गुरुवार, 30 जुलाई 2020

सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श क्यों नहीं किए जाते?

हमारे यहां मान्यता है कि सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं किए जाने चाहिए। अगर इस मान्यता से अनभिज्ञ कोई व्यक्ति सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श करता है तो उसे ऐसा करने से रोका जाता है। मान्यता तो यह तक है कि लेटे हुए व्यक्ति के भी चरण स्पर्श नहीं किए जाते। अगर कोई चरण स्पर्श करना चाहता है तो लेटा हुआ व्यक्ति बैठ जाता है। सवाल ये है कि आखिर इस मान्यता के पीछे क्या साइंस है, क्या कारण है?
विभिन्न जानकारों से इस बारे में चर्चा करने पर जो तथ्य सामने आए, वे आपसे साझा किए जा रहे हैं।
अव्वल तो अगर सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श करेंगे तो उसका प्रयोजन पूरा ही नहीं होगा। आप आशीर्वाद या सम्मान की खातिर किसी के चरण स्पर्श करते हैं, मगर यदि वह सोया हुआ है तो उसे पता ही नहीं लगेगा कि आप उसके चरण स्पर्श कर रहे हैं। अर्थात वह आशीर्वाद देने की स्थिति में ही नहीं है और न ही उसको ये पता लगेगा कि आप उसके प्रति सम्मान का इजहार कर रहे हैं।
वैसे इसका मूल कारण दूसरा बताया जाता है। हालांकि सोते समय सांस चल रही होती है और आदमी जिंदा होता है, मगर सोना भी एक प्रकार की मृत्यु मानी गई है। अगर कोई आदमी गहरी नींद में हो तो उसकी ज्ञानेन्द्रियां-कर्मेन्द्रियां भी सुप्त हो जाती हैं। चूंकि उसकी आंखें बंद हैं, इस कारण दिखाई नहीं देता है, उसका मुख बंद है, इस कारण उसका स्वर यंत्र व जीभ की स्वाद तंत्रिका सुप्त होती है, उसे सुनाई भी नहीं देता। स्पर्श का भी अनुभव नहीं होता। यानि कि वह लगभग मृतक समान है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मृतक के शव के चरण स्पर्श करने कर चलन है। जिस मान्यता की हम चर्चा कर रहे हैं, उसे इसी से जोड़ कर देखा जाता है। अर्थात हम यदि सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श कर रहे हैं, इसका मतलब ये कि हम मृत व्यक्ति के चरण छू रहे हैं। इसे अपशकुन माना जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि हमारे चरण स्पर्श करने से वह मर ही जाएगा, मगर यह कृत्य उसी के तुल्य माना जाता है।
लेटे हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं करने के पीछे तर्क ये है कि ऐसा करने से चरण स्पर्श करने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव महसूस होता है। यह सामान्य शिष्टाचार के विपरीत है। वाकई यह कितनी अभद्रता है कि कोई आपके प्रति सम्मान दर्शा रहा है और हम उसके सम्मान को स्वीकार करने के लिए उठ कर बैठ तक नहीं सकते। 
स्थितियों अथवा दृश्य के प्रति हम कितने सतर्क हैं, इसको लेकर एक आलेख में पहले भी चर्चा कर चुके हैं। इन उदाहरणों से उसे समझ सकते हैं। आपने देखा होगा कि हमारे यहां भोजन परोसते समय पहले जल पेश किया जाता है। उसके बाद भोजन की थाली। या फिर आगे-पीछे। अज्ञानतावश कोई यदि भोजन की थाली एक हाथ में व दूसरे हाथ में पानी का गिलास ले कर आए या पानी का गिलास भोजन की थाली में लाए तो इसे अपशगुन माना जाता है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मान्यता है कि श्राद्ध के दौरान ऐसा मृतक के लिए किया जाता है। यदि हम जिंदा व्यक्ति के साथ ऐसा कर रहे हैं, तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम मृतक के साथ ऐसा कर रहे हैं। इसी प्रकार अगर कोई मकान की चौखट पर बैठे तो उसे वहां न बैठने को कहा जाता है, क्यों कि मान्यता ये है कि चौखट पर बैठने से दरिद्रता आती है। इसके विपरीत तथ्य है कि जो दरिद्र हो जाता है, जिसके पास खाने को भी नहीं होता, वह चौखट पर आ कर बैठता है। ऐसे ही अनेक और उदाहरण हो सकते हैं। यथा दुकान बंद करने को दुकान मंगल करना कहते हैं। दीया बुझाने को दीया बढ़ाना कहते हैं। किसी अपने को अपशब्द कहने की जरूरत पड़ जाए तो उसका विलोमार्थ उपयोग में लेते हैं। जैसे यदि कोई लापरवाही करते हुए कुछ नुकसान कर दे तो यकायक मुंह से ये निकलता है कि अंधा है क्या, मगर सिंधी में कहते हैं कि सजा है क्या अर्थात आंख से पूरा दिखता है क्या?
कुल जमा बात ये है कि हमारी संस्कृति में नकारात्मकता को भी सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

सोमवार, 27 जुलाई 2020

संपादक के भीतर का लेखक मर जाता है?

एक पारंगत संपादक अच्छा लेखक नहीं हो सकता। उसके भीतर मौजूद लेखक लगभग मर जाता है। यह बात तकरीबन पच्चीस साल पहले एक बार बातचीत के दौरान राजस्थान राजस्व मंडल की पत्रिका राविरा के संपादक और आधुनिक राजस्थान में रविवारीय परिशिष्ट का संपादन करने वाले श्री भालचंद व्यास ने कही थी। तब ये बात मेरी समझ में नहीं आई, ऐसा कैसे हो सकता है? लंबे समय तक संपादन करने के बाद जा कर समझ आई कि वे सही कह रहे थे।
वस्तुत: होता ये है कि लगातार संपादन करने वाले पत्रकार की दृष्टि सिर्फ वर्तनी के त्रुटि संशोधन, व्याकरण और बेहतर शब्द विन्यास पर होती है। अच्छे से अच्छे लेखक की रचना या न्यूज राइटिंग करने वाले का समाचार बेहतर से बेहतर प्रस्तुत करने की विधा में वह इतना डूब जाता है कि उसके भीतर मौजूद लेखक विलुप्त प्राय: हो जाता है। यद्यपि संपादक को हर शैली की बारीकी की गहरी समझ होती है, मगर सतत अभ्यास के कारण अपनी खुद की शैली कहीं खो सी जाती है। जब भी वह कुछ लिखने की कोशिश करता है, तो उसका सारा ध्यान हर वाक्य को पूर्ण रूप से शुद्ध लिखने पर होता है। जगह-जगह पर अटकता है। हालांकि उसकी रचना में भरपूर कसावट होती है, गलती निकालना बेहद कठिन होता है, मगर रचना की स्वाभाविकता कहीं गायब हो जाती है। दरअसल उसमें वह फ्लो नहीं होता, झरने की वह स्वच्छंद अठखेली नहीं होती, जो कि एक लेखक की रचना में होता है। वह लेखन सप्रयास होता है। इसके विपरीत लेखक जब लिखता है तो उसका ध्यान भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति पर होता है। अतिरिक्त प्रयास नहीं होता। इस कारण उसमें सहजता होती है। उसमें एक मौलिक महक होती है। हर लेखक की अपनी विधा व शैली होती है। बेशक वह वर्तनी या व्याकरण की त्रुटियां कर सकता है, क्योंकि उस पर उसका पूरा ध्यान नहीं होता, मगर अभिव्यक्ति में विशिष्ट गंध होती है।
कुछ ऐसी ही सुगंध ओशो को कबीर के दोहों में नजर आती है, जिसमें भाषा का बहुत अधिक ज्ञान नहीं। उलटबांसी भी होती है तो अनगढ़, मगर गूढ़ अर्थ लिए हुए। इसके विपरीत बुद्ध की भाषा में शब्दों की बारीक नक्काशी तो होती है, परिष्कृत, बहुत ज्ञानपूर्ण, मगर वह रस नहीं, जो कि कबीर की वाणी में होता है।
खैर, मूल विषय को यूं भी समझ सकते हैं कि जैसे संगीतकार को संगीत की जितनी समझ होती है, उतनी गायक को नहीं होती, मगर वह अच्छा गा भी ले, इसकी संभावना कम ही होती है। गायक संगीतकार या डायरेक्टर के दिशा-निर्देश पर गाता है, मगर गायकी की, आवाज की मधुरता गायक की खुद की होती है। जैसे अच्छा श्रोता या संगीत का मर्मज्ञ किसी गायक की गायकी में होने वाली त्रुटि को तो तुरंत पकड़ सकता है, मगर यदि उसे कहा जाए कि खुद गा कर दिखा तो वह ऐसा नहीं कर सकता।
इस सिलसिले में एक किस्सा याद आता है। एक बार एक चित्रकार ने चित्र बना कर उसके नीचे यह लिख कर सार्वजनिक स्थान पर रख दिया कि दर्शक इसमें त्रुटियां निकालें। सांझ ढ़लते-ढ़लते दर्शकों ने इतनी अधिक त्रटियां निकालीं कि चित्र पूरी तरह से बदरंग हो गया। दूसरे दिन उसी चित्रकार ने चित्र के नीचे यह लिख दिया कि इसमें जो भी कमी हो, उसे दुरुस्त करें। शाम को देखा तो चित्र वैसा का वैसा था, जैसा उसने बनाया था। अर्थात त्रुटि निकालना तो आसान है, मगर दुुरुस्त करना अथवा और अधिक बेहतर बनाना उतना ही कठिन।
इस तथ्य को मैने गहरे से अनुभव किया है। अजमेर के अनेक लेखकों की रचनाओं व पत्रकारों की खबरों का मैने संपादन किया है। मुझे पता है कि किसके लेखन में क्या खासियत है और क्या कमी है? मगर मैं चाहूं कि उनकी शैली में लिखूं तो कठिन हो जाता है। दैनिक न्याय में समाचार संपादक के रूप में काम करने के दौरान एक स्तम्भ लेखक को उसकी अपेक्षा के अनुरूप पारिश्रमिक दिलवाने की स्थिति में नहीं था तो उसने एकाएक स्तम्भ लिखने से मना कर दिया। उस स्तम्भ की खासियत ये थी कि व्यंग्य पूरी तरह से उर्दू का टच लिए होता था। चूंकि वह स्तम्भ मैने ही आरंभ करवाया था, इस कारण उसका बंद होना मेरे लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। उसके जैसा लिखने वाला कोई दूसरा था नहीं। मजबूरी में वह स्तम्भ मैने लिखना आरंभ किया। यह ऊपर वाले की ही कृपा समझिये कि पाठकों को पता ही नहीं लगा कि लेखक बदल गया है। हूबहू उस स्तम्भकार की शैली में लिखा। मगर मन ही मन मैं जानता था कि उस स्तम्भ को लिखने में मुझे कितनी कठिनाई पेश आई। एक बार रफ्तार में व्यंग्य लिखता और फिर उसे उर्दू टच देता। समझा जा सकता है कि मौलिक स्तम्भकार की रचना में जो स्वाद हुआ करता था, उसे मेन्टेन करना कितना मुश्किल भरा काम हो गया था। पाठकों को भले ही पता नहीं लग पाता हो, मगर मुझे अहसास था कि ठीक वैसा स्वाद नहीं दे पाया हूं।
एक संपादक के रूप में लंबे समय तक काम करने के कारण जब भी मुझे अपना कुछ लिखने का मन करता तो परेशानी होती थी। एक बार सहज भाव से लिखता और फिर उसमें फ्लेवर डालता। दुगुनी मेहनत होती थी। अब भी होती है।
यह आलेख मूलत: लेखकों व पत्रकारों के लिए साझा कर रहा हूं, लेकिन सुधि पाठक भी इस विषय को जान लें तो कोई बुराई नहीं।

