सोमवार, 27 जनवरी 2020

क्या अंतर्ध्यान, अदृश्य या गायब होना संभव है?

तेजवानी गिरधर
अंतर्ध्यान शब्द के मायने है, अदृश्य होना। इसका उल्लेख आपने शास्त्रों, पुराणों आदि में सुना होगा। अनेक देवी-देवताओं, महामानवों व ऋषि-मुनियों से जुड़े प्रसंगों में इसका विवरण है कि वे आह्वान करने पर प्रकट भी होते हैं, साक्षात दिखाई देते हैं और अंतध्र्यान भी हो जाते हैं। मौजूदा वैज्ञानिक युग में यह वाकई अविश्वनीय है। विज्ञान आज तक भी इस पुरातन कला को समझ नहीं पाया है। हालांकि कुछ वैज्ञानिकों ने पर इस पर काम किया है और सिद्धांतत: यह मानते हैं कि ऐसा संभव है, मगर कोई भी ऐसा कर नहीं पाया है। बताते हैं कि ओशो ने दुनिया के चंद शीर्ष वैज्ञानिकों की टीम बना कर इस पर काम किया था और उन्हें पूरी उम्मीद थी कि कामयाबी मिल जाएगी।
इस बारे में उपलब्ध जानकारी के अनुसार वैज्ञानिक नैनो किरणों पर काम कर रहे हैं। इस सिलसिले में एक लबादा बनाने की कोशिश की जा रही है, जिसे पहनने के बाद उस पर नैनो किरणें डालने पर दिखाई देना बंद हो जाता है। कुछ वैज्ञानिक इस पर भी काम कर रहे हैं कि विशेष तापमान व दबाव यदि मनुष्य के आसपास क्रियेट किया जाए तो वह अदृश्य हो सकता है।
गूगल पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार एक उपकरण बनाया जा चुका है, जिसके भीतर रखी वस्तु एक दिशा से तो दिखाई देती है, मगर दूसरी दिशा से नहीं दिखाई देती। एक उपकरण, जिसका नाम फोटोनिक क्रिस्टल बताया गया है, वह वस्तुओं को दिखाई देने में बाधक बनता है, अर्थात अदृश्य कर देता है। प्रसंगवश एक शब्द ख्याल में आता है- मृग मरीचिका। कहते हैं न कि रेगिस्तान में तेज धूप में किरणों की तरंगों में दूर से हिरण को ऐसा आभास होता है कि वहां समुद्र है या पानी है, जबकि वास्तव में ऐसा होता नहीं है। अर्थात हिरण को दृष्टि भ्रम होता है। हो सकता है कि कल इसी प्रकार का दृष्टि भ्रम बना कर आदमी को अदृश्य किया जा सके।
बताते हैं कि हिमालयों की पहाडिय़ों में एक जड़ी पाई जाती है, जिसे मुंह में रखने पर आदमी दिखाई देना बंद हो जाता है। मगर इसके भी प्रमाणिक उदाहरण हमारे संज्ञान में नहीं हैं। इसी प्रकार जनश्रुति है कि एक पक्षी विशेष का पंख अपने पास रखने वाला व्यक्ति दूसरों को दिखाई नहीं देता, मगर इसके भी पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं।
इसी से संबधित एक जानकारी ये भी है कि देवी देवता सशरीर प्रकट हो सकते हैं, जो कि पंचमहाभूत से बना है, मगर अन्य आत्माएं वायु अथवा प्रकाष के रूप में विचरण करती हैं और उसका आभास भी करवा सकती हैं। आपने सुना होगा कि अनेक लोगों को उनके दिवंगत गुरू याद करने पर गंध के रूप में अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं। इसी प्रकार भूत छाया के रूप में दिखाई देते हैं। मेरे एक मित्र का यकाीन है कि रात कि समय उनके स्वर्गीय पिताश्री एक पक्षी की आवाज से अपनी उपस्थिति का आभास करवाते हैं।
वस्तुओं के गायब हो जाने के किस्से भी आम हैं। आप के साथ भी ऐसा हो चुका होगा। जैसे किसी स्थान विशेष पर रखी वस्तु आप लेने जाते हैं तो वह वहां नहीं मिलती। आपको अचरज होता है कि वह कहां गायब हो गई। कुछ समय बाद जब फिर देखते हैं तो वह वहीं मिल जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह कुछ समय के लिए गायब हो जाती है। ऐसा भ्रम की वजह से भी हो सकता है।
आपने ऐसे मदारियों को भी करतब दिखाते हुए देखा होगा कि वे गुलाब जामुन या कोई मिठाई मांगने पर हवा में हाथ धुमा कर वह वस्तु पेश कर देते हैं। हालांकि यह ऐसे जादू के रूप में माना जाता है, जिसके पीछे कोई तकनीक काम करती है, जबकि आम मान्यता है कि मदारी कुछ समय के लिए मांगी गई वस्तु किसी दुकान या ठेले से मंगवाते हैं और कुछ समय बाद वह वस्तु वापस वहीं पहुंच जाती है, जहां से मंगाई गई है।
गायब हो जाने के संबंध में कुछ रहस्यमयी किस्से जानकारी में आए हैं। बताते हैं कि एक महिला क्रिस्टीन जांसटन और उनके पति एलन जांसटन 1975 की गर्मियों में उत्तरी ध्रुव की यात्रा पर गए थे। वहां एलन अचानक गायब हो गए। बाद में पुलिस तेज घ्रांण शक्ति वाले कुत्ते ले कर खोजने गई तो जिस स्थान से एलन गायब हुए थे, वहां पर आ कर कुत्ते रुक गए।
एक किस्सा ये भी है। अमेरिका के टेनेसी स्थित गैलेटिन के निवासी डेविड लांग 23 सितम्बर, 1808 को दोपहर में घर से बाहर निकले। उनकी मुलाकात उनके एक न्यायाधीश मित्र आगस्टस पीक से हुई। शिष्टाचार के बाद जैसे ही डेविड लांग आगे बढ़ा तो वह अचानक गायब हो गया।
इसी प्रकार पूरी बस्ती ही गायब होने का भी किस्सा है। घटना अगस्त 1930 की बताई जाती है। कनाडा के चर्चिल थाने के पास अंजिकुनी नामक एस्किमो की बस्ती थी। एक दिन अचानक पूरी बस्ती के लोग न जाने कहां गायब हो गए।
इसी प्रकार 1885 में वियतनाम में सैनिकों की छह सौ सैनिकों की एक टुकड़ी ने सेगॉन शहर की ओर कूच किया। कोई एक मील दूर जाने पर वह पूरी टुकड़ी गायब हो गई। आज तक उस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। अनुमान यही लगाया गया कि धरती से इतर कोई और ग्रह है, जहां के प्राणी लोगों को पकड़ कर ले जाते हैं।
कुल जमा बात ये है कि पौराणिक काल में जिस विधा से अथवा जिस शक्ति से देवी-देवता अंतध्र्यान हो जाते थे, वह भले ही इस युग में संभव न हो, मगर उम्मीद की जा रही है कि विज्ञान किसी दिन गायब होने की कोई न कोई तकनीक खोज ही लेगा।

-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, 22 जनवरी 2020

क्या कलंदर व झूलेलाल एक ही हैं?

