एक कहावत है कि भगवान अपने भक्त की परीक्षा लेता है। अर्थात वह चैक करता है कि उसका भक्त कितना दृढ़ निश्चयी है। यह कहावत इस सवाल से जुड़ी हुई है कि अमूमन सच्चाई के रास्ते पर चलने वाले को बहुत कठिनाइयों का सामना क्यों करना पड़ता है?
जहां तक तेरी समझ है, भक्त की परीक्षा का तर्क इसलिए दिया जाता है, ताकि भक्त के अवचेतन में यह बैठ जाए कि उसे कठिन परीक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए। यानि कठिन परीक्षा भक्त की नियती है। अब भगवान नामक कोई ऐसा व्यक्ति है, जो कि निर्धारित प्रक्रिया के तहत भक्त की परीक्षा लेता है, ये तो पता नहीं, मगर इतना जरूर तय है कि जगत का सिस्टम ही ऐसा है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाला जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, उसकी कठिनाइयां बढ़ती जाती हैं। कदाचित इस वजह से कि असत्य के पीछे खड़ी शक्तियां सत्य को आगे बढऩे से रोकने के लिए उत्तरोत्तर और अधिक जोर लगाती हैं। आपने देखा होगा कि वीडियो गेम में भी तो ऐसा ही होता है। खिलाड़ी जैसे-जैसे एक स्टेज को पार कर दूसरी स्टेज पर जाने लगता है तो व्यवधान बढ़ते ही जाते हैं।
इसे दूसरे नजरिये भी देखने की कोशिश करते हैं। असल में यह जगत दैवीय व राक्षसी शक्तियों से मिल कर बना है। दोनों का अस्तित्व है ही। अर्थात दो तत्वों से मिल कर बना है, जैसे धनात्मक व ऋणात्मक, रात व दिन, अंधेरा व प्रकाश। ऐसे ही अन्य कई उदाहरण हो सकते हैं। इस द्वैत में एक संतुलन है। उसका प्रतिशत कम व ज्यादा होता रहता है। और हम इस संसार में झूलते रहते हैं। जैसे ही एक तत्व अर्थात सत्य पर हम केन्द्रित होते हैं, दूसरा तत्व अर्थात असत्य संतुलन बनाने के लिए अपनी ताकत लगाता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि सत्य के मार्ग में बाधाएं आने लगती हैं। अगर हम ये कहें कि भगवान सत्य का अधिष्ठान है तो वह क्यों कर सत्य के मार्ग में कठिनाइयां डालता है, उलटा उसे तो मार्ग और सुगम करना चाहिए। वस्तुत: उसका कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि यह सही है कि वह सत्य का अधिष्ठान है, मगर द्वैत से बनी प्रकृति का यही विधान है। यहां दोनों तत्वों के पास ताकत है। जो ज्यादा ताकत जुटा लेता है, वही हावी हो जाता है।
यह एक बड़ा गहरा रहस्य है कि भगवान का अस्तित्व है तो शैतान का भी अस्तित्व है। और दिलचस्प बात ये है कि शैतान भी भगवान का ही क्रिएशन है, वह कोई किसी और सृष्टि से नहीं आया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब भगवान ने दैवीय शक्तियां बनाईं तो साथ में आसुरी शक्तियां क्यों बनाईं? मेरी समझ कहती है कि भगवान तो निर्विकल्प है, मगर उसकी रचना, जिसे कि हम सृष्टि कहते हैं, अर्थात उसकी जो माया है, वही विकल्प पैदा करती है। पैदा क्या, वह तो बनी हुई ही विकल्पों से है। हम उसके जाल में फंसे हुए हैं। हमारी तो बिसात ही क्या है, भगवान के अवतार तक, चूंकि इस संसार में पैदा हुए हैं, शरीर धारण किया है, इस कारण उन्हें भी सांसारिक नियमों के तहत वैसे ही रोग, कष्ट आदि से गुजरना होता है। ऐसे में हमें यह मान लेना चाहिए कि चाहे हम कितने भी बड़े भक्त क्यों न हों, कठिनाइयां तो आनी ही हैं। हम जितना भगवान के करीब होते जाएंगे, कठिनाइयां भी उतनी बढ़ती जाएंगी, जिससे घबराना नहीं है। दूसरी ओर असत्य के मार्ग पर चलने वाले को कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती, क्योंकि वह तो है ही अधोगति की ओर। ऊध्र्व गति के मार्ग पर परीक्षाएं ही परीक्षाएं हैं।
