आज के युग में अमूमन सभी को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि आजकल झूठ का बोलबाला है। असत्य का साम्राज्य है। उससे ऐसा प्रतीत होता है कि पुराने जमाने में ऐसा नहीं होता था। हमारे बुजुर्गों और उनके भी बुजुर्गों के काल में लोग सच बोला करते थे। लेकिन ऐसा है नहीं। वैदिक काल में भी असत्य का अस्तित्व था। यदि ऐसा नहीं होता तो मुण्डकोपनिषद में यह नहीं कहा जाता कि सत्यमेव जयते। सत्यमेव जयते का अर्थ है कि सत्य की ही जीत होती है। अर्थात उस काल में भी यह धारणा थी कि असत्य मजे में है, वही जीतता प्रतीत होता था, तभी तो किसी ऋषि को यह कहना पड़ा कि नहीं सत्य की ही जीत होती है। यह बात दीगर है कि जब तक सत्य जीतता है, तब तक वह बहुत पीडि़त हो चुका होता है। और यही वजह है कि हमें असत्य बेहतर स्थिति में नजर आता है।
आपकी जानकारी के लिए यहां उल्लेख करना जरूरी है कि मुण्डकोपनिषद में से लिए आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते का पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:-
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयान:।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम।।
अर्थात अंतत: सत्य की ही जय होती है, न कि असत्य की। यही वह मार्ग है, जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
ज्ञातव्य है कि भारत सरकार के राजकीय चिह्न अशोक चक्र के नीचे यह वाक्य अंकित है। जहां तक प्रतीक का प्रश्न है, वह उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई. पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, परंतु उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। जानकारी के अनुसार इस आदर्श वाक्य को राष्ट्रीय क्षितिज पर लाने में अहम भूमिका सन् 1918 में पंडित महन मोहन मालवीय की है।
भारत ही नहीं बल्कि चेक गणराज्य और इसके पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य प्रावदा वीत्येजी सत्यमेव जयते का समानार्थी है। उसका भी अर्थ है सत्य जीतता है।
सच तो ये है कि सत्य व असत्य मानव सभ्यता के आरंभ से ही अस्तित्व में रहे हैं। तभी तो हम भगवान श्रीराम की रावण पर जीत को असत्य पर सत्य की विजय कहते हैं। पूरे भारत में दशहरा पर्व पर रावण का पुतला जला कर इस वाक्य का शंखनाद करते हैं। इससे इतर कुछ विद्वान तो असत्य के अस्तित्व को महत्वपूर्ण बताते हुए यहां तक कहते हैं कि राम की महिमा भी रावण के वजूद पर टिकी हुई है। अगर रावण न हो तो भला राम उभार कैसे मिल सकता है? अर्थात सत्य की महिमा का महल असत्य की जमीन पर खड़ा होता है।
इसी प्रकार महाभारत में भी श्रीकृष्ण व पांच पांडवों की सौ कोरवों पर जीत को सत्य की असत्य पर जीत की उपमा दी जाती है। ज्ञातव्य है कि धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दु:शासन सहित कौरवों को असत्य व अधर्म का प्रतीक माना गया है। गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम। अर्थात जब जब भी धर्म की हानि होती है, मैं अधर्म का नाश करने के लिए धरती पर आता हूं। इसका भी यही तात्पर्य है कि असत्य व अधर्म सृष्टि के आरंभ से मौजूद रहे हैं, जिनसे निपटने के लिए सत्य के रूप में भगवान अवतार लेते हैं।
सत्य की इतनी महिमा है कि वेद और पुराण के विरोधियों ने भी सत्य को पंचशील व पंचमहाव्रत का प्रमुख अंग माना है।
महात्मा गांधी ने तो सत्य को ईश्वर की उपमा दी है। वे ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने सत्य पर व्यावहारिक प्रयोग किए। आजादी के आंदोलन में समय सत्याग्रह के बल पर उन्होंने अंग्रेजों को भारत छोडऩे को विवश किया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