जिस गीत दमा दम मस्त कलंदर को गा और सुन कर सिंधी ही नहीं, अन्य समुदाय के लोग भी झूम उठते है, उस पर यह सवाल बना हुआ है कि क्या कलंदर व सिंधियों के आराध्य देवता झूलेलाल एक ही हैं? पाकिस्तान की मशहूर गायिका रेश्मा व बांग्लादेश की रूना लैला की जुबान से थिरक कर लोकप्रिय हुआ यह गीत किसकी महिमा या स्मृति में बना हुआ है, इसको लेकर विवाद है।
यह सर्वविदित है कि आम तौर सिंधी समुदाय के लोग अपने विभिन्न धार्मिक व सामाजिक समारोहों में इसे अपने इष्ट देश झूलेलाल की प्रार्थना के रूप में गाते हैं, लेकिन भारतीय सिंधू सभा ने खोज-खबर कर दावा किया है कि यह गीत असल में हजरत कलंदर लाल शाहबाज की तारीफ में बना हुआ है, जिसका झूलेलाल से कोई ताल्लुक नहीं है। सभा ने एक पर्चा छाप कर इसका खुलासा किया है।
पर्चे के अनुसार आम धारणा है कि यह अमरलाल, उडेरालाल या झूलेलाल अवतार की प्रशंसा या प्रार्थना के लिए यह गीत बना है। उल्लेखनीय बात है कि पूरे गीत में झूलेलाल से संदर्भित प्रसंगों का कोई जिक्र नहीं है, जैसा कि आम तौर पर किसी भी देवी-देवता की स्तुतियों, चालीसाओं व प्रार्थनाओं में हुआ करता है। सिर्फ झूलेलालण शब्द ही भ्रम पैदा करता है कि यह झूलेलाल पर बना हुआ है। असल में यह तराना पाकिस्तान स्थित सेहवण कस्बे के हजरत कलंदर लाल शाहबाज की करामात बताने के लिए बना है।
पर्चे में बताया गया है कि काफी कोशिशों के बाद भी कलंदर शाहबाज की जीवनी के बारे में कोई लिखित साहित्य नहीं मिलता। पाकिस्तान में छपी कुछ किताबों में कुछ जानकारियां मिली हैं। उनके अनुसार कलंदर लाल शाहबाज का असली नाम सैयद उस्मान मरुदी था। उनका निवास स्थान अफगानिस्तान के मरुद में था। उनका जन्म 573 हिजरी यानि 1175 ईस्वी में हुआ। उनका बचपन मरुद में ही बीता। युवा अवस्था में वे हिंदुस्तान चले आए। सबसे पहले उन्होंने मंसूर की खिदमत की। उसके बाद बहाउवलदीन जकरिया मुल्तानी के पास गए। इसके बाद हिजरी 644 यानि 1246 ईस्वी में सेवहण पहुंचे। हिजरी 650 यानि 1252 ईस्वी में उनका इंतकाल हो गया। इस हिसाब से वे कुल छह साल तक सिंध में रहे।
कुछ किताबों के अनुसार आतताइयों के हमलों से तंग आ कर मुजाहिदीन की एक जमात तैयार हुई, जो तबलीगी इस्लाम का फर्ज अदा करती थी। उसमें कलंदरों का जिक्र आता था। आतताइयों में से विशेष रूप से चंगेज खान, हलाकु, तले और अन्य इस्लामी सुल्तानों पर चढ़ाई कर तबाही मचाई थी। इसमें मरिवि शहर का जिक्र भी है, जो शाहबाज कलंदर का शहर है। कलंदर शाह हमलों के कारण वहां से निकल कर हिंदुस्तान आए। वे मुल्तान से होते हुए 662 हिजरी में सेवहण आए और 673 में उनका वफात हुआ। यानि वे सेवहण में 11 साल से ज्यादा नहीं रहे। इस प्रकार उनके सेहवण में रहने की अवधि और वफात को लेकर मत भिन्नता है। पर्चे के अनुसार सेवहण शहर पुराना है। कई संस्कृतियों का संगम रहा। वहीं से सेवहाणी कल्चर निकल कर आया, जिसकी पहचान बेफिक्रों का कल्चर के रूप में थी। यह शहर धर्म परिवर्तन का भी खास मरकज रहा। इसी सिलसिले में बताया जाता है कि वहां एक सबसे बड़े शेख हुए उस्मान मरुंदी थे, जिन्हें लाल शाहबाज कलंदर के नाम से भी याद किया जाता है।
पर्चे में बताया गया है कि शाह कलंदर का आस्ताना सेवहण में जिस जगह है, वहां पहले शिव मंदिर था। वहां पर हर वक्त अलाव जलता रहता था, जिसे मुसलमान अली साईं का मच कहते थे। यह शहर जब सेवहण में शाह कलंदर का वफात हुआ तो हिंदुओं ने उनको अपने मुख्य मंदिर में दफन करने की इजाजत दी। बाद में वहां के पुजारी भी उनके मलंग हो गए। इस पर्चे के जरिए यह साबित करने की कोशिश की गई है कि कलंदर शाहबाज इस्लाम के प्रचारक थे। इसी को आधार बना कर सिंधी समुदाय को आगाह किया गया है कि भला इस्लाम के प्रचारक और धर्म परिवर्तन की खिलाफत करने वाले झूलेलाल एक कैसे हो सकते हैं। एक और शंका ये है कि यदि दोनों एक हैं तो इस गीत को केवल सिंधी ही क्यों गाते हैं, मुस्लिम क्यों नहीं? क्या इसकी वजह केवल इतनी है कि यह सिंधी भाषा में है?
अलबत्ता परचे में इसे जरूर स्वीकार किया गया है कि दमा दम मस्त कलंदर अकीदत से गाने से मुरादें पूरी होती हैं। आम धारणा है कि सात वर्ष की उम्र में उन्होंने कुरआन को जुबानी याद कर लिया था। यह भी पक्का है कि उनको अरबी व फारसी के साथ उर्दू जीनत जुबान भी बोलते थे। पूरी उम्र उन्होंने शादी नहीं की। उनके मन को जर और जमीन भी मैला नहीं कर पाए। अन्य दरवेश तो बादशाहों के नजराने कबूल कर लेते थे, मगर शाह कलंदर उस ओर आंख उठा कर भी नहीं देखते थे।
पर्चे में यह स्पष्ट नहीं है कि दमा दम मस्त कलंदर गीत में झूलेलालण शब्द कैसे शामिल हो गया, जिसकी वजह से सिंधी समुदाय के लोग इसे श्रद्धा के साथ गाते हैं। बहरहाल यह इतिहासविदों की खोज का विषय है कि शाहबाज कलंदर को झूलेलाल क्यों कहा गया है।
इस सिलसिले में अजमेर में भी असमंजस हो चुका है। बात थोड़ी पुरानी है, मगर चूंकि इसी विवाद से जुड़ी हुई है, इस वजह से यहां जिक्र कर रहा हूं। मौलाई कमेटी के कन्वीनर सैयद अब्दुल गनी गुर्देजी की ओर से पिछले कई साल से चेटीचंड के मौके पर सिंधी समुदाय का हार्दिक अभिनंदन करने के लिए एक पर्चा जारी करते रहे हैं। इसमें उल्लेख था कि सिंधी समाज के आराध्यदेव झूलेलाल जी को ही मुसलमान सखी शाहबाज कलंदर या लाल शाहबाज कलंदर कहते हैं। इस पर 23 नवंबर 2004 को दैनिक भास्कर में मेरी बाईलाइन खबर के अनुसार जब उनसे पूछा गया कि वे किस आधार पर दोनों को एक बताते हैं तो उनका कहना था कि उन्हें कोई जानकारी नहीं है कि दोनों में कोई फर्क है या गाने को लेकर कोई विवाद है। न ही किसी सिंधी भाई ने कभी ऐतराज किया। वे तो महज भाईचारे के लिए पर्चा छपवाते हैं।

