मंगलवार, 20 अक्तूबर 2020

खुशी में सीटी क्यों बजाई जाती है?


मेरे एक मित्र ने एक टिपिकल सा सवाल पूछा है - खुशी में सीटी क्यों बजाई जाती है? जहां तक मेरी समझ है, मनुष्य की मानसिक अवस्था से जुड़े इस सवाल का मोटे तौर पर जवाब ये है कि यह हमारी अभिव्यक्ति की प्रवृत्ति  की निष्पत्ति है।

असल में प्राणी मात्र में अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थिति में भीतर के भाव को अभिव्यक्त करने का स्वाभाविक गुण है। आपने देखा होगा कि दो व्यक्ति किसी रास्ते से गुजर रहे हों और उन्हें कोई सुंदर पुष्प नजर आ जाए तो जहां एक यह अभिव्यक्त करने से अपने आपको नहीं रोक पाता कि देखो, फूल कितना सुंदर है तो दूसरा उसकी हामी भरते हुए कहता है कि वाकई बहुत सुंदर है। हालांकि दोनों व्यक्ति सुंदर फूल को देख रहे होते हैं, उसका जिक्र करने की जरूरत नहीं है, फिर भी भीतर उतरे अनुभव को साझा करने की प्रवृति के चलते अभिव्यक्ति जुबान पर आ ही जाती है।

मनुष्य के पास तो फिर भी अभिव्यक्ति के लिए बोली की सुविधा है, लेकिन पशु-पक्षी भी सुख-दु:ख  में भीतर के भाव को प्रकट करने के लिए भिन्न-भिन्न आवाजें निकाला करते हैं। आपने देखा होगा कि जब भी मनुष्य दु:खी होता है तो सहसा वह कोई दु:खभरा गीत गुनगुनाने लगता है। इससे उसको सुकून मिलता है। ऐसा करने से उसके मन का बोझ हल्का हो जाता है। वैसे ही जब मनुष्य प्रसन्न होता है तो उसका मन मयूर नाचने लगता है और सहसा या तो कोई मधुर गीत उसके कंठ में गुदगुदाने लगता है या फिर किसी गीत पर आधारित सीटी बजाने लगता है। उसी से अंदाजा हो जाता है कि उसका मन स्वस्थ है और किसी सुखद अनुभूति से गुजर रहा है। काम भले वह कोई भी कर रहा हो, मगर सीटी लगातार बजती रहती है। आपने देखा होगा कि खेत मे काम कर रहा किसान भी खुशी में अलगोजा बजाने लगता है। इसी प्रकार जैसे ही आसमान पर बादल छाते हैं, खुशी में मोर जोर से मेहों मेहों की ध्वनि करता है।

मुझे प्रतीत होता है कि मैने मेरे मित्र के सवाल का जवाब ठीक से दे दिया है। अगर आपको लगता है कि इसका कोई और भी जवाब हो सकता है तो अपनी प्रतिक्रिया जरूर दीजिए।


-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 18 अक्तूबर 2020

अनूठी संस्कृति : चौराहे, तिराहे व मार्ग के भी देवता होते हैं?

 


हिंदू धर्म में तैंतीस कोटी अर्थात करोड़ देवी-देवता माने जाते हैं। हालांकि इसको लेकर मतभिन्नता भी है। कुछ जानकारों का कहना है कि कोटि का अर्थ करोड़ तो होता है, मगर कोटि का अर्थ प्रकार भी होता है। उनका कहना है कि देवता तैंतीस कोटि अथवा प्रकार के होते हैं। जो कुछ भी हो, मगर यह पक्का है कि देवी-देवता अनगिनत हैं। हम तो पेड़-पौधे यथा तुलसी, पीपल, कल्पवृक्ष, बड़, आंवले के पेड़ इत्यादि में भी देवता मान कर उनकी पूजा करते हैं। हरियाली अमावस्या पर कल्पवृक्ष की विशेष पूजा की जाती है। आंवला नवमी के दिन आंवले के पेड़ को पूजा जाता है। खेजड़ी, रात की रानी के पेड़ व बेर के झाड़ी में भूत-प्रेत का वास माना जाता है। इसी प्रकार पशु-पक्षी यथा गाय में सभी देवताओं व कुत्ते में शनि और बंदर में हनुमान जी की धारणा करते हैं। पहली रोटी गाय व आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है। काली गाय व काले कुत्ते का तो और भी अधिक महत्व है। बंदरों को केला खिलाने की परंपरा है।

आपकी जानकारी में होगा कि बंदर में हनुमान जी की मौजूदगी की मान्यता के कारण उसकी मृत्यु होने पर बाकायादा बैकुंठी निकाली जाती है। करंट से बंदर की मृत्यु हो जाने पर करंट वाले बालाजी के मंदिर कई शहरों में बनाए जा चुके हैं। इसी प्रकार सांड का अंतिम संस्कार करने से पहले बैकुंठी निकाली जाती है। कबूतर, चिडिय़ा इत्यादि को दाना डालने के पीछे भी देवताओं को तुष्ट करने का चलन है। ऐसी मान्यता है कि मकान की छत पर पूर्वजों की मौजूदगी है, इस कारण कई लोग वहां पक्षियो के लिए दाना बिखरते हैं। श्राद्ध पक्ष में कौए के लिए ग्रास निकाला जाता है। उल्लू को लक्ष्मी  का वाहन माना जाता है। चींटी के माध्यम से शनि देवता को प्रसन्न करने के लिए कीड़ी नगरे को सींचते हैं। कई लोग चूहे को इस कारण नहीं मारते कि वह गणेश जी का वाहन है। जलचरों में मछली को दाना डालने की परंपरा है। जल, धरती, वायु इत्यादि में भी देवताओं के दर्शन करते हैं। यहां तक कि पत्थर की मूर्ति बना कर उसमें विभिन्न प्रकार के देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा करके उसे पूजते हैं। निहायत तुच्छ सी झाड़ू में लक्ष्मी का वास होने की मान्यता है, इस कारण उसे गुप्त स्थान पर रखने व पैर न छुआने की सलाह दी जाती है। छिपकली में भी लक्ष्मी की मौजूदगी मानी जाती है। कहते हैं कि दीपावली के दिन अगर छिपकली दिखाई दे जाए तो समझिये कि लक्ष्मी माता ने दर्शन दे दिए हैं। वास्तु शास्त्र की बात करें तो हर रिहाहिशी मकान व व्यावसायिक स्थल और ऑफिस का अपना अलग वास्तु पुरुष है, जो कि विभिन्न देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। और तो और चौराहे, तिराहे व मार्ग तक में भी देवता की उपस्थिति होने की मान्यता है। 

मैंने देखा है कि चाय की दुकान करने वाले सुबह सबसे पहली चाय चौराहे, तिराहे या मार्ग को अर्पित करते हैं। इसी प्रकार नाश्ते की दुकान करने वाले भी भोग लगाते हैं। इस बारे में उनसे चर्चा करने पर यह निष्कर्ष निकला कि हालांकि उन्हें इसका ठीक से पता नहीं कि वे किस देवता को प्रसाद चढ़ा रहे हैं। वे तो परंपरा का पालन कर रहे हैं। फिर भी यह पूछने पर आपके भीतर ऐसा करते वक्त क्या भाव उत्पन्न होता है, तो वे बताते हैं कि चौराहे, तिराहे व मार्ग पर स्थानीय देवता की मौजूदगी है, चाहे उसका कोई नामकरण न हो। हम उनकी छत्रछाया में ही व्यवसाय करते हैं, इस कारण उनकी कृपा दृष्टि के लिए प्रसाद चढ़ाते हैं।

चौराहे, तिराहे या मार्ग का महत्व तंत्र में भी है। नजर उतारने सहित अनके प्रकार के टोने-टोटके के लिए इन स्थानों का उपयोग किया जाता है। आपने देखा होगा कि कई लोग किसी टोटके के तहत नीबू, कौड़ी, गेहूं, लाल-काला कपड़ा, दीपक, छोटी मटकी इत्यादि रखते हैं। यही सलाह दी जाती है कि उनको न छुएं। इसका मतलब ये हुआ कि तंत्र विद्या में भी इन जगहों पर शक्तियों का वास माना गया है।

है न हमारी सनातन संस्कृति सबसे अनूठी। शास्त्र तो कण-कण में भगवान की उपस्थिति मानता है। बताते हैं गीतांजलि काव्य के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले श्री रविन्द्र नाथ टैगोर का जब ईश्वर से साक्षात्कार हुआ तो उन्हें हर जगह उसके दर्शन होने लगे। भावातिरेक अवस्था में वे पेड़ों से लिपट कर रोया करते थे। लोग भले ही इसे पागलपन की हरकत मानते हों, मगर वे तो किसी और ही तल पर जीने लगे थे।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

क्या अभिमंत्रित जल असरदार होता है?


