शनिवार, 7 मार्च 2020

मैं एक पेंडुलम हूं

भीतर के होश व बाहर की अनिवार्यता के बीच संतुलन बनाना वाकई कठिन है। आत्मा का सत्य तो आत्यंतिक है ही, भौतिक जगत का सत्य भी नकारा नहीं जा सकता, भले ही वह नश्वर है। प्रतिपल भस्म होता है, मगर जब गुजर रहा होता है, तब तो तात्कालिक सत्य होता है। परस्पर सर्वथा विरोधी धु्रवों के बीच कभी-कभी अपने आप को पेंडुलम सा प्रतीत करता हूं। कभी इस छोर पर तो कभी इस छोर पर। और कभी एक साथ दोनों की मौजूदगी। बेशक सतत भाव स्थिर चित्त का है, लेकिन चिदाकाश में विचरण शारीरिक मौजूदगी की अनिवार्य स्थिति है। उसके अपने सुख-दुख हैं, मगर संतोष इस बात से होता है कि अवतार भी तो सशरीर होने के कारण सांसारिक स्थितियों को भोगते हैं, भले ही इसे उनकी लीला कहा जाए। खैर, असलियत का पता है, मगर नाटक तो करना ही पड़ता है। इस संदर्भ में यह सूत्र मुझे प्रीतिकर लगता है:-

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभ्य सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वाऽमृतमश्नुते।।
बुद्धिमान मनुष्य विद्या एवं अविद्या, दोनों को ही एक साथ जानता है। वह अविद्या के सहारे मृत्युमय इस संसार को पार करता है, अर्थात् उसका उपयोग करते हुए सार्थक ऐहिक जीवन जीता है, तभी भौतिक कष्टों तथा व्यवधानों से मुक्त होकर वह विद्या पर ध्यान केंद्रित करते हुए देहावसान के उपरांत सच्चिदानंद परमात्मा के रूप में प्राप्य अमृतत्वपूर्ण परलोक का भागीदार बनता है।


-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुलभ व साधारण भाषा द्वारा आपने अपनी बहुमूल्य वाणी का बोध करवाया
    धन्यवाद

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  2. https://www.quora.com/What-are-the-character-building-books-you-read-when-you-were-growing-up/answer/Shri-Soni-3

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