सत्यमेव जयते। यह सूत्र सर्वविदित है। इसका अर्थ है कि सत्य की जीत होती है। चूंकि यह ऋषियों के अनुभव से निकल कर आया है, इस कारण इस पर विश्वास किया ही जाना चाहिए। लेकिन साथ ही यह भी सर्वविदित तथ्य है कि सत्य तकलीफ बहुत पाता है। जब तक उसकी जीत होती है, तब तक वह अधमरा हो जाता है। कहते हैं न कि प्रकृति न्याय तो करती है, मगर जब तक न्याय मिलता है, तब तक बहुत देर हो जाती है। तो आखिर वास्तविकता क्या है? यह परस्पर विरोधाभास क्यों? आइये, इस पर विचार करते हैं:-
अव्वल तो जब यह कहा गया कि सत्यमेव जयते, तब यह कहने की जरूरत ही क्यों पड़ी? यदि जीत होती ही है तो इसे कहने की आवश्यकता क्या थी? स्वाभाविक है कि सत्य के मार्ग पर चलने वालों का जब विश्वास डिगने लगा होगा, तभी ऋषि ने सांत्वना देने के लिए यह उद्घोष किया होगा कि चिंता मत करों- सत्यमेव जयते। अन्यथा निरपेक्ष रूप से ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं पडऩी चाहिए थीïï? इसका अर्थ है कि यह सूत्र मौलिक रूप से सापेक्ष है।
हमारे चिंतन का विस्तार इसी बारीकी के इर्द-गिर्द होगा।
सबसे पहले आते हैं, कर्म के सिद्धांत पर। यदि यह सही है कि हर कर्म प्रतिफल देता है, अच्छा या बुरा, तो फिर जो लोग सत्य के मार्ग पर चलते हैं, सत्कर्म करते हैं, धर्माचरण करते हैं, उन्हें अमूमन परेशानी में क्यों पाते हैं? उन्हें अच्छे कर्म का फल अच्छा मिलता क्यों नहीं दिखाई देता? आम तौर पर सज्जन तकलीफ में होता है और बेईमान व भ्रष्ट मौज में रहता है। यह आम धारणा भी है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम अवतार हैं, मगर सत्य के मार्ग पर होने के बावजूद वे जंगल में भटकते हैं। रावण कितना ही विद्वान हो, मगर दुराचरण करके भी उसी का पलड़ा भारी नजर आता है। भगवान राम को उसके अनाचार से मुक्ति करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। बेशक आखिर में उनकी जीत होती है, मगर तब तक कितनी जद्दोजहद करनी होती है। और दिलचस्प बात है कि आखिर में रावण की सद्गति होती है। एक और उदाहरण देखिए। सदैव राक्षस देवताओं को परेशान करते हैं। देवता उनसे त्रस्त रहते हैं। कभी आपने सुना कि राक्षसों ने कभी देवताओं से दुखी हो कर भगवान से उनसे मुक्ति की मांग की हो। सदैव देवता ही भगवान के पास जा कर त्राहि माम त्राहि माम करते हैं। हालांकि आखिर में भगवान प्रकट हो कर उन्हें राक्षसों से मुक्ति दिलाते हैं और उनकी जीत होती है, मगर फिर भी राक्षसों से त्रस्त रहते हैं। ऐसे में सवाल उठता ही है न कि यदि भगवान सत्य के साथ हैं, सत्य ही हैं, तो असत्य को इतनी शक्ति देते ही क्यों हैं कि सत्य को उससे संघर्ष करना पड़े? वस्तुत: यह प्रकृति का बेहद गूढ़ रहस्य है। इस पर अलग से चर्चा करेंगे। फिलवक्त इस विषय पर आते हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले को कठिनाइयां क्यों आती हैं?
मेरा अनुभव ये है कि जैसे-जैसे हम धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तो अधर्म की ताकत उसकी बाधा बनती है। सारा खेल शक्ति का है। यह प्रकृति कुल मिला कर शक्ति के संतुलन से गतिमान है। कभी किसी का पलड़ा भारी तो कभी किसी का। इस सिलसिले में गीता के अध्याय चार के श्लोक सात व आठ पर नजर डालिए, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधुओं का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं।
इस सूत्र में ही अंतनिर्हित है कि धर्म की हानि होती ही, अधर्म की वृद्धि होती ही है, साधु कष्ट पाते ही हैं, पापी बढ़ते ही हैं, किस वजह से, कदाचित कर्मों के कारण, वह अलग विषय है, मगर ऐसा होता है।
अब मूल मुद्दे पर आते हैं। हमें क्यों लगता है कि धर्म क्यों नहीं फलित होता दिखाई देता? सज्जनता कष्ट में क्यों रहती है? इस विषय को एक अलग आयाम में पुष्कर की ज्योतिर्विद एस्ट्रो ज्योति दाधीच ने समझाने की कोशिश की है। उन्होंने मुझे एक आलेख भेजा है, उसे हूबहू आपके समझ रख रहा हूं।
मंत्र क्यों सिद्ध नहीं होते?