आपने देखा होगा कि किसी भी पूजा अनुष्ठान के बाद पंडित सभी पर जल के छींटे डाला करते हैं। प्रसाद के रूप में जल का आचमन करवाते हैं। यहां तक कि शुद्धि के लिए उठावने के समापन पर भी जल के छींटे डाले जाते हैं। सवाल उठता है कि क्या जल के ये छींटे वाकई असरदार होते हैं?

शास्त्रों के अनुसार जल को अभिमंत्रित करने की पद्धति बहुत पुरानी है। कोई पूजा अनुष्ठान हो या शास्त्र का पाठ, उसमें तांबे के एक पात्र में जल भर कर रखा जाता है। आखिर में उस जल का छिड़काव किया जाता है। आचमन भी करने की प्रथा है। ऐसी मान्यता है कि पूजा-पाठ के दौरान रखे गए जल में सकारात्मक ऊर्जा संग्रहित हो जाती है। उस जल के छिड़काव या आचमन से शारीरिक व मानसिक पीड़ा दूर हो जाती है। भिन्न प्रकार की व्याधियों के लिए भिन्न प्रकार के मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। केवल जल ही क्यों, झाड़ा लगाने वाले तांत्रिक मोर पंख की पिच्छी को अभिमंत्रित करके कष्ट दूर करने के उपाय करते हैं। अंगूठी या माला आदि धारण करने से पहले उसे भी दूध से शुद्ध करके अभिमंत्रित किया जाता है। 

यह एक स्वाभाविक सी जिज्ञासा होती है कि क्या इस प्रकार अभिमंत्रण कारगर होता है? जहां तक मेरे निजी अनुभव का सवाल है, मैंने पाया है कि यह पद्धति असरदार होती है। वर्षों पहले, जब मुझे तंत्र-मंत्र में रुचि थी, तब इस प्रकार के अनेक प्रयोग किए थे। उनमें से एक का जिक्र कर रहा हूं।

जब भी किसी अधिकारी या बड़े व्यक्ति के पास किसी काम के लिए जाना होता था अथवा किसी मीटिंग या सभा में भाषण देना होता था, तब तांबे के लोटे में जल भर कर एक मंत्र का एक सौ आठ बार उच्चारण करता। मंत्र था:- ओम् लक्ष्मीनारायण मोहन प्रेम वशीभूता, कुरु कुरु स्वाहा। उसके बाद उस जल को मुंह पर छिड़क कर कहीं जाता था। मेरा अनुभव तो ये है कि उसका असर दिखाई देता था। ऐसा नहीं कि मंत्र से जल को अभिमंत्रित करने की पद्धति में मेरा अंध विश्वास हो। शंका की दृष्टि से भी मनन करता था। सोच यह थी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जल अभिमंत्रित करने का प्रयोग करने से विल पॉवर बढ़ जाती हो। मन में यह भाव उत्पन्न हो जाता हो कि मैने अभिमंत्रण किया है, इस कारण वह असर डालेगा ही। वही भाव आत्मशक्ति बढ़ा देता हो। अभिव्यक्ति प्रखर हो जाती हो, वही काम कर रही हो। जो कुछ भी हो, मुझे तो अभिमंत्रण की पद्धति असरदार प्रतीत हुई।

एक बार किसी तांत्रिक ने जानकारी दी थी कि यदि किसी को भूख नहीं लगती तो उसका भी उपाय है। वो यह कि सुबह उठने के बाद तांबे के एक लोटे में जल डाल कर उसे दायें हाथ की हथेली पर रखें और ओम् अमिचक्रायक्रीय नम: मंत्र का एक सौ आठ बार उच्चारण करें। उसके बाद लोटे के जल को पी जाएं। इससे भूख जागृत हो जाएगी। हालांकि मैंने इस प्रयोग को नहीं आजमाया, लेकिन आपकी जानकारी के लिए यह साझा कर रहा हूं। 

यह तो आपने भी सुना होगा कि ऋषि-मुनि हर वक्त अपने साथ एक कमंडल रखा करते थे। किसी को वर देने अथवा श्राप देने के लिए उस कमंडल के जल का उपयोग करते थे। अर्थात उनकी साधना व मंत्रोच्चार का असर कमंडल के जल में संग्रहित हुआ करता होगा। चूंकि जल अति संवेदनशील है, इस कारण आम तौर पर मंदिर किसी तालाब या नदी के किनारे पर बनाए जाते थे। मान्यता है कि पहाडिय़ों की ऊंची चोटियां भी ऊर्जा युक्त होती हैं, इस कारण कई मंदिर पहाडिय़ों पर बने हुए हैं।

कुल जमा बात ये है कि जल में जीवनी शक्ति होती है। विशेष रूप से गंगा की बात करें तो वह बहुत पवित्र मानी जाती है। उसकी शुद्धता का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि उसका जल किसी पात्र में वर्षों तक रखा हो तो भी वह अशुद्ध नहीं होता। अशुद्ध न होने के अपने वैज्ञानिक कारण भी हैं, मगर  आस्था यही है कि वह पावन है और इसी कारण यज्ञादि अनुष्ठान करने से पहले उस स्थान को गंगा का जल छिड़क कर शुद्ध किया जाता है। ऐसा नहीं कि केवल हिंदू धर्म में ही पवित्र नदियों या सरोवरों, यथा गंगा व तीर्थराज पुष्कर सरोवर के जल को शुद्ध माना जाता है, इस्लाम को मानने वालों में आब-ए-जमजम की बड़ी महिमा है। वे उस जल को ठीक उसी प्रकार उपयोग में लाते हैं, जैसे हिंदू गंगा जल को। विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब के उर्स में कुल की रस्म के दौरान एकत्रित जल का उपयोग व्याधियों के निवारण के लिए जायरीन अपने साथ ले जाते हैं।

फूंक अर्थात हवा में भी मंत्र की शक्ति का उपयोग किया जाता है। मेरे एक परिचित के ससुर, जो कि अलवर में रहते हैं, अजमेर आए थे। न जाने उनका किसी गलत जगह पैर पड़ गया और वे विक्षिप्त से हो गए। यहां डॉक्टरों को दिखा कर अलवर चले गए। दवाइयों से वे ठीक नहीं हुए। उन्होंने मुझ से जिक्र किया। मैने मेरे एक घनिष्ठ मित्र, जो कि खादिम समुदाय से थे व पीर भी थे, उनसे जिक्र किया। उन्होंने कहा कि मेरी बीमार से मोबाइल पर बात करवाइये। भले ही वे बात करने की स्थिति में न हों, केवल मैं जो सुनाता हूं वह सुनें। हमने ऐसा ही किया। पीर साहब कुरान की कोई आयत बुदबुदा रहे थे और बार-बार मोबाइल के माइक में फूंक मार रहे थे। आश्चर्यजनक रूप से मेरे मित्र के ससुर बिलकुल ठीक हो गए। मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि क्या सैंकड़ों किलोमीटर दूर सिर्फ मोबाइल फोन पर अभिमंत्रित फूंक से भी कोई ठीक हो सकता है। मगर चूंकि प्रमाण सामने था, इसलिए मैने अपनी तर्क बुद्धि को शांत होने को कहा।