इस बारे में विद्वानों ने कहा भी है कि ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं तो रुकावटें बढ़ती जाती हैं। विभिन्न प्रकार की दैवीय शक्तियां, सिद्धियां हासिल होती हैं, ताकि हम उनके आकर्षण में फंस जाएं। कैसी विचित्र बात है कि ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में दैवीय शक्तियां ही बाधक बनने लगती हैं। जो दैवीय चमत्कारों की शक्तियों के मिलने से प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ता है, उसे आखिर में देवत्व भी छोडऩा पड़ता है। इससे ही सिद्ध होता है कि ईश्वर अद्वैत है। निर्विकल्प है। न वहां आसुरी शक्ति है और न ही दैवीय। वह इन दोनों से परे है। वहां असत्य तो नहीं ही है, सत्य भी नहीं है। यह बात गले नहीं उतरेगी। भला वहां सत्य कैसे नहीं होगा? वस्तुत: जिसे हम सत्य मान रहे हैं, वह हमारा परसेप्शन है। ईश्वर तो परम सत्य है। यहां भी सत्य शब्द का प्रयोग इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि हमें समझने के लिए यही भाषा बोलनी पड़ती है। यही समझ में आती है। जैसे कि हमने ईश्वर की परिकल्पना ऐसी की है, मानों हम मानव तो वह महामानव हो। हम सुंदर तो वह सुंदरता की पाराकाष्ठा है। सर्वगुण संपन्न है। जबकि हकीकत ये है कि वह निर्गुण व निराकार है। वह तटस्थ है। न इधर, न उधर। तटस्थ इस अर्थ में कि असुर भी उसकी आराधना करके शक्ति प्राप्त कर लेता है। महत्व आराधना का है।
-तेजवानी गिरधर
संपादक, अजमेरनामा डॉट कॉम
7742067000
tejwanig@gmail.com
जहां तक तेरी समझ है, भक्त की परीक्षा का तर्क इसलिए दिया जाता है, ताकि भक्त के अवचेतन में यह बैठ जाए कि उसे कठिन परीक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए। यानि कठिन परीक्षा भक्त की नियती है। अब भगवान नामक कोई ऐसा व्यक्ति है, जो कि निर्धारित प्रक्रिया के तहत भक्त की परीक्षा लेता है, ये तो पता नहीं, मगर इतना जरूर तय है कि जगत का सिस्टम ही ऐसा है कि सत्य के मार्ग पर चलने वाला जैसे-जैसे आगे बढ़ता है, उसकी कठिनाइयां बढ़ती जाती हैं। कदाचित इस वजह से कि असत्य के पीछे खड़ी शक्तियां सत्य को आगे बढऩे से रोकने के लिए उत्तरोत्तर और अधिक जोर लगाती हैं। आपने देखा होगा कि वीडियो गेम में भी तो ऐसा ही होता है। खिलाड़ी जैसे-जैसे एक स्टेज को पार कर दूसरी स्टेज पर जाने लगता है तो व्यवधान बढ़ते ही जाते हैं।
इसे दूसरे नजरिये भी देखने की कोशिश करते हैं। असल में यह जगत दैवीय व राक्षसी शक्तियों से मिल कर बना है। दोनों का अस्तित्व है ही। अर्थात दो तत्वों से मिल कर बना है, जैसे धनात्मक व ऋणात्मक, रात व दिन, अंधेरा व प्रकाश। ऐसे ही अन्य कई उदाहरण हो सकते हैं। इस द्वैत में एक संतुलन है। उसका प्रतिशत कम व ज्यादा होता रहता है। और हम इस संसार में झूलते रहते हैं। जैसे ही एक तत्व अर्थात सत्य पर हम केन्द्रित होते हैं, दूसरा तत्व अर्थात असत्य संतुलन बनाने के लिए अपनी ताकत लगाता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि सत्य के मार्ग में बाधाएं आने लगती हैं। अगर हम ये कहें कि भगवान सत्य का अधिष्ठान है तो वह क्यों कर सत्य के मार्ग में कठिनाइयां डालता है, उलटा उसे तो मार्ग और सुगम करना चाहिए। वस्तुत: उसका कोई लेना-देना नहीं है। हालांकि यह सही है कि वह सत्य का अधिष्ठान है, मगर द्वैत से बनी प्रकृति का यही विधान है। यहां दोनों तत्वों के पास ताकत है। जो ज्यादा ताकत जुटा लेता है, वही हावी हो जाता है।
