गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

एआई जनित चुनाव प्रचार सामग्री कितनी चुनौतिपूर्ण?

हाल ही चुनाव आयोग ने एआई के जरिए बनाई गई प्रचार सामग्री के लिए गाइड लाइन जारी की है। वह इसको लेकर बहुत चिंतित है। वह फर्जी प्रचार सामग्री पर कितना अंकुष लगा पाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। 

वस्तुतः एआई जनित प्रचार सामग्री चुनाव आयोग के लिए एक बड़ी नई चुनौती बनकर उभर रही है। एआई की मदद से उम्मीदवारों या नेताओं की नकली आवाज और चेहरे वाले वीडियो आसानी से बनाए जा सकते हैं, जिन्हें आम जनता वास्तविक मान लेती है। चुनाव आयोग के लिए यह तय करना मुश्किल होता है कि कौन-सा वीडियो असली है और कौन सा एआई से तैयार किया गया है। एआई टूल्स बड़ी मात्रा में झूठे या आधे-सच वाले संदेश, पोस्ट और ग्राफिक्स तैयार कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर इन सामग्रियों को रोकना लगभग असंभव हो जाता है, जिससे मतदाताओं की राय प्रभावित होती है। एआई मतदाताओं के ऑनलाइन व्यवहार और डेटा के आधार पर पर्सनलाइज्ड संदेश बना सकता है। इससे चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठते हैं क्योंकि यह मतदाताओं की सोच को छिपे तरीके से प्रभावित करता है। वर्तमान कानूनों में एआई-जनित सामग्री के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं हैं। चुनाव आयोग को तय करना पड़ता है कि क्या ‘एआई प्रचार’ स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अंतर्गत आता है या यह आचार संहिता का उल्लंघन है। एआई सामग्री इतनी तेजी से बनती और फैलती है कि आयोग के पास मौजूद तकनीकी संसाधन उसे तुरंत सत्यापित नहीं कर पाते। वास्तविकता जांच और नियंत्रण में समय लग जाता है। अधिकतर मतदाता एआई जनित सामग्री और असली सामग्री में फर्क नहीं कर पाते।

इससे गलत जानकारी के आधार पर वोटिंग निर्णय लिए जा सकते हैं।

कुल मिला कर एआई जनित प्रचार सामग्री चुनाव की निष्पक्षता, पारदर्शिता और विश्वसनीयता, तीनों के लिए गंभीर खतरा है। इससे निपटने के लिए चुनाव आयोग को चाहिए कि वह एआई सामग्री की पहचान के लिए तकनीकी सेल बनाए, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के साथ रीयल-टाइम मॉनिटरिंग करे, और जनता में डिजिटल साक्षरता अभियान चलाए।


शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

किसी देश में राइट हैंड तो किसी में लेफ्ट हैंड डाइव क्यों?

कुछ देशों में सड़क के बाईं ओर गाड़ी चलाई जाती है, यानि लेफ्ट हैंड डृाइव और कुछ देशों में दायीं ओर चलाई जाती है, यानि राइट हैंड डाइव। क्या आपने सोचा है कि ऐसा क्यों? आइये समझने का प्रयास करते हैं। जहां तक लेफ्ट हैंड डाइव का सवाल है, उसके मूल में यह वजह है। जब तक आदमी लड़ता-झगड़ता नहीं था, तब तक सब सही था. लेकिन फिर वो साथ में तलवार लेकर चलने लगा। ज्यादातर लोग राइटी होते हैं, तो ज्यादातर तलवारबाज दाएं हाथ से तलवार चलाते थे। जब वो घोड़ा लेकर सड़क पर निकलते तो सड़क के बाईं ओर चलते, ताकि सामने से आने वाले दुश्मन को उनके दाईं तरफ से ही गुजरना पड़े. ऐसे में उस पर आसानी से वार किया जा सकता था।

