंकि वे मुझ से जूनियर थे। यहां भी स्वाभिमान आड़े आया। खैर, इसकी भी एक कहानी है, जिसका जिक्र फिर कभी करूंगा। कोई तीन दिन बाद ही फिर इस्तीफा दे दिया। कुछ समय खाली बैठा रहा। फिर युवा भाजपा नेता व समाजसेवी श्री भंवर सिंह पलाड़ा ने श्री सुरेन्द्र चतुर्वेदी के माध्यम से बुलवा कर अखबार शुरू करने की मंशा जताई। हम दोनों ने उन्हें साफ कह दिया कि यह घाटे का सौदा है, पर वे नहीं माने, इस पर हम तैयार हो गए। हमने स्वर्गीय श्री नवल किशोर सेठी से सरे-राह टाइटल लिया। करीब पौने दो साल काम करने के बाद स्वाभिमानवश इस्तीफा दे दिया। श्री पलाड़ा मुझे नहीं छोडऩा चाहते थे, लेकिन मैं भी जिद पर अड़ गया। विदाई के वक्त मैने उनका मन भी बाबा की तरह द्रवित देखा।
खैर, उसके बाद दैनिक महका भारत के अजमेर संस्करण के स्थानीय संपादक के रूप में काम किया। अखबारों की प्रतिस्पद्र्धा के कारण वह समाचार पत्र अनियमित हो गया। फिर कुछ समय के लिए दैनिक न्याय सबके लिए में संपादक के रूप में काम किया। आर्थिक संकट के कारण अखबार बंद करने की नौबत आ गई। उसके बाद मेरे परम मित्र स्वामी न्यूज के एमडी श्री कंवल प्रकाश किशनानी के सहयोग से अजमेरनामा डॉट कॉम नाम से न्यूज पोर्टल शुरू किया, जो कि अब भी चल रहा है।
लब्बोलुआब, जीवन की इस यात्रा से एक ही निष्कर्ष निकला कि यदि मैं दैनिक नवज्योति में मिल रही नौकरी को स्वीकार कर लेता तो जीवन में इतना भटकाव नहीं होता और आज वहां स्थानीय संपादक पद पर पहुंच चुका होता। दूसरा सबक ये कि स्वाभिमान बड़ी कीमत वसूलता है। मेरे परिवार ने बहुत सफर किया। जिस स्वाभिमान की मैने दुनिया में रक्षा की, उससे अपने परिवार के सामने समझौता करना पड़ा। मैं उसे वह नहीं दे पाया, जिसे देना मेरा फर्ज था।
प्रसंगवश अतीत में जरा पीछे जा कर बताना चाहता हूं कि सन् 1979 में पत्रकारिता की शुरुआत लाडनूं ललकार के संपादक स्वर्गीय श्री राजेन्द्र जैन ने करवाई। मुझे सहायक संपादक बनाया। सन् 1980 से 1983 तक आधुनिक राजस्थान के अतिरिक्त जयपुर से प्रकाशित दैनिक अणिमा व दैनिक अरानाद के संवाददाता के रूप में काम किया।
अखबारी जीवन के अनेक संस्मरण मेरे जेहन में अब भी सजीव हैं। उनका जिक्र फिर कभी करूंगा।