जगत की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान की अपनी अवधारणा है कि कैसे जल से एक कोशीय जीव पैदा हुआ और किस प्रकार क्रमबद्ध विकास होता हुआ बंदर के बाद मानव धरती पर आया। संसार के सभी जीव देश, काल, परिस्थिति में जिस रूप में सर्वाइव कर सकते थे, वैसे ही बने। चाहे अपनी ओर से, चाहे प्रकृति नियंता की ओर से। चूंकि विज्ञान बाकायदा तर्क और प्रयोगों के आधार पर निष्कर्ष पर पहुंचता है, इस कारण उस पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं है। मगर साथ ही आपने शास्त्रों के हवाले से ये भी सुना होगा कि जगत की उत्पत्ति कैसे हुई? कैसे ईश्वर के ख्याल में आया कि जगत हो जाए और वह होता चला गया। अर्थात विचार अथवा धारणा मात्र से घटना घट जाती है। शास्त्र यह भी बताता है कि हमारी आत्मा भी ईश्वर का अंश है। फर्क सिर्फ पैमाने का, लेकिन मौलिक गुण एक सा है। आपने यह भी सुना होगा कि यत् पिंडे, तत् ब्रह्मांडे, हम संपूर्ण ब्रम्हांड के छोटे पिंड रूप हैं, अंतर सिर्फ स्केल का है।
ये सारी अवधारणाएं अपनी जगह हैं, लेकिन आज अधिसंख्य मोटीवेशनल स्पीकर्स जब व्यक्तित्व विकास की बात करते हैं तो एक सिद्धांत का जिक्र करते हैं, जिसका नाम उन्होंने लॉ ऑफ अट्रैक्शन रखा है। कैसे विचार की तरंगें वाइब्रेशन करती हुई प्रकृति में विस्तार पाती हैं और प्रकृति से हमारे संबंध को स्थापित करती है। वे वैज्ञानिक तरीके से समझाते हैं कि कैसे हम जो भी सोचते हैं, धारणा करते हैं, वह वास्तव में हो भी जाता है। वे बताते हैं कि जैसे ही हम पूरे मनोयोग से कोई धारणा करते हैं, प्रकृति की सारी शक्तियां उसे पूरा करने में जुट जाती है।
कुछ ट्रेनर्स इस सिद्धांत की आलोचना करते हैं कि यह कोरी कल्पना है, केवल सोचने मात्र से घटित कैसे हो जाएगा? उनका तर्क है कि जो कुछ भी हम चाहते हैं, उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है, सोचने मात्र से कुछ नहीं होता। अगर यह सिद्धांत सही होता तो सभी बैठे-बैठे सोचते कि वे अमीर हो जाएं और हो जाते। भला यह कैसे संभव है? धनवान बनना है तो उसके लिए कर्म करना होगा, मेहनत करनी होगी। तर्क की कसौटी पर उनकी बात वाकई सही है।
अब कुछ विद्वान इन दोनों अवधारणाओं को मिला कर बात कहने लगे हैं। उनका कहना है कि जैसा हम सोचते हैं, वह हो सकता है, प्रकृति उसमें बेशक सहयोग करती है, लेकिन उसके लिए हमें भी प्रयास करना होगा। केवल सोचने से नहीं होगा। इसे कुछ यूं भी समझ सकते हैं कि हिम्मते मर्दा, मददे खुदा। अर्थात आदमी को हिम्मत तो करनी होगी, कर्म तो करना ही होगा, तभी खुदा भी सहयोग करेगा।
कुल मिला कर तथ्य ये है कि यह बात तो पक्की है कि कुछ भी होने या पाने के लिए कर्म करना होगा, विवाद सिर्फ इतना है कि क्या केवल हमारा कर्म ही काम करता है या प्रकृति की शक्तियां भी साथ में अपनी ओर से प्रयास करती हैं।
हालांकि मैने लॉ ऑफ अट्रैक्शन को गहरे से नहीं जाना है, मगर मुझे लगता है कि यह सही हो सकता है। यदि शास्त्र के अनुसार हम ईश्वर के ही छोटे अंश हैं तो जैसे ईश्वर ने जगत की धारणा की और जगत हो गया, बन गया, वैसे ही हम यदि कुछ सोचें तो वैसा क्यों नहीं हो सकता। बस होना यह जरूर चाहिए कि पूरे मन, पूरे मस्तिष्क, पूरे कर्म की ताकत उस पर लगा दें। ईश्वर चूंकि सर्वशक्तिमान है, इस कारण बड़ा घटता है और हम चूंकि उसके छोटे से अंश हैं, इस कारण हमारी क्षमता कम है, मगर है उसके ही जैसी।