आपकी सुविधा के लिए इस पोस्ट के साथ रूना लैला की ओर से गाए गए गीत की लिंक, जो कि यूट्यूब पर मौजूद है, साझा कर रहा हूं
https://www.youtube.com/watch?v=OPLHEkHXRwg

-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 18 जनवरी 2020

आशंका संकट को न्यौता देती है?

हाल ही बेहद जीवट वाली पत्रकार श्रीमती राशिका महर्षि से चर्चा के दौरान एक विषय निकल कर आया। वो ये कि आदमी को आशंका में नहीं जीना चाहिए। आशंका में जीने से हम जिस भी बात की आशंका कर रहे होते हैं, वह घटित हो सकती है। इसके विपरीत यदि हम अपरिहार्य आशंकित स्थिति में भी यह विचार करें कि सब कुछ ठीक होगा तो ठीक होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। असल में यह उनके अनुभव का निष्कर्ष था। कितना सही, कितना गलत, पता नहीं।
कुछ इसी किस्म की बात बहुत ऊर्जावान पत्रकार श्री विजय मौर्य से चर्चा के दरम्यान आई। उन्होंने एक अलग किस्म के दर्शन की चर्चा की। वह यह कि यदि हम भविष्य में आने वाली विपत्ति के लिए कुछ धन जुटा कर रखते हैं तो विपत्ति आती ही है। उनका कहना था कि यदि हम किसी संभावित या अकल्पनीय विपत्ति के निमित्त धन संग्रहित करते हैं तो वह धन विपत्ति को न्यौता देता है और उसी में खर्च हो जाता है। इसलिए संकट के लिए धन इकट्ठा न किया करें। पहले से उसका इंतजाम न करें। जब संकट आएगा तो देखा जाएगा। ईश्वर अपने आप कोई न कोई रास्ता निकालेगा। हालांकि धरातल का सच यही है कि हम कुछ धन भविष्य के लिए इक_ा करते ही हैं, और वह भविष्य में काम आता भी है। यह व्यवहारिक बात है। मगर श्री मौर्य का अनुभव इससे भिन्न है।
इन दोनों बातों में एक तथ्य कॉमन है। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही हो जाता है। इसका एक उदाहरण मेरे ख्याल में आता है। बचपन में कभी एक-दो बार सब्जी में बाल निकला था, तो मेरे जेहन में यह बात बैठ गई कि मेरी सब्जी में बाल आएगा ही। जब भी खाना खाने बैठता तो सबसे पहले यह देखता कि सब्जी में बाल तो नहीं है। और दिलचस्प बात है कि बाल आता ही था। मैने इस का कारण मेरी माताश्री से पूछा तो वे यही बोलीं कि तुम ऐसा सोचते ही क्यों हो? अचानक बाल आ जाए तो कोई बात नहीं, मगर यदि तुम पहले से आशंका करोगे कि बाल आएगा तो वह आ ही जाता है। वह कहां से आता है, पता नहीं? मैने माताश्री की बात मान कर बाल आने की आशंका करना बंद कर दिया और आश्चर्य कि वाकई बाल आना बंद हो गया। इसका रहस्य मुझे आज तक समझ में नहीं आया। हाल ही जब श्रीमती महर्षि से चर्चा हुई तो मुझे यह पुराना वाक्या याद आ गया।
श्रीमती महर्षि व श्री मौर्य से हुई चर्चाओं से मुझे यकायक लॉ ऑफ अट्रैक्शन का ख्याल आ गया। उसके अनुसार हम जो कुछ बनना चाहते हैं, जो कुछ होना चाहते हैं, उसे पूरा करने के लिए पूरी कायनात जुट जाती है। कदाचित यही सिद्धांत आशंका व विपत्ति की कल्पना पर भी लागू होता हो। यदि आपका भी इस किस्म को कोई अनुभव हो तो जरूर शेयर कीजिएगा।
प्रसंगवश ओशो की किसी पुस्तक में पढ़ी एक बात भी आपसे साझा कर लूं। वे कहते हैं कि यदि साइकिल चलाते समय हम ये विचार करेंगे कि कहीं रास्ते में पड़े पत्थर से न टकरा जाएं तो हम उससे टकरा ही जाएंगे, भले ही वह बीच सड़क पर न हो कर किनारे पर पड़ा हो। उनका कहना था कि जैसे ही हम पत्थर को ख्याल में रखते हैं तो हमारा ध्यान उसी पर केन्द्रित हो जाता है और न चाहते हुए भी हम पत्थर की ओर मुड़ जाते हैं।
आखिर में एक विनोदपूर्ण बात से चर्चा को पूरा करता हूं। आपने देखा होगा कि अमूमन जिस भी स्थान पर लिखा होता है कि यहां लघुशंका करना मना है, वहीं पर लोग लघुशंका करते हैं। पता नहीं कि स्लोगन पहले लिखा गया या लोगों ने उस स्थान पर लघुशंका करना शुरू किया, उसके बाद लिखा गया, मगर आम तौर पर पाते यही हैं कि जहां लिखा होता है, वहीं अधिक मात्रा में पेशाब किया हुआ होता है। कहीं पर इस बारे में चर्चा हुई तो किसी ने कहा कि होता ये है कि लघुशंका करने की इच्छा नहीं भी हो, तब भी जैसे ही मार्ग से गुजरते कोई लघुशंका न करने का स्लोगन पढ़ता है तो उसे यकायक पेशाब आ जाता है, और वह उस स्थान का उपयोग कर लेता है। है न रोचक बात। यानि कि जैसा विचार, वैसा आचार। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। फिलहाल इतना ही। राम राम सा।