आपकी जानकारी के लिए यहां उल्लेख करना जरूरी है कि मुण्डकोपनिषद में से लिए आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते का पूर्ण मंत्र इस प्रकार है:-
सत्यमेव जयते नानृतम सत्येन पंथा विततो देवयान:।
येनाक्रमंत्यृषयो ह्याप्तकामो यत्र तत् सत्यस्य परमम् निधानम।।
अर्थात अंतत: सत्य की ही जय होती है, न कि असत्य की। यही वह मार्ग है, जिससे होकर आप्तकाम (जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों) मानव जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
ज्ञातव्य है कि भारत सरकार के राजकीय चिह्न अशोक चक्र के नीचे यह वाक्य अंकित है। जहां तक प्रतीक का प्रश्न है, वह उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में 250 ई. पू. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए सिंह स्तम्भ के शिखर से लिया गया है, परंतु उसमें यह आदर्श वाक्य नहीं है। जानकारी के अनुसार इस आदर्श वाक्य को राष्ट्रीय क्षितिज पर लाने में अहम भूमिका सन् 1918 में पंडित महन मोहन मालवीय की है।
भारत ही नहीं बल्कि चेक गणराज्य और इसके पूर्ववर्ती चेकोस्लोवाकिया का आदर्श वाक्य प्रावदा वीत्येजी सत्यमेव जयते का समानार्थी है। उसका भी अर्थ है सत्य जीतता है।
सच तो ये है कि सत्य व असत्य मानव सभ्यता के आरंभ से ही अस्तित्व में रहे हैं। तभी तो हम भगवान श्रीराम की रावण पर जीत को असत्य पर सत्य की विजय कहते हैं। पूरे भारत में दशहरा पर्व पर रावण का पुतला जला कर इस वाक्य का शंखनाद करते हैं। इससे इतर कुछ विद्वान तो असत्य के अस्तित्व को महत्वपूर्ण बताते हुए यहां तक कहते हैं कि राम की महिमा भी रावण के वजूद पर टिकी हुई है। अगर रावण न हो तो भला राम उभार कैसे मिल सकता है? अर्थात सत्य की महिमा का महल असत्य की जमीन पर खड़ा होता है।
इसी प्रकार महाभारत में भी श्रीकृष्ण व पांच पांडवों की सौ कोरवों पर जीत को सत्य की असत्य पर जीत की उपमा दी जाती है। ज्ञातव्य है कि धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दु:शासन सहित कौरवों को असत्य व अधर्म का प्रतीक माना गया है। गीता में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम। अर्थात जब जब भी धर्म की हानि होती है, मैं अधर्म का नाश करने के लिए धरती पर आता हूं। इसका भी यही तात्पर्य है कि असत्य व अधर्म सृष्टि के आरंभ से मौजूद रहे हैं, जिनसे निपटने के लिए सत्य के रूप में भगवान अवतार लेते हैं।
सत्य की इतनी महिमा है कि वेद और पुराण के विरोधियों ने भी सत्य को पंचशील व पंचमहाव्रत का प्रमुख अंग माना है।
महात्मा गांधी ने तो सत्य को ईश्वर की उपमा दी है। वे ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने सत्य पर व्यावहारिक प्रयोग किए। आजादी के आंदोलन में समय सत्याग्रह के बल पर उन्होंने अंग्रेजों को भारत छोडऩे को विवश किया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
सत्य की हमेशा विजय होती है पर सत्य का पथ अग्निपथ होता है असत्य को जलाने से पहले स्वयं को जलना पड़ता है में इसके लिए तैयार हूं क्या आप तैयार है।
जवाब देंहटाएंजी
हटाएंबहुत शानदार लिखा है सर।
जवाब देंहटाएंशोधपरक। एक स्थापित सत्य के द्योतक इस आदर्श वाक्य को आपकी लेखनी ने जिस दृष्टि से विवेचित किया वह सराहनीय है। 🙏 मोहन थानवी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंGood written,Sir ji.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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