इसी तथ्य को हम इस दिशा में सोच कर भी समझ सकते हैं। आपको ख्याल में होगा कि हमें यह संस्कार दिया जाता है कि बुरा न सोचें और बुरा न बोलें। जैसे रात को निवृत्त हो कर दुकान बंद करने को हम दुकान बंद करने की बजाय दुकान मंगल करना कहते हैं। दिया बुझाने को दिया बढ़ाना कहते हैं। वजह क्या है? ऐसी मान्यता है कि पूरे चौबीस घंटे में एक क्षण ऐसा होता है, जबकि हमारी जुबान पर सरस्वती विराजमान होती है। उस क्षण में जो कहा जाता, वह घटित हो जाता है। इसका मतलब ये है कि हमारे भीतर वह शक्ति है जो, जैसा सोचते हैं, जैसा कहते हैं, वैसा कर देती है।
मन की इस शक्ति पर कुछ वैज्ञानिक प्रयोग भी हुए हैं। जैसे किसी बर्तन में भरे पानी की सतह पर तैर रहे तिनके को मन की पूरी शक्ति से दायें या बायें मुडऩे का आदेश दिया जाए तो तिनका उसकी अनुपालना करता है। आपने देखा होगा कि भवन निर्माण करने वाले मजदूर जब किसी भारी पत्थर या पट्टी को उठाते हैं तो एक साथ हैशा बोलते हैं, वह क्या है? वह अपनी भौतिक शारीरिक ताकत के साथ मन की शक्ति को भी जोडऩे का प्रयास है। और ऐसा करके वे भारी से भारी पत्थर को उठाने में कामयाब हो जाते हैं। समझा जा सकता है कि आज तो बड़ी बड़ी क्रेनों की मदद ली जाती है, लेकिन जिस जमाने में क्रेन का ईजाद नहीं हुआ था, तब मिश्र में स्थित पिरोमिडों को बनाते वक्त बड़ी-बड़ी चट्टानों को मन की सामूहिक शक्ति से ही एक के ऊपर एक रखा गया होगा।
मेरी समझ के अनुसार मन की यही शक्ति एकाग्रता व समग्र ताकत से घनीभूत हो कर पावरफुल हो जाती होगी, जो कि लॉ ऑफ अट्रैक्शन के सिद्धांत के अनुसार प्रकृति की अन्य सभी शक्तियों को भी अपने साथ मिला लेती होगी। उसी आधार पर कहा गया है कि जैसा हम चाहते हैं, वैसा हो सकते हैं, जिसमें कि प्रकृति भी पूरा सहयोग करती है। इस विषय पर फिर कभी अन्य पहलुओं से विस्तार से अपना नजरिया रखूंगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
ये सारी अवधारणाएं अपनी जगह हैं, लेकिन आज अधिसंख्य मोटीवेशनल स्पीकर्स जब व्यक्तित्व विकास की बात करते हैं तो एक सिद्धांत का जिक्र करते हैं, जिसका नाम उन्होंने लॉ ऑफ अट्रैक्शन रखा है। कैसे विचार की तरंगें वाइब्रेशन करती हुई प्रकृति में विस्तार पाती हैं और प्रकृति से हमारे संबंध को स्थापित करती है। वे वैज्ञानिक तरीके से समझाते हैं कि कैसे हम जो भी सोचते हैं, धारणा करते हैं, वह वास्तव में हो भी जाता है। वे बताते हैं कि जैसे ही हम पूरे मनोयोग से कोई धारणा करते हैं, प्रकृति की सारी शक्तियां उसे पूरा करने में जुट जाती है।
कुछ ट्रेनर्स इस सिद्धांत की आलोचना करते हैं कि यह कोरी कल्पना है, केवल सोचने मात्र से घटित कैसे हो जाएगा? उनका तर्क है कि जो कुछ भी हम चाहते हैं, उसके लिए प्रयत्न करना पड़ता है, सोचने मात्र से कुछ नहीं होता। अगर यह सिद्धांत सही होता तो सभी बैठे-बैठे सोचते कि वे अमीर हो जाएं और हो जाते। भला यह कैसे संभव है? धनवान बनना है तो उसके लिए कर्म करना होगा, मेहनत करनी होगी। तर्क की कसौटी पर उनकी बात वाकई सही है।
