बुधवार, 11 जून 2025

पानी सदैव बैठ कर ही पीना चाहिए

दोस्तो, नमस्कार। हम आम तौर पर पानी पीते समय यह ख्याल नहीं रखते कि हम बैठे हैं या खडे हुए। सच तो यह है कि अनेक लोगों को इसका पता ही नहीं कि पानी बैठ पीना चाहिए। इसके अनेक फायदे हैं। हिंदू व मुस्लिम दोनों संस्कृतियों में इसकी महत्ता बताई गई है। बैठ कर पानी पीने की परंपरा बहुत पुरानी है, और इसके पीछे कुछ वैज्ञानिक (मेडिकल) कारण भी हैं। आयुर्वेद भी इसे अधिक लाभकारी मानता है। असल में जब हम बैठ कर पानी पीते हैं, तो शरीर रिलैक्स होता है और पेट की मांसपेशियों को पानी को नियंत्रित रूप से पचाने का समय मिलता है। इससे पाचन क्रिया बेहतर होती है और गैस, अपच, और एसिडिटी से राहत मिलती है। खड़े होकर पानी पीने से पानी तेजी से शरीर में जाता है, जिससे हृदय पर अचानक दबाव पड़ सकता है। बैठने की स्थिति में पानी धीरे-धीरे अवशोषित होता है, जो दिल और किडनी के लिए फायदेमंद है। बैठने से शरीर एक शांत अवस्था में होता है, जिससे नर्वस सिस्टम संतुलित रहता है और तनाव कम होता है। धीरे-धीरे और बैठ कर पानी पीने से किडनी फिल्ट्रेशन प्रोसेस (ग्लोमेर्युलर फिल्ट्रेशन रेट) बेहतर होता है, जिससे टॉक्सिन्स ठीक से बाहर निकलते हैं। आयुर्वेद के अनुसार खड़े होकर पानी पीने से वात दोष बढ़ सकता है, जिससे जोड़ों में दर्द की समस्या हो सकती है। बैठ कर पानी पीने से शरीर ध्यानपूर्वक और धीमे तरीके से पानी ग्रहण करता है, जिससे पानी शरीर के ऊतकों तक अच्छे से पहुंचता है। इसके विपरीत खड़े होकर पानी पीने के कई नुकसान हैं। पानी जल्दी और झटके में पेट में जाता है, जिससे गैस, एसिडिटी और थकान हो सकती है। खड़े होकर पीने से घुटनों और हड्डियों पर असर पड़ सकता है। किडनी पर अचानक लोड आ सकता है। उधर इस्लाम के अनुसार बैठ कर पानी पीना सुन्नत है। यह कई हदीसों से प्रमाणित है। हजरत अली रजियातालाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह ने खड़े होकर पानी पीने से मना किया है। हां, एक हदीस में आता है कि नबी करीम ने जमजम का पानी खड़े होकर पिया था। इससे यह समझा जाता है कि खड़े होकर पीना हराम (निषिद्ध) नहीं है, लेकिन बैठ कर पीना ज्यादा अफजल (श्रेष्ठ) और सुन्नत के अनुसार है।

इस्लामिक हिकमत के अनुसार बैठ कर पानी पीना सुन्नत और आदाब, पाचन और किडनी के लिए अच्छा है। खड़े होकर पीना जरूरत में जायज लेकिन इससे नुकसान संभव है।

केवल जरूरत या मजबूरी में (जैसे जमजम, भीड़ या सफर में) खड़े होकर पानी पीना जायज है, लेकिन आदतन नहीं। अतः हमेशा बैठकर, धीरे-धीरे और छोटे-छोटे घूंटों में पानी पीना चाहिए।


https://youtu.be/_cUajyD0FWE

https://ajmernama.com/vishesh/432778/

मंगलवार, 10 जून 2025

सिंधी माह 15 दिन बाद क्यों शुरू होता है?

