गुरुवार, 14 नवंबर 2019

एक गांधी को मैने करीब से देखा, जाना, समझा और जिया

चारों ओर बेईमानी का ही बोलबाला है। ईमानदार लोग भी हैं, मगर उनका अलग-अलग परसंटेज है। यानि कि न तो कोई सौ फीसदी ईमानदार है और न ही कोई सौ फीसदी बेईमान। देश, काल, परिस्थिति के साथ ईमानदारी का भी पैमान बदल जाता है। कहा तो यहां तक जाता है कि इस जमाने में ईमानदार वही है, जिसे बेईमानी का मौका नहीं मिला। यानि कि मौका मिलते ही आदमी बेईमान हो जाता है। वह होना चाहे, न चाहे, हालात उसे बेईमान होने की ओर धकेलते हैं।
असल में हम दोहरे मापदंडों में जीते हैं। ईमानदारी के मेजरमेंट का फर्क देखिए। क्या यह कम विरोधाभास नहीं कि जैसे कोई व्यापारी टैक्स की चोरी करता है, अर्थात वह बेईमानी करता है, मगर अपने यहां वह ऐसे ही नौकरों का रखना पसंद करता है, जो कि ईमानदार हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम स्वाधीनता सेनानी भगत सिंह के गुण तो गाते हैं, मगर यह कत्तई पसंद नहीं करते कि हमारी औलाद भगत सिंह बन जाए। एक उदाहरण और। हम साधु-संत की पूजा-अर्चना करते हैं, मगर इसके लिए कत्तई तैयार नहीं होते कि हमारी संतान संन्यास धारण कर ले।
यह भी एक कड़वा सच है कि ईमानदार आम तौर पर तकलीफ में हैं और बेईमान मजे में, फिर भी ईमानदारी की महिमा गायी जाती है। इस पर मुझे एक फिल्मी गीत की वह पंक्ति याद आ जाती है कि किताबों में छपते हैं, चाहत के किस्से, हकीकत की दुनिया में चाहत नहीं है। यहां आप चाहत की जगह ईमानदारी शब्द को रिप्लेस कर सकते हैं। इस द्वंद्व को मैने करीब से भोगा है। पिताश्री ने बचपन से ही ईमानदारी, आदर्श, सदाशयता, सत्य की राह पर चलना सिखाया। लेकिन जैसे ही होश संभाला और दुनिया से सीधा वास्ता पड़ा तो दिखाई दिया कि यहां तो बेईमानी, चालाकी, मक्कारी व असत्य की ही तूती बालती है। चूंकि ये अवगुण घुट्टी में पीने को नहीं मिले, इस कारण दुनिया में अपने आप को मिसफिट पाता हूं।
खैर, अब मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि ईमानदारी को मैने कैसे नजदीक से जाना। पिताश्री ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे। यह एक बेटा नहीं कह रहा, उनके साथ जिन लोगों भी काम किया है, वे भी इसकी पुष्टि करते हैं। जब मैं छठी क्लास में था, तब पिताश्री जब डूंगरपुर जिले के गांव पुनाली गांव में सेंकडरी स्कूल के हैडमास्टर थे। स्कूल में एक बगीचा था, जिसमें फलदार पौधे थे। एक दिन स्कूल को चपरासी उस बगीचे से कुछ फल लेकर घर पर दे गया। पिताश्री आए तो उन्होंने पूछा कि ये कहां से आए। उनको बताया गया कि चपरासी दे गया है तो वे आग बबूला हो गए। उन्होंने तुरंत चपरासी को बुलाया और फल लौटाते हुए बुरी तरह से डांटा और सख्त आदेश दिए कि आइंदा यह गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं की जाएगी।