-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 25 जुलाई 2020

नाम में क्या रखा है, ये सही नहीं, नाम में भी बहुत कुछ रखा है

कर्म प्रधान लोगों को आपने अमूमन यह कहते हुए देखा होगा कि नाम में क्या रखा है, काम ही महत्वपूर्ण है। जो कर्मठ है, उसकी यह सोच बिलकुल सही है। वे काम इसलिए करते हैं कि इससे उनको आत्म संतोष मिलता है, सुकून मिलता है। उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं होती कि उनका नाम हो रहा है या नहीं। लोग वाहवाही कर रहे हैं या नहीं। उन्हें तो अपने कर्तव्य पालन से ही मतलब होता है। आपने यह भी देखा होगा कि कई लोग प्रसिद्धि की चाह के बिना परोपकार करते हैं। ये नहीं देखते कि कोई देख भी रहा है या नहीं। हमारे यहां तो यह तक कहा जाता है कि एक हाथ से दान दें तो दूसरे हाथ को पता नहीं लगना चाहिए, वही असली दान है। इसके विपरीत अधिसंख्य लोग प्रसिद्धि की चाह में ही काम करते हैं। तभी तो कहा जाता है कि संन्यस्थ हो कर वन को प्रस्थान कर जाने वाले भी लोकेषणा से मुक्त नहीं हो पाते। गृहस्थी छोड़ कर एकांत में जा कर रहने वाले भले ही भौतिक सुख से परे हो जाते हों, मगर जंगल में भी उनका आत्मिक पोषण इससे होता है कि उनके शिष्य कितने हैं। उनका नाम कितना हो रहा है। इसको लेकर संतों के बीच प्रतिस्पद्र्धा तक होती है।
वस्तुत: प्रथम महिमा काम की ही है। तभी तो कहते हैं कि काम बोलता है। बोलता है अर्थात नाम की स्थापना करता है। यानि कि काम का बाय प्रोडक्ट है नाम । मगर इसका ये भी अर्थ नहीं कि नाम का कोई महत्व नहीं। भले ही दूसरे नंबर पर हो, मगर नाम की भी भारी महिमा है।
विद्वान कहते हैं कि कलियुग में भगवान अवतार रूप में तो हैं नहीं, ऐसे में उनके नाम की ही महिमा है। राम से बड़ा राम का नाम। उनका नाम लेने व स्मरण करने मात्र से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। भगवान राम के नाम का कितना चमत्कार है, इसका उल्लेख यह बताते हुए कहा जाता है कि लंका विजय के लिए जाते समय समुद्र को लांघने के लिए जो पुल बनाया गया, उनमें इस्तेमाल किए गए पत्थरों पर राम नाम लिखा गया और वे पानी में तैरने लगे।
नाम की महिमा का दूसरा उदाहरण देखिए। जब गुरू द्रोणाचार्य ने एकलव्य को शिष्य बनाने से इंकार कर दिया तो उसने एकांत में उनके नाम से एक प्रतिमा बनाई और उसी के सामने धनुर्विद्या सीखी। एकनिष्ठ भाव के कारण वह अर्जुन से भी अधिक योग्य धनुर्धर बना।
नाम स्मरण का एक चमत्कार यह भी माना जाता है कि कोई शिष्य जब एकाग्रता के साथ दिवंगत गुरू का नाम स्मरण करता है तो वे सशरीर तो आ नहीं सकते, मगर गंध के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
कल्याण नामक पत्रिका में मैने एक दृष्टांत पढ़ा था। वह इस प्रकार है। एक बार हनुमानजी का एक भक्त, जो कि शिक्षक था, प्रात:काल हनुमानजी की आराधना में इतना तल्लीन हो गया कि उसे स्कूल पहुंचने में देर हो गई। वह भागता-भागता स्कूल पहुंचा और प्रधानाध्यापक से क्षमा याचना की कि वह विलंब से आया है। इस पर प्रधानाध्यापक ने कहा कि क्यों मजाक करते हो, आप तो समय पर आ गए थे। हनुमानजी का भक्त चकित रह गया। वह समझ गया कि उसकी जगह हनुमानजी ने उपस्थिति दर्ज करवाई है।
हालांकि दुराचार के मामले में आसाराम बापू आजकल जेल में हैं, मगर जब वे प्रसिद्धि के चरमोत्कर्ष पर थे, तब उनकी सभाओं में उनके अनुयायी अपना अनुभव बताते थे कि संकट के समय उन्होंने आसाराम बापू को याद किया और वे किसी न किसी रूप में वहां मौजूद हुए और उन्हें संकट से उबारा।
जरा और विस्तार में जाएं तो आपने देखा होगा कि कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करने से पहले गुरू के नाम का स्मरण करते हैं। ऐसा माना जाता है कि इससे उनके गुरू की शक्ति उनमें प्रविष्ठ कर जाती है। मैने ऐसी कई महिलाओं को देखा है, जो कोई व्यंजन विशेष बनाने से पहले उसको याद किया करती हैं, जिनसे उन्होंने वह व्यंजन बनाना सीखा था। मैने स्वेटर की बुनाई शुरू करते वक्त महिलाओं को अपनी गुरू को याद करते हुए देखा है। कई रसोइये भी अपने गुरू का नाम स्मरण करके रसोई बनाना आरंभ करते हैं। हो सकता है ऐसा सम्मान देने या कृतज्ञता प्रकट करने के लिए किया जाता हो, मगर माना यही जाता है कि नाम का स्मरण करने से शक्ति मिलती है।
नाम के एक मायने ब्रांड भी होता है। नाम स्थापना के लिए बाकायदा ब्रांडिंग की जाती है। कई प्रॉडक्ट ब्रांडिंग के कारण ही मार्केट में छाये हुए हैं। इसका एक उदाहरण बाबा रामदेव हैं। उनकी ब्रांडिंग इतनी तगड़ी है कि पतंजलि के नाम से उनके प्रॉडक्ट धड़ल्ले से बिकते हैं। ठीक इसी प्रकार मोदी भी एक नाम है, जो कि ब्रांड बन गया है। इसके लिए ढ़ेर सारे जतन किए गए थे। उनके नाम से भाजपा की नैया पार लग गई। भाजपा सरकार के दुबारा प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने का सारा श्रेय मोदी ब्रांड को ही जाता है।
इन सभी उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि नाम की वाकई महिमा है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, 15 जुलाई 2020

सत्यमेव जयते, मगर विलंब से क्यों?

