कोई भी मरना नहीं चाहता। हर व्यक्ति अमर रहना चाहता है। और दिलचस्प बात ये है कि हर आदमी ये भी जानता है कि अमर होना संभव नहीं है। जो आया है, उसे जाना ही होगा। मृत्यु अवश्यंभावी है। उसे
टाला नहीं जा सकता है। हद से हद जीवन को दीर्घ किया जा सकता है। जिन भी ऋषि-मुनियों, सुरों-असुरों ने कठोर तप करके अमर होने का वरदान मांगा है, वह खाली गया है। अजेय होने के वरदान दिए हैं, अधिक से अधिक शक्ति संपन्न होने के वरदान दिए गए हैं, मगर यह कह कर अमरता के लिए इंकार किया गया है कि यह विधि के विरुद्ध है।
सवाल ये उठता है कि जब अमर हुआ ही नहीं जा सकता तो हमारे भीतर अमरता का भाव आता कहां से है? जब भी हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो जीवन व संसार की नश्वरता से प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है, फिर भी यह भाव रहता है कि मैं तो अभी नहीं मरूंगा। कुछ पल के लिए जरूर संसार से विरक्ति का भाव आता है, जिसे कि श्मशानिया वैराग्य कहा गया है, मगर श्मशान से बाहर आते ही वह तिरोहित हो जाता है। श्मशान में रहते अवश्य जीवन की आपाधापी निरर्थक लगती है, सोचते हैं कि जब एक दिन मरना ही तो क्यों बुरे कर्म करें, लेकिन बाहर आते ही हम जस के तस हो जाते हैं। राग-द्वेष में प्रवृत्त हो जाते हैं। कल्पना कीजिए कि अगर श्मशान में जाने पर उत्पन्न होने वाला अनासक्ति का भाव स्थाई हो जाए तो हम बाहर निकलते ही बदले हुए इंसान हो जाएं। मगर ऐसा होता नहीं है। क्यों नहीं होता है ऐसा?
वस्तुत: जिस चित्त में अमरता का अहसास पैठा हुआ है, वह हमारी जीवनी शक्ति की अमरता की वजह से ही है। वह तत्त्व, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह अमर है। शास्त्र भी यही समझाता है कि आत्मा अजर-अमर है। न उसे पानी में भिगोया जा सकता है, न उसे आग में जलाया जा सकता है, न उसे हवा में सुखाया जा सकता है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। पंच महाभूत से बना शरीर जरूर नष्ट हो जाता है, जो कि मृत्यु होने की निशानी है, मगर आत्मा कायम रहती है। इसे इस रूप में समझाया गया है कि शरीर एक चोला है। जैसे हम वस्त्र बदलते हैं, वैसे ही आत्मा जन्म लेती है और फिर पुन: जन्म लेती है। हमें शास्त्र की इस समझाइश से बड़ा सुकून मिलता है। बहुत संतुष्टि होती है। लगता है कि वह ठीक ही कह रहा है। वो इसलिए कि वह हमारे चित्त में बैठे अमरता के भाव पर ठप्पा लगाती है। उसकी पुष्टि करती है। हमारे मनानुकूल है। जब हमारा कोई निकटस्थ व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है तो यही समझाया जाता है चिंता न करें, मरना तो सुनिश्चित है, मगर मृत व्यक्ति की आत्मा अमर है। हमें इससे भी संतुष्टि होती है कि चलो शरीर नष्ट हो गया, मगर उसकी आत्मा का वजूद तो कायम है। इसी मिथ के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा बनी हुई है। इसी आधार पर मान्यता बनी हुई है कि पिछले जन्मों के कर्म हमारी आत्मा के साथ आते हैं और उसी के अनुरूप हमें सुख-दुख मिलता है। अमरता का अहसास ही पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका अगले जन्म में भी मिलने, जन्मों-जन्मों तक साथ निभाने की कसम दिलवाता है। कई लोग तो अपने बुजुर्ग के अगले जन्म में अपने ही परिवार में जन्म लेने की कामना करते हैं। सपने में हुई अनुभूति या लक्षणों के आधार पर हम यह भी यकीन कर लेते हैं हमारे अमुक संबंधी ने फिर हमारी संतान के रूप में जन्म लिया है।
यह जानते हैं कि हमारा अमुक संबंधी मर कर कहीं अन्य जन्म ले चुका है, लौट कर नहीं आएगा, फिर भी उससे नाता बनाए रखते हैं। यानि कि उसके भी अमर होने का विश्वास है। उसके लिए बाकायदा 15 तिथियों की श्राद्ध की व्यवस्था की हुई है। जिस तिथी पर संबंधी की मृत्यु हुई थी, उस पर ब्राह्मण को भोजन करवाते हैं। यह मान कर हमारे संबंधी की आत्मा उसके शरीर में आ कर भोजन कर रही है।
