शनिवार, 29 मई 2021

कोरोना ने किया पूरी दुनिया को जैन सिद्धांतों पर चलने को मजबूर


चौबीसवें तीर्थंकर भगवाान महावीर के काल में जैन धर्म अपने चरमोत्कर्ष पर था। जैन धर्मावलम्बी भी अनगिनत थे। मगर अकेले कोरोना वायरस ने पूरी दुनिया को जैन धर्म के सिद्धांतों पर चलने को मजबूर कर दिया है।

एक समय वह भी था, जब हम जैन धर्म के श्वेतांबर पंथीय मुनि, श्रावक और श्राविकाओं को देखा करते थे कि वे अपने मुंह पर सफेद पट्टी बांधते हैं, तो कौतुहल होता था, मगर आज जब पूरी दुनिया मुंह पर पट्टी बांधने को मजबूर है तो इसे स्वीकार करना पड़ता है कि करीब ढ़ाई हजार साल पहले मुंह पट्टी अर्थात मास्क का इजाद करने वाले इस धर्म की सोच कितनी गहरी थी। आज जब कोरोना महामारी ने पूरे विश्व को झकझोड़ कर रख दिया है तो अहसास होता है जैन दर्शन प्रांसगिक ही नहीं, बल्कि आवश्यक हो गया है।

ज्ञातव्य है कि मुख पट्टिका लगाने की परंपरा भगवान महावीर स्वामी ने शुरू की थी। इसका उल्लेख विभिन्न जैन आगमों में मिलता है। श्वेतांबर जैन संप्रदाय के स्थानकवासी, अमूर्तिपूजक और तेरापंथ में मुंह पर पट्टी बांधने की परंपरा है। यह 4 इंच चौड़ी व 7 इंच लंबी होती है। इसे कपड़े को चार तह करके बनाया जाता है। इसलिए इसमें कीटाणु जाने का खतरा बिल्कुल नहीं होता। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में मास्क के बारे में वैज्ञानिक मान्यता है कि वायरस को रोकने के लिए कम से कम थ्री लेयर मास्क जरूरी है।


वस्तुत: जैन धर्म में मुंह पट्टी, जिसे हम आज मास्क के रूप में जानते हैं, उसका उपयोग सांस की गरमाहट से सूक्ष्मतम जीवों की हिंसा को रोकने और वाणी पर संयम के लिए किया जाता है। आज हम जानलेवा सूक्ष्मतम जीवाणु अर्थात कोरोना वायरस से बचने के लिए इसका उपयोग करने लगे हैं। हालत ये है कि कोरोना वायरस से बचने के लिए अब तक कोई दवाई का इजाद नहीं होने के कारण यह कहा जाने लगा है कि जब तक दवाई नहीं, तब तक मास्क ही दवाई है। हालांकि कोरोना से बचने के लिए वैक्सीन की खोज की जा चुकी है, मगर वह केवल रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए है, ताकि हमारा शरीर से उससे लड़ सके। कोरोना से ग्रस्त होने के बाद उससे मुक्ति के लिए परफैक्ट दवाई अभी तक नहीं खोजी जा सकी है। ऐसे में मुंह पट्टी बनाम मास्क ही कोरोना से जंग लडऩे के लिए सबसे बड़ा शस्त्र माना जा रहा है।  कोरोना ने पूरी दुनिया को मुंह पट्टी बांधने को मजबूर कर दिया है। राजस्थान में तो मास्क पहनना कानूनन जरूरी कर दिया है। अमरीका में वैक्सीन के दो डोज लगा चुके लोगों को मास्क पहनने से छूट दे दी गई है, मगर उसके पीछे वहां के स्थानीय राजनीतिक कारण हैं।

अकेले मुंह पट्टी ही नहीं, बल्कि जैन धर्म के संघेटा, अलगाव, सम्यक् एकांत सहित शाकाहार जैसे सिद्धांतों को भी अपनाने को हम मजबूर हैं।

अब बात करते हैं, कोराना से बचने के लिए किए जा रहे दूसरे उपाय की। विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइड लाइन के अनुसार कोरोना से बचने के लिए सोशियल डिस्टेंसिंग को अपनाना जरूरी है। वैसे यह शब्द उचित नहीं है, क्योंकि सामाजिक दूरी नहीं बल्कि शारीरिक दूरी की जरूरत है, अर्थात फिजिकल डिस्टेंसिंग। दो व्यक्तियों के बीच कम से कम दो गज की दूरी होना जरूरी है। वजह ये कि खांसने या सांस लेने से कोरोना एक से दूसरे में फैलता है, इसलिए एक दूसरे से दूर रहने की हिदायत दी गई है। जैन धर्म में इसी सोशल डिस्टेंसिंग को संघेटा कहा जाता है। मास्क के अतिरिक्त पूरा जोर इसी पर दिया जा रहा है।

तीसरा जैन सिद्धांत है सम्यक एकांत, जिसका अंग्रेजी में समानार्थी शब्द है आइसोलेशन। कोरोना के संक्रमण के डर से डब्ल्यूएचओ की ओर से जारी आइसोलेशन के नियमों को सारी दुनिया मान रही है। आइसोलेशन की पालना की जाए तो कोरोना संक्रमण का खतरा बिलकुल नहीं रहेगा।

जैन धर्म के चौथे सिद्धांत अलगाव को वर्तमान में क्वारेंटाइन के नाम से अपनाया जा रहा है। वस्तुत: जैन धर्म में ध्यान लगाने के लिए अलगाव के सिद्धांत का भी पालन किया जाता है। यदि किसी व्यक्ति में कोरोना के सामान्य लक्षण दिखते हैं, तो उसे 14 दिन के लिए क्वारेंटाइन कर दिया जाता है। ज्ञातव्य है कोरोना गाइड लाइन की अवहेलना करने वालों को तुरंत क्वारेंटाइन सेंटर्स भेजा जाता है, भले ही उनमें कोरोना के सामान्य लक्षण न हों। उन सेंटर्स में जांच के बाद नेगेटिव पाए जाने पर ही छोड़ा जाता है।

सर्वविदित है कि अहिंसा के मूल मंत्र को मानने वाले जैन धर्मावलम्बी पूर्णत: शाकाहार का पालन करते हैं। यहां तक कि जमीन के भीतर उगने वाली सब्जियों का भी उपयोग नहीं करते। वर्तमान में कोरोना के डर से शाकाहार अपनाने पर जोर दिया जा रहा है। कोरोना की पृष्ठभूमि में जाएं तो इस वायरस की शुरुआत चीन के वुहान शहर से हुई। वहां सी फूड का मार्केट है। बताया जाता है कि जानवरों व पक्षियों के इस मार्केट से ही कोरोना वायरस पनपा है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि अन्य वायरल बीमारियों बर्ड फ्लू व स्वाइन फ्लू की उत्पत्ति भी अन्य जीवों से फैलती है। 