-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

ताश के पत्ते बंटने के बाद उन्हीं पत्तों से खेलना पड़ता है

बहुत समय पहले एक उक्ति मेरी जानकारी में आई थी। आज आप से शेयर कर रहा हूं। वो ये है कि एक बार ताश के पत्ते बंट जाने के बाद फिर हमको उन्हीं पत्तों से खेलना पड़ता है। चाहे मन मसोस कर, चाहे खुशी-खुशी। अमूमन आदमी इसीलिए दुखी होता है क्योंकि वह किस्मत को दोष देते हुए यह कहता है कि काश मुझे वैसे पत्ते मिले होते तो मैं जीत जाता। जबकि सच्चाई ये है कि पत्ते तो बंट चुके। उनमें कोई फेरबदल नहीं हो सकता। चाहे कितना ही सिर पीट लो। इसके दो ही रास्ते हैं। एक तो किस्मत को रोते हुए हम खेले ही नहीं, यानि कि बिना प्रयास के हार मान लें। दूसरा रास्ता है कि हमारे हिस्से में जो पत्ते आए हैं, उन्हीं से बेहतर से बेहतर खेल लें। प्रकृति ने हमें जो भी क्षमता दी है, वह उसका अधिकाधिक उपयोग करने के लिए दी है। कदाचित जीत भी सकते हैं।
ताश के पत्तों का यह खेल हमारे जीवन पर भी एक दम फिट बैठता है।  हर एक के जीवन में प्रारब्ध के अनुसार अलग-अलग हालात आते हैं। कोई सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होता है तो कोई ऐसे घर में, जहां दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती। दोष चाहे प्रकृति को दें, प्रारब्ध को दें या अपने कर्मों को दें, मगर जीना उन्हीं हालात में पड़ता है। ऐसे में दो ही रास्ते हैं या तो संघर्ष से मुंह मोड़ लें, जिसमें सफलता की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। दूसरा ये कि संघर्ष करने को तप्तर हो जाएं, जिसमें कि सफलता की संभावनाएं रहती हैं। किसी ने कहा है न कि दो ही रास्ते हैं, या तो भाग लो, अर्थात पार्टिसिपेट करो या फिर भाग लो, अर्थात मैदान छोड़ दो।
जीवन के बारे में सकारात्मक सोच रखने वाले हर हालात में संघर्ष करने को तैयार रहते हैं। हालात या किस्मत का रोना नहीं रोते। एक उदाहरण देखिए। यह जीवन एक जलती सिगरेट की भांति है। सिगरेट को तो जलना ही है और खत्म भी होना ही है। आप चाहें तो सिगरेट की नियति पर रोते रहें या फिर चाहें तो उसके कश ले लें। इसे जीवन के लिहाज से लें तो मतलब ये है कि जिंदगी एक दिन मौत को उपलब्ध होनी ही है। हम चाहें तो रोते हुए गुजारें और चाहें तो हंसते हुए।
प्रसंगवश मुझे एक कहानी याद आती है। वही कछुए व खरगोश वाली। दोनों के बीच दौड़ होती है। अगर कछुआ यह सोच कर बैठ जाए कि उसे प्रकृति ने अत्यंत धीमी गति दी है तो वह प्रतियोगिता हारा हुआ ही है। और अगर सोच ले कि मुझे जैसी भी गति मिली है, दौडऩा मेरा कर्तव्य है, अंजाम चाहे जो हो। कहानी के अनुसार खरगोश अपनी गति पर गुमान करते हुए सुस्ती कर लेता है कि कभी भी छलांग लगा कर जीत जाऊंगा, जबकि कछुआ धीमी गति से मगर लगातार दौड़ता है और आखिर में वह जीत जाता है।
इसी क्रम में एक उदाहरण और ख्याल में आता है। हालांकि है वह घटिया, उसका जिक्र करने का मन नहीं था, मगर चूंकि जो हम समझना चाह रहे हैं, उस पर बिलकुल सटीक बैठता है, इस कारण यह धृष्टता कर रहा हूं। कृपया अन्यथा न लीजिए। पहले ही माफी मांगते हुए जिक्र कर रहा हूं। यदि किसी को लगता है कि उसके साथ कुछ बलात हो रहा है और उससे बचने का कोई उपाय है ही नहीं, तो एक नजरिया ये हो सकता है कि आखिरी क्षण तक मुकाबला करे और अपने आपको संतुष्टि दे कि उसने तो हथियार नहीं डाले और किसी की सोच हो सकती है कि वह उसी को एंजॉय करने लगे। इसे दूसरे रूप में यह भी कह सकते हैं कि तब सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दे।
ईश्वर पर छोड़ देने की बात आई तो एक और प्रसंग याद आ गया। एक बार श्रीकृष्ण भोजन के लिए बैठे थे। रुक्मणी पंखा कर रही थी। श्रीकृष्ण थाली से पहला ग्रास उठा कर मुंह के नजदीक लाए ही थे कि यकायक रुक गए। ग्रास वापस थाली में रख दिया और महल के मुख्य द्वार पर जा कर रुक गए। कुछ देर तक रुके रहे और वापस अंदर आ गए और भोजन करने लगे। रुक्मणी ने इसका सबब पूछा, तो श्रीकृष्ण ने बताया कि उनका कोई भक्त दुश्मनों से घिरा हुआ था। दुश्मन उस पर पत्थर फैंक रहे थे और वह श्रीकृष्ण को मदद के लिए पुकार रहा था। थोड़ी देर बाद अचानक उसने भी मुकाबले के लिए पत्थर उठा लिया, तो श्रीकृष्ण यह सोच कर लौट आए कि अब वह खुद निपट लेगा। हालांकि यह प्रसंग हिम्मते मर्दा, मददे खुदा के विपरीत बैठता है, मगर इसका अर्थ ये है कि जब तक हममें अहम है, तक तक ईश्वर मदद नहीं करता। जैसे ही हम अहम त्याग देते तो वह सारी जिम्मेदारी खुद ले लेता है। इति श्री।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