इस तरह सड़क पर बायीं चलने की रवायत पड़ी। इसमें ट्विस्ट आया 18वीं सदी में। फ्रांस और अमेरिका में खेत की उपज ढोने के लिए बड़ी-बड़ी बग्घियां बनीं, जिन्हें कई घोड़े जोत कर खींचा जाता था. लेकिन इन बग्घियों में गाड़ीवान के लिए जगह नहीं होती थी. तो एक आदमी किसी एक घोड़े पर बैठ कर बाकी को हांकता था. अब चाबुक चलाने के लिए इस आदमी को अपना दायां हाथ फ्री रखना होता था. इसलिए ये बाईं तरफ जुते आखिरी घोड़े पर बैठता था. अब चूंकि ये आदमी बग्घी की बाईं तरफ बैठा होता था, वो बग्घी सड़क की दाईं तरफ चलाता था ताकि सामने से आने वाली गाड़ियां उस तरफ से निकलें जहां वो बैठा हुआ है. इससे दो बग्घियों के क्रॉस होते वक्त टक्कर वगैरह पर नजर रखी जा सकती थी. इस तरह सड़क पर दाएं चलने की रवायत पड़ी।

कुछेक देशों में नियम भी बने. जैसे रूस ने दाएं चलने का नियम बनाया 1752 में. लेकिन सज्जे-खब्बे की असल लड़ाई शुरू हुई फ्रांस में क्रांति के साथ. क्रांति के दौरान फ्रांस में बड़े पैमाने पर रईसों का कत्ल हुआ. इसलिए वहां के रईसों में डर बैठ गया और कहीं जाने के लिए उन्होंने भी सड़क की दाईं ओर चलना शुरू किया. इससे वो सफर के दौरान निचले तबके में घुल-मिल और अपेक्षाकृत सुरक्षित रहते. क्रांति के बाद फ्रांस में नियम बना कि सड़क पर दाईं तरफ ही चला जाएगा. साल था 1794.

फ्रांस की क्रांति से जो देश अछूते रहे, वहां बाईं तरफ चलने का नियम बन गया. जैसे ब्रिटेन (1835) और पुर्तगाल. कुल मिला कर यूरोप में इसी तरह तय हुआ कि सड़क पर बाईं तरफ चला जाए कि दाईं तरफ. लेकिन एक ट्विस्ट फिर आया. उसका नाम था नेपोलियन. नेपोलियन जहां-जहां जाकर जीता, वहां-वहां उसने दाईं तरफ चलने का नियम बनाया. नेपोलियन के बहुत बाद जब हिटलर हुआ तो उसने यूरोप के बचे-खुचे देशों में भी दाएं चलने का नियम बना दिया. 

यूरोप के देशों ने दुनिया भर के देशों को अपना गुलाम बनाया. जहां-जहां वो जाते, अपने यातायात नियम भी लागू करते. मसलन ब्रिटेन जहां-जहां गया- जैसे भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड वगैरह में बाएं चलने का नियम बना और जहां-जहां फ्रांस गया, वहां दाएं चलने का नियम बना. कुछ अपवाद रहे. जैसे मिस्र (ईजिप्ट), जो अंग्रेजों का गुलाम रहा था लेकिन दाएं ही चला. चक्कर ये था कि मिस्र में अंग्रेजों से बहुत पहले नेपोलियन पहुंच गया था. और तब से ही मिस्र सड़क की दाईं तरफ चलता है.

स्वीडन का मामला थोड़ा अलग है. वहां बाईं तरफ चलने का नियम बना हुआ था. लेकिन ये छोटा सा देश सब तरफ से दाएं चलने वाले देशों से घिरा था. तो यहां लेफ्ट-राइट में से एक को चुनने के लिए बाकायदा रेफरेंडम (माने रायशुमारी) कराया गया. रेफरेंडम में 82.9 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वो बाएं चल कर खुश हैं. फिर भी सरकार ने 1967 में दाएं चलने का नियम बना दिया.

एक दिलचस्प बात और। म्यांमार में ट्रैफिक बाईं ओर चलता था. लेकिन 1970 में वहां के तानाशाह जनरल ‘ने विन’ ने एक ओझा के कहने पर ट्रैफिक बाएं से दाएं कर दिया. अब जनरल से पंगा कौन लेता, तो लोग अपनी राइट हैंड ड्राइव गाड़ी ही सड़क पर दाईं ओर चलाने लगे. आज भी म्यांमार की अधिकतर गाड़ियां राइट हैंड ड्राइव हैं.