एक बात और। जिन्हें हम स्थूल समझते हैं, यथा धरती, जलाशय, पहाड़ी इत्यादि, वे भी किसी न किसी अर्थ में सजीव हैं और उन पर हमारे उच्चारण व विचार का असर पड़ता है। इतना ही नहीं, वह लंबे समय तक बना रहता है। वह असर आप तीर्थराज पुष्कर में अनुभव कर सकते हैं। वहां जाने पर एक अनोखी शांति महसूस होती है। वह इसलिए कि मान्यतानुसार सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्माजी ने यहीं यज्ञ किया था। इसके अतिरिक्त अनेकानेक ऋषि-मुनियों की भी यह साधना स्थली रही है। उनके उस तप का प्रभाव आज भी पुष्करारण्य में है।

यह आपके भी अनुभव में होगा कि कोई जगह हमें सुकून देती है तो कोई जगह मन को अशांत कर देती है। वह क्या है? वह उस स्थान में पहले हुए कृत्यों का प्रभाव है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें किसी मकान में किसी समय हत्या या आत्म हत्या का कृत्य हुआ हो तो वहां रहने वालों को रात में मारकाट के सपने आया करते हैं।  

लब्बोलुआब, इन सभी उदाहरणों के बाद मुझे नहीं लगता कि जल को अभिमंत्रित करने की पद्धति पर अविश्वास करने की गुंजाइश बचती है।

-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

शुक्रिया कहीं उऋण होने की कीमिया तो नहीं?


किसी ने अगर हमारी मदद की है तो उसका शुक्रिया अदा करना और धन्यवाद देने का चलन है। इसी प्रकार कोई त्रुटि होने पर सॉरी कहने का भी रिवाज है। यह शिष्टाचार का अंग है। क्या शिष्टाचार के इतर भी इनका कोई महत्व है? कहीं ये ऋण से उऋण होने की कीमिया तो नहीं? यह सवाल अर्से से दिमाग में कुलबुलाता रहा है।

जैसे हिंदू धर्म में भी कोई मनौति पूरी होने पर भगवान को धन्यवाद  देने के लिए छोटा-मोटा अनुष्टान करने की प्रथा है, उसी प्रकार इस्लाम में तो बाकायदा शुक्राने की नमाज अदा की जाती है या शुक्राने की फातेहा दी जाती है। मैने ऐसे प्रकरण देखे हैं कि पुत्र के परीक्षा में उत्तीर्ण होने जैसे प्रसंग में भी मुस्लिम परिवार शुक्राने की फातेहा देते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे जैन दर्शन में कर्म का बंधन होने का प्राकृतिक विधान है, तो शुक्रिया अदा करना उस बंधन से मुक्त होने की दिशा में उठाया गया कदम है।

यह ठीक है कि आम जीवन में किसी को धन्यवाद देना शिष्टाचार की श्रेणी में आता है, मगर क्या भगवान के साथ भी औपचारिक शिष्टाचार निभाया जाता है। हो सकता है कि आम आदमी कोई उपकार करने की एवज में धन्यवाद की अपेक्षा करता हो। हो सकता है धन्यवाद देने के बाद आगे भी उपकार हासिल होने का मार्ग खुला रखने की अपेक्षा से ऐसा किया जाता हो। लेकिन क्या ईश्वर के साथ भी ऐसा है? क्या भगवान को भी अपेक्षा रहती है? क्या इससे उसको कोई फर्क पड़ता है? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है। अहोभाव प्रकट करना हमारा अपना विषय है। अहोभाव जागना ही चाहिए। दुआ भी तो उसी का रूप है। हम मानते हैं न कि अपने से बड़े का सम्मान करने अथवा उनकी सेवा करने पर बड़े के मन से दुआ निकलती है। यानि कि यह क्रिया की प्रतिक्रिया है। साथ ही इससे किसी भी काम का वर्तुल पूरा होता है। अनुष्ठान में भी यही होता है। बाकायदा पूर्णाहुति दी जाती है। आपने देखा होगा कि कई बुजुर्ग महिलाएं कोई काम होने की कामना से अपनी चुन्नी के कोने पर गांठ बांधती हैं। काम पूरा हो जाने पर ही गांठ खोलती हैं और प्रसाद चढ़ाती हैं। वह भी धन्यवाद देने की प्रक्रिया है।

नहीं पता कि शुक्रिया अदा करने से हम उऋण होते हैं या नहीं, मगर  मुझे लगता है कि ऐसा करने से हम एक किस्म के मानसिक बोझ से तो मुक्त होते ही हैं। जैसे कोई गलती होने पर सॉरी कहने से कहीं न कहीं हम उस दोष से मुक्त सा महसूस करते हैं, कि हमने माफी मांग ली और सामने वाले सॉरी स्वीकार कर ली।

परायों का शुक्रिया अदा करना व सॉरी फील करना सामान्य शिष्टाचार है, लेकिन यह शिष्टाचार मित्रता में करने की जरूरत नहीं मानी जाती। कहते हैं कि दोस्ती में न थैंक यू और न ही सॉरी। इसका अर्थ हुआ कि दोस्ती में किया गया उपकार व अनजाने में हुई चूक की गिनती नहीं की जाती। वैसे भी कहा जाता है न कि दोस्ती अर्थात जहां दो अस्त हो गए, एक ही हो गए। तो फिर हिसाब-किताब कैसा?

मेरा ऐसा मत है कि शुक्रिया अदा करना या धन्यवाद या साधुवाद देना सदाचरण में विनम्रता का प्रतीक है। विनम्रता अपने आप में बहुत बड़ा गुण है। यह अहम भाव से मुक्त कराता है। साथ ही इससे ऋण से उऋण होने की भाव अवस्था बनती है। उससे मानसिक शांति मिलती है। मेरा सुझाव है कि हर काम के साथ शुक्रिया अदा करना चाहिए। भोजन कर चुकने पर अन्न देवता का, पानी पी चुकने पर जल देवता का, फल खा चुकने पर वृक्ष देवता का, किसी पुष्प की गंध का आनंद लेने के बाद पुष्प का, किसी वृक्ष की छाया का लाभ लेने के बाद उस वृक्ष का मन ही मन धन्यवाद करना चाहिए। यह बहुत सुकून देगा। आपके जीवन में आनंद भर जाएगा। करके देखिए। 

-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

झूठ बोले कौआ काटे, कोई और पक्षी क्यों नहीं?