इसी स्कूल में उन्होंने बच्चों में ईमानदारी का सद्गुण विकसित करने के लिए एक अनूठा प्रयोग किया। एक कमरे में लंबी सी टेबल पर सभी प्रकार की पाठ्य सामग्री, पेन, पेंसिल, रबर इत्यादी रखवा कर उन पर उनकी कीमत के टैग लगवा दिए। पास ही एक गुल्लक रखवा दिया। सभी बच्चे
टैग पर लिखी कीमत देख कर वस्तु लेते और निर्धारित राशि गुल्लक में डाल देते। प्रतिदिन हिसाब लगाया जाता, तो वह बराबर मिलता।
वस्तुत: पिताश्री पर महात्मा गांधी का प्रभाव था। वे प्रतिदिन गांधी डायरी भी लिखा करते थे। सत्याग्रह की उनकी एक मिसाल देखिए। एक बार पाली जिले के सोजत गांव की स्कूल में हैडमास्टर थे। वहां किसी उद्दंड लड़के ने स्कूल के बाहर सड़क पर चोक से किसी लड़की व लड़के का नाम लिख कर उसके बीच प्लस का निशान अंकित कर दिया। जैसे ही उन्होंने देखा, वे बहुत आहत हुए और प्रार्थना के वक्त साफ कह दिया कि जब तक यह हरकत करने वाला लड़का खुद आ कर माफी नहीं मांगेगा, वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे। दो दिन बीत गए, कोई सामने नहीं आया। स्टाफ ने बहुत समझाया कि बच्चे तो शैतानी करते रहते हैं, आप क्यों शरीर का यातना दे रहे हैं, मगर वे नहीं माने। आखिर तीसरे दिन जब हरकत करने वाले लड़के ने आ कर प्रार्थना सभा में माफी मांगी, तब जा कर अनशन तोड़ा। ऐसे ही अनेक प्रकरण हैं।
पिताश्री की ईमानदारी के परिणाम की पराकाष्ठा देखिए। तब वे नागौर में वरिष्ठ उप जिला शिक्षा अधिकारी थे। अचानक हार्ट अटैक से उनका देहांत हो गया। सन् 1983 के अक्टूबर की 24 तारीख थी। घर पर कोई दो-चार सौ रुपए ही थे। बैंक अकाउंट में मात्र छह हजार रुपए थे, मगर माताजी के साथ ज्वाइंट अकाउंट न होने के कारण वे निकाले नहीं जा सकते थे। आप अंदाजा लगाइये कि एक गजेटेड ऑफीसर के निधन के वक्त अंतिम संस्कार की सामग्री तक के लिए पैसे नहीं थे, क्योंकि वह पूरी जिंदगी ईमानदारी पर जिया। तब मेरे एक बुजुर्ग मित्र सेठ गंगाराम जी ने कहा कि तुम चिंता न करो। मैं व्यवस्था कर देता हूं, खर्च हुई राशि बाद में देना। इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया। मैने देखा कि पिताश्री के समकक्ष अधिकारी व उनके परिवार बड़े मजे में हैं, जबकि हमारा परिवार आर्थिक तंगी में है।
गांधीवादी दर्शन के प्रभाव में पिताश्री सादा जीवन, उच्च विचार पर ताउम्र अमल करते रहे। एक गजेटेड अफसर अगर मितव्ययता अपनाते हुए अजमेर के जीपीओ के बाहर पुराने कोट-पेंट-शर्ट खरीद कर पहनता हो तो उसे आप क्या कहेंगे? एक-दो बार को छोड़ कर मुझे तो याद ही नहीं आता कि उन्होंने कपड़ा खरीद कर पेट-शर्ट सिलवाई हो।
बेशक मैने गांधी जी को कभी नहीं देखा, मगर उनके पद चिन्हों पर चलने वाले एक शख्स को करीब से देखा, जो कि सौभाग्य से मेरे पिताश्री थे। ऐसे पिता का पुत्र हो कर मैं धन्य हूं।

-तेजवानी गिरधर
संपादक
अजमेरनामा डॉट कॉम
7742067000, 8094767000
tejwanig@gmail.com

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