दोस्तो, नमस्कार। क्या आपको ख्याल है कि सिंधी समुदाय हिंदू धर्म का ही पालन करता है, फिर भी सिंधी माह अक्सर हिंदू माह की तुलना में लगभग 15 दिन बाद आरंभ होता है। आखिर इसकी वजह क्या है? स्वयं सिंधी भाई-बहिनों तक को कौतुहल होता है। वस्तुतः हिंदू अमांत मास अमावस्या से शुरू होता है और सिंधी मास पूर्णिमा के बाद शुरू होता है, इसलिए दोनों में लगभग 15 दिन का अंतर होता है।

जरा विस्तार से समझने की कोषिष करते हैं। हिंदू चंद्र कैलेंडर में एक माह दो प्रकार से गिना जा सकता है। अमांत पद्धति के अनुसार माह अमावस्या से शुरू होकर अगली अमावस्या तक चलता है। यह पद्धति महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश में प्रचलित है। दूसरी पद्धति है पूर्णिमांत, इसमें माह पूर्णिमा से शुरू होकर अगली पूर्णिमा तक चलता है। यह पद्धति उत्तर भारत में अधिक प्रचलित है, जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब आदि।

सिंधी चंद्र कैलेंडर पूर्णिमांत प्रणाली का अनुसरण करता है, लेकिन माह की शुरुआत पूर्णिमा के तुरंत बाद यानि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होती है, और वह कई बार हिंदू कैलेंडर से लगभग 14 या 15 दिन बाद पड़ती है।

सिंधी संस्कृति और इस्लामिक संस्कृति में तिथियों को लेकर कुछ रोचक समानताएं और भिन्नताएं दोनों हैं, खासकर इस वजह से कि सिंध क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से दोनों सभ्यताओं का संगम रहा है। दोनों संस्कृतियां चंद्रमा के आधार पर तिथियों की गणना करती हैं। इस्लामिक कैलेंडर पूरी तरह से चंद्र आधारित है। 

सिंधी संस्कृति, सनातन पंचांग का अनुसरण करती है, जो लूनी-सोलर यानि (चंद्र-सौर मिश्रित) प्रणाली पर आधारित है, लेकिन पर्व व्रत चंद्र तिथियों पर आधारित होते हैं। दोनों में पर्वों की तिथियां हर वर्ष ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार बदलती रहती हैं। जैसे रमजान, ईद, मुहर्रम आदि इस्लामी त्यौहार हर साल 10-11 दिन पहले आते हैं। सिंधी पर्व चेटी चंड भी अंग्रेजी कैलेंडर में हर साल अलग तारीख को आता है।

वस्तुतः सिंध क्षेत्र में 8वीं सदी में इस्लाम का आगमन हुआ। इसके बाद कई सदियों तक वहां हिंदू और मुस्लिम समुदाय साथ-साथ रहे, जिससे सांस्कृतिक संवाद हुआ। सिंधी मुस्लिम और सिंधी हिंदू दोनों ने चंद्र माहों और तिथियों के आधार पर अपने-अपने धार्मिक पर्व बनाए रखे, लेकिन सामाजिक ढाँचा और भाषा साझा रही। सिंधी भाषा दोनों समुदायों द्वारा बोली जाती है, जिससे तिथियों और सांस्कृतिक प्रतीकों को साझा करने की परंपरा रही है।


https://youtu.be/XgdxgUKN5sk


https://ajmernama.com/vishesh/432746/

मुस्लिम हलाल का मांस ही क्यों खाते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। हाल ही ईद के मौके पर मेरे एक मुस्लिम मित्र ने सुझाव दिया कि बकरे को हलाल तरीके से काटे जाने पर जानकारीपूर्ण वीडियो बनाइये, क्यों कि कई लोगों को इसकी पूरी जानकारी नहीं है। आम तौर पर लगभग सभी को पता है कि बकरे को दो तरह से जबह यानि काटा जाता है। मुसलमान हलाल तरीके से काटे हुए बकरे का सेवन करते हैं, जबकि राजपूत व सिख झटके से काटा गया बकरा ही खाते हैं।

बकरे के हलाल और झटके में मुख्य अंतर मृत्यु की प्रक्रिया और धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा होता है। हलाल तरीके में बकरे के गर्दन की ष्वास नली या ग्रास नली काटी जाती है, जिससे खून धीरे धीरे निकलता है। झटके में बकरे को एक ही झटके में रीढ़ की हड्डी सहित काटा जाता है, सिर को एक बार में धड से अलग कर दिया जाता है, ताकि तुरंत मौत हो जाए। सोच है कि इससे बकरे को दर्दनाक मौत नहीं गुजरना होता है। कुछ लोग मानते हैं कि झटके वाले मांस के सेवन से आदमी में षौर्य आता है।