आपने देखा होगा कि यदि कोई कहीं जा रहा होता है तो मारवाड़ी में यह पूछना अशुभ माना जाता है कि कठे जावे है? उसकी बजाय ये पूछा जाता है सिद जावे है? वजह साफ है। ककार को अच्छा नहीं माना जाता। बड़ी दिलचस्प बात है कि जितने भी सवाल हैं, क्या, कब, कहां, कौन, कितने, क्यों इत्यादि क अक्षर से ही आरंभ होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सवालिया निशान को सकारात्मक नहीं समझा जाता है। सवाल भले ही पूर्ण नकारात्मक न भी हो, तो भी कम से कम अद्र्ध नकारात्मक तो है ही, क्यों कि उसमें पचास प्रतिशत नकार की संभाव्यता है।

यह भी एक अजब संयोग है कि मृत्यु के पर्यायवाची शब्द काल में भी क पहला अक्षर है। इसी प्रकार रंगों में काला रंग अशुभता का प्रतीक है। तभी तो विरोध प्रदर्शन में काले रंग का झंडा इस्तेमाल किया जाता है। किसी को अपमानित करने के लिए उसके मुंह को काले रंग से ही पोता जाता है। हालांकि ऐसे भी धार्मिक पंथ हैं, जिनमें काले रंग का महत्व है, उसी वजह से उस पंथ को मानने वाले काला लबादा ओढ़ते हैं, नकाब और बुरका भी काला पहना जाता है। उनका अपना अलग दर्शन है। आजकल तो काले रंग की टीशर्ट व शर्ट बड़े शौक से पहनी जाती है। इसी प्रकार शर्ट भले ही किसी भी रंग की हो, लेकिन काले रंग की पेंट हर रंग के साथ सूट करती है। 

वकीलों के ड्रेस कोड में काला कोट व काले रंग की धारीदार पेंट को क्यों तय किया गया, यह तो पता नहीं, मगर आम धारणा ये है कि न्याय व सत्य को हासिल करने के मार्ग में असत्य व झूठ को भी दृढ़ता से प्रस्तुत होने का मौका दिया जाता है, तभी न्यायाधीश आखिरी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। ऐसे अनेक लोग मिल जाएंगे, जिन्होंने यह सोच कर वकालत का पेशा नहीं चुना, क्योंकि उनकी धारणा है कि उसमें झूठ बोलना पड़ता है। 

काले रंग की बात आई तो यकायक याद आया कि परम सत्ता में लीन स्वामी हिरदाराम जी महाराज को उस पर बहुत आपत्ति थी। वे अपने शिष्यों व अनुयाइयों को काले रंग के वस्त्र पहन कर न आने को कहा करते थे। उनकी मान्यता थी कि काला रंग मनुष्य में नकारात्मक विचार पैदा करता है। इसी कारण उनकी कुटिया में आशीर्वाद लेने के लिए जाने वाले लोग अमूमन सफेद रंग के वस्त्र पहन कर जाते थे। आज भी वह परंपरा कायम है।

हमारे यहां शुभ कार्यों में शिरकत करने वाले काले रंग के वस्त्र पहनने से परहेज करते हैं। परंपरा है कि नवविवाहित जोड़ा कुछ समय तक काले रंग के कपड़े नहीं पहना करता। रंग विज्ञान के जानकार पढ़ाई में काले रंग की स्याही इस्तेमाल करने को अच्छा नहीं मानते। उसकी बजाय नीले रंग की स्याही काम में लेने का सुझाव देते हैं। काला शब्द इतना बुरा है कि अवैध तरीके से कमाई हुई पूंजी को काला धन कहा जाता है। इसी प्रकार किसी पर प्रतिबंध लगाने के लिए उसे ब्लैक लिस्ट किया जाता है। दुनिया में काले व गोरे का रंग भेद कितने सालों से चल रहा है। गोरे अपने आपको अधिक श्रेष्ठ मानते हैं। हालांकि ब्लैक ब्यूटी की अपनी महत्ता है, मगर सभी लड़के व लड़कियां गोरे रंग के विपरीत लिंगी को पसंद करते हैं।

कैसी विचित्र बात है कि ग्रहों में दंडाधिकारी की भूमिका अदा करने वाले शनि, जिनके प्रकोप से सभी डरते हैं, की प्रतिमा काले रंग की ही होती है। उन्हें तुष्ट करने के लिए काले रंग के कुत्ते को रोटी खिलाने की सलाह दी जाती है। इसी प्रकार कष्ट निवारण के लिए काले रंग की गाय को रोटी पर हल्दी, काले तिल व गुड़ रख कर खिलाने का उपाय बताया जाता है।

काले रंग के प्रति इतना निषेधात्मक नजरिया है कि झूठ के बारे में कहावत बनी कि झूठ बोले कौआ काटे। किसी और पक्षी के काटने की बात नहीं कही गई है। इसी कहावत में चंद शब्द और जोड़ते हुए एक फिल्मी गीत भी बना कि झूठ बाले कौआ काटे, काले कौए से डरियो। 

बेशक श्राद्ध पक्ष में बड़ी श्रद्धा से कौअे को खिलाया जाता है, मगर आम तौर पर अन्य सभी पक्षियों की तुलना में उसे अच्छा नहीं माना जाता। कदाचित कर्कश आवाज के कारण। कोयल भी काली होती है, लेकिन अपनी मधुर आवाज के कारण सुखद अहसास देती है। कौए के प्रति पृथक दृष्टिकोण का कोई और रहस्य भी हो सकता है। वो इसलिए कि तंत्र साधना में कौए का बड़ा महत्व है। सामुद्रिक शास्त्र में तो बताया गया  है कि कौआ मैथुन अत्यंत गुप्त स्थान पर करता है, मगर यदि किसी ने देख लिया तो उसकी छह माह के भीतर मृत्यु हो जाती है।

एक मारवाड़ी गीत में बाबा रामदेव की बहिन सुगना बाई अपनी बदकिस्मती के लिए उस ज्योतिषी, जिसने उसकी कुंडली बनाई, उसके लिए सवाल करती है कि उसे काले नाग ने क्यों नही काट खाया?

इन सब से इतर यह भी बहुत रोचक है कि सर्वकलायुक्त अवतार श्रीकृष्ण श्याम वर्ण हैं, फिर भी आकृष्ट करते हैं। 

कुल जमा बात ये है कि क अक्षर अभिशप्त है। बावजूद इसके काला रंग अनिवार्य है। सफेद रंग की महत्ता भी काले रंग की वजह से है। सफेद रंग काले ब्लैकबोर्ड पर ही उजागर होता है।


-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 8 अक्तूबर 2020

खंभों पर बरसात लिखने वाले का पता लग गया


हर जगह बरसात लिखने वाला कहां चला गया? इस शीर्षक से मेरा ब्लॉग प्रकाशित होते ही कई प्रतिक्रियाएं आई हैं। मेरे मित्र श्री रमेश टिलवानी, जो कि पिछले कई सालों से समाज सेवा में जुटे हुए हैं, ने वाट्स ऐप पर उस शख्स के बारे में काफी जानकारी भेजी है। साथ ही पुराने मित्र श्री गोविंद मनवानी, जो कि स्वतंत्र पत्रकार हैं, ने फोन पर विस्तार से जानकारी साझा की है। दोनों की जानकारी काफी मिलती-जुलती है, लिहाजा दोनों के नाम से ही उसे आपके साथ शेयर कर रहा हूं।

उन्होंने बताया कि यह प्रसंग पंद्रह साल नहीं, बल्कि उससे भी करीब दस साल पुराना है। उस शख्स का नाम श्री झामनदास है। वे अंग्रेजी में एमए हैं और पहले मीरा स्कूल में व बाद में उसका सारा स्टाफ आदर्श विद्यालय में शिफ्ट हो जाने पर वहां पर दसवीं-ग्यारहवीं के छात्रों को अंग्रेजी पढ़ाया करते थे। उनकी ज्योतिष में बहुत अधिक रुचि हुआ करती थी। आमतौर पर ज्योतिष या तंत्र की पुस्तक पढ़ा करते थे। वे बहुत इंटेलीजेंट थे, मगर बाद में किसी कारणवश मेंटली डिस्टर्ब हो गए। वे ही शहरभर के खंभों पर चॉक से बरसात शब्द लिखा करते थे। बच्चे उन्हें पागल समझ कर उन पर पत्थर फैंका करते थे। जहां तक बरसात शब्द की टाइपोग्राफी का सवाल है, वह गुजराती भाषा की तरह होने के पीछे कारण ये रहा होगा कि वे मूलत: अहमदाबाद से अजमेर आए थे। हालांकि यह पता नहीं कि वे बरसात शब्द ही क्यों लिखा करते थे, मगर कई बार ऐसा भी पाया गया कि जिस क्षेत्र में वे खंभों पर बरसात शब्द लिखा करते थे, वहां हल्की बूंदाबांदी हो जाया करती थी। शुरू में वे लाखन कोटड़ी में रहा करते थे। अब वैशाली नगर में रहते हैं। अब भी यदा-कदा किताब हाथ में लिए हुए दिखाई दे जाते हैं।