यह एक बड़ा गहरा रहस्य है कि भगवान का अस्तित्व है तो शैतान का भी अस्तित्व है। और दिलचस्प बात ये है कि शैतान भी भगवान का ही क्रिएशन है, वह कोई किसी और सृष्टि से नहीं आया है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जब भगवान ने दैवीय शक्तियां बनाईं तो साथ में आसुरी शक्तियां क्यों बनाईं? मेरी समझ कहती है कि भगवान तो निर्विकल्प है, मगर उसकी रचना, जिसे कि हम सृष्टि कहते हैं, अर्थात उसकी जो माया है, वही विकल्प पैदा करती है। पैदा क्या, वह तो बनी हुई ही विकल्पों से है। हम उसके जाल में फंसे हुए हैं। हमारी तो बिसात ही क्या है, भगवान के अवतार तक, चूंकि इस संसार में पैदा हुए हैं, शरीर धारण किया है, इस कारण उन्हें भी सांसारिक नियमों के तहत वैसे ही रोग, कष्ट आदि से गुजरना होता है। ऐसे में हमें यह मान लेना चाहिए कि चाहे हम कितने भी बड़े भक्त क्यों न हों, कठिनाइयां तो आनी ही हैं। हम जितना भगवान के करीब होते जाएंगे, कठिनाइयां भी उतनी बढ़ती जाएंगी, जिससे घबराना नहीं है। दूसरी ओर असत्य के मार्ग पर चलने वाले को कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती, क्योंकि वह तो है ही अधोगति की ओर। ऊध्र्व गति के मार्ग पर परीक्षाएं ही परीक्षाएं हैं।
इस बारे में विद्वानों ने कहा भी है कि ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं तो रुकावटें बढ़ती जाती हैं। विभिन्न प्रकार की दैवीय शक्तियां, सिद्धियां हासिल होती हैं, ताकि हम उनके आकर्षण में फंस जाएं। कैसी विचित्र बात है कि ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में दैवीय शक्तियां ही बाधक बनने लगती हैं। जो दैवीय चमत्कारों की शक्तियों के मिलने से प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ता है, उसे आखिर में देवत्व भी छोडऩा पड़ता है। इससे ही सिद्ध होता है कि ईश्वर अद्वैत है। निर्विकल्प है। न वहां आसुरी शक्ति है और न ही दैवीय। वह इन दोनों से परे है। वहां असत्य तो नहीं ही है, सत्य भी नहीं है। यह बात गले नहीं उतरेगी। भला वहां सत्य कैसे नहीं होगा? वस्तुत: जिसे हम सत्य मान रहे हैं, वह हमारा परसेप्शन है। ईश्वर तो परम सत्य है। यहां भी सत्य शब्द का प्रयोग इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि हमें समझने के लिए यही भाषा बोलनी पड़ती है। यही समझ में आती है। जैसे कि हमने ईश्वर की परिकल्पना ऐसी की है, मानों हम मानव तो वह महामानव हो। हम सुंदर तो वह सुंदरता की पाराकाष्ठा है। सर्वगुण संपन्न है। जबकि हकीकत ये है कि वह निर्गुण व निराकार है। वह तटस्थ है। न इधर, न उधर। तटस्थ इस अर्थ में कि असुर भी उसकी आराधना करके शक्ति प्राप्त कर लेता है। महत्व आराधना का है।
-तेजवानी गिरधर
संपादक, अजमेरनामा डॉट कॉम
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