हलाल में बकरे का खून धीरे धीरे बाहर निकलता है, जिससे मांस ज्यादा साफ होता है। बकरा कुछ समय तक जीवित रहता है, जिससे मांस में तनाव बढ़ सकता है। झटके में खून एकदम में नहीं निकल पाता, कुछ खून अंदर रह सकता है। बकरे की तुरंत मृत्यु होती है, जिससे कम तनाव होता है।

सवाल उठता है कि इस्लाम में बकरे को हलाल क्यों किया जाता है? इस बारे में मान्यता है कि बकरे का खून त्याज्य है। इस्लाम में कुछ विशिष्ट अंगों का सेवन हराम यानि (निषिद्ध) माना गया है, भले ही जानवर हलाल तरीके से जिबह (काटा) किया गया हो। बकरे या किसी भी हलाल जानवर के शरीर के पाँच अंगों को विशेष रूप से हराम बताया गया है। पहला है खून, चाहे वो जमा हुआ हो या बहता हुआ, उसका सेवन हराम है। इसके अतिरिक्त मूत्राशय यानि ब्लेडर और पित्ताशय यानि गालब्लेडर, इसमें मूत्र और पित्त भरा होता है, जिसे शरीर से विषैले तत्वों को निकालने के लिए बनाया गया है। ये अशुद्ध माने जाते हैं। इसके अलावा गुदा यानि एनस भी नापाक और घृणित अंग माना जाता है, इसका सेवन बिल्कुल हराम है। नर जानवरों के अंडकोष यानि टेस्टिकल्स यह शरीअत के अनुसार हराम है क्योंकि यह गंदगी का अंग माना जाता है। मस्तिश्क व रीढ की हड्डी के बीच स्थित मज्जा को लेकर तनिक मतभेद है। कुछ अंगों में विभिन्न इस्लामी फिरकों (हानाफी, शाफेई, हंबली, मालेकी) में अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन ऊपर दिए गए अंगों को अधिकांश विद्वानों ने हराम या मकरूह (अवांछनीय) माना है।


https://youtu.be/K3n2AWsEnMc


गुरुवार, 5 जून 2025

छोटी बहिन ने पैर छू कर दी विशेष दृष्टि

दोस्तो, नमस्कार। मुझे आज भी कई बार उस वाकये का ख्याल आता है, जब मेरी छोटी बहिन षषि मेरे पैर छुआ करती थी। वह जानती थी कि हमारे यहां कन्या से पैर नहीं छुआए जाते हैं, इस कारण वह मेरे सोते वक्त छुप कर पैर छुआ करती थी। मुझे इसका इल्म ही नहीं था, लेकिन एक बार जब उसने पैर छुए तो अचानक मेरी नींद खुल गई। मैंने उसे डांटा, ऐसा क्यो कर रही है। उसने जो बात कही, उसे सुन कर मैं चकित रह गया। उसने बताया कि उसे मुझ में भगवान के दर्षन होते हैं। मैने उसे समझाया कि कोई इंसान भगवान कैसे हो सकता है। यह तुम्हारा वहम है। मुझे यह समझ ही नहीं आया कि उसे क्यों कर यह लगा कि मैं भगवान का रूप हूं। कहने की आवष्यकता नहीं कि वह नितांत भ्रांति से ग्रसित थी। मैने उसके साथ कभी ज्ञान चर्चा नहीं की कि उसे इस प्रकार का भ्रम हो कि मैं कुछ विषिश्ट हूं। हो सकता हो कि उसे मेरी दिनचर्या के कारण इस प्रकार की भ्रांति हुई हो। दूसरा ये कि उसे कौन से भगवान के दर्षन हुए? उसकी कल्पना का भगवान कैसा हो सकता है? कहीं उसने किसी गुण विषेश ही तो भगवान नहीं मान लिया? असल में वह बहुत बीमार रहा करती थी और मैने उसकी खूब सेवा की, कदाचित कृतज्ञता के भाव से उसने पैर छुए हों, जो भी हो मेरी बहिन के इस कृत्य को मैने कोई महत्व नहीं दिया, मगर उससे एक फायदा ये हुआ कि मुझे प्रेरणा मिली। अगर उसे मुझ में कुछ विषिश्टता दिखाई दी, जिसका कि मुझे भान नहीं था, उसे मुझे विकसित करना चाहिए। उसे मुझे पहचानना चाहिए और कुछ विषिश्ट करना चाहिए। अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए। आप देखिए, प्रकृति कैसे किसी को प्रेरणा देने का कोई माध्यम चुनती है। प्रकृति की इस व्यवस्था के प्रति मैं अहोभाव से नतमस्तक हूं।