मैं श्री टिलवानी व श्री मनवानी का शुक्रिया अदा करता हूं कि उन्होंने मुझ सहित अनेक लोगों की जिज्ञासा को शांत कर दिया। श्री टिलवानी विद्युत विभाग से सेवानिवृत्त हैं और अजमेर में सिंधी समाज की सेंट्रल पंचायत बनाने वालों में वे अग्रणी रहे हैं। शहर के बारे में पुरानी जानकारियों का उनके पास भंडार है। यदि उनको शहर की दाई की उपमा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

श्री मनवानी स्वतंत्र पत्रकार हैं। अनेक दैनिक समाचार पत्रों में लिखते रहे हैं। किसी जमाने में ज्ञानदीप मंडल के नाम से पत्र मित्रता क्लब संचालित किया करते थे। जिन दिनों टेलिविजन के नाम पर केवल दूरदर्शन हुआ करता था, तब उसकी समीक्षा किया करते थे। बाद में अन्य चैनल्स की भी समीक्षा की। फिल्मों पर भी उनकी गहरी पकड़ रही है। वे सिंधी भाषा के शिक्षक भी रहे हैं और सिंधी भाषा सिखाने की अनेक कार्यशालाओं में भागीदारी निभा चुके हैं। अनेक संस्थाओं के लिए मीडिया का भी काम कर चुके हैं।

ब्लॉग प्रकाशित होने पर मेरे पत्रकार साथी श्री गिरीश दाधीच ने वाट्स ऐप पर जानकारी दी कि उन्हें भी किसी व्यक्ति की ओर से बरसात शब्द लिखने के प्रसंग की जानकारी है। सावन पब्लिक स्कूल के संचालक श्री हरीश शर्मा ने भी प्रतिक्रिया दी कि वे भी सोचा करते थे कि इस प्रकार की हरकत कौन करता था?

बहरहाल, सोशल मीडिया को सलाम कि उसकी वजह से एक जिज्ञासा का चुटकी में समाधान हो गया।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

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बुधवार, 7 अक्तूबर 2020

हर जगह बरसात लिखने वाला कहां चला गया?


जिन लोगों की शहर की हर गतिविधि पर नजर रहती है, उन्हें ख्याल में होगा कि कोई पंद्रह साल पहले शहर में हर खंभे व दीवारों पर चॉक से बरसात लिखा होता था। कहीं-कहीं रेन भी लिखा हुआ पाया गया। ऐसा करने वाला वह कौन  था, इसका कभी पता नहीं लगा। यह हरकत हर जगह जयगुरुदेव लिखे होने से मिलती जुलती थी। जयगुरुदेव तो लिखना समझ में भी आता है कि उनके शिष्य अपने गुरू का प्रचार करते थे, मगर बरसात लिखने का प्रयोजन समझ में नहीं आया। वह कोई कोड वर्ड था या यूं ही वाहियात हरकत, कुछ पता नहीं लगा।

बरसात लिखने वाला बुद्धिमान था या पागल, इसका का भी अंदाजा नहीं लगाया जा सका। वह एक था या कोई गिरोह, ये भी पता नहीं। चूंकि इस शब्द की टाइपोग्राफी हर जगह एक जैसी थी, इससे लगता था कि वह गिरोह की नहीं, बल्कि किसी एक ही व्यक्ति की करतूत है। लेकिन साथ ही ये सवाल भी कौंधता था कि एक व्यक्ति भला पूरे शहर में हजारों जगह कैसे लिख सकता है? वह किसी सिरफिरे की हरकत थी या किसी तांत्रिक की, इसका भी आकलन नहीं हो पाया। हो सकता है कोई सिरफिरा हो, जिसके जीवन में बरसात ने कोई अनिष्ट किया हो और वह विक्षिप्त हो गया हो। तांत्रिक इसलिए हो सकता था, कहीं वह हर जगह बरसात लिख कर बारिश को आमंत्रण तो नहीं देता था? बारिश का अभाव तो अजमेर में आम तौर पर रहा ही है। चूंकि बरसात शब्द में लाइन नहीं होती थी, इस कारण समझा गया कि कदाचित वह गुजराती रहा होगा। ज्ञातव्य है कि गुजराती भाषा में शब्दों के ऊपर लाइन नहीं होती है। 

चूंकि हर जगह बरसात लिखने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था, इस कारण किसी ने सवाल भी नहीं उठाया। देख कर भी सभी अनदेखी कर देते थे। मेरी तब सीआईडी के कुछ कार्मिकों से बात हुई तो उनका कहना था कि हमारे भी नोटिस में है, मगर उसकी जांच करने का औचित्य नजर नहीं आता। लंबे समय से हम भी देख रहे हैं, मगर उसकी वजह से शहर में कोई घटना नहीं हुई, इसलिए हमें ये किसी खुफिया एजेंसी का काम भी नहीं लगता। इसी कारण पुलिस ने कभी जांच करने की जरूरत ही नहीं समझी। 

कुल मिला कर यह सवाल आज भी अनुत्तरित है कि हर जगह बरसात कौन लिखता था और वह कहां चला गया?


-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

एक बटन की गैर मौजूदगी ने हरवा दिया बेरिस्टर को


नियम की बड़ी महत्ता है। इस जगत में अनियामक कुछ भी नहीं। सभी विद्वान नियम की पालना पर जोर देते हैं। हम तो फिर भी अखिल ब्रह्मांड की बहुत छोटी, बहुत ही छोटी सी इकाई हैं, मगर स्वयं प्रकृति भी नियम की पालना करती है। बेशक उसमें भी कभी विक्षोभ होता है, मगर अमूमन वह भी नियम से बंधी हुई है। ऊर्जा व जीवन का स्रोत सूर्य भी नियम की पालना करता है। हजारों साल से नियत समय पर उगता है और अस्त होता है। सारे ग्रह नियम से सूर्य की परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी भी परिक्रमा के साथ-साथ अपनी धूरि पर भी नियम से घूमती है, जिससे ऋतुएं भी नियमानुसार परिवर्तित होती हैं और दिन-रात होते हैं।

मैने नियम को जिस रूप में जाना है, उसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा। मेरा अनुभव है कि जैसे हम यदि प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कृत्य करते हैं तो अनेक तरह की आपदाओं को झेलते हैं, जैसे शासन-प्रशासन के नियम की अवहेलना करने पर दंड के भागी होते हैं, वैसे ही हम हमारे ही बनाए हुए नियम की ठीक से पालना न करने पर भी कष्ट के भागी होते हैं। जिस नियम के निर्माता हम स्वयं हैं, या जो नियम हमने अपने ऊपर खुद ओढ़ा है, हम उससे भी बंध जाते हैं। इसलिए सदैव वही नियम बनाएं, जिसकी पालना कर सकें।

नियम कुछ उदाहरण देखिए। प्रकृति ने हमारे शरीर को कुछ ऐसा बनाया है कि जैसे नियमों में उसे ढ़ालते हैं, वैसा ही हो जाता है। जैसे यदि हमने सुबह चार बजे उठने का नियम बनाया है तो वह शरीर की आदत बन जाता है। फिर अलार्म क्लॉक की जरूरत नहीं होती। खुदबखुद चार बजे नींद खुल जाती है। असल में शरीर के भीतर की घड़ी काम कर रही होती है। ठीक इसी प्रकार भोजन के साथ है। जितने बजे हमने खाने की आदत बनाई है, ठीक उसी समय पेट में चूहे दौडऩे लगते हैं। शरीर की घड़ी खाने को पचाने के लिए लीवर को सक्रिय कर देती है और उससे पित्त रस निकलने लगता है। शरीर ने अपना काम शुरू कर दिया, मगर यदि हमने व्यस्तता अथवा किसी ओर वजह से ध्यान नहीं दिया तो एसिडिटी हो जाती है।