रविवार, 12 जनवरी 2020

हम नहीं, वे हैं सम्मान के पात्र

बीते शुक्रवार फ्लाइंग बर्ड्स परिवार के दूसरे वार्षिक उत्सव के मौके पर संस्था की संस्थापिका आदरणीया श्रीमती अंबिका हेडा की ओर से बतौर मीडिया पर्सन निमंत्रण मिला। कार्यक्रम में शिरकत की। बहुत अच्छा लगा। विशिष्ट बच्चों को खिलखिलाता देख कर जहां खुशी हुई, वहीं प्रकृति की विकृति ने मन को आहत भी बहुत किया। कार्यक्रम में मीडिया पर्सन्स को सम्मानित किया गया। हालांकि सिद्धांतत: मैं सम्मान लेने से सहमत नहीं था, मगर लोकाचार की अवहेलना से बचने के लिए सम्मान लिया भी। वस्तुत: हम मीडिया वाले इसलिए सम्मान के पात्र नहीं, क्योंकि यदि हम किसी संस्था या कार्यक्रम का कवरेज करते हैं तो महज अपनी ड्यूटी कर रहे होते हैं। वह किसी भी रूप में हमारी कोई उपलब्धि नहीं, ऐसे में हमारा सम्मान तो बनता ही नहीं था। असल में सम्मान की पात्र तो श्रीमती अंबिका हेडा, मीनू मनोविकास केन्द्र और शुभदा हैं, जिन्होंने विशिष्ट बच्चों को खुशियां बांटने के लिए यह कार्यक्रम आयोजित किया। अपने लिए तो पशु भी जीता है। हम सामाजिक प्राणी हैं, हमारा फर्ज है कि अपने साथ-साथ अपने परिवार व समाज के लिए भी जीयें। और यह काम ये तीनों संस्थाएं बड़ी शिद्दत से बखूबी कर रही हैं। इन संस्थाओं से जुड़े सभी सदस्य वाकई साधुवाद के पात्र हैं। वे वाकई अपना जीवन सफल कर रहे हैं। उनके भीतर मौजूद दैवीय गुणों को मेरा सादर नमन।
-तेजवानी गिरधर
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मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है?

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है? यह सवाल मेरे जेहन में अरसे से है। इसका जवाब जानने की बहुत कोशिश की, मगर अब तक उसका ठीक ठीक कारण नहीं जान पाया हूं। भले ही आज वास्तविक कारण का हमें पता न हो, मगर यह परंपरा जरूर कोई न कोई राज लिए हुए है।
हाल ही मेरे वरिष्ठ मित्र हाल दिल्ली निवासी श्री शिव शंकर गोयल, जो कि जाने-माने व्यंग्य लेखक हैं, ने इससे संबंधित पोस्ट वाट्स ऐप पर भेजी।  उसे हूबहू आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं, उसे पढऩे के बाद हम विचार करेंगे कि क्या वाकई हमें अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं:-
परम्परा है कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या ऑटले पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है? आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर अपने घर/व्यापार/राजनीति इत्यादि की चर्चा करते हैं, परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है:-
अनायासेन मरणम्
बिना देन्येन जीवनम्
देहान्त तव सान्निध्यम्
देहि मे परमेश्वरम्
इस श्लोक का अर्थ है:-
अनायासेन मरणम् अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठा कर मृत्यु को प्राप्त न हो। चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।
बिना देन्येन जीवनम् अर्थात् परवशता का जीवन न हो। कभी किसी के सहारे न रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस न हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।
देहांते तव सान्निध्यम् अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।
देहि में परमेशवरम् अर्थात् हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।
भगवान से प्रार्थना करते हुए उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।
गाडी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठ कर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है, वह याचना है, वह भीख है।
प्रार्थना शब्द के प्र का अर्थ होता है विशेष अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और अर्थना अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।
मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, शृंगार का, संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।
दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया है, उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें, तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुन: दर्शन करें।
इस पोस्ट में मंदिर के बाहर सीढ़ी पर बैठने के बाद क्या करना है, ये तो बहुत अच्छे तरीके से बताया गया है। साथ ही ऐसा करने का प्रयोजन भी आखिर में बताया गया है। वो यह कि भीतर जो दर्शन किया है, उसे सीढ़ी पर बैठ कर एक बार आत्मसात कर लें, ताकि वह चिरस्थाई हो जाए। जैसे पढ़ाई करते वक्त पढ़े हुए पाठ को याद रखने के लिए रिवीजन किया जाता है। जरा और स्पष्ट कर लें। दर्शन से हमने जो ऊर्जा हासिल की है, वह बाहर आते ही भौतिक वातावरण में तिरोहित न हो जाए, इसलिए कुछ क्षण बैठ कर उसे भीतर गहरे बैठाने की कोशिश की जाती है।
बेशक एक कारण ये हो सकता है, हालांकि लोग तो इस कारण को जाने बिना ही केवल ऑपचारिक रूप से ऐसा करते हैं। एक वजह सम्मान की भी हो सकती है। मंदिर से बाहर निकलते वक्त हमारी पीठ मूर्ति की ओर होती है, जो कि उचित नहीं। अत: मूर्ति के देवता के प्रति आदर व आभार प्रकट करने के लिए सीढ़ी पर कुछ क्षण बैठा जाता होगा। मेरी खोज जारी है, यदि कोई और कारण भी जानकारी में आया तो आपसे शेयर जरूर करूंगा।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

ज्यादा जीने की इच्छा क्यों? जी भी लिए तो क्या हो जाएगा?