भारत में कारों के बायीं ओर चलने का कारण इंग्लैंड है। इंग्लैंड ने भारत में कई साल राज किया। और भारत में इंग्लैंड के कई कानूनों का पालन किया जाता है। दरअसल, इंग्लैंड में शुरू से ही कारें सड़क के बायीं ओर ही चलती हैं। 1756 में इंग्लैंड में इसे कानून बना दिया गया और इस कानून का पालन सभी ब्रिटिश शासित देशों में किया जाने लगे। भारत भी इंग्लैंड का गुलाम रह चुका है और इस कारण भारत में भी ये कानून लागू हुआ और कारें सड़के के बायीं ओर चलने लगीं।

सवाल यह कि अमेरिका में दायीं ओर क्यों चलतीं हैं कारें? माना जाता है कि 18वीं शताब्दी में अमेरिका में टीमस्टर्स की शुरुआत हुई थी। इसे घोड़ों की मदद से खींचा जाता था। इस वैगन में ड्राइवर के बैठने के लिए जगह नहीं होती थी और इसलिए वो सबसे बाएं घोड़े पर बैठकर दाएं हाथ से चाबुक इस्तेमाल करता था। लेकिन इससे वो ड्राइवर पीछे आने वाले वैगनों पर नजर नहीं रख पाता था और इसलिए बाद में अमेरिका में सड़क के दायीं ओर चलने का कानून बन गया। 18वीं शताब्दी के अंत तक इस कानून को पूरे अमेरिका में लागू कर दिया गया और लोग इस नियम के मुताबिक ही गाड़ी चलाने लगे।

मौजूदा समय में विश्व भर में 163 देशों में सड़क के दायीं ओर चलने का नियम है, वहीं 76 देश ऐसे हैं, जहां सड़क के बायीं ओर चला जाता है। यूरोप में ब्रिटेन, आयरलैंड, माल्टा, साइप्रस को छोड़कर कहीं भी गाड़ियां बायीं ओर नहीं चलतीं। चीन की बात करें तो यहां भी गाड़ियां दायीं ओर ही चलतीं हैं। लेकिन चीन के आधिपत्य वाले हॉन्गकॉन्ग में गाड़ियां बायीं ओर चलतीं हैं।


बुधवार, 1 अक्टूबर 2025

तेज तर्रार नेताओं का बोलबाला

इन दिनों राज्य में तेज तर्रार नेता खूब चर्चा में हैं। पुलिस से टकराव की एक के एक बाद घटनाएं हो रही हैं। चूंकि सोषल मीडिया का जमाना है, इस कारण ऐसे नेता ही सुर्खियां बटोर रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या राज्य की राजनीति करवट ले रही है? क्या नए युग का सूत्रपात हो रहा है? क्या यह लोकतंत्र का नया चेहरा है? क्या व्यवस्था में मौजूद प्रषासनिक संवेदनहीनता के खिलाफ आमजन में आक्रोश बढता जा रहा है? नेताओं की जो तेजतर्रारी है, वह जनता के मन में उमड रहे असंतोश की निश्पत्ति है। जो जितनी आक्रामक षैली में विरोध प्रदर्षन करता है, उसे उतना ही अधिक जनसमर्थन मिल रहा है। कहीं हम कानून-व्यवस्था बनाने वाली पुलिस को दुष्मन मानने लगे हैं? कहीं युवा पीढी में सरकार व प्रषासन से टकराव की प्रवृत्ति तो नहीं बढ रही है? क्या पुलिस को ललकारना गौरव है? बेषक संविधान ने पुलिस को अपार अधिकार दिए हैं, कानून के हाथ बहुत लंबे हैं, मगर ऐसा लगता है कि मौजूदा राजनीतिक सिस्टम में पुलिस दबाव की स्थिति में आ गई है। विरोध प्रदर्षन के दौरान वह बहुत संयम बरतती है, मगर स्थिति काबू से बाहर होने पर चरणबद्ध उपाय करने को मजबूर होती है।