एक और एंगल देखिए। विद्वान कहते हैं न कि जैसे भोजन समय पर करना चाहिए, वैसे ही भगवान की पूजा भी नियत समय पर करनी चाहिए। हालांकि हम किसी भी वक्त भगवान को याद कर सकते हैं, उसमें कोई बंदिश नहीं, मगर नियत समय पर पूजा करने का महत्व अलग है। उस वक्त चित्त की एकाग्रता अधिक हो जाती है। योग व ध्यान के साथ भी ऐसा है। निर्धारित समय पर ध्यान करने से जल्द ही ध्यान की अवस्था में आ जाते हैं। आपने देखा होगा कि यदि हमने किसी वार पर किसी मंदिर के दर्शन करने का नियम बनाया है, मगर किसी वजह से किसी दिन हम दर्शन करने नहीं जा पाते तो उस दिन एक अभाव सा छाया रहता है। मन में नियम की अवहेलना का भाव कचोटता रहता है। नियम से रोज सुबह टहलने वाला व्यक्ति किसी दिन टहलने नहीं जा पाता तो पूरे दिन सुस्ती सी छायी रहती है।

नियम की महत्ता बताने के लिए सुधिजन एक कहानी कहा करते हैं। आपने भी सुनी होगी। एक सज्जन गांव से दूर जंगल में स्थित एक मंदिर में प्रतिदिन दीया जलाने जाया करता था। एक दुष्ट ने भी नियम बना रखा था। वह दीया बुझा कर आता था। एक बार बहुत आंधी-तूफान आया। सज्जन की हिम्मत ने जवाब दे दिया। सुस्ती में नागा कर गया। मगर दुष्ट की कटिबद्धता अधिक प्रबल थी। वह ठीक समय पर दीया बुझाने पहुंच गया। इस पर उस मंदिर के देवता ने उसे अशीर्वाद दिया। इसलिए कि वह नियम का पक्का निकला। सवाल ये नहीं कि वह गलत काम कर रहा था, बल्कि ये कि गलत काम भी नियम से कर रहा था। ये कहानी काल्पनिक भी हो सकती है, मगर संदेश यही है कि नियमितता का जीवन में बहुत महत्व है। 

नियम, जो कि आदत जाता है, उसका एक और उदाहरण देखिए। एक  सुप्रसिद्ध बेरिस्टर के बारे में मान्यता थी कि उन्हें हराना आसान नहीं है। एक वकील ने तय किया कि वह उन्हें हरा कर ही मानेगा। उसने बेरिस्टर के लौंड्री वाले से सेटिंग की और उनके कोट का एक बटन हटवा दिया। बेरिस्टर ने जैसे ही कोर्ट में जिरह शुरू की तो उनकी जुबान लडख़ड़ाने लगी। वजह ये कि उनकी एक आदत थी कि बहस करते वक्त एक हाथ से बटन पर अंगुलियां घुमाया करते थे। आदत के मुताबिक बार-बार उनका हाथ बटन पर जा रहा था, मगर वहां पर बटन नहीं था। उनका माइंड सेट गड़बड़ा गया और वे ठीक से जिरह नहीं कर पाए व केस हार गए। है न दिलचस्प किस्सा।  एक छोटी सी आदत भी हमें कितना प्रभावित करती है।

कुल जमा बात ये कि प्रकृति के नियम तो हम पर लागू होते ही हैं, खुद अपने बनाए नियम भी लागू हो जाते हैं। उन्हें तोडऩे पर उतना की कष्ट होता है, जितना प्रकृति के नियम तोडऩे पर होता है।

-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 4 अक्तूबर 2020

जूनियर-सीनियर जर्नलिस्ट का अंतर समाप्त हो गया


पिछले ब्लॉग में प्रदेश के सुपरिचित वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय श्री श्याम सुंदर शर्मा के जुड़े प्रसंग को छुआ तो यकायक दैनिक भास्कर के जयपुर मुख्यालय में काम करने के दौरान घटित कई दृश्य फिल्म की तरह दिमाग में घूमने लगे। अनेक अनुभवों में से एक आपसे साझा कर रहा हूं।

वहां काम करने के दौरान सिटी एडिटिंग डेस्क पर भी लगाया गया। तब वहां प्रदेश के सुविख्यात पत्रकार बृजेश जी शर्मा व विश्वास कुमार जी शर्मा भी विशेष संवाददाता के रूप में काम करते थे। वे सचिवालय और विधानसभा की रिपोर्टिंग किया करते थे। स्वाभाविक रूप से उनकी खबरें बहुत महत्वपूर्ण हुआ करती थीं। कहने की जरूरत नहीं है कि इतने वरिष्ठ पत्रकारों की खबर सुगठित होती थी। उसमें संपादन की गुंजाइश नहीं हुआ  करती थी। मगर मजबूरी ये होती थी कि पेज पर स्थान कम होने के कारण उनमें गैर जरूरी कंटेंट काटना ही होता था। इतने वरिष्ठ पत्रकार, जो कि दैनिक भास्कर के राजस्थान में आने से पहले ही स्थापित थे और कम से कम मेरे जैसे पत्रकारों के लिए आइकन थे, उनकी खबर में कांट-छांट करने में हाथ कांपते थे। एक-दो बार मैंने उनके पास जा कर बहुत झिझकते हुए पूछा कि क्या मैं खबर के ये अंश हटा सकता हूं, इस पर वे जवाब देते थे कि हमने खबर दे दी, अब आप जानो कि उसका क्या हश्र करना है, लगाना भी है या नहीं और कितनी कांट-छांट करनी है, ये आपका लुकआउट है। हम खबर छपने के बाद शिकायत करने वाले नहीं हैं। कई बार तो ऐसा हुआ कि चार कॉलम की खबर कट कर दो कॉलम या मात्र सिंगल कॉलम हो गई। एक जूनियर जर्नलिस्ट का इस प्रकार सीनियर जर्नलिस्ट की खबर के साथ छेड़छाड़ करने पर भी सीनियर का प्रतिक्रिया न देने का क्या तात्पर्य है, यह सवाल करने पर वे कहते थे कि जूनियर-सीनियर का जमाना गया। हमें तो सिर्फ नौकरी करनी है और तनख्वाह उठानी है, हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जो खबर हमने दी, वह किस रूप में छपी है। वे कहते थे कि खबर में काट-छांट करना आपकी मजबूरी है, इसे हम भलीभांति समझते हैं। आप बेहिचक अपनी कलम चलाइये।

पत्रकारिता में बदले माहौल में वरिष्ठ पत्रकारों की क्या दुर्गति हुई है, इसका मुझे साक्षात अहसास हो गया। वस्तुत: पत्रकारिता में कारपोरेट कल्चर आने के बाद गुरू-शिष्य, जूनियर-सीनियर की रेखा समाप्त हो चुकी है। सीनियर्स ने भी आजीविका के लिए आत्मसम्मान को ताक पर रख दिया है। हालांकि इसके पीछे तर्क ये दिया जाता है कि प्रबंधन योग्यता को देखता है, उसे सीनियरटी से कोई मतलब नहीं। जूनियर भी अधिक योग्य हो सकता है, उसे आगे आने का मौका मिलना चाहिए। हालांकि यह तर्क तब मेरे दिमाग में नहीं बैठा, मगर बाद में समझ में आ गया कि वक्त के साथ बदले सिनेरियो में हम कुछ नहीं कर सकते। आज देखता हूं कि दस साल पहले जो बिलकुल न्यूकमर या जूनियर थे, आज वे योग्यता, परफोरमेंस अथवा चापलूसी व लाइजनिंग के दम पर बड़े-बड़े पदों पर पहुंच चुके हैं। 