सत्यमेव जयते। यह सूत्र सर्वविदित है। इसका अर्थ है कि सत्य की जीत होती है। चूंकि यह ऋषियों के अनुभव से निकल कर आया है, इस कारण इस पर विश्वास किया ही जाना चाहिए। लेकिन साथ ही यह भी सर्वविदित तथ्य है कि सत्य तकलीफ बहुत पाता है। जब तक उसकी जीत होती है, तब तक वह अधमरा हो जाता है। कहते हैं न कि प्रकृति न्याय तो करती है, मगर जब तक न्याय मिलता है, तब तक बहुत देर हो जाती है। तो आखिर वास्तविकता क्या है? यह परस्पर विरोधाभास क्यों? आइये, इस पर विचार करते हैं:-
अव्वल तो जब यह कहा गया कि सत्यमेव जयते, तब यह कहने की जरूरत ही क्यों पड़ी? यदि जीत होती ही है तो इसे कहने की आवश्यकता क्या थी? स्वाभाविक है कि सत्य के मार्ग पर चलने वालों का जब विश्वास डिगने लगा होगा, तभी ऋषि ने सांत्वना देने के लिए यह उद्घोष किया होगा कि चिंता मत करों- सत्यमेव जयते। अन्यथा निरपेक्ष रूप से ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं पडऩी चाहिए थीïï? इसका अर्थ है कि यह सूत्र मौलिक रूप से सापेक्ष है।
हमारे चिंतन का विस्तार इसी बारीकी के इर्द-गिर्द होगा।
सबसे पहले आते हैं, कर्म के सिद्धांत पर। यदि यह सही है कि हर कर्म प्रतिफल देता है, अच्छा या बुरा, तो फिर जो लोग सत्य के मार्ग पर चलते हैं, सत्कर्म करते हैं, धर्माचरण करते हैं, उन्हें अमूमन परेशानी में क्यों पाते हैं? उन्हें अच्छे कर्म का फल अच्छा मिलता क्यों नहीं दिखाई देता? आम तौर पर सज्जन तकलीफ में होता है और बेईमान व भ्रष्ट मौज में रहता है। यह आम धारणा भी है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम अवतार हैं, मगर सत्य के मार्ग पर होने के बावजूद वे जंगल में भटकते हैं। रावण कितना ही विद्वान हो, मगर दुराचरण करके भी उसी का पलड़ा भारी नजर आता है। भगवान राम को उसके अनाचार से मुक्ति करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। बेशक आखिर में उनकी जीत होती है, मगर तब तक कितनी जद्दोजहद करनी होती है। और दिलचस्प बात है कि आखिर में रावण की सद्गति होती है। एक और उदाहरण देखिए। सदैव राक्षस देवताओं को परेशान करते हैं। देवता उनसे त्रस्त रहते हैं। कभी आपने सुना कि राक्षसों ने कभी देवताओं से दुखी हो कर भगवान से उनसे मुक्ति की मांग की हो। सदैव देवता ही भगवान के पास जा कर त्राहि माम त्राहि माम करते हैं। हालांकि आखिर में भगवान प्रकट हो कर उन्हें राक्षसों से मुक्ति दिलाते हैं और उनकी जीत होती है, मगर फिर भी राक्षसों से त्रस्त रहते हैं। ऐसे में सवाल उठता ही है न कि यदि भगवान सत्य के साथ हैं, सत्य ही हैं, तो असत्य को इतनी शक्ति देते ही क्यों हैं कि सत्य को उससे संघर्ष करना पड़े? वस्तुत: यह प्रकृति का बेहद गूढ़ रहस्य है। इस पर अलग से चर्चा करेंगे। फिलवक्त इस विषय पर आते हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले को कठिनाइयां क्यों आती हैं?
मेरा अनुभव ये है कि जैसे-जैसे हम धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तो अधर्म की ताकत उसकी बाधा बनती है। सारा खेल शक्ति का है। यह प्रकृति कुल मिला कर शक्ति के संतुलन से गतिमान है। कभी किसी का पलड़ा भारी तो कभी किसी का। इस सिलसिले में गीता के अध्याय चार के श्लोक सात व आठ पर नजर डालिए, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधुओं का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं।
इस सूत्र में ही अंतनिर्हित है कि धर्म की हानि होती ही, अधर्म की वृद्धि होती ही  है, साधु कष्ट पाते ही हैं, पापी बढ़ते ही हैं, किस वजह से, कदाचित कर्मों के कारण, वह अलग विषय है, मगर ऐसा होता है।
अब मूल मुद्दे पर आते हैं। हमें क्यों लगता है कि धर्म क्यों नहीं फलित होता दिखाई देता? सज्जनता कष्ट में क्यों रहती है? इस विषय को एक अलग आयाम में पुष्कर की ज्योतिर्विद एस्ट्रो ज्योति दाधीच ने समझाने की कोशिश की है। उन्होंने मुझे एक आलेख भेजा है, उसे हूबहू आपके समझ रख रहा हूं।
मंत्र क्यों सिद्ध नहीं होते?
माधवाचार्य गायत्री के घोर उपासक थे। वृंदावन में उन्होंने तेरह वर्ष तक गायत्री के समस्त अनुष्ठान विधिपूर्वक किये, लेकिन उन्हे इससे न भौतिक, न आध्यायत्मिकता लाभ दिखा। वे निराश हो कर काशी गये। वहां उन्हें एक अवधूत मिला, जिसने उन्हें एक वर्ष तक काल भैरव की उपासना करने को कहा। उन्होंने एक वर्ष से अधिक ही काल भैरव की आराधना की। एक दिन उन्होंने आवाज सुनी- मैं प्रसन्न हूं, वरदान मांगो। उन्हें लगा कि ये उनका भ्रम है, क्योंकि सिर्फ आवाज सुनायी दे रही थी, कोई दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने सुना अनसुना कर दिया, लेकिन वही आवाज फिर से उन्हें तीन बार सुनायी दी। तब माधवाचार्य जी ने कहा आप सामने आ कर अपना परिचय दें, मैं अभी काल भैरव की उपासना मे व्यस्त हूं। सामने से आवाज आयी- तू जिसकी उपासना कर रहा है, वो मैं ही काल भैरव हूं। माधवाचार्य जी ने कहा तो फिर सामने क्यों नहीं आते? काल भैरव ने कहा- माधवा, तुमने तेरह साल तक जिन गायत्री मंत्रों का अखंड जाप किया है, उसका तेज तुम्हारे चारों ओर व्याप्त है। मनुष्य रूप मैं उसे सहन नहीं कर सकता, इसीलिए सामने नहीं आ सकता। माध्वाचार्य ने कहा जब आप उस तेज का सामना नहीं कर सकते, तब आप मेरे किसी काम के नहीं, आप वापस जा सकते हैं। काल भैरव ने कहा- लेकिन मैं तुम्हारा समाधान किये बिना नहीं जा सकता हूं। इस पर माधवाचार्य ने पूछा कि तेरह वर्ष से किया गायत्री अनुष्ठान मुझे क्यों नहीं फला? काल भैरव ने कहा कि वो अनुष्ठान निष्फल नहीं हुए हैं। उससे तुम्हारे जन्म-जन्मांतरों के पाप नष्ट हुए हैं।
माधवाचार्य- तो अब मैं क्या करूं?
काल भैरव- फिर से वृंदावन जा कर और एक वर्ष गायत्री का अनुष्ठान कर। इससे तेरे इस जन्म के भी पाप नष्ट हो जायेंगे, फिर गायत्री मां प्रसन्न होंगी।
माधवाचार्य वृंदावन लौट आये। अनुष्ठान शुरू किया। एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में अनुष्ठान में बैठने ही वाले थे कि उन्होंने आवाज सुनी- मैं आ गयी हूं, माधव, वरदान मांगो।
माधवाचार्य फूट-फूट कर रोने लगे। पहले बहुत लालसा थी कि वरदान मांगू, लेकिन अब कुछ मांगने की इच्छा रही नहीं। मां, आप जो मिल गयी हो।
गायत्री मां- माधव तुम्हें मांगना तो पड़ेगा ही।
माधवाचार्य- मां, ये देह भले ही नष्ट हो जाये, लेकिन इस शरीर से की गयी भक्ति अमर रहे। इस भक्ति की आप सदैव साक्षी रहो। यही वरदान दो।
गायत्री मां- तथास्तु।
बाद में तीन वर्षों में माधवाचार्य जी ने माधव नियम नाम का आलौकिक ग्रंथ लिखा। याद रखिये, आपके द्वारा शुरू किये गये मंत्र-जाप पहले दिन से ही काम करना शुरू कर देतै हैं, लेकिन सबसे पहले प्रारब्ध के पापों को नष्ट करते हैं। देवताओं की शक्ति इन्हीं पापों को नष्ट करने मे खर्च हो जाती हैं। और जैसे ही ये पाप नष्ट होते हैं, आपको एक आलौकिक तेज, एक आध्यात्मिक शक्ति और सिद्धि प्राप्त होने लगती है।
निष्कर्ष ये कि भले ही कितनी ही कठिनाइयां आएं, हमें अपने धर्म के मार्ग पर चलते रहना चाहिए। बीच रास्ते में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, जिस दिन पूर्व के संचित अधर्म जनित पाप नष्ट हो जाएंगे, हमें सुफल अवश्य मिलेगा। इसका मतलब ये भी कि सज्जनता तब तक कष्ट में रहती है, जब तक कि पुराना हिसाब खत्म न हो जाए।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

आदमी उलट व्यवहार करे तो किन्नर, औरत करे तो झांसी की रानी?