पिछले दिनों हुई कुछ वारदातों के बाद यह कयास भी लगाए जा रहे हैं कि क्या राज्य में तीसरा मोर्चा खडा हो जाएगा? क्या गैर कांग्रेसी व गैर भाजपाई क्षत्रप एकजुट हो जाएंगे? अब तक अनुभव का देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि इसकी संभावना कम है। और अगर वे आगामी चुनाव में प्रभावषाली स्थिति में रहते हैं तो उसका नुकसान कांग्रेस को ही होगा। क्योंकि भाजपा का वोट आमतौर पर इधर उधर नहीं होता।


बुधवार, 30 जुलाई 2025

जगदीप धनखड अजमेर में एक चूक की वजह से हार गए थे

अज्ञात परिस्थितियों में उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने वाले जगदीप धनखड का नाम इन दिनो सुर्खियों में है। उनको लेकर कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं। स्वाभाविक रूप से उनकी अब तक की राजनीतिक यात्रा पर भी चर्चा हो रही है। ज्ञातव्य है कि उनका अजमेर से गहरा संबंध है। उन्होंने 1991 में अजमेर संसदीय सीट पर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लडा था, मगर भाजपा के प्रो. रासासिंह रावत से हार गए। हालांकि वे पेराटूपर की तरह अजमेर आए थे, मगर पूरी ताकत से चुनाव लडा। जीत भी जाते, मगर एक चूक की वजह से पराजित हो गए। अजमेर के लोगों को उस चुनाव का मंजर अच्छी तरह से याद है। कंप्यूटर की माफिक तेजी से दायें-बायें चलती उनकी आंखें बयां करती थीं कि वे बेहद तेज दिमाग हैं। चाल में गजब की फुर्ती थी, जो कि अब भी है। बॉडी लैंग्वेज उनके ऊर्जावान होने का सबूत देती थी। हंसमुख होने के कारण कभी वे बिलकुल विनम्र नजर आते थे तो मुंहफट होने के कारण सख्त होने का अहसास करवाते थे। जब अजमेर में लोकसभा चुनाव लडने को आये स्वर्गीय श्री माणक चंद सोगानी शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष थे। नया बाजार में सोगानी जी के सुपुत्र के दफ्तर में हुई पहली परिचयात्मक बैठक में ही उनका विरोध हो गया, चूंकि उन्हें यहां कोई नहीं जानता था। प्रचार का समय भी बहुत कम था। फिर भी उन्होंने प्रोफेशनल तरीके से चुनाव लड़ते हुए सारे संसाधन झोंक दिए। उन्होंने चुनाव लडने की जो स्टाइल अपनाई, वैसा करते हुए पहले किसी को नहीं देखा गया। टेलीफोन डायरेक्टरी लेकर सुबह छह बजे से आठ बजे तक आम लोगों से वोट देने की अपील करते थे। हालांकि उन्होंने चुनाव बड़ी चतुराई व रणनीति से लड़ा, मगर सारा संचालन अपने साथ लाए दबंगों के जरिए करवाने के कारण स्थानीय कांग्रेसियों को नाराज कर बैठे। वे जीत जाते, मगर स्थानीय कांग्रेस नेताओं को कम गांठा और सारी कमान झुंझुनूं से लाई अपनी टीम के हाथ में ही रखी। यही वजह रही कि स्थानीय छुटभैये उनसे नाराज हो गए और उन्होंने ठीक से काम नहीं किया।

प्रसंगवश बता दें कि उनकी राजनीतिक यात्रा 1989 में झुंझुनूं से जनता दल सांसद के रूप में हुई थी। पहली बार में ही वी पी सिंह सरकार में संसदीय कार्य राज्य मंत्री बनाए गए। 1991 में जनता दल छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता ले ली। अजमेर से लोकसभा चुनाव लडा। उसके बाद 1993 में अजमेर जिले की किशनगढ़ विधानसभा सीट से कांग्रेस टिकट पर लड़ कर विजयी हुए। 1998 में झुंझुनू से कांग्रेस टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा, मगर तीसरे स्थान पर रहे थे। 2003 में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनने पर भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। कुछ समय तक सुर्खी से गायब रहे, मगर लोग तब चौंके जब उन्हें पश्चिम बंगाल का राज्यपाल बनाया गया। उसके बाद वे उप-राष्ट्रपति पद पर आसीन हुए। हाल ही उन्होंने अचानक इस्तीफा दिया तो सब भौंचक्क हैं।


मंगलवार, 29 जुलाई 2025

सिंधी समाज के पर्व गोगडो का क्या महत्व है?