-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

खबर में संक्षिप्तिकरण के मास्टर थे स्वर्गीय श्री श्याम सुंदर शर्मा


हाल ही प्रदेश के जाने-माने पत्रकार श्री श्याम सुंदर शर्मा का निधन हो गया। मूलत: बीकानेर निवासी श्री शर्मा ने बीकानेर में तो लंबे समय तक पत्रकारिता की ही, दैनिक भास्कर के जयपुर संस्करण में काफी समय तक काम किया। वे अलवर संस्करण के स्थानीय संपादक भी रहे। 

संपादक शब्द के सीधे-सीधे मायने हैं, जो संपादन करता है। सारे संपादक यही करते हैं, लेकिन संपादन की बारीक पराकाष्ठा के दर्शन मैंने उनमें किए। हालांकि वे मुझ से बहुत अधिक सीनियर नहीं थे, मगर जब मेरा तबादला जयपुर हुआ तो मुझे उनके साथ राजस्थान पेज पर काम करने का सौभाग्य मिला। जब तक मैं अजमेर में रहा, मुझे भ्रम था कि संपादन में मैं पूर्णत: पारंगत हूं, मगर जयपुर में श्री शर्मा के साथ काम करने से अहसास हुआ कि संपादन के बारे में मैं जितना जानता हूं, उससे भी कहीं ज्यादा सीखना बाकी है। वस्तुत: संपादन में संक्षिप्तिकरण की विधा मैंने उनसे सीखी। किसी खबर को कितना कम से कम शब्दों में लिखा जा सकता है कि उसका कंटेंट भी प्रभावित न हो, मैंने यह उनसे जाना। 

असल में होता ये था कि राजस्थान पेज पर संपादक की ओर से जितनी खबरें असाइन की जाती थीं, उन्हें लगाना संभव ही नहीं था, चूंकि विज्ञापन भी पर्याप्त मात्रा में हुआ करते थे। दिलचस्प बात ये है कि विज्ञापन युक्त पेज की डमी ऐन वक्त पर मिलती थी और सीमित समय में असाइन्ड खबरें उस पर लगानी होती थीं। स्वाभाविक रूप से खबरों का संक्षिप्तिकरण जरूरी हो जाता था, वह भी फटाफट। नियत समय पर एडीशन जारी करने  के लिए बहुत ही तेज गति से सारी खबरें पूरी पढ़ कर उनको संक्षिप्त करना होता था। यदि खबरों को पूरा न पढ़ते तो संक्षिप्तिकरण के दौरान आवश्यक कंटेंट कट जाने का खतरा रहता था। खबर में से गैर जरूरी कंटेंट, अनावश्यक वाक्य व फालतू शब्द काटना वाकई कठिन, मगर दिलचस्प था। एक चुनौती सी थी। बेशक एक से एक बढ़ कर निष्णात संपादक हैं पत्रकार जगत में, मगर मैंने संक्षिप्तिकरण की विधा के जो दर्शन श्री शर्मा में किए, वह अन्य किसी में नजर नहीं आए। उन से मिल कर लगा कि अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। मैने जल्द ही काम समझ लिया और उनकी ही इंचार्जशिप में स्वंतत्र रूप से करना आरंभ कर दिया। वे मुझ से बहुत प्रसन्न थे। स्थिति ये हो गई कि सारा का सारा काम मैं अकेले ही करने लगा गया। इस पर उन्होंने कहा कि आपने तो मुझे निठल्ला ही कर दिया है। जब मैने भास्कर से इस्तीफा दिया, तो उनकी प्रतिक्रिया ये थी कि आपने तो मुझे आलसी बना दिया, मेरी आदत खराब कर दी, आपके जाने के बाद अब मुझे फिर से लग कर काम करना पड़ेगा। यह मेरे लिए बहुत सुखद कॉम्प्लीमेंट था। कुछ इसी प्रकार का कॉम्प्लीमेंट एक बार दैनिक न्याय के भूतपूर्व प्रधान संपादक स्वर्गीय श्री विश्वदेह शर्मा ने भी दिया कि तुम इतना डूब कर काम करते हो कि तुम्हारा सीनियर निठल्ला हो जाता है।

खैर, हालांकि श्याम जी के साथ मैने कोई ज्यादा समय तक काम नहीं किया, क्योंकि बीच में सिटी के पेजों पर भी लगया गया, मगर उनके साथ रह कर जो कुछ नया सीखा, वह बहुत सुखद रहा। खबर में संक्षिप्तिकरण की बारीक विधा, जो मैंने उनसे सीखी, उसका ऋण कभी नहीं चुका पाऊंगा। अब तो वे इस फानी दुनिया में भी नहीं रहे। यदि उस विधा को नए पत्रकारों को सिखाने का कभी मौका मिला तो समझूंगा कि वह ऋण मैंने चुका दिया है। कभी अवसर मिला तो किसी अखबार की कोई खबर उठा कर उसे संक्षिप्त करने का डेमो जरूर प्रस्तुत करूंगा। 

यह तो हुई संपादन की बात। अब जरा उनके व्यक्तित्व के बारे में। वे सुसंस्कृत ब्राह्मण परिवार से थे। अत्यंत सहज, सरल, मिलनसार, कोमल हृदय, विद्वान और मर्यादित। इतने सारे गुण एक साथ किसी व्यक्ति में होना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर हैं। ऐसे पारंगत संपादक व चुंबकीय व्यक्तित्व को मेरा प्रणाम, अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।

बीकानेर से प्रकाशित थार एक्सप्रेस में उनके बारे जानकारी छपी है, साझा किए देता हूं।

बीकानेर के वरिष्ठ पत्रकार श्याम शर्मा का कोरोना से जयपुर में निधन हो गया। उनकी पुत्री ने बताया कि वे पिछले कुछ दिन से कोरोना से पीडि़त थे और जयपुर के अस्पताल में भर्ती थे। पिछले कुछ महीनों से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के कार्यालय में कार्यरत थे। बीकानेर में दोनों बड़े समाचार पत्रों की  शुरुआत के समय साथ थे। चार दशक पूर्व राजस्थान पत्रिका से अपना कैरियर प्रारम्भ करके श्याम शर्मा तीन वर्ष पूर्व  ही दैनिक भास्कर से रिटायर होकर बीकानेर आ गए थे। बीकानेर आने के बाद पुन: पंजाब केसरी से जुड़ गए थे। कुछ माह बाद ही मुख्यमंत्री के कार्यालय में जनसंपर्क का कार्य शुरू किया था। उन्होंने पत्रकारिता में रहते हुए राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी, दैनिक नवज्योति, दैनिक भास्कर व बीकानेर से प्रकाशित एक सांध्य दैनिक  में काम किया था। बीकानेर में जार के अध्यक्ष पद पर रह कर पत्रकारों को एकजुट करने का प्रयास किया। पिछले वर्ष  में  जर्नलिस्ट एसोसिएशन ऑफ राजस्थान (जार) को पुनस्र्थापित करने में बड़ा योगदान रहा। श्याम शर्मा ने पिछले साल संपन्न बीकानेर प्रेस क्लब के चुनाव में भी महत्ती भूमिका निभाई थी।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2020

जिसका राज, उसी के पूत बनिये, खुश रहेंगे


बुद्धिजीवियों में कबीर व उनके पुत्र कमाल का एक प्रसंग खूब चर्चा में रहा है। पहले उस पर बात करते हैं कि वह क्या था और फिर उसके निहितार्थ पर गुफ्तगू करेंगे।