एक शब्द है जिजीविषा। इसका अर्थ होता है जीने की इच्छा। हर आदमी अधिक से अधिक जीना चाहता है। इसके पीछे मोटे तौर पर ये इच्छाएं हो सकती हैं कि बेटे-बेटियां पढ़-लिख कर कमाने योग्य हो जाएं, उनकी शादी हो जाए, वंश वृद्धि हो, पोते-पोती देखें। और अगर पड़ पोते-पड़ पोतियां देख लें तो कहने ही क्या, उसे बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है। सोने की सीढ़ी पर चढ़ा कर स्वर्ग भेजने तक का टोटका किया जाता है। मगर सूक्ष्म इच्छा यही है कि आदमी और अधिक, और अधिक जीना चाहता है। यह उसका मौलिक स्वभाव है, उसका कुछ नहीं किया जा सकता।
जाहिर है कि अगर कोई हमें अधिक जीने की दुआ देगा तो हम खुश होंगे। तभी तो चिरायु, चिरंजीवी, शतायु होने के आशीर्वाद दिए जाते हैं। शतायु होने का आशीर्वाद इस कारण तर्कसंगत माना जा सकता है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष मानी गई है। सौ वर्ष पूर्णता के साथ जीने के पश्चात मोक्ष की कामना के मकसद से सौ वर्षों को चार हिस्सों में बांटा गया। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम,  वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम की व्यवस्था की गई ताकि मनुष्य काम, अर्थ, व धर्म के बाद मोक्ष को उपलब्ध हो जाए। लेकिन कम से कम इस काल में तो ऐसा है नहीं। आश्रम व्यवस्था को कोई नहीं मानता। अधिकतम औसत आयु पैंसठ से सत्तर वर्ष है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर कुछ और साल जी भी लिया जाए तो क्या हो जाएगा? जीवन में इतनी रुचि क्यों? अरे, मरने पर शरीर के साथ सब कुछ छूटेगा ही, यहां तक कि संचित संस्कार व ज्ञान भी किसी के काम नहीं आएगा, वो भी साथ ही चला जाएगा।
सच तो ये है कि बुढ़ापे के साथ बीमारियां घेरने लगती हैं। पचास वर्ष के आसपास कोई न कोई बीमारी घेर लेती है। ब्लड प्रेशर व शुगर तो आम बात है। साठ साल का होने तक शरीर के अनेक अंग कमजोर पडऩे लगते हैं। दांत गिरते हैं, बहरापन आता है, कम दिखता है, घुटने जवाब देने लगते हैं। अगर बीमार न भी हों तो भी जरा अवस्था अपने आप में ही बड़ी कष्ठप्रद है। इसके अतिरिक्त जमाना ऐसा आ गया है, परिवार टूट कर छोटी इकाइयों में बंटने लगा है। बुजुर्गों की सेवा ही मुश्किल से होती है। बुजुर्गों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। वृद्धाश्रम उसी की देन हैं। मैने देखा है कि वृद्धाश्रमों में एकाकी जीवन जीने वाले लोग भी मरने की कामना नहीं करते। और अधिक जीना चाहते हैं। वहां भी जीने का रस तलाश ही लेते हैं। कई बार तो ये भी देखा गया है कि बुढ़ापे में भौतिक खाद्य पदार्थों की इच्छा और अधिक अधिक जागृत होने लगती है।
खैर, जहां तक मुझे समझ आया है, अधिक जीने की इच्छा के पीछे एक गहरा राज है। वो यह कि हमारा शरीर जिन पांच तत्त्वों से मिल कर बना है, उनका गठन व तानाबाना इतना मजबूत है कि हमें लगता ही नहीं कि हम मरेंगे, भले रोज लोगों को मरते हुए देखते रहें। कदाचित श्मशान में कुछ पल के लिए यह ख्याल आ भी जाए, मगर बाहर निकलते ही वे श्मशानिया वैराग्य तिरोहित हो जाता है। वस्तुत: शरीर में आत्मा इतनी गहरी कैद है, इतनी गहरी गुंथी हुई है कि अंत्येष्टि के दौरान पूरा शरीर जल कर राख होने के बाद भी आखिर में आत्मा को इस जगत से मुक्त करने के लिए कपाल क्रिया करनी पड़ती है। इससे हम समझ सकते हैं कि आदमी की जिजीविषा कितनी गहरी है। उससे भी बड़ी बात ये कि अगर कोई व्यक्ति किसी चिंता, परेशानी या बीमारी की वजह से मरने की इच्छा भी करता है, तो भी मौत तभी आती है जब शरीर और अधिक साथ नहीं दे पाता। तभी आत्मा शरीर की कैद से मुक्त होती है।
प्रसंगवश एक तथ्य और जान लें। वो ये कि जन्म के पश्चात तीन साल तक आत्मा का शरीर के साथ गहरा अटैचमेंट नहीं होता। तीन साल का होने के बाद ही आत्मा का शरीर से गहरा जुड़ाव होता है। जो संन्यासी हैं, या जिन्होंने जीते जी मरने की कीमिया जान ली है, उन्हें भी शरीर से मुक्त माना जाता है। हिंदू संस्कृति में इसी कारण तीन सल तक बच्चे व संन्यासी का दाह संस्कार नहीं किए जाने की परंपरा रही। दाह संस्कार की जरूरत ही नहीं मानी गई। दफनाने से ही काम चल जाता है। निष्कर्ष यही कि आम तौर पर आत्मा का शरीर के साथ इतना गहरा संबंध होता है कि वह मरने की कल्पना तक नहीं करता।

-तेजवानी गिरधर
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रविवार, 5 जनवरी 2020

भगवान के दाढ़ी-मूंछ क्यों नहीं है?