कुल जमा यह धारणा यह है कि आत्मा अमर है। भीतर भी यही विश्वास है कि हम अमर हैं। अमरता की चाह भी वहीं से पैदा होती है। पर चूंकि भौतिक जगत में विधि का विधान इसकी अनुमति नहीं देता, इस कारण शरीर नष्ट हो जाने पर भी हम अमर रहेंगे, यह यकीन बहुत आत्मिक संतुष्टि देता है।
अमरता की इस आस्था के कारण ही यह सीख दी जाती है कि अच्छे कर्म करें, ताकि अगले जन्म में सुख मिले। इसी विश्वास के कारण सद्कर्म करने का उपदेश दिया जाता है, ताकि उसे बाद की पीढिय़ां याद करें और हमारा नाम अमर बना रहे। बेशक, हमें याद किया जा रहा है या नहीं, इसे देखने को हम मौजूद नहीं रहने वाले हैं, मगर अमरता की चाह हमें सुकर्म करने को प्रेरित करती रहती है।
प्रसंगवश यहां उन आठ चिरंजीवियों का भी जिक्र कर लेते हैं, जिनके बारे में शास्त्रों में बताया गया है कि वे हजारों साल से जीवित हैं।
इनमें से भगवान रुद्र के 11 वें अवतार व भगवान श्रीराम के परम सेवक श्रीहनुमान के चारों युगों में होने की महिमा को हनुमान चालीसा में चारों युग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा कह कर गाते हैं। बाकी 7 काल विजयी दिव्य आत्माओं का विवरण इस प्रकार है:- महामृत्युंजय सिद्धि प्राप्त शिव भक्त ऋषि मार्कण्डेय, चारों वेदों व 18 पुराणों के रचनाकार भगवान वेद व्यास, जगतपालक भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम, भक्त प्रह्लाद के वंशज व भगवान वामन को अपना सब कुछ दान करने वाले राजा बलि, लंकापति रावण के साथ युद्ध में भगवान राम का साथ देने वाले विभीषण, कौरवों और पाण्डवों के कुल गुरु परम तपस्वी ऋषि कृपाचार्य, कौरवों और पाण्डवों के ही गुरु द्रोणाचार्य के सुपुत्र अश्वत्थामा।
इसी सिलसिले में एक श्लोक का भी जिक्र भी अप्रासंगिक नहीं रहेगा-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप-परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टम।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात इन आठ लोगों (अश्वथामा, दैत्यराज बलि, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि) का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
टाला नहीं जा सकता है। हद से हद जीवन को दीर्घ किया जा सकता है। जिन भी ऋषि-मुनियों, सुरों-असुरों ने कठोर तप करके अमर होने का वरदान मांगा है, वह खाली गया है। अजेय होने के वरदान दिए हैं, अधिक से अधिक शक्ति संपन्न होने के वरदान दिए गए हैं, मगर यह कह कर अमरता के लिए इंकार किया गया है कि यह विधि के विरुद्ध है।
सवाल ये उठता है कि जब अमर हुआ ही नहीं जा सकता तो हमारे भीतर अमरता का भाव आता कहां से है? जब भी हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो जीवन व संसार की नश्वरता से प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है, फिर भी यह भाव रहता है कि मैं तो अभी नहीं मरूंगा। कुछ पल के लिए जरूर संसार से विरक्ति का भाव आता है, जिसे कि श्मशानिया वैराग्य कहा गया है, मगर श्मशान से बाहर आते ही वह तिरोहित हो जाता है। श्मशान में रहते अवश्य जीवन की आपाधापी निरर्थक लगती है, सोचते हैं कि जब एक दिन मरना ही तो क्यों बुरे कर्म करें, लेकिन बाहर आते ही हम जस के तस हो जाते हैं। राग-द्वेष में प्रवृत्त हो जाते हैं। कल्पना कीजिए कि अगर श्मशान में जाने पर उत्पन्न होने वाला अनासक्ति का भाव स्थाई हो जाए तो हम बाहर निकलते ही बदले हुए इंसान हो जाएं। मगर ऐसा होता नहीं है। क्यों नहीं होता है ऐसा?