यह कैसी उलटबांसी है कि आदमी अगर स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे किन्नर करार दे कर हेय दृष्टि से देखा जाता है, जबकि कोई स्त्री पुरुषोचित व्यवहार या काम करे तो उस पर गर्व करते हुए उसे झांसी की रानी की उपाधि दे दी जाती है।
आइये इस विषय में गहन डुबकी लगाने से पहले कुछ मौलिक तथ्यों पर विचार करते हैं। वस्तुत: यह प्रकृति आदमी व औरत दोनों के संयुक्त प्रयास से चलती है। दोनों की अपनी-अपनी भूमिका है। न तो आदमी अपेक्षाकृत बेहतर है और न ही औरत तुलनात्मक रूप से कमतर। हर व्यक्ति में नर तत्व है और नारी तत्व भी। बस फर्क इतना है कि जिसमें नर तत्व की अधिकता है, वह नर कहलाता है और जिसमें नारी तत्व अधिक है, वह नारी कही जाती है। और दोनों तत्वों की समानता हो जाती है तो वह ईश्वर की अवस्था कहलाती है, यथा अर्धनारीश्वर। इससे स्पष्ट होता है कि नर व नारी दोनों अपनी-अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं। दोनों भिन्न हैं। कोई किसी से कम नहीं। दोनों की कोई बराबरी भी नहीं। बावजूद इसके समाज की संरचना में आरंभ से पुरुष की प्रधानता रही। यही वजह है कि धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक रूप से पुरुष अग्रणी रहा।
आप देखिए, बेशक, नाम स्मरण करते हुए राधे-श्याम, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण कहा जाता है, अर्थात पहले स्त्री का नाम लिया जाता है, स्त्री तत्त्व को विशेष सम्मान दर्शाया जाता है, मगर सच्चाई ये है कि प्रधानता पुरुष की ही रही है। सारे भगवान पुरुष हैं। चित्रों में भगवान विष्णु शेष नाग पर लेटे होते हैं और माता लक्ष्मी उनके चरणों बैठी दिखाई जाती है। अन्य भगवानों व देवी-देवताओं में भी पुरुष की ही प्रधानता है। बेशक, इतिहास में विदुषी महिलाओं के विशेष सम्मान के उदाहरण हैं, सारे आश्रमों के प्रमुख ऋषि रहे हैं। लगभग सारे मठाधीश पुरुष ही रहे हैं। सभी शंकराचार्य पुरुष हैं।  अधिसंख्य मंदिरों में पुजारी पुरुष हैं। तीर्थराज पुष्कर में पवित्र सरोवर की पूजा-अर्चना पुरुष पुरोहित ही करवाते हैं। हालत यहां तक है कि आज भी ऐसे मंदिर हैं, जहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित है और कोर्ट को दखल देना पड़ रहा है।
इसी प्रकार रामायण व श्रीमद्भागवत की कथा करने वाली चंद महिलाएं ही व्यास पीठ पर बैठती हैं, अधिकतर कथावाचक पुरुष ही हैं। आज भी धर्म के प्रति कट्टर मठाधीश किसी महिला के व्यास पीठ पर बैठने पर आपत्ति करते हैं। उनका तर्क ये है कि महिला चूंकि माहवारी के दौरान चार दिन अपवित्र होती है, इस कारण वह अनवरत कथा नहीं कर सकती। आप देख सकते हैं कि यूट्यूब पर ऐसे वीडियो भरे पड़े हैं, जिनमें साध्वी चित्रलेखा व  साध्वी जयाकिशोरी जी के व्यास पीठ पर बैठ कर कथा करने को शास्त्र विरुद्ध करार दिया जा रहा है।
जैन धर्म की बात करें। जैन समाज के सभी तीर्थंकर पुरुष हैं। जैन मुनियों के नाम के आगे 108 व जैन साध्वियों के नाम के आगे 105 लिखा जाता है। उसके पीछे बाकायदा तर्क दिया जाता है जैन साध्वियों में जैन मुनियों की तुलना में तीन गुण कम हैं।
इस्लाम की बात करें तो पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पुरुष है। सारे मौलवी पुरुष हैं। मस्जिदों में नमाज की इमामत पुरुष करते हैं। यहां तक कि सार्वजिनक नमाज के दौरान महिलाओं की सफें पुरुषों से अलग लगती हैं। अजमेर की विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब की दरगाह में खिदमत का काम पुरुष खादिम करते हैं। दरगाह स्थित महफिलखाने में महिलाएं पुरुषों के साथ नहीं बैठ सकतीं। उनके लिए अलग से व्यवस्था है। जानकारी तो ये भी है कि दरगाह परिसर में महिला कव्वालों को कव्वाली करने की इजाजत नहीं है। इसी प्रकार इसाई धर्म में भी ईश्वर के दूत ईसा मसीह पुरुष हैं। गिरिजाघरों में प्रार्थना फादर करवाते हैं।
सामाजिक व्यवस्था में भी पुरुषों की प्रधानता है। अधिसंख्य समाज प्रमुख पुरुष ही होते हैं। पारिवारिक इकाई का प्रमुख पुरुष है। वंश परंपरा पुरुष से ही रेखांकित होती है। स्त्रियां ब्याह कर पुरुष के घर जाती हैं, न कि पुरुष स्त्री के घर। यह तो ठीक है कि पैदा होने के साथ नारी को अपनी नियति पता होती है, इस कारण वह उसे चुपचाप स्वीकार कर लेती है, मगर अ_ारह-बीस साल पिता के घर पलने के बाद जब उसे अपना परिवार छोड़ कर पति के घर जाना होता है तो उस पर क्या बीतती होगी, इसकी अनुभूति सिर्फ उसे ही है?
हमारे यहां तो पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति को भगवान माने। पति की लंबी आयु के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती हैं, जबकि पुरुष ऐसा कोई व्रत नहीं करते। मैने नारी स्वातंत्र्य की समर्थक प्रगतिशील महिलाओं तक को करवा चौथ का व्रत करते देखा है। इस तरह की धारणा चलन में हैं कि महिला यदि कोई पुण्य करे तो उसका आधा फल पुरुष को मिलता है, जबकि पुरुष को उसके पुण्य का पूरा फल मिलता है। स्त्री से अपेक्षा की जाती है कि वह पतिव्रता हो, जबकि पुरुष अनेक विवाह करते हैं। पत्नी की मृत्यु पर पति को दूसरी शादी की छूट है, जबकि लंबे समय तक यह परंपरा रही कि पति की मृत्यु पर पत्नी दूसरा विवाह नहीं करती थी। हालांकि विधवा व परित्यक्ता के लिए विशेष कानूनी प्रावधान किए गए हैं और अब विधवा विवाह होने लगे हैं, बावजूद इसके अधिसंख्य विधवाएं व परित्यक्ताएं दूसरा विवाह नहीं करतीं। धीरे-धीरे महिलाओं में जागृति आई है तो अब उन्हें भी बराबरी का हक देने की कोशिशें की जाती है, फिर भी सामाजिक ढ़ांचा आज भी पुरुष प्रधान है। आधुनिक युग में पुरुषों की प्रधानता की भले ही आलोचना की जाए, मगर सच्चाई ये है कि अभी भी महिलाएं पुरुष के आधिपत्य से मुक्त होने का संपूर्ण साहस नहीं जुटा पाई हैं। हालांकि लोकतांत्रक व्यवस्था में महिलाओं को भी आरक्षण दिया जाने लगा है, इस कारण राजनीति में महिलाएं पदों पर काबिज होती जा रही हैं। बड़े पदों की बात अलग है, मगर गांव-कस्बों में जा कर देखिए, आज भी महिला सरपंच का काम पति देख रहे हैं, महिलाए पार्षद पति की देखरेख में ही काम कर रही हैं। यानि कि लक्ष्य हासिल करने में अभी और वक्त लगेगा।
वस्तुत: पुरुष चूंकि अधिक बलशाली, बहादुर, साहसी व कर्मठ माना जाता है, उसके इसी गुण के कारण सेनाओं, अद्र्धसैनिक बलों व पुलिस में पुरुषों का वर्चस्व है। यह एक सुखद बात है कि अब महिलाओं की विंग अलग से बनाई गई हैं।
ऐसा माना जाता है कि महिलाएं अपेक्षाकृत कमजोर होती हैं। अकेले इसी वजह से पुरुष व महिला मजदूर की मजदूरी में अंतर है। हालांकि पुरुष नर्तक भी हैं, मगर नर्तकियों की बहुतायत क्यों है? अब तो मुजरे होना बंद हो गए, मगर फिल्मों में देखिए किस तरह महिला मुजरा करती है और पुरुष वर्ग उसका आनंद उठाते हैं। साफ झलकता है कि महिला की स्थिति क्या बना कर रखी गई है?
कुल मिला कर पुरुष की प्रधानता के कारण ही पुरुष से यह अपेक्षा की जाती है कि वह पुरुषोचित व्यवहार करे। अगर कोई स्त्रियोचित व्यवहार अथवा कार्य करता है या उसमें स्त्रैणता पाई जाती है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। किन्नर तक की उपमा दी जाती है। इसके विपरीत अगर कोई महिला पुरुषोचित व्यवहार या काम करती है, उच्च पदों पर पहुंचती है तो उसे बड़े गर्व की दृष्टि से देखा जाता है। झांसी की रानी की उपमा दी जाती है। समय के बदलाव के साथ नारी स्वांतत्र्य आंदोलनों के मुखर होने के कारण महिलाएं अब बराबरी करने की स्थिति में आने लगी हैं, यह एक सुखद संकेत हैं। चूंकि आरंभ से नर प्रधान है, नारी दमन की शिकार हुई है, इस कारण आज नारी उसके बराबर होने की हक मांग रही है। उसे मिलने भी लगा है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

गुरुवार, 9 जुलाई 2020

अब हृदय सम्माननीय के जुमले से कौन पुकारेगा?

जी हां, हृदय सम्माननीय। वे विशेष रूप से खबरनवीसों और खास लोगों को इसी संबोधन से बुलाया करते थे। दरअसल यह उनका तकिया कलाम हो गया था। दो शब्दों का यह जोड़ उनकी पहचान बन गया। अजमेर में वे इकलौते थे, जो इसका इस्तेमाल किया करते थे। उन्होंने ही इसका इजाद किया था, जो किसी भी हिंदी शब्दकोष में नहीं है। यह उनका सम्मान देने का तरीका था, जिसका अर्थ ये निकाला जा सकता है कि हृदय से सम्मान।
आप समझ गए होंगे कि किनकी बात कर रहे हैं। जी हां, जनाब हाजी शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती। अफसोस, अब उनके नाम के साथ मरहूम शब्द जुड़ गया है। वे हमें सदा के लिए अलविदा कर गए। बेहद जज्बाती व बहुत प्यारे इंसान, लाजवाब शख्सियत, बिंदास पर्सनालिटी। कोई ऐसा जलसा नहीं देखा, जिसमें उनकी मौजूदगी ने दस्तक न दी हो। हर एक से गर्मजोशी से मिलने का उनका खास अंदाज पूरी महफिल खुशनुमा किए देता था। ऐसे जिंदादिल इंसान मैने अपनी उम्र में कम ही देखे हैं। वे कम उम्र में ही खासे चर्चित हो गए थे। राजनीति व समाजसेवा में खूब काम किया। बहुत नाम कमाया।
गरीब नवाज सूफी मिशन सोसायटी के अध्यक्ष तो बहुत बाद में बने, उससे पहले ही अपनी पहचान बना ली थी उन्होंने। बात बहुत पुरानी है। सन् तो मुझे याद नहीं। उनकी उम्र रही होगी कोई बाईस-तेईस साल। इतनी कम उम्र में ही वे उस जमाने के युवा खादिमों में उभर कर आ गए थे। तब भाजपा के स्तम्भ व पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी विपक्ष में थे। केसरगंज में उनकी सभा थी। अच्छी खासी भीड़ थी। ऐसे गरिमामय मंच पर भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत ने उन्हें पहली बार यह कह कर तकरीर के लिए बुलाया था कि लीजिए अब आपसे मुखातिब होंगे युवा खादिम शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती। जोश से लबरेज उस अनजान युवक ने जो भाषण दिया तो सब दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो गए। खैर, बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद बदले माहौल में वे कांग्रेस में शामिल हो गए। पार्टी में खूब काम किया। अनेक पदों पर रहे। शहर की बहबूदी से जुड़े मुद्दे पर बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे।
उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि कोई भी फरियादी उनके पास आ जाए, वे तुरंत उसके काम के लिए निकल पड़ते थे। किसी जायरीन को कोई मुसीबत हो जाए तो किसी न किसी जरिये से तुरंत इमदाद करवाते थे। जायरीन की सहूलियत को खास तवज्जो देते थे। दरगाह शरीफ से जुड़े हक-हकूक के हर मुद्दे पर खुल कर सामने आते थे। सांप्रदायिक सौहाद्र्र कायम रखने में सदा आगे रहते थे। दरगाह शरीफ में खिदमत के वक्त जरूरी से जरूरी काम भी छोड़ कर पहुंचते थे।
जिला हज कमेटी के संयोजक रहे जनाब जुल्फिकार चिश्ती का जन्म 11 दिसम्बर, 1969 को जनाब शेखजादा इम्तियाज मोहम्मद चिश्ती के घर हुआ। उन्होंने अलीगढ़ से एम.ए. के समकक्ष अदीब, माहिर व कामिल की पढ़ाई की। वे अफ्तावारी अखबार अजमेर अदालत के संपादक भी रहे। राज्य सरकार से अधिस्वीकृत खबर नवीस। वे दरगाह क्षेत्र विकास समिति के अध्यक्ष, अंजुमन बज्म-ए-आदब के महासचिव, नौजवान अब्बासियान संस्था के सलाहकार, सीएलजी के सदस्य, मुस्लिम एकता मंच और जेल सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे। कई साल से हर साल बारह वफात का जुलूस निकालने में उनकी ही अहम भूमिका रही।
जाने-माने बुद्धिजीवी, शिक्षाविद व पीयूसीएल के अग्रणी नेता अनंत भटनागर की फेसबुक पर शाया लफ्जों की ये सफें उनकी शख्सियत पर और रोशनी डालती हैं:-
पीयूसीएल, अजमेर के जुझारू साथी व उपाध्यक्ष तथा अजमेर में कौमी एकता व गरीबों के हकों के लिए अनेक मोर्चों पर जोशोखरोश से सक्रिय साथी जुल्फिकार चिश्ती का महज 45-50 की उम्र में  इंतकाल हो गया। फरवरी में जुल्फिकार ने गांधी भवन पर एनसीआर व एनपीआर के  विरोध में सात दिन के विरोध प्रदर्शन का आयोजन करवाया। इसकी खासियत यह थी कि इसमें हर दिन महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा थी। उनकी संगठन क्षमता, साहस और ताकत का यह धरना प्रमाण था। मानवाधिकार के संघर्ष के इस दौर में उन्हें अभी अनेक लड़ाइयां लडऩी थीं।
अब जरा निजी बात। वे मेरे खासमखास दोस्त थे। उनका जिक्र हो और मेरे एक और खास दोस्त जनाब मुजफ्फर भारती का हवाला न आए तो बात अधूरी रह जाएगी। दरअसल ये जुगल जोड़ी थी। दोनों से पारिवारिक व निजी रिश्ते रहे। खूब ऊठ-बैठ रही। दोनों मेरे निजी कामों में भी साथ रहते थे। दरगाह इलाके के बारे में मेरी जो भी समझ है, उसमें इन दोनों की खास हिस्सेदारी रही है। इन दोनों की बदोलत ही मैने एक खबरनवीस के नाते दरगाह इलाके में जम कर बैटिंग की। एक से एक ऐसे न्यूज आइटम दिए, जिन पर कभी किसी खबरनवीस की नजर नहीं पड़ी। उस एहसान को मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा। बाद में जनाब जुल्फिकार चिश्ती के ही भानजे पत्रकार जनाब नवाब हिदायतुल्ला ने भी इस इलाके में मेरी पकड़ बनाए रखने में मदद की।
खैर, मैं अपने खास, अजीज दोस्त के यूं यकायक इस फानी दुनिया से अलविदा कर जाने से बेहद दु:खी हूं। उनकी यादें मेरे जेहन में सदा जिंदा रहेंगी। कई किस्से बार-बार याद आएंगे। मगर कुदरत का ये निजाम समझ से बाहर है कि अमूमन अच्छे और काम के इंसान ही क्यों छीन लिए जाते हैं? इतना अफसोस हरदम रहेगा कि अब मुझे हृदय सम्मानीय कह कर कौन पुकारेगा?
ये इत्तेफाक ही है कि अभी चंद रोज पहले ही बीके रमेश भाई ने एक पुरानी यादगार फोटो भेजी थी। हमने उनके साथ माउंट आबू के ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय में सात दिन के कैंप में शिरकत की थी। उसमें जुल्फिकार भाई के अलावा मरहूम हाजी पीर गुलाम रसूल मियां चिश्ती व पत्रकार मधुलिका सिंह भी साथ थीं। वह फोटो इस आलेख के साथ साझा कर रहा हूं। यह उनकी मजहबी मोहब्बत का सबूत है।
आखिर में इतनी ही दुआ है कि अल्लाहताला अपने हबीब के सदके, सुल्तानुल हिन्द ख्वाजा गरीब नवाज के सदके मरहूम को जन्नतुल फिरदौस में आला से आला मकाम अता फरमाये। घर वालों को सब्रे जमीर अता फरमाये। आमीन।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, 8 जुलाई 2020