सिंधी समाज के पर्व गोगोड़ो का विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। यह पर्व खासकर सावन महीने में नाग पंचमी को मनाया जाता है, और इसे गोगा देवता या गोगा जी की पूजा के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से सांपों से रक्षा और सर्पदंश से सुरक्षा की कामना से जुड़ा होता है।

गोगा जी जिन्हें गोगा वीर, गोगा चोबदार, या जाहरवीर गोगा भी कहा जाता है, को सर्पों के देवता के रूप में पूजा जाता है। सिंधी समाज में मान्यता है कि वे नागों पर नियंत्रण रखते हैं और अपने भक्तों को सर्पदंश से बचाते हैं। 

इस दिन गोगड़ो की कथा सुनाई जाती है। स्त्रियां और बच्चे मिलकर गोगा जी के गीत गाते हैं और मिट्टी की मूर्ति बनाकर पूजा करते हैं। यह पर्व सिंधी संस्कृति की उस जीवंत परंपरा को दर्शाता है जो सिंध से जुड़ी हुई है और प्रवासी सिंधियों में अब भी जीवित है। गोगडो यह सिखाता है कि जीव-जंतुओं के साथ मेलजोल बनाकर कैसे जीवन जिया जाए।

बहुत समय पहले की बात है, गोगा जी एक शक्तिशाली और पराक्रमी राजा थे। उनकी माता ने सर्पों की आराधना कर उन्हें प्राप्त किया था। जन्म के समय से ही गोगा जी के पास सर्पों पर नियंत्रण की शक्ति थी। वे जहां भी जाते, सांप उनकी आज्ञा का पालन करते। गोगा जी ने जीवन भर न्याय, धर्म और सेवा का मार्ग अपनाया और सर्पदंश से पीड़ित लोगों को बचाया। उन्होंने कई जगहों पर नागों का आतंक समाप्त किया और लोगों की रक्षा की। इसलिए लोग उन्हें सांपों के स्वामी कह कर पूजते हैं।

इस दिन सिंधी परिवारों में गुड़ या शक्कर डाल कर मीठी रोटी बनाई जाती है। इसे प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है और बाद में परिवार में बांटा जाता है। गोगड़ो के दिन चूल्हा नहीं जलाया जाता। एक दिन पहले बनाया गया ठंडा भोजन किया जाता है। इस दिन को नंढी थदडी कहा जाता है।


शनिवार, 26 जुलाई 2025

ज्योति मिर्धा व रिछपाल मिर्धा अब क्या करेंगे?

नागौर की पूर्व सांसद श्रीमती ज्योति मिर्धा व डेगाना के पूर्व विधायक रिछपाल मिर्धा को भाजपा ज्वाइन करवाने में अहम भूमिका अदा करने वाले जगदीप धनखड के इस्तीफे बाद यह सवाल उठ खडा हुआ है कि इन दोनों का अगला राजनीतिक कदम क्या होगा? हालांकि भूतपूर्व सांसद स्वर्गीय श्री नाथूराम मिर्धा की पोती श्रीमती ज्योति मिर्धा की खुद अपनी पहचान है, अपना पारीवारिक जनाधार है और रिछपाल मिर्धा भी कम लोकप्रिय नहीं हैं, मगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक उनकी सीधी पहुंच धनखड की वजह से ही थी। अब जब बीच की कडी गायब हो गई तो यह सवाल उठता ही है कि ये दोनों आगे क्या करेंगे? क्या धनखड के अगले कदम के साथ कदम मिलाएंगे या भाजपा में बने रहेंगे? वस्तुतः धनखड के इस्तीफे से सर्वाधिक असर पडा है तो नागौर जिले की राजनीति पर। अब नागौर में जाट राजनीति नई करवट लेगी। इस बात की संभावना भी जताई जा रही है कि दोनो नेता कांग्रेस में लौट आएंगे, मगर ऐसा होना मुश्किल प्रतीत होता है, क्योंकि जमीन पर समीकरण पूरी तरह से बदल चुके हैं। उधर हनुमान बेनीवाल भी खम ठोक कर खडे हैं। कुल मिला कर नाागौर में राजनीति के समीकरण उलझे मांझे की तरह गड्ड मड्ड हो गए हैं।