कुल मिला कर कोरोना ने पूरी दुनिया को जैन धर्म के सिद्धांतों पर चलने को मजबूर कर दिया है। इससे साबित होता है कि जैन धर्म के सिद्धांतों में कितनी दूर दृष्टि रही है। इन सिद्धातों की स्थापना उस काल में हुई, जब विज्ञान बिलकुल भी उन्नत नहीं था।


-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 20 मई 2021

मैंने त्रिशूल नहीं बांटे, बच्चों के हाथ में दिए हैं-माउस और की-बोर्ड

राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के भूतपूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. पी. सी. व्यास के इस जुमले की गूंज दिल्ली तक सुनाई दी थी


यह शीर्षक है राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के भूतपूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय डॉ. पी. सी. व्यास के उस बेबाक साक्षात्कार का, जो दैनिक भास्कर के अजमेर लाइव पेज पर जवाब-तलब कॉलम के अंतर्गत 20 जनवरी 2003 को प्रकाशित हुआ था। ज्ञातव्य है कि हाल ही उनका निधन हो गया। जैसे ही  यह खबर सुनी तो यकायक लगा कि वे आज भी मेरे सामने साक्षात बैठे हैं। साथ ही वह साक्षात्कार भी फिल्म की भांति मेरी आंखों के आगे तैरने लगा। जवाब-तलब कॉलम में मैंने अजमेर की अनेक हस्तियों के साक्षात्कार लिए, मगर इस साक्षात्कार की गूंज दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में सुनाई दी थी।

डॉ. पी. सी. व्यास

वस्तुत: साक्षात्कार में सवाल इतने तीखे थे कि आज जब 18 साल बाद उसको पढ़ा तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ कि मेरे जैसे सदाशयी पत्रकार ने नश्तर की तरह चुभते निर्मम सवाल कैसे कर डाले थे? एक तरह से इस साक्षात्कार में व्यास जी का पूरा व्यक्तित्व व कृतित्व उभर कर आ गया था। सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। राजनीतिक भी, गैर राजनीतिक भी। यह कितना तीखा था, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि उसका आरंभ ही इन शब्दों से हुआ था- कम्प्यूटर युग में नवाचार के जरिये स्कूली शिक्षा को नए आयाम देकर बोर्ड अध्यक्ष डॉ. पी. सी. व्यास ने जितनी शोहरत पाई, कमोबेश उतनी आलोचना के शिकार हुए, अपनी कांग्रेसी कार्यशैली के कारण। कभी वे प्रगतिशील व दूरदृष्टा शिक्षाविद् की झलक देते हैं तो कभी उनके भीतर मौजूद घाघ राजनीतिज्ञ छिपाए नहीं छिपता। इन दो सर्वथा विपरीत व्यक्तित्वों के बीच पैंडुलम बने डॉ. व्यास अपनी हरकतों से सदैव सुर्खियों में बने रहते हैं।

बात आगे बढ़ाने से पहले यह बताना उचित समझूंगा कि दैनिक भास्कर में जवाब-तलब कॉलम तत्कालीन स्थानीय संपादक व सुप्रसिद्ध पत्रकार श्री अनिल लोढ़ा ने आरंभ करवाया था। उन्होंने स्थानीय संपादक रहते स्थानीय संस्करण में पत्रकारिता को अनेक नए आयाम दिए। असल में वर्षों पहले वे जवाब-तलब शीर्षक के नाम से एक साप्ताहिक निकाला करते थे। बाद में दैनिक समाचार पत्रों में काम करने के कारण वह अखबार बंद हो गया। जैसा उसका शीर्षक था, वैसा ही उसका मिजाज था। वे चाहते थे उसी मिजाज का यह कॉलम बने और शहर की टॉप की हस्तियों से तीखे अंदाज में सवाल-जवाब किए जाएं।

खैर, डॉ. व्यास के साक्षात्कार की बात चल रही थी। छपने के बाद वह उनको इतना भाया कि कांग्रेस हाईकमान और दिल्ली व जयपुर के राजनीतिक गलियारों तक प्रचारित किया, हालांकि उसके सारे सवाल उनको बुरी तरह से छीलने वाले थे। स्वाभाविक रूप से भास्कर की इतनी प्रतियां जुटाना संभव नहीं था, इस कारण उन्होंने हजारों फॉटो कॉपियां निकलवा कर उन्हें बंटवाया था। वस्तुत: शीर्षक इतना मारक था कि वह जहां कांग्रेस हाईकमान को बहुत अच्छा लगा, वहीं हिंदूवादियों पर सीधा हमला कर रहा था। यह वह दौर था, जब विश्व हिंदू परिषद के दिग्गज नेता श्री प्रवीण भाई तोगडिय़ा देशभर में त्रिशूल बांटने के लिए निकले थे और उसका आगाज उन्होंने राजस्थान से किया था। अजमेर में त्रिशूल वितरण कार्यक्रम के बाद जयपुर जाते समय रास्ते में तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था।  

स्पष्ट है कि शीर्षक के जरिए उन्होंने जो कटाक्ष किया था, वह एक तरह से विहिप की मुहिम पर कड़ा प्रहार था। कांग्रेस पृष्ठभूमि का होने के कारण ही उन्हें बोर्ड अध्यक्ष बनाया गया और उसी मानसिकता व विचारधारा को पुष्ट करने के लिए उन्होंने यह जुमला गढ़ा था।

खैर, बाद में वे जब भी अजमेर आते थे, तो मुझे जरूर याद करते थे और मिलने पर यही कहते थे कि आपने तो मुझे दिल्ली तक लोकप्रिय कर दिया।

उनकी एक आदत, जो मैंने नोट की, वो यह कि वे बातचीत के दौरान कई बार सवालियां अंदाज में आंखों की पुतलियों को तब तक ऊपर-नीचे किया करते थे, जब तक कि उनके सवाल का जवाब न दे दिया जाए। यानि कि उनकी बात पर प्रतिक्रिया न दे दी जाए। उनके निकटस्थ रहे लोगों ने यह जरूर पाया होगा।

प्रयास रहेगा कि उनका पूरा साक्षात्कार साझा करूं, ताकि आप भी समझ सकें कि एक जुमले की खातिर वे कितने धारदार सवाल झेलने को राजी थे। मैंने पूछा भी कि क्या आपका जुमला साक्षात्कार का शीर्षक बना दूं, तो वे बोले यही तो मुझे संदेश देना है।

ज्ञातव्य है कि हाल ही उनका बेंगलूरु में निधन हो गया। वे 85 वर्ष के थे। डॉ. व्यास बोर्ड में 1999 से 2004 तक अध्यक्ष रहे और राजीव गांधी स्टडी सर्किल की स्थापना के साथ बोर्ड में कई नए प्रयोग किए। उनमें  प्रमुख रूप से प्रदेश के विद्यालयों में कंप्यूटर शिक्षा का आरंभ करना रहा, जिस पर विवाद भी हुआ। वे देश के सभी राज्यों के शिक्षा बोर्डों के समूह कोब्से के अध्यक्ष भी रहे थे।


-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 15 मई 2021

सवाये का क्या महत्व है?