आपने देखा होगा कि देवी-देवताओं से इतर जितने भी महामानव हुए हैं, जिन्हें कि हम भगवान मानते हैं, उनके चित्रों व मूर्तियों में चेहरों पर दाढ़ी-मूंछ नहीं होती। इसमें भी किंचित अपवाद हो सकता है, मगर क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों है? इस गुत्थी को समझने से पहले ये भी समझना होगा कि क्या ईश्वर व भगवान एक ही हैं या अलग-अलग? आम तौर पर हम इसमें कोई विभेद नहीं करते। ठीक वैसे ही जैसे शिव और शंकर को एक ही मानते हैं। भगवान व ईश्वर अलग-अलग हैं, इस पर चर्चा फिर कभी, फिलहाल भगवान शब्द पर आते हैं। इसकी अलग-अलग तरह से व्याख्या हुई है। जैसे जिसके पास धन है, उसे धनवान कहते हैं, उसी प्रकार जिसके पास भग है, वह भगवान है। भग अर्थात योनि। अर्थात प्रकृति। जो आदि शक्ति भगवति से युक्त है, वह भगवान है। वह पूर्ण है। हमारी संस्कृति में अर्धनारीश्वर का जिक्र आता है। उसका मतलब है, जो पुरुष व नारी के समान भाग से मिल कर बना है।
एक व्याख्या ये है कि साकार भगवान, निराकार ईश्वर का ही अवतार है, जैसे श्रीराम व श्रीकृष्ण। इसी प्रकार महावीर व बुद्ध को भी भगवान की श्रेणी में गिना जाता है। वो इसलिए कि महावीर ने केवल्य ज्ञान अर्जित किया और बुद्ध ने बुद्धत्व। इन दोनों के बारे में मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गए। वे पूर्णता को प्राप्त हो गए। जन्म-मरण के चक्र से मुक्त।
अब तथ्य की बात, जिसे कि विज्ञान भी मानता है। वो यह कि हर मनुष्य, चाहे वह नर हो या नारी, वह पुरुष व स्त्री, दोनों के ही गुणों से युक्त होता है, क्योंकि उसकी संरचना ही स्त्री व पुरुष के संयोग से हुई है। अंतर सिर्फ गुणसूत्रों का है। अगर पुरुष के गुणसूत्र अधिक हैं तो वह पुरुष के रूप में पैदा होता है और अगर स्त्री के गुणसूत्र अधिक हैं तो उसका जन्म नारी रूप में होता है। हर पुरुष में नारी के भी गुण होते हैं और हर स्त्री में पुरुषों के भी गुण होते हैं। आपने देखा होगा कि कुछ स्त्रियों में जन्म के बाद किन्हीं करणों से पुरुषों के गुण ज्यादा हो जाते हैं तो वह पुरुषों की तरह व्यवहार करती हैं। इसी प्रकार जिन पुरुषों में स्त्रियोचित गुण विकसित हो जाते हैं तो वे स्त्रैण कहलाते हैं। स्त्रैणता का सबसे अनूठा उदाहरण हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस। वे देवी के उपासक थे। वे देवी में इतने लीन हो गए कि उनका शरीर भी स्त्रैण हो गया और बताते हैं कि जीवन के आखिरी वर्षों में उनके स्तन उभरने लगे थे। प्राकृतिक विकृति के कारण गुण सूत्रों के असंतुलन के परिणाम स्वरूप मनुष्य किन्नर रूप में जन्म लेता है। हालांकि किन्नरों में भी नर-मादा का विभेद है, लेकिन आम तौर पर आपने देखा होगा कि किन्नर की आवाज पुरुषों की तरह मोटी होती है, मगर चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं आती। व्यवहार पुरुषों की तरह, मगर चाल-ढ़ाल स्त्रियों की तरह।
यह भी एक तथ्य है कि पुरुषों के चेहरे पर दाढ़ी व मूंछ के रूप में बाल होते हैं, जबकि स्त्रियों में ऐसा नहीं होता। कई बार ऐसा पाया गया है कि जो भी स्त्री पुरुषोचित व्यवहार करती है तो उसके भी पुरुषों की तरह चेहरे पर बाल आने लगते हैं। ऐसे भी प्रमाण हैं कि बहुत अधिक उम्र होने पर महिलाओं में गुण सूत्रों का, हारमोन्स का असंतुलन होता है और उनके दाढ़ी-मूंछ आने लगती है।
अब बात मुद्दे की। कोई भी पुरुष पूर्णता को उपलब्ध होता है, अर्थात भगवान की श्रेणी में आता है, तब उसमें पुरुष व स्त्री के गुण समान होते हैं। इसी कारण उसके चेहरे पर बाल नहीं होते। आपने भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध के जितने भी चित्र या मूर्तियां देखी होंगी, उनमें उनके दाढ़ी-मूंछ नजर नहीं आई होगी। वजह क्या है? क्या वे रोजाना शेव करते थे? इसका जिक्र शास्त्रों में तो कहीं पर भी नहीं है। अर्थात उनके चेहरे पर बाल आते ही नहीं थे? और वजह थी पूर्ण अवस्था। जितना पुरुष, उतनी ही स्त्री। हालांकि यह भी पक्का नहीं है कि वस्तुस्थिति क्या रही होगी, मगर कुछ तथ्यों के आधार पर ऋषि-मुनियों ने जैसा वर्णन किया, उसी के अनुरूप चित्र व मूर्तियां बना दी गईं।
ऐसी भी मान्यता है कि भगवान सदा किशोर और अमूर्त है। किशोरावस्था दाढ़ी पैदा होने से पहले की अवस्था है। भरपूर यौवन, प्रखर ओज। इसी आधार पर हमने भगवान की परिकल्पना किशोर के रूप में की। किशोरावस्था को ध्यान में रख कर ही मन्दिरों में मूर्तियां रची गईं। यही वजह है कि उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ नहीं दर्शाई गई है।
प्रसंगवश आखिर में भगवान की भिन्न-भिन्न व्याख्याओं पर आते हैं। भगवान शब्द में युक्त भग का अर्थ कामना व भाग्य भी होता है। भग से तात्पर्य प्रकृति या भौतिक संसार से है, अर्थात जो सभी भौतिक आनंदों, कामनाओं और भाग्य को धारणा करने वाला गर्भ है, वह भगवान है। राम व कृष्ण को हम अवतार की श्रेणी में मानते हैं, मगर चूंकि उन्होंने शरीर धारण किया है, इस कारण इस भौतिक संसार से बंधे हुए हैं। उनके जीवन में भी वैसे ही सुख-दुख आए, जैसे कि सामान्य मानव के आते हैं। भगवान का अर्थ जितेंद्रिय भी माना जाता है। इंद्रियों को जीतने वाला। जिसने पांचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंच तत्वों पर पकड़ है, उसे भगवान कहते हैं। जैसे महावीर व बुद्ध। जितेन्द्रिय यानि वह जो पूर्णता को, मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो गया हो, वही भगवान है। एक और व्याख्या में बताया गया है कि भग यानि ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य, ये छह गुण अपनी समग्रता में जिसमें हों, उसे भगवान कहते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, 2 जनवरी 2020

क्या है नजर लगने का वैज्ञानिक आधार?