एक बार कबीर व उनके पुत्र कमाल एक चक्की के पास बैठे थे। संसार पर बातचीति कर रहे थे। कबीर ने जो कहा, वह इन दो पंक्तियों में है:-

चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय,

दो पाटन के बीच में साबुत बचा कोय।

हो ये रहा था कि चक्की के दो पाटों के बीच गेहूं के जो दाने आ रहे थे, पिस कर आटा हो रहे थे। असल में वे यह संदेश देना चाह रहे थे, जिस प्रकार चक्की के दो पाटों के बीच गेहूं साबुत नहीं बचता, वैसे ही आसमान व धरती नामक दो पाटों के बीच जिंदगियां नष्ट हो रही हैं। संसार चूंकि क्षणभंगुर है, इस कारण हर कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा है। इसी पर वे अफसोस जता रहे थे। 

इस पर कमाल ने पलट कर जवाब दिया:-

चलती चक्की देख कर दियो कमाल हंसाय,

कील सहारे जो रहे, सो साबुत बच जाए।

अर्थात चक्की की कील के सहारे जमा हुए गेहूं के दानों का कुछ नहीं बिगड़ रहा था। वस्तुत: वे यह कहना चाह रहे थे कि भले ही दो पाटों के बीच कोई नहीं बच पाता, मगर जो कील का सहारा ले लेता है, वह बच जाता है।  उनका इशारा भगवान की ओर था कि जो भी उनका आश्रय ले लेता है, वह सुरक्षित रहता है। हालांकि मोटे तौर पर उनकी बात में भी त्रुटि है, क्योंकि भगवान का आश्रय न लेने वाला भी मर रहा है और आश्रय लेने वाला भी मृत्यु को उपलब्ध हो रहा है। मगर गूढ़ अर्थ ये है कि जो भगवान का आश्रय नहीं लेता, वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ा रहता है, जबकि ईश्वर का सहारा लेने वाले का कल्याण हो जाता है, यानि मोक्ष को हासिल हो जाता है।

आश्रय का जिक्र आया तो एक प्रसंग याद आ गया। एक बार भगवान श्रीकृष्ण भोजन के बैठे थे। पत्नी रुक्मणी पंखा कर रही थी। भगवान भोजन का पहला ग्रास मुंह के पास लाए और अचानक वह ग्रास थाली में रख कर महल के मुख्य द्वार की ओर दौड़े। कुछ देर तक वे बाहर देखते रहे। फिर वापस आ गए और भोजन शुरू कर दिया। रुक्मणी ने सवाल किया कि स्वामी, आपको क्या हुआ था? इस पर श्रीकृष्ण ने जवाब दिया कि असल में मेरा एक भक्त दुश्मनों से घिर गया था। वे उस पर पत्थर फैंक रहे थे। भक्त अपने आपको असहाय पा कर मुझे पुकार रहा था। मेरा भक्त कष्ट में हो और मुझे पुकारे, मेरा सबसे पहला कर्तव्य ये होता है कि मैं उसको बचाऊं। इसी कारण मैं भागा। मगर कुछ देर बाद जब देखा कि मेरे भक्त ने खुद भी पत्थर उठा लिया है और वह दुश्मनों का मुकाबला कर रहा है, तो मेरी मदद की  जरूरत ही नहीं थी, इस कारण मैं लौट आया। 

इस प्रसंग से भी यही अर्थ निकलता है कि जब तक हमारे भीतर अहम भाव होता है और हम सोचते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह हम कर रहे हैं, तब तक भगवान हमारी मदद को नहीं आता। जैसे ही हम सब कुछ उस पर छोड़ देते हैं, तो सारी जिम्मेदारी भगवान अपने ऊपर ले लेता है। 

कुछ इसी आपने एक उक्ति सुनी होगी-

जांको राखे साइयां, मार सके न कोय।

बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय।

अर्थ यही है कि ईश्वर की शरण में रहने वाले का कुछ नहीं बिगड़ता। 

यह तो हुई आध्यात्मिक दृष्टिकोण, मगर भौतिक जीवन में भी यह फिट बैठता है कि जो भी सत्ता के साथ रहता है, वही सुखी रहता है। जिसने बॉस इज आल्वेज राइट की सूत्र अपना लिया, वह चैन के साथ नौकरी करता है, जबकि तर्क व प्रतिवाद करने वाला हर वक्त तकलीफ में रहता है। 

आपने ये भी सुना होगा कि जिसकी खाओ बाजरी, उसी की बजाओ हाजिरी।

मेरे एक मित्र सता के साथ रहने वालों को राजपूत की संज्ञा देते हैं। असल में राजपूत एक जाति-समुदाय है, जिसे बहादुर व दिलेर कौम माना जाता है, उनकी बहादुरियों की कहानियां इतिहास में भरी पड़ी हैं, विशेष रूप से राजस्थान के संदर्भ में, जिसे राजपूताना भी कहा जाता है। कदाचित यह शब्द राजपतों को राजघराने के वंशज बताने के लिए बना हो। मगर उनका प्रयोजन समुदाय से नहीं, शब्द मात्र से है। इसका अर्थ वे निकालते हैं कि जिसका राज, उसी के पूत बन जाओ, कभी दुखी नहीं रहोगे। आपने व्यवहार में भी देखा होगा कि अधिसंख्य बड़े व्यवसायी सत्ता के साथ रहते हैं। उन्हें इससे कोई प्रयोजन नहीं कि सत्ता किस विचारधारा की है। उन्हें तो अपने व्यवसाय को बढ़ाने से मतलब होता है। इसी कारण किसी राजनीतिक मतभेद में पड़े बिना हर सरकार के साथ खड़े हो जाते हैं।

इस श्रेणी के लोगों के बारे में एक प्रसंग और ख्याल में आता है। एक दिन बादशाह अकबर और बीरबल महल के बागों में सैर कर रहे थे। वे बीरबल से बोले, देखो यह बैंगन, कितनी सुंदर लग रहे हैं। इनकी सब्जी कितनी स्वादिष्ट लगती है। बीरबल, मुझे बैंगन बहुत पसंद हैं। हां महाराज, आप सत्य कहते हैं। यह बैंगन है ही ऐसी सब्जी, जो न सिर्फ देखने में बल्कि खाने में भी इसका कोई मुकाबला नहीं है। भगवान ने भी इसीलिए इसके सिर पर ताज बनाया है। कुछ दिनों बाद अकबर और बीरबल उसी बाग में घूम रहे थे। बादशाह अकबर को कुछ याद आया और मुस्कुराते हुए बोले, बीरबल देखो यह बैंगन कितना भद्दा और बदसूरत है और यह खाने में भी बहुत बेस्वाद है। हां हुजूरे, आप सही कह रहे हैें, बीरबल बोला। इसीलिए इसका नाम बे-गुण है। यह सुन कर बादशाह अकबर को गुस्सा आ गया। उन्होंने झल्लाते हुए कहा, क्या मतलब है बीरबल? मैं जो भी बात कहता हूें, तुम उसे ही ठीक बताते हो। बीरबल ने कहा, हुजूर, मैं आपका नौकर हूें, बैंगन का नहीं।

खुद्दार लोगों यह बात गले नहीं उतरेगी, मगर सच्चाई ये ही है हवा का रुख जिस ओर हो, उसी ओर चलिए, कभी तकलीफ में नहीं रहेंगे। वक्त के खिलाफ चलने वाला सदैव कष्ट ही पाता है।

हालांकि मैं स्वभावत: इस फैक्ट के विपरीत रहा हूं, सदा व्यवस्था में व्याप्त अव्यवस्था के विपरीत बोला, ऐसे में बहुत तकलीफ में रहा। इस कारण इस फैक्ट को मेरा अनुभव सिद्ध तथ्य मानिये।

-तेजवानी गिरधर

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