आजकल या तो दूध थैलियों में आता है या दूध वाला नाप कर भी देता है तो पूरा उतना ही, जितना उसे कहा जाता है। एक समय था, जब दूध वाले से एक या दो किलो, जो भी उसे कहा जाता था, तो वह उतना दूध देने के बाद ऊपर से थोड़ा अलग से दूध दिया करता था। यह लोगों की आदत में शुमार था। हो सकता है, गांवों में इसका चलन अब भी हो। इतना ही नहीं, आम तौर पर हम देखते हैं कि सब्जी वाला भी कहे गए तोल से कुछ ज्यादा, भले ही दस-बीस ग्राम ही सही, मगर देता है। हमारी भी यही अपेक्षा होती है कि सामान वाला पलड़ा थोड़ा भारी रहे। इतना ही नहीं सब्जी के साथ ऊपर से फ्री में थोड़ा धनिया या मिर्ची देने का भी चलन है। इसे सवाया कहा जाता है। असल में इसका मतलब इससे नहीं है कि हम मांगी गई वस्तु से कुछ ज्यादा की अपेक्षा करते हैं। अपितु इस का मतलब सवाये है, जिसे कि शुभ माना जाता है।

आप देखिए न कि हम यदि भगवान को प्रसाद चढ़ाने का संकल्प लेते हैं या प्रसाद चढ़ाते हैं तो तब भी सवाये का ख्याल रखते हैं। अब तो पचीस पैसे अर्थात चवन्नी चलन से बाहर हो गई, मगर किसी जमाने में सवा रुपया या सवाल ग्यारह रुपए चढ़ाए जाते थे। जब चवन्नी बंद हो गई तो भी राउंड फिगर से एक रुपया ज्यादा का चलन आया। ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन। लेकिन चूंकि कई बार एक रुपए का सिक्का जेब में नहीं होता है, इस कारण गिफ्ट वाले ऐसे लिफाफे आ गए हैं, जिनमें एक रुपया पहले से चिपका हुआ होता है। मकसद सिर्फ ये है यदि हम उसमें सौ रुपये या दो सौ रुपए डालें तो एक रुपया स्वत: जुड़ जाए। यह भी सवाये का ही रूप है। अर्थात हम पूर्णांक से एक अंक ज्यादा को प्राथमिकता देते हैं।

वस्तुत: सनातन धर्म में सवा (एक और एक चौथाई) का महत्व है और इसी क्रम में सवा, ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन को शुभ माना जाता है। अर्थात् सबसे छोटी प्राकृत संख्या जो शुभ मानी जाती है, वह 11 ही है। इसी से जुड़े तथ्य रोचक हैं। जैसे अपोलो 11, चन्द्रमा पर भेजा गया पहला मानवयुक्त अन्तरिक्ष यान था। बहुत से खेलों में 11 खिलाड़ी मैदान पर उतरते हैं, जैसे क्रिकेट, फुटबॉल आदि।

शायद आपकी जानकारी में हो कि ज्योतिषी कोई भी काम करते वक्त  सवाये की सलाह देते हैं। जैसे नौ, दस, ग्यारह बजे, या जो भी, वे कहते हैं कि पूर्णांक की बजाय कुछ ज्यादा मिनट होने पर ही काम की शुरुआत करनी चाहिए। वे पौने से बचने की राय देते हैं, अर्थात पौ नौ, पौने दस या पौने ग्यारह बजे काम शुरू करने से बचने की कहते हैं, क्योंकि वह पूर्ण से कम है, इस कारण उस वक्त शुरू किए गए काम के पूर्ण होने में संशय हो सकता है। 

कुल मिला कर यह स्थापित तथ्य है कि हमारे जीवन में सवाये का बड़ा महत्व है। लेकिन तथ्य स्थापित होने के पीछे क्या कारण है, इसके बारे में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। जहां तक मेरी समझ है, इसके पीछे कहीं न कहीं अध्यात्म है। दर्शन को गहराई जानने वाले कहते हैं कि पूर्ण और शून्य  में कोई अंतर नहीं। दोनों एक ही सिक्के के पहलु हैं। जैसे ही पूर्णता आती है,  उसी के साथ शून्य आ कर खड़ा हो जाता है। कदाचित इसीलिए पूर्णांक की बजाय उसमें सवाया जोड़ा जाता है।


-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 14 मई 2021

अफसोस आलेख पर नहीं, टिप्पणी करने वालों पर है


हाल ही मेरे एक ब्लॉग को लेकर फेसबुक पर कई प्रतिक्रियाएं आईं। कुछ तो बेहद आपत्तिजनक व अतार्किक थीं। ब्लॉग का शीर्षक था - हिंदू धर्म में छिपकली लक्ष्मी का प्रतीक तो इस्लाम में दुश्मन नंबर वन। इसमें हिंदू व मुस्लिम धर्म में जो मान्यताएं है, उसको तथ्यात्मक तरीके से बताया गया है। इसमें मैने अपनी ओर से कुछ भी नहीं लिखा। अर्थात उसमें मेरे कोई भी विचार नहीं हैं। सिर्फ मान्यताओं का उल्लेख है। महज जानकारी है। बेशक एक ही विषय पर भिन्न धर्मों में भिन्न मान्यताओं का जिक्र जरूर है, जिससे कुछ लोगों को लग सकता है कि इसमें तुलना की गई है, मगर सच ये है कि वह तुलनात्मक अध्ययन नहीं है। न तो उसमें किसी मान्यता को सही या अच्छा बताया गया है और न ही किसी मान्यता को गलत या खराब। कहीं भी ये नहीं लिखा है कि हिंदू अच्छा करते हैं व मुस्लिम गलत करते हैं। उसके लिए मैं कोई अथॉरिटी हूं भी नहीं। दोनों मान्यताएं अपनी-अपनी जगह ठीक हो सकती हैं। वैसे भी मान्यता तो मान्यता होती है, आस्था तो आस्था होती है, उसे गलत या सही ठहराया भी नहीं जा सकता। 

