शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

ताश के पत्ते बंटने के बाद उन्हीं पत्तों से खेलना पड़ता है

बहुत समय पहले एक उक्ति मेरी जानकारी में आई थी। आज आप से शेयर कर रहा हूं। वो ये है कि एक बार ताश के पत्ते बंट जाने के बाद फिर हमको उन्हीं पत्तों से खेलना पड़ता है। चाहे मन मसोस कर, चाहे खुशी-खुशी। अमूमन आदमी इसीलिए दुखी होता है क्योंकि वह किस्मत को दोष देते हुए यह कहता है कि काश मुझे वैसे पत्ते मिले होते तो मैं जीत जाता। जबकि सच्चाई ये है कि पत्ते तो बंट चुके। उनमें कोई फेरबदल नहीं हो सकता। चाहे कितना ही सिर पीट लो। इसके दो ही रास्ते हैं। एक तो किस्मत को रोते हुए हम खेले ही नहीं, यानि कि बिना प्रयास के हार मान लें। दूसरा रास्ता है कि हमारे हिस्से में जो पत्ते आए हैं, उन्हीं से बेहतर से बेहतर खेल लें। प्रकृति ने हमें जो भी क्षमता दी है, वह उसका अधिकाधिक उपयोग करने के लिए दी है। कदाचित जीत भी सकते हैं।
ताश के पत्तों का यह खेल हमारे जीवन पर भी एक दम फिट बैठता है।  हर एक के जीवन में प्रारब्ध के अनुसार अलग-अलग हालात आते हैं। कोई सोने का चम्मच मुंह में लेकर पैदा होता है तो कोई ऐसे घर में, जहां दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती। दोष चाहे प्रकृति को दें, प्रारब्ध को दें या अपने कर्मों को दें, मगर जीना उन्हीं हालात में पड़ता है। ऐसे में दो ही रास्ते हैं या तो संघर्ष से मुंह मोड़ लें, जिसमें सफलता की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। दूसरा ये कि संघर्ष करने को तप्तर हो जाएं, जिसमें कि सफलता की संभावनाएं रहती हैं। किसी ने कहा है न कि दो ही रास्ते हैं, या तो भाग लो, अर्थात पार्टिसिपेट करो या फिर भाग लो, अर्थात मैदान छोड़ दो।
जीवन के बारे में सकारात्मक सोच रखने वाले हर हालात में संघर्ष करने को तैयार रहते हैं। हालात या किस्मत का रोना नहीं रोते। एक उदाहरण देखिए। यह जीवन एक जलती सिगरेट की भांति है। सिगरेट को तो जलना ही है और खत्म भी होना ही है। आप चाहें तो सिगरेट की नियति पर रोते रहें या फिर चाहें तो उसके कश ले लें। इसे जीवन के लिहाज से लें तो मतलब ये है कि जिंदगी एक दिन मौत को उपलब्ध होनी ही है। हम चाहें तो रोते हुए गुजारें और चाहें तो हंसते हुए।
प्रसंगवश मुझे एक कहानी याद आती है। वही कछुए व खरगोश वाली। दोनों के बीच दौड़ होती है। अगर कछुआ यह सोच कर बैठ जाए कि उसे प्रकृति ने अत्यंत धीमी गति दी है तो वह प्रतियोगिता हारा हुआ ही है। और अगर सोच ले कि मुझे जैसी भी गति मिली है, दौडऩा मेरा कर्तव्य है, अंजाम चाहे जो हो। कहानी के अनुसार खरगोश अपनी गति पर गुमान करते हुए सुस्ती कर लेता है कि कभी भी छलांग लगा कर जीत जाऊंगा, जबकि कछुआ धीमी गति से मगर लगातार दौड़ता है और आखिर में वह जीत जाता है।
इसी क्रम में एक उदाहरण और ख्याल में आता है। हालांकि है वह घटिया, उसका जिक्र करने का मन नहीं था, मगर चूंकि जो हम समझना चाह रहे हैं, उस पर बिलकुल सटीक बैठता है, इस कारण यह धृष्टता कर रहा हूं। कृपया अन्यथा न लीजिए। पहले ही माफी मांगते हुए जिक्र कर रहा हूं। यदि किसी को लगता है कि उसके साथ कुछ बलात हो रहा है और उससे बचने का कोई उपाय है ही नहीं, तो एक नजरिया ये हो सकता है कि आखिरी क्षण तक मुकाबला करे और अपने आपको संतुष्टि दे कि उसने तो हथियार नहीं डाले और किसी की सोच हो सकती है कि वह उसी को एंजॉय करने लगे। इसे दूसरे रूप में यह भी कह सकते हैं कि तब सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दे।
ईश्वर पर छोड़ देने की बात आई तो एक और प्रसंग याद आ गया। एक बार श्रीकृष्ण भोजन के लिए बैठे थे। रुक्मणी पंखा कर रही थी। श्रीकृष्ण थाली से पहला ग्रास उठा कर मुंह के नजदीक लाए ही थे कि यकायक रुक गए। ग्रास वापस थाली में रख दिया और महल के मुख्य द्वार पर जा कर रुक गए। कुछ देर तक रुके रहे और वापस अंदर आ गए और भोजन करने लगे। रुक्मणी ने इसका सबब पूछा, तो श्रीकृष्ण ने बताया कि उनका कोई भक्त दुश्मनों से घिरा हुआ था। दुश्मन उस पर पत्थर फैंक रहे थे और वह श्रीकृष्ण को मदद के लिए पुकार रहा था। थोड़ी देर बाद अचानक उसने भी मुकाबले के लिए पत्थर उठा लिया, तो श्रीकृष्ण यह सोच कर लौट आए कि अब वह खुद निपट लेगा। हालांकि यह प्रसंग हिम्मते मर्दा, मददे खुदा के विपरीत बैठता है, मगर इसका अर्थ ये है कि जब तक हममें अहम है, तक तक ईश्वर मदद नहीं करता। जैसे ही हम अहम त्याग देते तो वह सारी जिम्मेदारी खुद ले लेता है। इति श्री।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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