क्या यूट्यूब न्यूज चैनल वाले फर्जी पत्रकार हैं? भाग दो

खैर, अब बात यूट्यूब न्यूज चैनल वालों की कि क्या वे फर्जी हैं? क्या वे गैर कानूनी हैंï? सरकार तो उन्हें अधिकृत पत्रकार नहीं मानती, पत्रकार संगठन भी उन्हें मान्यता देने को तैयार नहीं हैं। इन संगठनों में केवल उनको सक्रिय सदस्य बनाया जाता है, जिनके नाम से समाचार पत्र है, अथवा वे किसी दैनिक समाचार पत्र में नियमित काम करते हैं, अथवा खुद के नाम से डोमेन लेकर न्यूज पोर्टल चलाते हैं।
उनका नियम तर्कसंगत भी है। एक ओर तो अखबार का टाइटल लेने के लिए स्नातक तक शिक्षा अर्जित करना जरूरी है, इसके अतिरिक्त उसे पत्रकारिता का पांच साल का अनुभव होना चाहिए। इतना होने के बाद बाकायदा उसकी पुलिस रिपोर्ट ली जाती है कि वह आपराधिक प्रवृत्ति का तो नहीं है अथवा उसकी वजह से कानून-व्यवस्था भंग होने का खतरा तो नहीं है। उसके बाद उपलब्धता के आधार पर टाइटल अलॉट होता है। इसके अतिरिक्त आजकल तो बड़े समाचार पत्रों में नौकरी पाने के लिए बीजेएमसी कोर्स की अनिवार्यता लागू की गई है, ताकि पत्रकारिता आरंभ करने से पहले उन्हें पत्रकारिता का बेसिक ज्ञान हो। इसके विपरीत यूट्यूब न्यूज चैनल के लिए न तो किसी भी प्रकार की पात्रता की जरूरत है और न ही कोई डिग्री। यहां तक न्यूनतम एजुकेशनल क्वालिफिकेशन की भी कोई बाध्यता नहीं है।  उनका कोई भी पुलिस वेरिफिकेशन नहीं है। कोई भी वीडियो केमरा उठाए और न्यूज चैनल शुरू कर सकता है। कितना अंतर है, आप समझ गए होंगे। ऐसे में कथित असली पत्रकारों को तकलीफ होना स्वाभाविक है।
अब सिक्के का दूसरा पहलु। यह ठीक बात है कि रजिस्टर्ड न्यूज पेपर्स या न्यूज चैनल्स से उनकी कोई बराबरी नहीं, मगर वे फर्जी ही हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं। तकनीकी बात ये है कि जब सरकार ने ऐसे मीडिया कर्मियों के बारे में कोई नियम-विधान बनाया ही नहीं है तो उन्हें किस आधार पर अवैधानिक कहा जा सकता है। आखिरकार वे भी तो न्यूज का ही काम कर रहे हैं, जिसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। अगर वे कोई फर्जी, अपमानजनक या आपत्तिजनक न्यूज या न्यूज केंटेंट चलाते हैं तो शिकायत के आधार पर उनके खिलाफ सीआरपीसी की धाराओं के तहत कार्यवाही की जा सकती है। हां, यह जरूर अनुभव में आया है कि चूंकि अधिसंख्य ने बाकायदा पत्रकारिता का प्रशिक्षण नहीं लिया है, इस कारण पत्रकार की क्या-क्या मर्यादा है, इससे वे अनभिज्ञ हैं। वे ही क्या, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सीधे एंकर बने युवक-युवतियां अमर्यादित आचरण करती हैं, मगर चल रहा है। बावजूद इसके साफ सुथरी छवि के लोग भी हैं, जो ईमानदारी के साथ काम कर रहे हैं। चंद ब्लैकमेलरों की वजह से सभी को फर्जी करार नहीं दिया जाना चाहिए। यूट्यूब चैनल का पत्रकार माने, ब्लैकमेलर, ऐसा नेरेटिव बनाना उचित नहीं है। फिर सवाल ये भी है कि जिन्हें हम वास्तविक पत्रकार मान रहे हैं, क्या उनमें ब्लैकमेलर नहीं हैं?
मसले का एक और पहलु देखिए। प्रशासन ने अगर ये कहा है कि यूट्यूब न्यूज चैनल वालों सरकारी दफ्तरों व कार्यक्रमों में कवरेज नहीं करने दिया जाएगा तो वह अपनी जगह ठीक है। हम नकली पत्रकारों की बात कर रहे हैं, अगर सरकार या प्रशासन चाहे तो असली पत्रकारों को भी कवरेज करने से रोक सकता है अथवा कुछ अंकुश या पाबंदी लगा सकता है। कोई असली है, तब भी बिना अधिकारी की अनुमति के उसके चैंबर अथवा दफ्तर में प्रवेश नहीं कर सकता। पत्रकार का मतलब ये कत्तई नहीं कि उन्हें कहीं भी घुसने का लाइसेंस मिल गया है।
आपको याद होगा कि वर्तमान सरकार के गठन के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सी. पी. जोशी ने विधानसभा परिसर में पत्रकारों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। काफी जद्दोजहद के बार जा कर मामला सुलझा। इसी प्रकार वरिष्ठ पत्रकारों को याद होगा कि जब नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत थे, तब उन्होंने पत्रकारों के प्रवेश पर अंकुश लगाया था। पत्रकार केवल इजाजत लेकर अध्यक्ष अथवा सचिव से मिल सकते थे। उन्हें पूरे दफ्तर में घूमने व क्लर्कों से सीधे संपर्क करने की आजादी नहीं थी। अजमेर के पत्रकारों को तो याद होगा कि एक-दो बार ऐसा भी हुआ है एसपी ने सीधे थानों से खबर लेने पर रोक लगा दी थी। अखबारों को केवल कंट्रोल रूम से जारी प्रेसनोट पर निर्भर रहना होता था।
यह बात भी समझने की है कि कोई प्रतिनिधिमंडल जब जिला कलेक्टर को ज्ञापन देने जाता है तो मीडिया कर्मी फोटो लेने या वीडियो बनाने के लिए घुस जाते हैं और जिला कलेक्टर कोई आपत्ति नहीं करते, इसका अर्थ ये नहीं कि कलेक्टर के चैंबर में घुसने का उनको जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर वे चाहें तो रोक सकते हैं, मगर रोकते नहीं, क्योंकि प्रशासन को मीडिया से तालमेल रखना ही होता है। आपने देखा होगा कि सरकारी बैठकों में पत्रकारों को नहीं जाने दिया जाता। केवल फोटो लेने के लिए कुछ पल के लिए फोटोग्राफर्स को प्रवेश दिया जाता है। बैठक की खबर सरकारी स्तर पर सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी के जरिए ही मिलती है। मतगणना स्थल पर भी मोबाइल इत्यादि पर रोक के साथ सिर्फ उन पत्रकारों को प्रवेश मिलता है, जिनको प्रशासन कार्ड जारी करता है। वीवीआईपी विजिट के दौरान भी केवल पास धारियों को कवरेज करने दिया जाता है।
आखिर में मुद्दे की अहम बात। कुछ पत्रकारों ने, जिनके नाम से बाकायदा आरएनआई से रजिस्टर्ड अखबार हैं, उन्होंने बाद में यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए, क्योंकि इन दिनों उसी का चलन है। अब तो बड़े दैनिक समाचार पत्रों ने ईपेपर व यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए हैं। असल में उनकी भी कानूनी स्थिति ये है कि वे भी अन्य चैनल्स जैसे ही हैं। आरएनआई से रजिस्ट्रेशन से यह तो अधिकार नहीं मिल जाता कि वे उस नाम से चैनल चलाएं, फिर भी ऐसे चैनल्स पर प्रशासन का रुख नर्म है। वो इसलिए कि कम से कम से ये तो पक्का है न कि वे उनके पेरामीटर में पत्रकार हैं। बिलकुल फर्जी नहीं हैं। केवल यूट्यूब चैनल वालों पर प्रशासन की टेढ़ी नजर है। वे फर्जी ही हैं, ऐसा कहना मेरी नजर में उचित नहीं है, लेकिन प्रशासन को यह अधिकार है कि वह उन्हें वास्तविक पत्रकार न मानें और उन्हें कवरेज करने से रोके।
आखिर में एक महत्वूपूर्ण बात। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे कई बड़े पत्रकार हैं, जिनकी प्रतिष्ठित सेटेलाइट चैनल्स से नौकरी छूट गई। उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा के दम पर खुद के यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए हैं, जिन पर फिलवक्त तो सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। कारण वही कि अभी तक इस बारे में सरकार कोई नियम-कानून या सिस्टम नहीं बना पाई है। उनके खिलाफ भी मुकदम दर्ज हुए हैं, मगर मौजूदा सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत। सरकार किसी न किसी दिन नए नियमों के तहत उन पर नियंत्रण करेगी, मगर उसका आधार ये होगा कि केवल उन यूट्यूब चैनल्स को ही विज्ञापन व अन्य सुविधाएं देगी, जिन्होंने नए नियमों के तहत रजिस्ट्रेशन करवाया है। ऐसे में हर यूट्यूब चैनल चाहेगा कि पंजीयन करवाए।
इस विषय पर कुछ पत्रकार साथियों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं, उन पर भी चर्चा करेंगे। हो सकता है, उनके तर्क में अधिक दम हो। मकसद सिर्फ इतना कि हम बेहतर निष्कर्ष पर पहुंच सकें।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