बावजूद इसके कुछ सज्जनों ने या तो केवल शीर्षक पढ़ कर, या कुछ विघ्र संतोषी लोगों ने पढऩे के बाद उसके गलत निहितार्थ निकालने की कोशिश की। बहुत आपत्तिजनक, तर्कविहीन व भद्दी टिप्पणियां कीं। जब मैने दिलचस्प जानकारी को साझा करने के लिए कलम उठाई थी तो मेरे दिमाग में हिंदू-मुस्लिम कहीं पर भी नहीं था। हो भी नहीं सकता। मैं केवल दिमागी तौर पर धर्मनिरपेक्ष नहीं, बल्कि मेरे खून में धर्मनिरपेक्षता व्याप्त है। मैं भले ही हिंदू परिवार में जन्म लेने के कारण हिंदू रीति-रिवाजों की पालना करता हूं, जो कि मेरा धर्म भी है, मगर असल में मेरे लिए इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। इस सोच पर मुझे नाज भी है। केवल इतना ही नहीं, अब तक के जीवन में मैने कभी न तो हिंदू-मुस्लिम तरीके से सोचा और न ही ऐसा कोई कृत्य किया।

ऐसे में कुछ लोगों ने पूर्णत: शोधपरक व तथ्यात्मक आलेख को हिंदू-मुस्लिम नजरिये से देखा तो बहुत दुख हुआ। किसी को गलतफहमी हुई होगी तो कुछ ने जानबूझ कर विषय में गंदगी डालने की कोशिश की। चूंकि मेरे विषय में कहीं भी ऐसा विचार नहीं, जो गलतफहमी पैदा करता हो, इस कारण मुझे न तो कोई अफसोस है और न ही स्पष्टीकरण देने की जरूरत है। अभी जो पंक्तियां लिख रहा हूं, वे कोई स्पष्टीकरण नहीं है। यह एक दर्द है, जिसने पंक्तियों का आकार ले लिया है। दर्द ये कि लोग अपने दिमाग का इस्तेमाल किए बिना कैसे टिप्पणियां करते हैं? साथ ही लोग कैसे अपने दिमाग का इस्तेमाल केवल इसीलिए करते हैं कि किस प्रकार किसी विषय को हिंदू-मुस्लिम किया जाए। मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आता है। होना तो यह चाहिए था कि आप मुझे शाबाशी देते कि मैने शोध करके एक जानकारीपूर्ण आलेख लिखा, मगर आपने उलटे मुझे व्यक्तिगत रूप से टारगेट करने की कोशिश की। मेरा विनम्र आग्रह है कि आप एक बार फिर तटस्थ भाव से पूरे आलेख को पढ़ें। किसी के बारे में बिना सोचे-विचारे या बिना उसके बारे में जाने कोई धारणा बनाने या टिप्पणी करने को कत्तई सही नहीं ठहराया जा सकता। अव्वल तो आलेख में ऐसा कुछ नहीं, जैसा आप सोच रहे हैं, दूसरा ये कि आप पहले पता तो करें कि जिसके बारे में आप टिप्पणी कर रहे हैं, उसका पूरा जीवन व पृष्ठभूमि कैसी रही है?

खैर, ताजा वाकये के बाद ऐसा लगता है कि कोई भी पोस्ट सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुत करनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि कुछ जाहिल लोग उसका सत्यानाश कर देंगे। नतीजतन हम जिस विषय को आम जन तक पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, उसका मकसद ही भटक जाएगा। कुछ साल पहले जब मैने फेसबुक अकाउंट खोला था तो कुछ अनुभवी व संभ्रांत महानुभाव ने कहा था कि उन्होंने कहा कि उन्होंने अपना अकाउंट या तो बंद कर रखा है, या फिर बहुत जरूरी या सूचनात्मक पोस्ट ही डाला करते हैं, क्योंकि इस खुले मंच पर कोई भी आ कर गंदगी कर जाता है। आज मुझे उनकी बात अक्षरश: सही दिखाई दे रही है।


-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 11 मई 2021

हिंदू धर्म में छिपकली लक्ष्मी का प्रतीक तो इस्लाम में दुश्मन नंबर वन


यह एक अजीबोगरीब तथ्य है कि छिपकली जहां हिंदू धर्म में लक्ष्मी का प्रतीक मानी जाती है, तो वहीं इस्लाम में उसे इंसान का दुश्मन नंबर वन माना जाता है। विशेष रूप से दीपावली के दिन घर में छिपकली दिखाई दे जाए तो समझा जाता है कि लक्ष्मी आने वाली है। इसके विपरीत हदीस में उसे देखते ही मान डालने का हुक्म है।

आइये, पहले हिंदू मान्यता की बात करते हैं। हिंदू शास्त्रों में प्रचलित शकुन शास्त्र के अनुसार छिपकली का किसी विशेष समय पर दिखना, जमीन पर या शरीर पर गिरना भविष्य की शुभ-अशुभ घटनाओं का संकेत होता है। इसके अलावा छिपकली शरीर के किस खास हिस्से पर गिरी है, इससे भी भविष्य की शुभ-अशुभता जुड़ी होती है। शास्त्रों के अनुसार छिपकली यदि दीपावली की रात घर में दिखाई दे जाए तो इसे लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि उसके आने से वर्षों के लिए वह घर सुख-समृद्धि को प्राप्त कर लेता है। इसीलिए उसे पूजनीय प्राणी माना जाता है। इसका पूजन करने से धन संबंधी समस्याओं का अंत हो जाता है। इसके लिए एक टोटका भी है। आपको घर में दीवार पर छिपकली दिखे तो तुरंत मंदिर में रखा कंकू-चावल ले आएं और इसे दूर से ही छिपकली पर छिड़क दें। ऐसा करते हुए अपने मन की मुराद पूरी हो जाती है। मान्यता ये भी है कि दीपावली के दौरान मरी हुई छिपकली आपके सामने आ जाए तो ये एक अशुभ संकेत माना जाता है। सफाई करते हुए यदि कोई छिपकली या उसका बच्चा मर जाए तो तुरंत उसका संस्कार कर दें। इससे आप हत्या के पाप से बच जाएंगे और मां लक्ष्मी भी नाराज नहीं होगीं। यदि आपको छिपकली का बोलना सुनाई दे तो समझ जाइएगा कि आपको कोई शुभ समाचार सुनाई देने वाला है। छिपकली के विभिन्न अंगों पर गिरने के भिन्न-भिन्न प्रतिफल भी बताए जाते हैं। उस पर चर्चा फिर कभी।