https://youtu.be/HNj94prjJok

https://ajmernama.com/chaupal/432545/


सोमवार, 2 जून 2025

खडे हो कर मूत्र त्याग करना हानिकारक

दोस्तो, नमस्कार। चूंकि आदमी खडे हो कर आसानी से मूत्र त्याग कर सकता है, इस कारण यह चलन हो गया। इसलिए दुनिया के सारे यूनिनल में खडे होकर मूत्र त्याग की व्यवस्था हो गई। जबकि महिलाओं के लिए बैठ कर मूत्र त्याग की व्यवस्था की गई। एक बडी भूल हो गई। वह तथ्य ही गौण हो गया कि खडे हो कर मूत्र त्याग करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। वस्तुतः बैठ कर पेशाब करने से प्रोस्टेट और मूत्राशय के बेहतर खाली होने में मदद मिलती है। बैठने की स्थिति में पेल्विक मसल्स और मूत्रमार्ग को आराम मिलता है, जिससे पेशाब पूरी तरह से बाहर निकलता है। यह खासकर बुजुर्ग पुरुषों और प्रोस्टेट बढ़ने वाले मरीजों के लिए फायदेमंद है। बैठ कर पेशाब करने से मूत्र फर्श या दीवारों पर नहीं छिटकता, जिससे साफ-सफाई बेहतर रहती है। हां, इतना जरूर है कि सार्वजनिक स्थानों पर बैठ कर पेशाब करना, जैसे गंदे टॉयलेट में, अस्वच्छ हो सकता है। सार्वजनिक स्थानों पर खडे हो कर पेषाब करने से आपको टॉयलेट सीट को छूना नहीं पड़ता, जिससे इंफेक्शन का खतरा थोड़ा कम हो सकता है। इसके अतिरिक्त खासकर सार्वजनिक स्थानों पर या जब जल्दी हो तो खडे हो कर मूत्र त्याग करने का तरीका तेज और सुविधाजनक होता है।

एक स्टडी में पाया गया कि बैठकर पेशाब करने से प्रोस्टेट से जुड़ी समस्याओं वाले पुरुषों में बेहतर मूत्र प्रवाह और मूत्राशय की अधिक सफाई होती है। निश्कर्श यही कि यथा संभव बैठ कर ही पेषाब करना चाहिए।

https://youtu.be/iCcgXZiRgKY

मंगलवार, 20 मई 2025

क्या कलंदर व झूलेलाल एक ही हैं?

जिस गीत दमा दम मस्त कलंदर को गा और सुन कर सिंधी ही नहीं, अन्य समुदाय के लोग भी झूम उठते है, उस पर यह सवाल बना हुआ है कि क्या कलंदर व सिंधियों के आराध्य देवता झूलेलाल एक ही हैं? पाकिस्तान की मशहूर गायिका रेश्मा व बांग्लादेश की रूना लैला की जुबान से थिरक कर लोकप्रिय हुआ यह गीत किसकी महिमा या स्मृति में बना हुआ है, इसको लेकर विवाद है।

यहां रूना लैला की ओर से गाए गए इस गीत का मुखडा साभार व माजरत के साथ प्रस्तुत है, जिसका मकसद है कि आपको ठीक से ख्याल हो जाए कि वह गीत कौन सा है।

यह सर्वविदित है कि आम तौर सिंधी समुदाय के लोग अपने विभिन्न धार्मिक व सामाजिक समारोहों में इसे अपने इष्ट देश झूलेलाल की प्रार्थना के रूप में गाते हैं, लेकिन भारतीय सिंधू सभा ने खोज-खबर कर दावा किया है कि यह गीत असल में हजरत कलंदर लाल शाहबाज की तारीफ में बना हुआ है, जिसका झूलेलाल से कोई ताल्लुक नहीं है। सभा एक पर्चा छाप कर इसका खुलासा कर चुकी है। 

इस बारे में सिंधी समाज महासमिति अजमेर के अध्यक्ष श्री कंवल प्रकाश किशनानी ने जो जानकारी दी वह इस प्रकार है