क्या यूट्यूब न्यूज चैनल वाले पत्रकार फर्जी हैं? भाग एक

इन दिनों फर्जी पत्रकारों को लेकर बड़ी चर्चा है। पिछले आलेख में फर्जी पत्रकारिता की पराकाष्ठा पर प्रकाश डाला था, अब इसी मसले को अन्य कोणों से जानने की कोशिश करते हैं। इस आलेख को लिखने के बाद लगा कि विषय को ठीक तरह से समझने के लिए यह बहुत विस्तार पा गया है, लिहाजा इसके दो भाग कर दिए गए हैं।
यूं तो यूट्यूब न्यूज चैनल चलाने वालों के फर्जी होने की चर्चा कई बार होती रही है, मगर लॉक डाउन के दौरान इसने इस कारण जोर पकड़ा, क्योंकि सख्ती बहुत ज्यादा थी और पत्रकारों को बाहर निकलने की छूट थी। उन पत्रकारों में ऐसे भी शामिल हो गए थे, जिनके कंधों पर केमरा और हाथों में मोबाइल था तथा वे अपने आपको किसी यूट्यूब चैनल का पत्रकार बताते थे। कुछ शिकायतें भी आईं। समाचार पत्रों के रिपोर्टस व केमरा पर्सन्स को परेशानी थी कि किसी का इंटरव्यू लेने के दौरान चैनलों के वीडियो ग्राफर्स आगे आ कर खड़े हो जाते और उन्हें पीछे खड़ा होना पड़ता। ऐसे में कुछ तो कुछ पत्रकार संगठनों व वरिष्ठ पत्रकारों ने सरकार का इस ओर ध्यान आकर्षित किया और कुछ शासन-प्रशासन ने भी स्वत: संज्ञान लिया। इसी के चलते पुलिस ने उनका वेरिफिकेशन आरंभ कर दिया।
प्रशासन का कहना है कि यूट्यूब पर न्यूज चैनल चलाने वालों को पत्रकार नहीं माना जाएगा। इसका आधार ये है कि यूट्यूब पर न्यूज चलाने वालों का देश की किसी भी सरकारी एजेंसी में रजिस्ट्रेशन नहीं होता। अत: राज्य सरकार से अधिस्वीकृत पत्रकार व किसी रजिस्टर्ड समाचार पत्र व सेटेलाइट न्यूज चैनल में पत्रकार के रूप में कार्य करने वाले ही सरकारी कार्यालयों व किसी घटनाक्रम का कवरेज कर सकेंगे। किसे पत्रकार माना जाए और किसे नहीं, इस लिहाज से प्रशासन का यह तर्क बिलकुल ठीक है, क्योंकि वह उसे ही पत्रकार मानेगा, जिस पर किसी न किसी रूप में सरकार का नियंत्रण है।
अब मसले को ठीक से समझते हैं। यह सर्वविदित है कि देश में समाचार पत्रों के पंजीयन के लिए रजिस्ट्रार ऑफ न्यूज पेपर ऑफ इंडिया नामक विभाग है। वहां पंजीकृत अखबार को ही डीएवीपी के जरिए विज्ञापन का लाभ मिलता है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारें अधिस्वीकरण के लाभ सहित अन्य सुविधाएं उस पंजीयन को आधार बना कर देती हैं। लगे हाथ एक बारीक तथ्य पर भी नजर डाल लेते हैं। आरएनआई से पंजीयन करवाए बिना भी अखबार निकाला जा सकता है, बस एक तो उसी शीर्षक का पंजीयन नहीं होना चाहिए, दूसरा यदि कभी किसी ने वही शीर्षक रजिस्टर्ड करवा लिया तो आपको उस शीर्षक के नाम वाला अखबार बंद करना पड़ेगा। अजमेर में एक ऐसा मामला पाया गया, जिसमें किसी ने बिना रजिस्ट्रेशन के अखबार शुरू कर दिया। कोई एक साल वह चलता रहा, जब उसे पता लगा कि उसे किसी भी तरह की सरकारी सुविधाएं नहीं मिलेंगी, तब जा कर उसने उस शीर्षक को रजिस्र्टड करवाया। वस्तुत: प्रिंटिग मटीरियल के बारे में नियम है उसे सिटी मजिस्ट्रेट के यहां रजिस्टर्ड प्रिंटिग प्रेस में छपवाना होता है तथा बाकायदा प्रिंट लाइन में प्रिंटिंग प्रेस का नाम देना होता है। चुनाव के दौरान व अन्य मौकों पर जितने भी पर्चे बांटे जाते हैं, वे इसी नियम के तहत छापे जाते हैं। कई संस्थाओं के मुखपत्र भी इसी नियम के तहत प्रकाशित होते हैं, मगर उन्हें डाक रजिस्ट्रेशन के तहत मिलने वाली रियायत नहीं मिलती। मुझे याद है कि किसी जमाने में पत्र मित्रता क्लब हुआ करते थे, उनके मुखपत्र भी इसी प्रकार छपा करते थे।
रहा सवाल इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का तो सेटेलाइट न्यूज चैनल का बाकायदा रजिस्ट्रेशन होता है और इसके लिए वे सरकार से स्पेस खरीदते हैं, इस कारण उन पर भी सरकार का नियंत्रण होता है। लोकल केबल नेटवर्क पर भी न्यूज चैनल चलते हैं, उनका फौरी रजिस्ट्रेशन डाक विभाग में होता है। इन पर भी प्रशासन का नियंत्रण होता है। आपको जानकारी में होगा कि कई बार, आमतौर पर चुनाव के वक्त प्रशासन इस बारे में निर्देश जारी करता रहता है कि उन पर आपत्तिजनक समाचार नहीं चलाए जा सकते। बाकायदा सूचना व जनसंपर्क विभाग को उन पर निगरानी की जिम्मेदारी दी जाती है। ऐसा भी हुआ है कि चुनाव से संबंधित समाचार या विज्ञापन जारी करने से पहले उसे इस विभाग को दिखाना होता है।
यहां तक तो ठीक है। अब मुद्दा आता है सोशल मीडिया पर चलने वाले न्यूज पोर्टल व न्यूज चैनल्स का। इनका डोमेन रजिस्ट्रेशन इंटरनेट पर अंतरराष्ट्रीय एजेंसीज करती हैं। ब्लॉग्स का पंजीयन भी वहीं होता है। मुद्दा ये है कि यूटï्यूब पर न्यूज सहित किसी भी प्रकार के चैनल के पंजीयन पर भारत सरकार का सीधा कोई नियंत्रण नहीं है। हालांकि इस दिशा में सरकार ने एक्सरसाइज शुरू कर दी है, मगर फिलवक्त ब्लॉग, वेब साइट व यूट्यूब न्यूज चैनल के पंजीयन में उसका कोई दखल नहीं है। यानि कि वे सरकार के नियंत्रण से बाहर हैं। हालांकि सरकार चाहे तो अंकुश लगा भी सकती है। जैसे चाइनीज ऐप्स पर रोक लगाई है, वैसी ही पाबंदी लागू कर भारत के चैनल्स को बेन कर सकती है। वह यूट्यूब संचालकों को भी पाबंद कर सकती है कि सिर्फ उन्हीं को चैनल चलाने के लिए अधिकृत करे, जिसने सरकार से अनुमति ले रखी हो, मगर अभी तक इस बारे में कोई रेगूलेटरी सिस्टम डॅवलप नहीं हुआ है। यही वजह है कि बिना उसकी अनुमति के हजारों यूट्यूब न्यूज चैनल चल रहे हैं। केवल न्यूज की बात छोडिय़े, सच तो ये है कि न्यूज कंटेंट वाले अनेकानेक चेनल भी धड़ल्ले से प्रसारित होते हैं, जिन पर घोर आपत्तिजनक सामग्री आती रहती है। अभी एक न्यूज एंकर की ख्वाजा साहब के बारे में मात्र एक टिप्पणी से कितना बवाल हुआ। हकीकत ये है कि ख्वाजा साहब सहित न जाने कितनी की बड़ी शख्सियतों के बारे में अंट-शंट व अप्रमाणित सामग्री बिखरी पड़ी है।
दरअसल इंटरनेट इतना बड़ा खुला मैदान है कि आज आदमी भी पत्रकार जैसा हो गया है। किसी अखबार में खबर छपे न छपे, वह वीडियो बना कर, फोटो खींच कर फेसबुक व वाट्स ऐप पर उसे जारी कर देता है। और मजे की बात ये है कि उसका विस्तार अखबारों की तुलना कहीं अधिक है। आजकल कई विज्ञप्तिबाज इसी पैटर्न पर चल रहे हैं। अखबार में फिर भी खबर कट-पिट जाती है, फोटो नहीं लग पाती, लेकिन सोशल मीडिया पर खबर जस की तस जाती है और फोटो भी चाहे जितने लगाए जा सकते हैं। ऐसे भी हैं, जिन्होंने बाकायदा ब्लॉग नहीं बना रखा, मगर अपना मन्वव्य ब्लॉग की भांति सोशल नेटवर्किंग पर जारी कर रहे हैं। सोशल मीडिया इतना प्रभावशाली है कि कई अखबार वाले पूरा का पूरा अखबार छपने के बाद इस पर चला रहे हैं। कई पत्रकार बड़े अखबार में खबर छप जाने के बाद भी उसकी फोटो बना कर इस नए मीडिया का लाभ उठा रहे हैं, ताकि अधिकाधिक लोग उसे पढ़ें। यह बदले हुए वक्त का मिजाज है, इसमें किसी का कोई दोष नहीं। अब तो ऐसा लगने लगा है कि उन पर कोई काबू नहीं पाया जा सकता। हालांकि वहां भी आपत्ति किए जाने पर उन पर रोक लगाई जाती है। या तो फेसबुक व यूट्यूब खुद ऐसी सामग्री हटा देता है अथवा आपत्तिजनक सामग्री डिलीट करने के निर्देश जारी करता है। कॉपीराइट संबंधी मामलों में भी उनका कंट्रोल होता है। क्रमश:

-तेजवानी गिरधर
7742067000
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शनिवार, 4 जुलाई 2020