अब बात करत हैं कि इस्लाम छिपकली को किस रूप में देखता है। हदीस में बताया गया है कि जैसे ही घर में छिपकली दिखाई दे तो उसे तुरंत मार डालें। इससे हजारों नेकियां मिलेंगी। अगर पहली बार में नहीं मारा और दुबारा दिखाई देने पर मारा तो कुछ कम नेकी मिलेगी। इसी प्रकार दूसरी बार न मारने व तीसरी बार देखने पर मारा तो और कम नेकी मिलेगी।

इस्लाम के जानकार एक प्रसंग बताते हैं। वो यह कि जब हजरत इब्राहिम अलेहइस्लाम को आग में डाला जा रहा था तो जमीन के जितने भी जीव-जंतु थे वे उनको बचाने के लिए दौड़ पड़े थे, जबकि अकेली छिपकली बचाने की बजाय फूंक मार कर आग को और तेज करने की कोशिश कर रही थी। जो प्राणी हजरत इब्राहिम का दुश्मन हो, वह इंसान का भी दुश्मन ही कहलाएगा।  मान्यता ये भी है कि छिपकली ने शैतान को वादा किया था कि वह इंसान को दुख पहुंचाएगी। छिपकली के खून को नापाक भी बताया गया है।

कुल मिला कर यह तथ्य वाकई अजीबोगरीब व विरोधाभासी है कि अलग- अलग धर्म में छिपकली को भिन्न-भिन्न रूप में देखा जाता है। हिंदू धर्म उसकी पूजा करने की सलाह देता है तो इस्लाम उसे तुरंत मार देने का हुक्म देता है।

-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 10 मई 2021

शव यात्रा देखने को शुभ क्यों माना जाता है?


हमारे यहां लोग शगुन को बहुत महत्व देते हैं। यदि आप घर से कहीं  जा रहे हैं तो सामने पानी से भरा घड़ा सिर पर रख कर लाती महिला, झाड़ू लगाती हरिजन महिला, गाय आदि आने पर शुभ माना जाता है। मान्यता है कि ऐसा होने पर आप जिस काम से जा रहे हैं, उसके पूर्ण होने की संभावना बढ़ जाती है। कई लोग तो शुभ कार्य के लिए घर से बाहर जाते वक्त बाकायदा घड़ा या कलश सिर पर लिए हुए घर की ही किसी महिला को खड़ा कर देते हैं। इसी प्रकार जाते समय मार्ग में सामने से किसी की शव यात्रा आती दिखाई दे तो भी यह पक्के तौर पर माना जाता है कि हम जिस कार्य के लिए निकले हैं, वह जरूर पूर्ण होगा। रुके हुए काम पूरे होंगे। यह एक ऐसी मान्यता है, जो कि आम तौर पर चलन में भी है। लोग शव यात्रा देखने पर हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं। यदि किसी वाहन में हैं तो उससे उतर कर खड़े हो कर हाथ जोड़ते हैं और शव यात्रा के निकल जाने तक रुकते हैं। कदाचित श्रद्धा के भाव से। कई लोग शिव-शिव का उच्चारण करते हैं। इसके साथ ही मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना भी करते हैं। ज्ञातव्य है कि शिव का मतलब होता है मुक्ति, इसलिए शव को देखकर शिव का नाम लेना अच्छा माना जाता है।

यह तो हुई मान्यता की बात, मगर शव यात्रा सामने से आने पर उसे शुभ क्यों माना जाता है, इस बारे में शास्त्रों बहुत पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है। यानि कि यह तथ्य अनुभव के आधार पर स्थापित किया गया है। कुछ जानकार लोग मानते हैं कि शिव शिव का उच्चारण करने और मृत आत्मा की शांति की प्रार्थना करने से वह प्रसन्न होती है और अपने साथ उस प्रणाम करने वाले व्यक्ति के सभी कष्टों, दुखों और अशुभ लक्षणों को अपने साथ ले जाती है।

प्रसंगवश शव यात्रा से जुड़ी यह मान्यता भी ख्याल में आती है कि जब किसी बुजुर्ग का निधन होने पर उसकी शव यात्रा के दौरान उस पर सिक्के उछाले जाते हैं। उन सिक्कों को लोग लूटते हैं या जमीन पर गिर जाने पर उठाते हैं। मान्यता है कि ऐसे सिक्कों को तिजोरी में रखने पर वह सदा भरी रहती है। इसका भी कोई तार्किक आधार मौजूद नहीं है। यह मात्र आस्था है, जो कदाचित अनुभव के आधार पर कायम हुई है।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 6 मई 2021

मूर्ति पर पैसे फैंकना : ऐसे चढ़ाने से तो न चढ़ाएं वो अच्छा


मंदिरों में हमने अक्सर देखा होगा कि लोग चढ़ावे के नाम पर मूर्ति के आगे पैसे फैंकते हैं। विशेष रूप से तब तो यह दृश्य आम होता है, जब लोग रास्ते के मंदिर के सामने अपने वाहन से उतरना नहीं चाहते और बस या कार की खिड़की से ही मंदिर के गेट पर पैसे फैंकते हैं। कुछ पैसे अंदर पहुंच जाते हैं तो कुछ बाहर रह जाते हैं, जिन्हें राह चलते लोग उठा कर चलते बनते हैं।

कभी विचार किया है कि यह कृत्य कितना अशोभनीय और घटिया है। अरे एक भिखारी में यही चाहता है कि कोई उसे पैसे दे तो सम्मान से उसके कटोरे में डाल दे या हाथ में  पकड़ाए। अगर आप उसके कटोरे में दूर से पैसे फैंकगे या उसकी तरफ पैसे उछाल कर देंगे तो उसे बहुत बुरा लगता है। विचार कीजिए कि अगर हमें भी किसी मदद चाहिए और वह हमारी ओर पैसे या रुपए फैंक कर दे तो कैसा महसूस करेंगे। आप यही कहेंगे न कि कितना असभ्य है? मदद देने का ये कैसा तरीका है?