आपने देखा होगा कि हम लोग नजर न लगने के लिए कई तरह के टोटके करते हैं। जैसे बच्चे को नजर न लगेे इसके लिए उसके कान के पीछे काला टीका लगाते हैं। यानि कि काला टीका किसी की नजर को जज्ब कर लेता है। नये मकान में ऊपर रेलिंग पर काली हांडी लगाते हैं। ताकि देख कर मन ही मन तारीफ करने वाले की नजर हांडी पर अटक जाए और मकान का बचाव हो जाए। इसी प्रकार गाडियों में पीछे जूता बांधते हैं। बुरी नजर वाले, तेरा मुंह काला स्लोगन भी आपने अमूमन देखा होगा। कई लोग बाजार में दुकानों पर शोकेस में रखी मिठाइयां, नमकीन इत्यादि इसलिए नहीं खाते, क्योंकि उन पर अनेक ललचाई नजरें पड़ती हैं। यदि हम कुछ खा रहे हैं और उसे कोई और मनुष्य या कुत्ता देख रहा होता है तो उसे भी उसमें कुछ अंश खाने को देते हैं, ताकि उसकी नजर न लगे। हालांकि आजकल तो मकानों में बाकायदा डाइनिंग हॉल बनाए जाते हैं, जिस पर बैठ कर सभी परिजन या मेहमान साथ में खा सकें। वैसे पुरानी मान्यता है कि भोग सदैव गुप्त स्थान पर ही करना चाहिए। कई लोग भोजन अकेले में छिप कर किया करते हैं, ताकि उस पर किसी की नजर न पड़े। कुछ जानकारों का मानना है कि किसी दूसरे व्यक्ति की नकारात्मकता जब हमारी सकारात्मकता पर हावी होती है तो उसे नजर लगना कहते हैं। छठवीं इंद्रिय युक्त साधिका प्रियांका लोटलीकर के अनुसार किसी अन्य व्यक्ति द्वारा संक्रमित रज-तम तरंगों से पीडित होने की प्रक्रिया को कुदृष्टि (बुरी नजर लगना) शब्द से जाना जाता है। कोई अन्य व्यक्ति जानबूझ कर अथवा अनजाने में हमें कुदृष्टि (बुरी नजर) से पीडित कर सकता है।
बुरी नजर व नकारात्मक शक्तियां असर न करें, इसके लिए मकान व दुकान के बाहर शनिवार को नीबू-मिर्ची टांगने की भी परंपरा हैं। इसका वैज्ञानिक आधार क्या है, पता नहीं, मगर वास्तुविद बताते हैं कि नीबू-मिर्ची नकारात्मक ऊर्जा को मकान व दुकान में प्रवेश करने से रोकते हैं और खुद जज्ब कर लेते हैं। इसके लिए शनिवार को उपयुक्त वार माना जाता है। दूसरे शनिवार को पहले से बंधे नीबू-मिर्ची को हटा कर सड़क पर फैंक दिया जाता है। टोटकों के जानकार बताते हैं कि शनिवार को उनके ऊपर से नहीं गुजरना चाहिए, अन्यथा उनमें  मौजूद नकारात्मक शक्तियां हमें प्रभावित कर सकती हैं।
नजर लगने पर उतारने के लिए कई तरह के उपाय भी प्रचलन में हैं।  बताते हैं कि अगर आपको ऐसा प्रतीत हो कि अमुक व्यक्ति की आपको नजर लग सकती है तो उसका झूठा पानी पी लो, उसका असर खत्म हो जाएगा। खैर, किसी और की क्या, मान्यता तो ये भी है कि खुद हम पर ही हमारी नजर लग जाती है। यही वजह है कि आम तौर हमारे साथ कुछ अच्छा होने के बारे में बताते वक्त हम कहते हैं कि भगवान की कृपा है। हालांकि ऐसा कहने से यही प्रतीत होता है कि हम भगवान का शुक्र अदा कर रहे होते हैं, मगर साथ ही इसका निहितार्थ ये भी है कि नजर न लग जाए। किसी की तारीफ करते वक्त थुथकार करने की भी परंपरा है। इसी कड़ी में कई पढ़े-लिखे लोग टच वुड शब्द का इस्तेमाल करते हुए आस-पास रखी लकड़ी की वस्तु को छूते हैं। टच वुड अर्थात लकड़ी को छूना। यह शब्द पाश्चात्य संस्कृति से आया है। अर्थात पाश्चात्य संस्कृति के लोग भले ही नजर लगने की हमारी मान्यता को दकियानूसी करार दें, मगर वे भी मानते तो हैं ही।
टच वुड शब्द का प्रयोग कब से हो रहा है, इस विषय में कोई तथ्यात्मक जानकारी नहीं है। बताया जाता है कि इसका प्रयोग ईसा पूर्व से चला आ रहा है। टच वुड कहते हुए लकड़ी को छूने से होता क्या है, इस बारे में भी कोई पुख्ता वैज्ञानिक प्रमाण मौजूद नहीं है, लेकिन आम धारणा है कि वृक्षों पर आत्माओं का निवास होता है। उनकी नजर आपकी खुशियों को नहीं लगे, इसलिए कोई अच्छी बात कहते वक्त लकड़ी छूते हैं, ताकि आत्माएं खुशियों में रुकावट न डालें। एक जानकारी ये भी है कि टच वुड बोलने के वक्त पवित्र माने जाने वाले चंदन, रुद्राक्ष, तुलसी आदि का स्पर्श करना अधिक शुभ फलदायी है। मुझे लगता है कि कुछ अच्छा बोलते वक्त सकारात्मक शक्तियों के साथ नकारात्मक शक्तियां भी प्रवाहित होती हैं और पेड को छूने से वह नकारात्मक एनर्जी को हजम कर जमीन को भेज देता है। चूंकि हर जगह पेड संभव नहीं है, इस कारण उसकी अनुपस्थिति में लकडी को छूने का चलन हो गया होगा।
-तेजवानी गिरधर
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