अजमेर की माली हालत चौपट

वैश्विक महामारी कोरोना से बचाव के लिए लागू लॉक डाउन के चलते पूरे देश की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई है, मगर विशेष रूप अजमेर जिले की माली हालत पूरी तरह से चौपट हो गई है। हालांकि लॉक डाउन में शनै: शनै: शिथिलता के बाद जनजीवन धीरे धीरे पटरी पर आता नजर आता है, मगर व्यापार जगत इतना अधिक त्रस्त है कि आने वाले कई और दिन तक उसे राहत मिलती नजर नहीं आ रही। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इस कारण नहीं हो पा रहा कि भय और अवसाद के कारण जमीन हकीकत दफ्न पड़ी है।
यूं तो आर्थिक लिहाज से अजमेर जिले की स्थिति अन्य जिलों जैसी ही है, मगर चूंकि अजमेर जिले का अर्थ चक्र विशेष रूप से पर्यटन पर टिका हुआ है, इस कारण यहां के हालात और अधिक गंभीर हैं। सर्वविदित है कि अजमेर जिले में दो बड़े तीर्थ स्थल दरगाह ख्वाजा साहब व तीर्थराज पुष्कर  हैं, जहां सामान्य दिनों में जायरीन व तीर्थयात्रियों की नियमित आवक रहती है, वह शून्य हो गई है। नतीजन सारे होटल बंद पड़े हैं। कई होटलों के कर्मचारी काम के अभाव में हटा दिए गए हैं, जो बेरोजगार हो चुके हैं। रेस्टोरेंट खोलने की अनुमति तो मिल गई है, मगर गई तरह की पाबंदियों के कारण ग्राहक आ ही नहीं रहे। कदाचित बाहर का खाना खाने से लोग परहेज कर रहे हैं। रेस्टोरेंट्स के आधे से अधिक कर्मचारियों की छुट्टी हो गई, इस कारण वे बेरोजगार हो गए हैं। दरगाह के आसपास खाने-पीने की दुकानों का व्यवसाय बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। हालत ये है कि सामान्य दुकानों को खोलने की तो अनुमति मिल चुकी है, मगर दरगाह बाजार व नला बाजार के दुकानदार खोलने की स्थिति में ही नहीं हैं। वस्तुत: यहां प्रतिदिन हजारों जायरीन की आवक के चलते अधिसंख्य दुकानों में जायरीन की जरूरतों का ही सामान बिका करता है। जब जायरीन ही नहीं आ रहे तो, इन दुकानों को खोलने का प्रयोजन ही समाप्त हो गया है। कई दुकानें बड़ी मासिक किराये पर चलती थीं, उन्हें किराएदार खाली कर रहे हैं, चूंकि इन्कम तो पूरी तरह से बंद हो गई है। सबसे बड़ा संकट दरगाह से जुड़े खुद्दाम हजरात पर है। तकरीबन तीन माह से जायरीन की आवक समाप्त होने के कारण उनको मिलने वाला नजराना बंद हो गया है। अगर जायरीन के लिए दरगाह खोलने की अनुमति मिल भी गई तो सोशल डिस्टेंसिंग के तहत जियारत करने की पाबंदी चलते जायरीन की आवक कम ही रहेगी। यानि कि हालात सामान्य होने में बहुत समय लेगगा। पिछले दिनों जब धर्मस्थलों को खोलने के सिलसिले में जिला प्रशासन ने बैठक की तो दरगाह से जुड़े जिम्मेदार पदाधिकारियों ने स्वीकार किया कि जायरीन के लिए दरगाह के बंद होने के चलते इस इलाके के तकरीबन बीस हजार परिवारों की आजीविका बुरी तरह से प्रभावित हुई है।  स्वाभाविक सी बात है कि जब जायरीन आ ही नहीं रहा तो ऑटो रिक्शा के व्यवसाय पर बहुत बुरा असर पड़ा है।
बात अगर दरगाह के अतिरिक्त करें तो पूरे शहर का व्यापार मंदा पड़ा है। आम आदमी की भुगतान क्षमता कम हो जाने के कारण खरीददारी हो ही नहीं रही। आदमी केवल दैनिक जरूरत का सामान ही खरीद पा रहा है। मुख्य मार्गों पर चहल-पहल तो बढ़ी है, मगर अधिकतर लोग कोराना के भय की वजह से घरों से कम ही बाहर निकल रहे हैं।
औद्योगिक रूप अजमेर वैसे भी पिछड़ा हुआ था। प्रवासी मजदूरों के अपने-अपने निवास स्थान को प्रस्थान करने के कारण छोटी-मोटी औद्योगिक इकाइयां श्रम समस्या से जूझ रही हैं।
कमोबेश तीर्थराज पुष्कर की हालत भी यही है। ब्रह्मा मंदिर सहित अन्य सभी मंदिर बंद होने व पवित्र सरोवर में नहाने के लिए लगी पाबंदियों  के चलते तीर्थयात्री आ ही नहीं रहे। पूजा की एवज में मिलने वाली दक्षिणा बंद होने से सारे तीर्थ पुरोहितों की आजीविका ठप हो गई है। तीर्थयात्रियों के अभाव में मार्केट की मंदा हो गया है। होटल व रेस्टोरेंट व्यवसाय जमीन पर आ गया है।
किशनगढ़ की विश्व प्रसिद्ध मार्बल मंडी की हालत देख कर सिहरन सी होती है। यह मंडी ही मदनगंज-किशनगढ़ का आर्थिक पहिया चलाती है, मगर ग्राहकी कम होने के कारण हालात बहुत खराब हैं। होटल व्यवसाय भी यहां की आर्थिक धूरि है, वह भी चौपट पड़ा है।
कुल मिला कर अजमेर जिला अत्यंत दयनीय स्थिति में आ गया है। सरकारी कर्मचारियों को अलबत्ता बहुत फर्क नहीं पड़ा है, मगर गैर सरकारी वर्ग यथा मजदूर, छोटे व बड़े दुकानदारों की पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा हालात को भुगत रहे लोग ही समझ सकते हैं। जिले भर का प्रॉपर्टी व्यवसाय सिसक रहा है। निर्माण कायों की गति बहुत धीमी हो गई है, क्योंकि स्थानीय मजदूर महंगा पड़ता है। स्थानीय बेरोजगारी तो बढ़ी ही है, देशभर में अन्य स्थानों पर काम करने वाले लॉक डाउन खुलने के बाद अपने घरों को लौटने के कारण बेरोजगार बैठे हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले लोग व निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों को लॉक डाउन के दौरान दानदाताओं  के सेवाभाव व सरकारी राहत के चलते जैसे-तैसे जी लिए, अब धीरे-धीरे वे उठ पा रहे हैं, चूंकि कि उनक जरूरतें सीमित हैं, लेकिन मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक संकट के कारण गहरे अवसाद में हैं। सबसे बड़ी समस्या ये है कि मगर कोराना महामारी अभी कितने दिन चलेगी व कितना विकराल रूप लेगी, इसका अंदाजा ही नहीं है, ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि हालात कब सामान्य होंगे। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