अब विचार कीजिए कि जिसे हम भगवान समझते हैं, सर्वशक्तिमान, वह कैसा महसूस करता होगा? अव्वल तो आपके भगवान को आपके पैसे की तनिक भी जरूरत नहीं है। आपके पास जो कुछ भी है, वह उसी का ही तो दिया हुआ है। वह आपसे लेने की कोई अपेक्षा नहीं करता। उसी का दिया हुआ उसी देकर आप कौन सा गौरव हासिल कर रहे हैं? वह तो आपका भाव है कि आप उसे भेंट दे कर रिझाने की कोशिश करते हैं। चंद रुपए चढ़ा कर उससे कई गुना की अपेक्षा करते हैं। कई बार तो वो भी पहले नहीं, बल्कि काम हो जाने पर अमुक रुपए का प्रसाद चढ़ाने का संकल्प लेते हैं। ये श्रद्धा नहीं, बल्कि सौदा है। सरासर व्यापार जैसा है।

चलो, यह मान भी लिया जाए कि भगवान आपकी भेंट से खुश होता है, मगर यदि आप उसकी ओर उछाल कर पैसा फैंकेंगे तो निश्चित ही उसे बुरा महसूस होता होगा। इससे बेहतर तो ये है कि आप पैसे चढ़ाएं ही नहीं। यदि चढ़ाने की वाकई श्रद्धा है तो या तो भेंट पात्र में डालें या फिर पुजारी के हाथ में दें। वैसे भी वह पैसा भगवान के काम नहीं आता, बल्कि पुजारी की आजीविका चलती है। यह अच्छा है कि पूरे दिन मंदिर में सेवा करने वाले की मदद हो जाती है, मगर उछाल कर इस प्रकार की मदद करना बेहद शर्मनाक है।


-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 3 मई 2021

क्या मोरनी मोर के आंसू से गर्भवती होती है?


बचपन में मैने एक प्रसंग सुना था। वो ये कि मोर मोरनी को रिझाते  वक्त अपने खूबसूरत पंखों को देख कर इठलाता है, लेकिन जैसे ही अपने बदसूरत पैर देखता है तो दुखी हो जाता है। उसकी आंखों से आंसू बहने लगते है। मोरनी तुरंत उसके आंसू पी लेती है और उसी से उसके भीतर प्रजनन की प्रक्रिया होती है।

असल में यह एक अवधारणा है। अनेक कथावाचकों को यह प्रसंग सुनाते हुए मैने देखा है। यह अवधारणा कहां से आई, पता नहीं, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के सिर पर बंधे मोर पंख की गरिमा को और महिमामंडित करने के प्रयास में ऐसी सोच निर्मित हुई होगी। सोच यह भी रही कि चूंकि मोर अन्य प्राणियों की तरह मादा से संसर्ग नहीं करता, इस कारण वह ब्रह्मचारी है। उसकी इसी विशेषता के कारण उसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया।

कुछ अरसा पहले राजस्थान हाईकोर्ट के जज श्री महेश शर्मा ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिन एक अहम फैसले के दौरान इसी अवधारणा का हवाला दिया तो पूरे देश में खूब हो-हल्ला हुआ। उनकी खिल्ली भी उड़ाई गई कि इतना विद्वान व्यक्ति बिना पुख्ता जानकारी के कैसे ऐसी मिथ्या बात कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके दिमाग में प्रचलित अवधारणा ही थी। गलती सिर्फ ये हुई कि उन्होंने इसका वैज्ञानिक पहलु जानने की कोशिश नहीं की। 

बहरहाल, उनके वक्तव्य पर बहस शुरू हो गई और लोग ये सवाल करने लगे कि क्या ये मुमकिन है कि आंसू पीकर मोरनी गर्भवती हो जाए? इस पर पक्षी वैज्ञानिक अपना पक्ष लेकर सामने आए। उनका कहना था कि मोर और मोरनी भी वैसे ही बच्चे पैदा करते हैं, जैसे बाकी पशु-पक्षी। दरअसल वे अपने सुंदर पंख फैला कर मोरनी को मोहित करते हैं। मोरनी जब संसर्ग की सहमति दे देती है तो वे बाकायदा वैसे ही काम क्रीड़ा करते हैं, जैसे अन्य पक्षी। और इस तरह से वह गर्भवति होती है। 

विज्ञान के अनुसार प्रजनन के लिए नर-मादा का मिलाप जरूरी है। जिस समय इनका मिलाप होता है, नर मादा की पीठ पर सवार होता है। दोनों मल विसर्जन करने वाले अंग, जिसे कि क्लोका कहा जाता है, उसे खोलते हैं और इस प्रकार नर पक्षी अपना वीर्य मादा के शरीर में प्रविष्ठ करवाता है।

गूगल सर्च करने पर जानकारी मिली कि प्रोफेसर डॉ. संदीप नानावटी के अनुसार मोर शर्मिला पक्षी है, इसलिए वह एकांत मिलने पर ही सहवास करता है। कदाचित इसी वजह से लोगों में भ्रांति है कि मोर के आंसू पी कर मोरनी गर्भवती होती है। पक्षी विज्ञानी विक्रम ग्रेवाल का भी मानना है कि अन्य पक्षियों की तरह मोरनी से सहवास कर प्रजनन करता है। 

जहां तक मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित करने का सवाल है तो जानकारी ये है कि मोर पहले भारत में ही पाया जाता था। राष्ट्रीय पक्षी के चुनाव की लिस्ट में मोर के साथ सारस व हंस के नाम थे। 1960 में राष्ट्रीय पक्षी चुनने पर विचार हुआ। उनमें यह एक राय बनी कि उसी पक्षी को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया जाए जो देश के हर हिस्से में पाया जाता हो, उसे हर आम-ओ-खास जानता हो और वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा हो। इन शर्तों पर मोर ही खरा उतरा। और इस प्रकार 26 जनवरी 1963 को मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर दिया गया।

आंसू के जरिए प्रजनन होने के इस प्रसंग के साथ ही इस प्रकार एक प्रसंग और ख्याल में आता है। आपने रामायण सुनी-पढ़ी होगी। उसमें जिक्र आता है कि पवन पुत्र हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी थे। अपनी पूंछ से लंका दहन के कारण उनको तीव्र पीड़ा हो रही थी। पूंछ की अग्नि को शांत करने के लिए समुद्र के निकट गए। इस दौरान उनको पसीना आया। उस पसीने की एक बूंद को एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई। बाद में एक दिन पाताल के असुरराज अहिरावण के सेवकों ने उस मछली को पकड़ लिया। जब वे उसका पेट चीर रहे थे, तो उसमें से वानर की आकृति का एक मनुष्य निकला। वे उसे अहिरावण के पास ले गए। अहिरावण ने उसे पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया। यही वानर हनुमान पुत्र मकरध्वज के नाम से जाना गया। मकरध्वज ने अपने पैदा होने का वृतांत हनुमान जी को सुनाया। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर श्रीराम व लक्ष्मण को मुक्त कराया और उसे पाताल लोक का राजा नियुक्त कर दिया।