अब कुछ विद्वान इन दोनों अवधारणाओं को मिला कर बात कहने लगे हैं। उनका कहना है कि जैसा हम सोचते हैं, वह हो सकता है, प्रकृति उसमें बेशक सहयोग करती है, लेकिन उसके लिए हमें भी प्रयास करना होगा। केवल सोचने से नहीं होगा। इसे कुछ यूं भी समझ सकते हैं कि हिम्मते मर्दा, मददे खुदा। अर्थात आदमी को हिम्मत तो करनी होगी, कर्म तो करना ही होगा, तभी खुदा भी सहयोग करेगा।
कुल मिला कर तथ्य ये है कि यह बात तो पक्की है कि कुछ भी होने या पाने के लिए कर्म करना होगा, विवाद सिर्फ इतना है कि क्या केवल हमारा कर्म ही काम करता है या प्रकृति की शक्तियां भी साथ में अपनी ओर से प्रयास करती हैं।
हालांकि मैने लॉ ऑफ अट्रैक्शन को गहरे से नहीं जाना है, मगर मुझे लगता है कि यह सही हो सकता है। यदि शास्त्र के अनुसार हम ईश्वर के ही छोटे अंश हैं तो जैसे ईश्वर ने जगत की धारणा की और जगत हो गया, बन गया, वैसे ही हम यदि कुछ सोचें तो वैसा क्यों नहीं हो सकता। बस होना यह जरूर चाहिए कि पूरे मन, पूरे मस्तिष्क, पूरे कर्म की ताकत उस पर लगा दें। ईश्वर चूंकि सर्वशक्तिमान है, इस कारण बड़ा घटता है और हम चूंकि उसके छोटे से अंश हैं, इस कारण हमारी क्षमता कम है, मगर है उसके ही जैसी।
इसी तथ्य को हम इस दिशा में सोच कर भी समझ सकते हैं। आपको ख्याल में होगा कि हमें यह संस्कार दिया जाता है कि बुरा न सोचें और बुरा न बोलें। जैसे रात को निवृत्त हो कर दुकान बंद करने को हम दुकान बंद करने की बजाय दुकान मंगल करना कहते हैं। दिया बुझाने को दिया बढ़ाना कहते हैं। वजह क्या है? ऐसी मान्यता है कि पूरे चौबीस घंटे में एक क्षण ऐसा होता है, जबकि हमारी जुबान पर सरस्वती विराजमान होती है। उस क्षण में जो कहा जाता, वह घटित हो जाता है। इसका मतलब ये है कि हमारे भीतर वह शक्ति है जो, जैसा सोचते हैं, जैसा कहते हैं, वैसा कर देती है।
मन की इस शक्ति पर कुछ वैज्ञानिक प्रयोग भी हुए हैं। जैसे किसी बर्तन में भरे पानी की सतह पर तैर रहे तिनके को मन की पूरी शक्ति से दायें या बायें मुडऩे का आदेश दिया जाए तो तिनका उसकी अनुपालना करता है। आपने देखा होगा कि भवन निर्माण करने वाले मजदूर जब किसी भारी पत्थर या पट्टी को उठाते हैं तो एक साथ हैशा बोलते हैं, वह क्या है? वह अपनी भौतिक शारीरिक ताकत के साथ मन की शक्ति को भी जोडऩे का प्रयास है। और ऐसा करके वे भारी से भारी पत्थर को उठाने में कामयाब हो जाते हैं। समझा जा सकता है कि आज तो बड़ी बड़ी क्रेनों की मदद ली जाती है, लेकिन जिस जमाने में क्रेन का ईजाद नहीं हुआ था, तब मिश्र में स्थित पिरोमिडों को बनाते वक्त बड़ी-बड़ी चट्टानों को मन की सामूहिक शक्ति से ही एक के ऊपर एक रखा गया होगा।
मेरी समझ के अनुसार मन की यही शक्ति एकाग्रता व समग्र ताकत से घनीभूत हो कर पावरफुल हो जाती होगी, जो कि लॉ ऑफ अट्रैक्शन के सिद्धांत के अनुसार प्रकृति की अन्य सभी शक्तियों को भी अपने साथ मिला लेती होगी। उसी आधार पर कहा गया है कि जैसा हम चाहते हैं, वैसा हो सकते हैं, जिसमें कि प्रकृति भी पूरा सहयोग करती है। इस विषय पर फिर कभी अन्य पहलुओं से विस्तार से अपना नजरिया रखूंगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
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