कभी एडवोकेट दशोरा व डॉ. बाहेती की दोस्ती के किस्से जवान थे

हाल ही शहर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व राजस्व मामलों के वरिष्ठ वकील श्री पूर्णाशंकर दशोरा का जन्मदिन था, तो यकायक ख्याल आया कि उन पर भी एक शब्दचित्र खींचने का प्रयास करूं। वैसे उनके बारे में लिखने  का विचार बहुत दिन से था कि चर्चाओं से दूर ऐसे शख्स से मौजूदा पीढ़ी को रूबरू कराया जाए, ताकि उसे भी कोई प्रेरणा मिले।
अपने वकालत के पेशे के प्रति पूरी ईमानदारी व लगन के बलबूते ही आज वे प्रदेश के दिग्गज वकीलों में शुमार हैं। यह उनकी निजी उपलब्धि है। उनके परम मित्र, जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार श्री ओम माथुर की पंक्तियों को चुराने की धृष्टता करते हुए सुखद लग रहा है कि हमारे यहां ऐसी विषय विशेषज्ञ शख्सियत है, जिससे रेवेन्यू मेंबर, चेयरमैन, यहां तक राजस्व मंत्री तक उनसे कानूनी राय लेते हैं। मगर मुझे अफसोस कि राजनीति ने उनकी सेवाएं तो पार्टी हित में ले लीं, मगर मौका पड़ा तो राज्य स्तर पर उनका कोई उपयोग नहीं लिया। कदाचित इस वजह से कि राजनीति का सबसे पहला गुण, चाटुकारिता उन्हें नहीं आती।
एक जमाने में वे बहुत सक्रय रहे। राजनीति के साथ-साथ लायंस क्लब के जरिए समाजसेवा में खूब काम किया। शहर के जाने-माने बुद्धिजीवियों में उनकी गिनती रही है। उनकी बदोलत शहर ने कई कवि सम्मेलनों के दीदार किए। शहर की बहबूदी का शायद ही कोई ऐसा मुद्दा रहा हो, जिसमें उनकी भूमिका न रही हो। सबसे अधिक रेखांकित करने वाली बात ये है कि राजनीति में पूर्ण रूप से सक्रिय रहते हुए भी उन्हें राजनीति कभी छू तक नहीं पाई। राजनीति बाहर नाचती रही और भीतर वे स्थितप्रज्ञ बने रहे। ऐसा होना विलक्षणता का प्रमाण है। ऐसे सरल, सौम्य, सहज, योग्य व ईमानदार विरले ही पैदा होते हैं। विशेष रूप से राजनीति में। महात्मा गांधी से उन्होंने भले ही प्रेरणा न ली हो, मगर मेरी नजर में वे एक सच्चे गांधीवादी व्यक्तित्व हैं। आपको मेरा यह कथन अटपटा जरूर लगेगा। स्वाभाविक है। असल में हमने गांधीजी व आरएसएस के बीच एक दीवार उठा रखी है। एक नेरेटिव सेट कर रखा है। हालांकि बदलते जमाने में अब भाजपा भी गांधीजी को उतना ही सम्मान देने लगी है, जितना कांग्रेसी देते रहे हैं। उसके अपने कारण हैं, हम अभी उसमें नहीं जा रहे। हां, प्रसंगवश यह बताना उचित रहेगा कि कुछ विद्वानों ने आरएसएस कार्यकर्ताओं व गांधीजी के अनुयाइयों की सामान्य जीवनशैली में राजनीतिक तौर पर नहीं, मगर निजी तौर पर साम्य पाया है। इस विषय पर बाकायदा गहन अध्ययन तक हुआ है। कारण साफ है, इन धाराओं में बाद में भले ही कितनी ही राजनीतिक विषमताएं आई हों, मगर जड़ में सादा जीवन, उच्च विचार ही मौलिक लक्षण रहा है। भाजपा में इसके दो उदाहरण और हैं- पूर्व विधायक स्वर्गीय श्री नवलराय बच्चानी व पूर्व विधायक श्री हरीश झामनानी। उनका चेहरा ख्याल में आते ही, मेरी बात आपके समझ में आ जाएगी। चालबाजी के अभाव ने उन्हें राजनीति ने मिसफिट कर दिया। श्री दशोरा जी भी वर्तमान में हर दृष्टि से फिट हैं, मगर कुटिल राजनीति ने उन्हें भी एक तरह से हाशिये पर खड़ा कर रखा है।
डॉ. बाहेती एवं एडवोकेट दशोरा
खैर, यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि गांधीवादी माने जाने वाले मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत के स्थानीय प्रतिबिंब पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती से तब भी उनकी खूब पटती थी, जबकि वे भी शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष हुआ करते थे। यह कोई गोपनीय तथ्य नहीं, बाकायदा जनचर्चा का विषय था। दोनों अपनी-अपनी पार्टी की विचारधारा व कार्यक्रमों के प्रति एक निष्ठ रहे, फिर भी दोस्ती कायम रही। न तो कोई निजी विवाद हुआ और न ही सार्वजनिक। वस्तुत: तब राजनीति का मिजाज कुछ और हुआ करता था। डॉ. बाहेती आज भी राजनीति में सक्रिय हैं, इस कारण उनमें राजनीति से जुड़ी आवश्यक बुराइयां गिनाई जा सकती हैं, मगर निजी जिंदगी कितनी सरल, सहज, सौम्य है, यह सब जानते हैं। खबर के मामले में भी दशोरा जी व डॉ. बाहेती में एक साम्य है। जैसा कि श्री माथुर बताते हैं कि आमतौर पर राजनीतिज्ञ, पत्रकारों से इस मोह में रिश्ता रखते हैं कि उन्हें प्रचार का ज्यादा अवसर मिलेगा, लेकिन दशोरा जी ने कभी संबंधों का इसके लिए दुरुपयोग नहीं किया। ठीक ऐसा ही है, डॉ. बाहेती भी खबर या नाम के लिए बहुत ज्यादा फांसी नहीं खाते। बहुत जरूरी हो तो ही खबर जारी करते हैं।
अरे, एक और मजेदार बात। श्री माथुर की डॉ. बाहेती से उतनी ही गहरी छनती है, जितनी दशोरा जी से। दोनों नेताओं के बीच जो साम्य है, कहीं वही तत्त्व श्री माथुर के भीतर तो गहरे छिपा हुआ नहीं है। बेशक, श्री माथुर की पत्रकारिता की धार बहुत पैनी है, इस कारण हो सकता है, उनसे कई को तकलीफ भी हुई हो, मगर अजमेर की पत्रकारिता में उनके जैसे साफ-सुथरी छवि के पत्रकार गिनती के ही हैं, जिन पर इतने लंबे पत्रकारिता के जीवन में कोई दाग नहीं लगा।
बात कहां से शुरू हुई और कहां तक पहुंच गई। लब्बोलुआब ये कि दशोरा जी एक आदर्श व्यक्तित्व हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस पार्टी के हैं, महत्वपूर्ण ये है कि हमारे बीच ऐसे प्रकाश स्तम्भ मौजूद हैं, जिनसे हमारी भावी पीढ़ी को रोशनी मिलती रहेगी।
जरा दशोरा जी के जीवन परिचय पर भी नजर डालें:-
उनका जन्म 1 जनवरी 1950 को श्री रामलाल दशोरा के घर हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा चितौडग़ढ़, माध्यमिक शिक्षा बस्सी जिला चितौडग़ढ़, स्नातक शिक्षा चितौडग़ढ़ और एलएलबी की शिक्षा उदयपुर में हासिल की। उन्होंने बीए. एलएलबी की शिक्षा अर्जित की और वकालत को अपना पेशा बनाया। उन्हें करीब 43 वर्ष तक राजस्व मामलों की वकालत का अनुभव है। वे राजस्थान राजस्व अभिभाषक संघ के अध्यक्ष और सचिव और राजस्थान अधिवक्ता परिषद के संयुक्त सचिव रहे हैं। वे करीब पचास साल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं। प्रदेश भाजपा विधि प्रकोष्ठ के उपाध्यक्ष रहे हैं। सन् 1998 से 2007 तक शहर जिला अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्होंने अपनी विशेष पहचान बनाई है। विभिन्न चुनावों में पार्टी प्रत्याशियों के मुख्य चुनाव एजेंट रहे हैं। वे लायन्स क्लब पृथ्वीराज के अध्यक्ष रहे।

-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 2 जुलाई 2020

चौक में तवा उलटा रखने से बंद हो जाती है बारिश?

मानसून ने दस्तक दे दी है, हालांकि रिमझिम का दौर अभी शुरू नहीं हुआ है। उम्मीद है, जल्द ही झमाझम बारिश होने लगेगी। मौसम विभाग तो सेटेलाइट के माध्यम से पता लगाता है कि कहां कितनी बारिश होने की संभावना है और वह ज्यादा बारिश होने की चेतावनी भी देता रहता है, मगर पुराने जमाने में जब विज्ञान उन्नत अवस्था में नहीं था, तब प्रकृति के अनेक संकेतों से बारिश का अनुमान लगाया करते थे। इन संकेतों ने मान्यताओं व कहावतों को जन्म दिया। मौसम व खेती के बारे में भड्डरी व घाघ कवि की कहावतें बहुत चलन में हैं।
आइये, कुछ कहावतों पर नजर डालते हैं:-
एक कहावत है कि शुक्रवार की बादली शनिचर छाय। ऐसा बोल भडुरी बिन बरसे नहीं जाय। अर्थात शुक्रवार के दिन होने वाले बादल आकाश में शनिवार तक ठहर जाएं तो वर्षा अवश्य होगी।
नक्षत्र भी बारिश के बारे में संकेत दिया करते हैं। जैसे अगस्त्य नामक तारे का उदय हो तो मान लीजिए कि बारिश समाप्त होने वाली है। कहावत है- अगस्त ऊगा, मेह पूगा। इसी कड़ी में कहावत है कि जे मंडे तो धार न खंडे, अर्थात यदि बारिश फिर भी हो जाए तो मान कर चलिए कि बारिश जम कर होगी, थमेगी ही नहीं।
अकाल पडऩे के बारे में नक्षत्र संकेत देते हैं, वो यह कि अक्षय तृतीया पर रोहणी नक्षत्र न हो, रक्षाबंधन पर श्रवण नक्षत्र न हो और पौष की पूर्णिमा पर मूल नक्षत्र न हो तो अनावृष्टि की आशंका होती है। इसको लेकर कहावत है- अक्खा रोहण बायरी, राखी सरबन न होय। पो ही मूल न होय तो, म्ही डूलंती जोय।
इसी प्रकार - अषाढ़ सुदी हो नवमी, ना बादल ना वीज। हल फारो इंधन करो, बैठो चाबो बिज। अर्थात आषाढ़ शुक्ल पक्ष नवमी को आकाश में बादल-बिजली कुछ नहीं हो तो वर्षा बिलकुल नहीं होगी और सूखा पड़ेगा।
यदि भादो सुदी छठ को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है। इसकी कहावत है- भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय। ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।
यदि गिरगिट पेड़ पर उल्टा होकर अर्थात पूंछ ऊपर की ओर करके चढ़े तो समझना चाहिए कि इतनी वर्षा होगी कि पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। इसकी कहावत है - उलटे गिरगिट ऊँचे चढै। बरखा होइ भूइं जल बुडै।।
एक कहावत तो बहुत प्रचलित है, वो यह कि चिडिय़ा धूल में लोटपोट हो कर नहाए तो माना जाता है कि बारिश आने वाली है।
एक कहावत है- अम्मर पीळो, मेह सीळो। इसका अर्थ है यदि आसमान में पीलिमा दिखाई दे तो समझो कि बारिश धीमी पडऩे वाली है। इसी से जुड़ी एक कहावत है- अम्मर रातो, मेह मातो, यानि कि अगर आसमान में लालिमा हो तो समझिये बारिश जोरदार पडऩे वाली है। इसी क्रम में कहते हैं- अम्मर हरियो, चूव टपरियो। अर्थात आसमान में हरीतिमा दिखाई दे तो वह सामान्य बारिश होने का संकेत है।
ऐसी मान्यता है कि यदि तीतर के पंख बादल जैसे रंग के हो जाएं तो पक्का जानिये कि बारिश होगी ही, जिसमें कोई संदेह नहीं है। इसकी कहावत है:- तीतर पंखी बादळी, विधवा काजळ रेख, बा बरसै बा घर करै, ई में मीन न मेख। इसी कहावत में यह भी बताया गया है कि यदि विधवा की आंख में काजल नजर आए तो इसका मतलब है कि वह फिर घर बसाएगी।
यदि रात में विचरण करते वक्त ऊंटनी को आलस्य आए या वह ऊंघने लगे तो इसका मतलब है कि बारिश की उम्मीद है। एक कहावत है कि अत तरणावै तीतरी, लक्खारी कुरलेह। सारस डूंगर भमै, जदअत जोरे मेह। इसका अर्थ है कि तीतरी जोर से आवाज करे, लक्कारी कुरलाए, सारस ऊंचे स्थान का चयन करे तो तेज बारिश आ सकती है।
इसी प्रकार कहते हैं कि बारिश के मौसम में लोमड़ी ऊंचे स्थान पर खड्डा खोद कर अपना विश्राम स्थल बनाए और उछल-कूद करे तो समझिये अच्छी बारिश होगी। इसकी कहावत है- धुर बरसालै लूंकड़ी, ऊंची घुरी खिणन्त। भेळी होय ज खेल करै, तो जलधर अति बरसन्त।
ऊंटनी भी बारिश का संकेत जमीन पर पैर पटक कर, एक स्थान पर न टिक कर और बैठने से आनाकानी करके यह संकेत देती है कि बारिश जरूर आएगी। इसकी कहावत है- आगम सूझे सांढणी, दौड़े थळा अपार। पग पटकै बैसे नहीं, जद मेह आवणहार।
कुछ इसी प्रकार विक्रम संवत के महीने भी संकेत देते हैं। मावां पोवां धोधूंकार, फागण मास उड़ावै छार। चैत मॉस बीज ह्लकोवै, भर बैसाखां केसू धोवै। अर्थात माघ और पोष माह में कोहरा पड़े, फाल्गुन माह में धूल उड़े और चैत्र माह में बिजली न दिखाई दे तो बैशाख में वर्षा होगी।
ये तो हुई कम और ज्यादा बारिश की कहावतें। एक कहावत ऐसी है जो बारिश को रोकने के टोटके के रूप में काम में ली जाती है। कैसी दिलचस्प बात है कि अगर बारिश थम न रही हो तो चौक में तवे को उलटा करके रख देने से बारिश धीमी पड़ जाती है या थम जाती है। जी हां, ऐसी मान्यता है। इसमें कितनी सच्चाई है, कुछ कहा नहीं जा सकता।


संकलन:-
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com