पर्चे के अनुसार आम धारणा है कि यह अमरलाल, उडेरालाल या झूलेलाल अवतार की प्रशंसा या प्रार्थना के लिए यह गीत बना है। उल्लेखनीय बात है कि पूरे गीत में झूलेलाल से संदर्भित प्रसंगों का कोई जिक्र नहीं है, जैसा कि आम तौर पर किसी भी देवी-देवता की स्तुतियों, चालीसाओं व प्रार्थनाओं में हुआ करता है। सिर्फ झूलेलालण शब्द ही भ्रम पैदा करता है कि यह झूलेलाल पर बना हुआ है। असल में यह तराना पाकिस्तान स्थित सेहवण कस्बे के हजरत कलंदर लाल शाहबाज की करामात बताने के लिए बना है।

पर्चे में बताया गया है कि काफी कोशिशों के बाद भी कलंदर शाहबाज की जीवनी के बारे में कोई लिखित साहित्य नहीं मिलता। पाकिस्तान में छपी कुछ किताबों में कुछ जानकारियां मिली हैं। उनके अनुसार कलंदर लाल शाहबाज का असली नाम सैयद उस्मान मरुदी था। उनका निवास स्थान अफगानिस्तान के मरुद में था। उनका जन्म 573 हिजरी यानि 1175 ईस्वी में हुआ। उनका बचपन मरुद में ही बीता। युवा अवस्था में वे हिंदुस्तान चले आए। सबसे पहले उन्होंने मंसूर की खिदमत की। उसके बाद बहाउवलदीन जकरिया मुल्तानी के पास गए। इसके बाद हिजरी 644 यानि 1246 ईस्वी में सेवहण पहुंचे। हिजरी 650 यानि 1252 ईस्वी में उनका इंतकाल हो गया। इस हिसाब से वे कुल छह साल तक सिंध में रहे।

कुछ किताबों के अनुसार आतताइयों के हमलों से तंग आ कर मुजाहिदीन की एक जमात तैयार हुई, जो तबलीगी इस्लाम का फर्ज अदा करती थी। उसमें कलंदरों का जिक्र आता था। आतताइयों में से विशेष रूप से चंगेज खान, हलाकु, तले और अन्य इस्लामी सुल्तानों पर चढ़ाई कर तबाही मचाई थी। इसमें मरिवि शहर का जिक्र भी है, जो शाहबाज कलंदर का शहर है। कलंदर शाह हमलों के कारण वहां से निकल कर हिंदुस्तान आए। वे मुल्तान से होते हुए 662 हिजरी में सेवहण आए और 673 में उनका वफात हुआ। यानि वे सेवहण में 11 साल से ज्यादा नहीं रहे। इस प्रकार उनके सेहवण में रहने की अवधि और वफात को लेकर मत भिन्नता है। पर्चे के अनुसार सेवहण शहर पुराना है। कई संस्कृतियों का संगम रहा। वहीं से सेवहाणी कल्चर निकल कर आया, जिसकी पहचान बेफिक्रों का कल्चर के रूप में थी। यह शहर धर्म परिवर्तन का भी खास मरकज रहा। इसी सिलसिले में बताया जाता है कि वहां एक सबसे बड़े शेख हुए उस्मान मरुंदी थे, जिन्हें लाल शाहबाज कलंदर के नाम से भी याद किया जाता है।

पर्चे में बताया गया है कि शाह कलंदर का आस्ताना सेवहण में जिस जगह है, वहां पहले शिव मंदिर था। वहां पर हर वक्त अलाव जलता रहता था, जिसे मुसलमान अली साईं का मच कहते थे। यह शहर जब सेवहण में शाह कलंदर का वफात हुआ तो हिंदुओं ने उनको अपने मुख्य मंदिर में दफन करने की इजाजत दी। बाद में वहां के पुजारी भी उनके मलंग हो गए।

अलबत्ता परचे में इसे जरूर स्वीकार किया गया है कि दमा दम मस्त कलंदर अकीदत से गाने से मुरादें पूरी होती हैं। आम धारणा है कि सात वर्ष की उम्र में उन्होंने कुरआन को जुबानी याद कर लिया था। यह भी पक्का है कि उनको अरबी व फारसी के साथ उर्दू जीनत जुबान भी बोलते थे। पूरी उम्र उन्होंने शादी नहीं की। उनके मन को जर और जमीन भी मैला नहीं कर पाए। अन्य दरवेश तो बादशाहों के नजराने कबूल कर लेते थे, मगर शाह कलंदर उस ओर आंख उठा कर भी नहीं देखते थे।