यह प्रसंग मोर-मोरनी के प्रसंग से मिलता जुलता है। तर्क ये दिया जा सकता है कि जब पसीने की बूंद से प्रजनन हो सकता है तो आंसू से क्यों नहीं हो सकता? सच्चाई क्या है, कुछ पता नहीं। शास्त्रों में बिना संसर्ग के अन्य तरीकों से प्रजनन के अनेक उदाहरण मौजूद हैं। उन पर विज्ञान ने अब तक कोई काम नहीं किया है।


-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 2 मई 2021

मुझे वाह ड़े सिंधी वाह के नाम से पुकारने वाला चला गया


अरविंद गर्ग। शहर के लिए जाना-पहचाना नाम। शायद ही कोई राजनेता, अफसर, पत्रकार या सोसायटी के विभिन्न तबकों से जुड़ा कोई व्यक्ति उनसे अपिरिचित हो। बेशक उनकी पहचान एक पत्रकार के रूप में थी, मगर उनकी असल पहचान थी, हरदिल अजीज इंसान के रूप में। सदैव सहयोग के तत्पर उत्साही युवक के रूप में। बेहद प्यारा शख्स। दिल का साफ। हंसमुख। अफलातून टाइप की पर्सनल्टी। यायावर व्यक्तित्व। मजाकिया स्वभाव। गुस्से से कोसों दूर। बेबाक बयानी। कोई लाग-लपेट नहीं। साफगोई। सच को सच और झूठ को झूठ कहने का माद्दा। चाहे किसी को बुरा लग जाए। मस्त मौला, इतने कि गई कई बार शर्ट के बटन ऊपर-नीचे होने का भी भान नहीं रहता था। ये थे उनके विलक्षण गुण, जिनकी वजह से उन्होंने अजमेर में अपनी खास पहचान बनाई। उनके व्यक्तित्व की जितनी तारीफ की जाए, कम है। वस्तुत: ऐसे लोग विरले ही पैदा होते हैं।

उन्होंने मेरे साथ दैनिक भास्कर से पहले दिशा दृष्टि सांध्य दैनिक में भी काम किया। समाचार लेखन में सामान्य हिंदी का प्रयोग करते थे, अर्थात साहित्यिक रूप से बहुत पारंगत नहीं थे, मगर थे वे नंबर के वन खबरची। सांध्य दैनिक दिशादृष्टि छाया ही वरिष्ठ पत्रकार सुशील जी और उनकी वजह से। न जाने कहां से खबर खोद कर लाया करते थे। खूब धूम मचाई। बहुचर्चित अश्लील छायाचित्र कांड को प्रारंभिक तौर पर उजागर करने में इस जोड़ी का विशेष योगदान रहा। शहर की शायद ही कोई छोटी-मोटी घटना ऐसी होती थी, जो उनकी जानकारी में तुरंत न आती हो। उसकी वजह थी समाज के सभी तबके के लोगों के साथ उनकी अंतरगता। हर घटना पर पैनी नजर रखना उनके स्वभाव में था। दूसरी वजह थी, उनकी नया बाजारीय पृष्ठभूमि। उनका निवास व पैतृक व्यवसाय नया बाजार में ही है। सब जानते हैं कि नया बाजार में शहर की हर धड़कन स्पंदित होती है। इसी वजह से शहर की संस्कृति से भलीभांति परिचित थे। न्यूज की बीट उनकी चाहे जो रही, मगर दफ्तर में आते ही अन्य बीट के साथी पत्रकारों को बताया करते थे कि आज कहां क्या हुआ। उनकी इसी खासियत की वजह से स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल के खास चहेते थे। छेडख़ानी उनकी फितरत में थी। वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रताप सनकत से उनकी खूब पटती थी। दोनों एक दूसरे को खूब छेड़ा करते थे। इसी प्रकार वरिष्ठ फोटोग्राफर सत्यनारायाण जाला के साथ भी उनका जमकर धोल-धप्पा हुआ करता था। अजयमेरु प्रेस क्लब के वे अहम हिस्सा थे। 

राजनीतिक गतिविधियों पर उनकी गहरी पकड़ रहा करती थी। कांग्रेस हो या भाजपा, हर पार्टी के नेता से उनके व्यक्तिगत संबंध थे। विशेष रूप से भूतपूर्व काबीना मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के बहुत चहेते थे। दरगाह बादाम शाह में उनकी गहरी आस्था थी।

संवेदना से भरपूर यह इंसान किसी भी पत्रकार साथी को किसी संकट में देख कर तुरंत उसका समाधान करने में जुट जाता था। शहर की धड़कन से जुड़ा फागुन महोत्सव हो या कोई खेल गतिविधि या शायद ही कोई ऐसा सार्वजनिक आयोजन हो, जिसमें उनकी सहभागिता नहीं रहती हो। भास्कर के आरंभिक काल में आई समस्याओं के समाधान में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। तत्कालीन विशेष संवाददाता एस. पी. मित्तल के साथ भास्कर को शुरू में स्थापित करने में उन्होंने कंधे से कंधा मिला कर काम किया। प्रबंधन उनके इस ऋण से कभी उऋण नहीं हो पाएगा। उन दिनों का मजाक में गढ़ा गया एक किस्सा मुझे आज भी याद है। मित्तल जी की टीम ने 18-18 घंटे काम किया। हालत ये होती थी कि कई बार एक वक्त ही खाना खा पाते थे। एक बार अरविंद जी को कब्ज की शिकायत हो गई। तीन दिन तक लेट्रिन ही नहीं आई। वे डॉक्टर के पास गए। उन्होंने पूरी जांच करने के बाद पूछा कि आप काम क्या करते हो, वे बोले भास्कर में। इस पर डॉक्टर साहब का कहना था कि ये लो मेरी ओर से दो सौ रुपए। खाना खा लेना। लेट्रिन आ जाएबी। अगर खाना ही नहीं खाओगे तो लेट्रिन आएगी कैसे?


-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 1 मई 2021

ईश्वर पुरुष है या स्त्री?