वस्तुत: जिस चित्त में अमरता का अहसास पैठा हुआ है, वह हमारी जीवनी शक्ति की अमरता की वजह से ही है। वह तत्त्व, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह अमर है। शास्त्र भी यही समझाता है कि आत्मा अजर-अमर है। न उसे पानी में भिगोया जा सकता है, न उसे आग में जलाया जा सकता है, न उसे हवा में सुखाया जा सकता है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। पंच महाभूत से बना शरीर जरूर नष्ट हो जाता है, जो कि मृत्यु होने की निशानी है, मगर आत्मा कायम रहती है। इसे इस रूप में समझाया गया है कि शरीर एक चोला है। जैसे हम वस्त्र बदलते हैं, वैसे ही आत्मा जन्म लेती है और फिर पुन: जन्म लेती है। हमें शास्त्र की इस समझाइश से बड़ा सुकून मिलता है। बहुत संतुष्टि होती है। लगता है कि वह ठीक ही कह रहा है। वो इसलिए कि वह हमारे चित्त में बैठे अमरता के भाव पर ठप्पा लगाती है। उसकी पुष्टि करती है। हमारे मनानुकूल है। जब हमारा कोई निकटस्थ व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है तो यही समझाया जाता है चिंता न करें, मरना तो सुनिश्चित है, मगर मृत व्यक्ति की आत्मा अमर है। हमें इससे भी संतुष्टि होती है कि चलो शरीर नष्ट हो गया, मगर उसकी आत्मा का वजूद तो कायम है। इसी मिथ के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा बनी हुई है। इसी आधार पर मान्यता बनी हुई है कि पिछले जन्मों के कर्म हमारी आत्मा के साथ आते हैं और उसी के अनुरूप हमें सुख-दुख मिलता है। अमरता का अहसास ही पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका अगले जन्म में भी मिलने, जन्मों-जन्मों तक साथ निभाने की कसम दिलवाता है। कई लोग तो अपने बुजुर्ग के अगले जन्म में अपने ही परिवार में जन्म लेने की कामना करते हैं। सपने में हुई अनुभूति या लक्षणों के आधार पर हम यह भी यकीन कर लेते हैं हमारे अमुक संबंधी ने फिर हमारी संतान के रूप में जन्म लिया है।
यह जानते हैं कि हमारा अमुक संबंधी मर कर कहीं अन्य जन्म ले चुका है, लौट कर नहीं आएगा, फिर भी उससे नाता बनाए रखते हैं। यानि कि उसके भी अमर होने का विश्वास है। उसके लिए बाकायदा 15 तिथियों की श्राद्ध की व्यवस्था की हुई है। जिस तिथी पर संबंधी की मृत्यु हुई थी, उस पर ब्राह्मण को भोजन करवाते हैं। यह मान कर हमारे संबंधी की आत्मा उसके शरीर में आ कर भोजन कर रही है।
कुल जमा यह धारणा यह है कि आत्मा अमर है। भीतर भी यही विश्वास है कि हम अमर हैं। अमरता की चाह भी वहीं से पैदा होती है। पर चूंकि भौतिक जगत में विधि का विधान इसकी अनुमति नहीं देता, इस कारण शरीर नष्ट हो जाने पर भी हम अमर रहेंगे, यह यकीन बहुत आत्मिक संतुष्टि देता है।
अमरता की इस आस्था के कारण ही यह सीख दी जाती है कि अच्छे कर्म करें, ताकि अगले जन्म में सुख मिले। इसी विश्वास के कारण सद्कर्म करने का उपदेश दिया जाता है, ताकि उसे बाद की पीढिय़ां याद करें और हमारा नाम अमर बना रहे। बेशक, हमें याद किया जा रहा है या नहीं, इसे देखने को हम मौजूद नहीं रहने वाले हैं, मगर अमरता की चाह हमें सुकर्म करने को प्रेरित करती रहती है।
प्रसंगवश यहां उन आठ चिरंजीवियों का भी जिक्र कर लेते हैं, जिनके बारे में शास्त्रों में बताया गया है कि वे हजारों साल से जीवित हैं।
इनमें से भगवान रुद्र के 11 वें अवतार व भगवान श्रीराम के परम सेवक श्रीहनुमान के चारों युगों में होने की महिमा को हनुमान चालीसा में चारों युग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा कह कर गाते हैं। बाकी 7 काल विजयी दिव्य आत्माओं का विवरण इस प्रकार है:- महामृत्युंजय सिद्धि प्राप्त शिव भक्त ऋषि मार्कण्डेय, चारों वेदों व 18 पुराणों के रचनाकार भगवान वेद व्यास, जगतपालक भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम, भक्त प्रह्लाद के वंशज व भगवान वामन को अपना सब कुछ दान करने वाले राजा बलि, लंकापति रावण के साथ युद्ध में भगवान राम का साथ देने वाले विभीषण, कौरवों और पाण्डवों के कुल गुरु परम तपस्वी ऋषि कृपाचार्य, कौरवों और पाण्डवों के ही गुरु द्रोणाचार्य के सुपुत्र अश्वत्थामा।
इसी सिलसिले में एक श्लोक का भी जिक्र भी अप्रासंगिक नहीं रहेगा-
अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण:।
कृप-परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टम।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।
अर्थात इन आठ लोगों (अश्वथामा, दैत्यराज बलि, वेद व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम और मार्कण्डेय ऋषि) का स्मरण सुबह-सुबह करने से सारी बीमारियां समाप्त होती हैं और मनुष्य 100 वर्ष की आयु को प्राप्त करता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
आपके खोज पूर्ण , व्यवस्थित एंव सारगर्भित आइटम पढकर चुमने का मन करता है,यशस्वी भवः
जवाब देंहटाएंकमल गर्ग पुलिस लाइन