पर्चे में यह स्पष्ट नहीं है कि दमा दम मस्त कलंदर गीत में झूलेलालण शब्द कैसे शामिल हो गया, जिसकी वजह से सिंधी समुदाय के लोग इसे श्रद्धा के साथ गाते हैं। बहरहाल यह इतिहासविदों की खोज का विषय है कि शाहबाज कलंदर को झूलेलाल क्यों कहा गया है।

दूसरी ओर विकीपीडिया में बताया गया है कि सूफी संत लाल शाहबाज कलंदर की दरगाह 13 वीं सदी की है। ये दरगाह पाकिस्तानी प्रांत सिंध के शहर सेहवन शरीफ में स्थित है।


https://www.youtube.com/watch?v=COszpBXQYzA


बुधवार, 7 मई 2025

राई का भाव तो रात्यूं ही गिया

दोस्तो, नमस्कार। आपने एक मारवाडी कहावत सुनी होगी कि राई का भाव तो रात्यूं ही गिया। इसका अर्थ है कि राई के भाव तो रात को ही गये। यह कहावत कैसे बनी, इसको लेकर दो किंवदंतियां हैं। एक तो राजषाही के जमाने की है। इसके अनुसार एक बार अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर किले पर हमला कर दिया तो जालौर के राजा ने किले के गेट सहित पूरी दीवार को गोबर व मिट्टी से बंद कर दिया। अलाउद्दीन को किले के अंदर जाने का रास्ता नहीं मिल रहा था तो किसी ने उपाय बताया कि राई को मंगवा कर दीवार पर छिडकवा दीजिए। जहां राई उग जाए, समझ जाना कि वहीं पर किले का गेट है, क्योंकि राई रात भर में उग जाती है। अलाउद्दीन ने रात को बहुत महंगे भाव में बडी मात्रा में राई मंगवाई और किले की दीवारों पर फेंकी। जिन्हें सुबह पता चला वे सुबह राई लेकर आए, मगर खिलजी के आदमियों ने खरीदने से मना कर दिया, चूंकि राई की जरूरत तो रात को थी, उन्होंने राई लाने वालों से कहा कि राई का भाव रात्यूं ही गिया।

दूसरी किंवदंती यह है। एक बार किसी गांव में चोर एक सेठ सेठानी के घर में चोर घुस गया। जैसे ही चोर की आहट हुई तो सेठ जी की आंख खुल गई। सेठ बहुत चतुर था। उसने सेठानी को जगा कर धीरे से कहा कि अपने घर में चोर घुस गया है, इसलिए चतुराई से काम लेना। सेठजी ने जो से चिल्ला कर कहा कि ओ नाथ्या की मां, मैं राई की बोरी लेकर आया था, वह कहां रखी है? सेठानी ने कहा कि वो तो बरामदे में रखी है। इस पर सेठ ने कहा कि राई के भाव आसमान को छू गए हैं। सोने से भी ज्यादा महंगी हो गई है। बोरी का मुंह ठीक से बंद कर दिया है ना। यह बात चोर ने सुनी। उसने सोचा कि सोने चांदी के गहनों में क्या उलझना, यह एक बोरी ही उठा कर चलो, रातों रात करोडपति हो जाएंगे। वह राई की बोरी उठा कर ले गया। सेठ ने सोचा की चलो अपनी स्कीम काम कर गई है। वे सुबह अपनी दुकान पर गए। अगरबत्ती कर के बैठ गए। संयोग से चोर उनकी ही दुकान पर आया। उसे अंदाजा नहीं था कि वह जिस सेठ के यहां से राई की बोरी चुरा कर लाया है, यह उनकी ही दुकान है। चोर ने कहा कि राई लोगे क्या? सेठ ने कहा कि जरूर क्यों नहीं। चोर ने पूछा कि राई का भाव क्या है तो सेठ ने कहा कि यही कोई पांच छह रूपये किलो है। चोर ने कहा कि मैने तो सुना है कि राई के भाव तो सोने से भी ज्यादा हैं। इस पर सेठ ने कहा कि राई का भाव तो रात्यों ही गिया। सेठ ने चोर को पकड कर घुनाई की और पुलिस के हवाले कर दिया।


जगदीप धनखड अजमेर में एक चूक की वजह से हार गए थे

अज्ञात परिस्थितियों में उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने वाले जगदीप धनखड का नाम इन दिनो सुर्खियों में है। उनको लेकर कई तरह की चर्चाएं हो रही...