हालांकि ईश्वर को त्रिगुणातीत और निराकार माना जाता है। उसका कोई लिंग नहीं, अर्थात न तो वह पुरुष है और न ही स्त्री। बावजूद इसके प्रचलन में यही है कि जब ही हम उसके बारे चर्चा करते हैं, जिक्र करते हैं तो उसे पुरुषवाचक के रूप में ही संबोधित करते हैं। कहते हैं न कि ईश्वर भला करेगा, वह सब पर कृपा करता है? जिससे प्रतीत होता है कि वह पुरुष है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर वास्तविकता क्या है? सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्यों कि हमारी सोच के अनुसार वह पुरुष या स्त्री, कोई एक तो होगा। इन दोनों से इतर जो भी तत्त्व है, उससे हम अनभिज्ञ हैं। सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं।

इस विषय को लेकर विशेष रूप से ईसाई समुदाय में काफी बहस छिड़ी हुई है। चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक समूह दैनिक प्रार्थना के दौरान ईश्वर को पुरुषवाचक के साथ ही स्त्रीवाचक के रूप में भी संबोधित करने की मांग कर रहा है। उसकी मांग में दम भी है। लेकिन दिक्कत ये है कि जब भी हम ईश्वर का जिक्र करते हैं तो स्वाभाविक रूप से बिना सर्वनाम के उसके बारे में चर्चा करना कठिन है। यह भाषा की भी समस्या है। या तो हमें उसे पुरुष या स्त्री वाचक शब्द से पुकारना होगा। पुरुषवादी समाज में उसे स्त्री के रूप में संबोधित करना हमें स्वीकार्य नहीं, इसलिए हम उसे पुरुष मान कर ही संबोधित करते हैं।

वस्तुत: ईश्वर एक सत्ता है, एक शक्ति केन्द्र है। वह स्वयंभू है। उसी सत्ता के अधीन संपूर्ण चराचर जगत संचालित हो रहा है। वह कोई व्यक्ति नहीं है। लेकिन चूंकि हम स्वयं व्यक्ति हैं, हमारी सीमित शक्ति है, इस कारण सर्वशक्तिमान की परिकल्पना करते समय हम उसे अपार क्षमताओं से युक्त एक महानतम व्यक्ति के रूप में देखते हैं। और चूंकि पूरी प्रकृति व समाज की व्यवस्था पुरुषवादी है, इस कारण उसके प्रति संबोधन में स्वाभाविक रूप से पुरुषवाचक शब्दों का चलन है। 

आइये, जरा हमारी पुरुष प्रधान व्यवस्था पर जरा चर्चा कर लें। असल में प्रकृति की गति नर व नारी की संयुक्त भूमिका से है। न तो आदमी अपेक्षाकृत बेहतर है और न ही औरत तुलनात्मक रूप से कमतर। बावजूद इसके समाज की संरचना में आरंभ से पुरुष की प्रधानता रही। यही वजह है कि धार्मिक, सामाजिक व पारिवारिक रूप से पुरुष अग्रणी रहा। आप देखिए, बेशक, नाम स्मरण करते हुए राधे-श्याम, सीता-राम, लक्ष्मी-नारायण कहा जाता है, अर्थात पहले स्त्री का नाम लिया जाता है, स्त्री तत्त्व को विशेष सम्मान दर्शाया जाता है, मगर सच्चाई ये है कि प्रधानता पुरुष की ही रही है। सारे भगवान पुरुष हैं। चित्रों में भगवान विष्णु शेष नाग पर लेटे होते हैं और माता लक्ष्मी उनके चरणों में बैठी दिखाई जाती है। अन्य भगवानों व देवी-देवताओं में भी पुरुष की ही प्रधानता है। धर्म की पुरस्र्थापना के लिए अवतार लेने वाले सभी भगवान पुरुष हैं। सारे आश्रमों के प्रमुख ऋषि रहे हैं। लगभग सारे मठाधीश पुरुष ही रहे हैं। सभी शंकराचार्य पुरुष हैं। अधिसंख्य मंदिरों में पुजारी पुरुष हैं। तीर्थराज पुष्कर में पवित्र सरोवर की पूजा-अर्चना पुरुष पुरोहित ही करवाते हैं। 

जैन धर्म की बात करें। जैन समाज के सभी तीर्थंकर पुरुष हैं। जैन मुनियों के नाम के आगे 108 व जैन साध्वियों के नाम के आगे 105 लिखा जाता है। उसके पीछे बाकायदा तर्क दिया जाता है जैन साध्वियों में जैन मुनियों की तुलना में तीन गुण कम हैं।

इस्लाम की बात करें तो पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पुरुष है। सारे मौलवी पुरुष हैं। मस्जिदों में नमाज की इमामत पुरुष करते हैं। यहां तक कि सार्वजिनक नमाज के दौरान महिलाओं की सफें पुरुषों से अलग लगती हैं। अजमेर की विश्व प्रसिद्ध दरगाह ख्वाजा साहब की दरगाह में खिदमत का काम पुरुष खादिम करते हैं। दरगाह स्थित महफिलखाने में महिलाएं पुरुषों के साथ नहीं बैठ सकतीं। उनके लिए अलग से व्यवस्था है। जानकारी तो ये भी है कि दरगाह परिसर में महिला कव्वालों को कव्वाली करने की इजाजत नहीं है। इसी प्रकार इसाई धर्म में भी ईश्वर के दूत ईसा मसीह पुरुष हैं। गिरिजाघरों में प्रार्थना फादर करवाते हैं।

सामाजिक व्यवस्था में भी पुरुषों की प्रधानता है। अधिसंख्य समाज प्रमुख पुरुष ही होते हैं। पारिवारिक इकाई का प्रमुख पुरुष है। वंश परंपरा पुरुष से ही रेखांकित होती है। स्त्रियां ब्याह कर पुरुष के घर जाती हैं, न कि पुरुष स्त्री के घर। हमारे यहां तो पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह पति को भगवान माने। पति की लंबी आयु के लिए पत्नियां करवा चौथ का व्रत करती हैं। इस तरह की धारणा चलन में हैं कि महिला यदि कोई पुण्य करे तो उसका आधा फल पुरुष को मिलता है, जबकि पुरुष को उसके पुण्य का पूरा फल मिलता है।

कुल मिला कर अनादि काल से पुरुष तत्व की प्रधानता रही है। सामाजिक व धार्मिक परंपराओं का ढ़ांचा बनाने वाले पुरुष हैं। यही वजह है कि लिंगातीत, निर्गुण, निराकार ईश्वर का जिक्र पुरुष वाचक शब्दों से करते हैं।

आखिर में एक बात पर गौर कीजिए। ईश्वर के बारे हम चाहे जितनी टीका-टिप्पणियां कर लें, लेकिन वह हमारी कल्पनाओं व अवधारणों से कहीं बहुत आगे है। उसका पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन है। वेद भी व्याख्या करते वक्त आखिर में नेति-नेति कह कर हाथ खड़े कर देते हैं।

-तेजवानी गिरधर

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tejwanig@gmail.com