ज्योति मिर्धा ने जताई धनखड के प्रति गहरी संवेदना

नागौर की पूर्व सांसद श्रीमती ज्योति मिर्धा जगदीप धनखड के इस्तीफे से स्तंभित हैं। हों भी क्यों न, आखिर धनखड ही तो उन्हें भाजपा में ले गए थे। नए राजनीतिक समीकरणों में एक तरह से वे ही दिल्ली में उनके आका थे। अब उन्हें नए सिरे से राजनीति का ताना बाना बुनना होगा। या तो धनखड जिस दिषा में जाएंगे, उसी ओर कदम उठाएंगी या फिर भाजपा में रह कर नए सिरे से अपने आपको स्थापित करने की कोशिश करेंगी।

आइये देखते हैं, ज्योति मिर्धा की नजर में धनखड की कितनी अहमियत है। उन्होंने अपने फेसबुक अकाउंट पर एक भावपूर्ण पोस्ट साझा की है, जो यह जाहिर करती है कि धनखड के प्रति उनके मन में कितना श्रद्धा है। वह पोस्ट आप भी पढियेः-
एक युग का विराम: श्रद्धा, सम्मान और स्मृति में
भारत के यशस्वी उपराष्ट्रपति श्री जगदीप धनकड़ जी के इस्तीफे की खबर केवल एक संवैधानिक पद से विदाई नहीं, बल्कि एक ऐसे युग का विराम है जिसने संवैधानिक गरिमा, जनसरोकारों और किसान चेतना को एक नई ऊंचाई दी।
एक किसान पुत्र, जननायक और न्यायप्रिय विचारक के रूप में उन्होंने जो भूमिका निभाई, वह इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगी। उनकी आवाज संसद में उन करोड़ों किसानों की पीड़ा और आशाओं की अनुगूंज थी, जो अक्सर नीति-निर्माण की परिधि से बाहर रह जाते हैं।
उन्होंने न केवल स्वर्गीय ‘बाबा’ के विचारों को सम्मान दिया, बल्कि उन्हें अपने सार्वजनिक जीवन में जिया भी। अनेक अवसरों पर जब उन्होंने स्व. नाथूराम जी मिर्धा को अपना प्रेरणास्रोत कहा, वह मेरे लिए गर्व और भावनात्मक जुड़ाव का विषय रहा।
धनखड़ साहब ने उपराष्ट्रपति जैसे गरिमामयी पद की मर्यादा को केवल निभाया नहीं, उसमें संवेदनशीलता, निष्ठा और दृढ़ता का एक विलक्षण समावेश किया।
उनकी दृष्टि में संविधान था, हृदय में भारत की जनता और संवाद में सादगी व स्पष्टता।
आज जब वे उस पद से विदा ले रहे हैं, तो मन एक विशेष शून्यता का अनुभव करता है, पर साथ ही उनके विचार, उनकी संघर्षशीलता और उनकी सेवाभावना सदैव हमारे मार्गदर्शक रहेंगे।
कोटिशः नमन और भावपूर्ण शुभकामनाएं
एक सच्चे किसान-नेता को, एक साहसी विचारक को, और एक आत्मीय मार्गदर्शक को।

एआई जनित चुनाव प्रचार सामग्री कितनी चुनौतिपूर्ण?

हाल ही चुनाव आयोग ने एआई के जरिए बनाई गई प्रचार सामग्री के लिए गाइड लाइन जारी की है। वह इसको लेकर बहुत चिंतित है। वह फर्जी प्रचार सामग्री पर...