माधवाचार्य गायत्री के घोर उपासक थे। वृंदावन में उन्होंने तेरह वर्ष तक गायत्री के समस्त अनुष्ठान विधिपूर्वक किये, लेकिन उन्हे इससे न भौतिक, न आध्यायत्मिकता लाभ दिखा। वे निराश हो कर काशी गये। वहां उन्हें एक अवधूत मिला, जिसने उन्हें एक वर्ष तक काल भैरव की उपासना करने को कहा। उन्होंने एक वर्ष से अधिक ही काल भैरव की आराधना की। एक दिन उन्होंने आवाज सुनी- मैं प्रसन्न हूं, वरदान मांगो। उन्हें लगा कि ये उनका भ्रम है, क्योंकि सिर्फ आवाज सुनायी दे रही थी, कोई दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने सुना अनसुना कर दिया, लेकिन वही आवाज फिर से उन्हें तीन बार सुनायी दी। तब माधवाचार्य जी ने कहा आप सामने आ कर अपना परिचय दें, मैं अभी काल भैरव की उपासना मे व्यस्त हूं। सामने से आवाज आयी- तू जिसकी उपासना कर रहा है, वो मैं ही काल भैरव हूं। माधवाचार्य जी ने कहा तो फिर सामने क्यों नहीं आते? काल भैरव ने कहा- माधवा, तुमने तेरह साल तक जिन गायत्री मंत्रों का अखंड जाप किया है, उसका तेज तुम्हारे चारों ओर व्याप्त है। मनुष्य रूप मैं उसे सहन नहीं कर सकता, इसीलिए सामने नहीं आ सकता। माध्वाचार्य ने कहा जब आप उस तेज का सामना नहीं कर सकते, तब आप मेरे किसी काम के नहीं, आप वापस जा सकते हैं। काल भैरव ने कहा- लेकिन मैं तुम्हारा समाधान किये बिना नहीं जा सकता हूं। इस पर माधवाचार्य ने पूछा कि तेरह वर्ष से किया गायत्री अनुष्ठान मुझे क्यों नहीं फला? काल भैरव ने कहा कि वो अनुष्ठान निष्फल नहीं हुए हैं। उससे तुम्हारे जन्म-जन्मांतरों के पाप नष्ट हुए हैं।
माधवाचार्य- तो अब मैं क्या करूं?
काल भैरव- फिर से वृंदावन जा कर और एक वर्ष गायत्री का अनुष्ठान कर। इससे तेरे इस जन्म के भी पाप नष्ट हो जायेंगे, फिर गायत्री मां प्रसन्न होंगी।
माधवाचार्य वृंदावन लौट आये। अनुष्ठान शुरू किया। एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में अनुष्ठान में बैठने ही वाले थे कि उन्होंने आवाज सुनी- मैं आ गयी हूं, माधव, वरदान मांगो।
माधवाचार्य फूट-फूट कर रोने लगे। पहले बहुत लालसा थी कि वरदान मांगू, लेकिन अब कुछ मांगने की इच्छा रही नहीं। मां, आप जो मिल गयी हो।
गायत्री मां- माधव तुम्हें मांगना तो पड़ेगा ही।
माधवाचार्य- मां, ये देह भले ही नष्ट हो जाये, लेकिन इस शरीर से की गयी भक्ति अमर रहे। इस भक्ति की आप सदैव साक्षी रहो। यही वरदान दो।
गायत्री मां- तथास्तु।
बाद में तीन वर्षों में माधवाचार्य जी ने माधव नियम नाम का आलौकिक ग्रंथ लिखा। याद रखिये, आपके द्वारा शुरू किये गये मंत्र-जाप पहले दिन से ही काम करना शुरू कर देतै हैं, लेकिन सबसे पहले प्रारब्ध के पापों को नष्ट करते हैं। देवताओं की शक्ति इन्हीं पापों को नष्ट करने मे खर्च हो जाती हैं। और जैसे ही ये पाप नष्ट होते हैं, आपको एक आलौकिक तेज, एक आध्यात्मिक शक्ति और सिद्धि प्राप्त होने लगती है।
निष्कर्ष ये कि भले ही कितनी ही कठिनाइयां आएं, हमें अपने धर्म के मार्ग पर चलते रहना चाहिए। बीच रास्ते में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, जिस दिन पूर्व के संचित अधर्म जनित पाप नष्ट हो जाएंगे, हमें सुफल अवश्य मिलेगा। इसका मतलब ये भी कि सज्जनता तब तक कष्ट में रहती है, जब तक कि पुराना हिसाब खत्म न हो जाए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
अव्वल तो जब यह कहा गया कि सत्यमेव जयते, तब यह कहने की जरूरत ही क्यों पड़ी? यदि जीत होती ही है तो इसे कहने की आवश्यकता क्या थी? स्वाभाविक है कि सत्य के मार्ग पर चलने वालों का जब विश्वास डिगने लगा होगा, तभी ऋषि ने सांत्वना देने के लिए यह उद्घोष किया होगा कि चिंता मत करों- सत्यमेव जयते। अन्यथा निरपेक्ष रूप से ऐसा कहने की जरूरत ही नहीं पडऩी चाहिए थीïï? इसका अर्थ है कि यह सूत्र मौलिक रूप से सापेक्ष है।
हमारे चिंतन का विस्तार इसी बारीकी के इर्द-गिर्द होगा।
सबसे पहले आते हैं, कर्म के सिद्धांत पर। यदि यह सही है कि हर कर्म प्रतिफल देता है, अच्छा या बुरा, तो फिर जो लोग सत्य के मार्ग पर चलते हैं, सत्कर्म करते हैं, धर्माचरण करते हैं, उन्हें अमूमन परेशानी में क्यों पाते हैं? उन्हें अच्छे कर्म का फल अच्छा मिलता क्यों नहीं दिखाई देता? आम तौर पर सज्जन तकलीफ में होता है और बेईमान व भ्रष्ट मौज में रहता है। यह आम धारणा भी है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम अवतार हैं, मगर सत्य के मार्ग पर होने के बावजूद वे जंगल में भटकते हैं। रावण कितना ही विद्वान हो, मगर दुराचरण करके भी उसी का पलड़ा भारी नजर आता है। भगवान राम को उसके अनाचार से मुक्ति करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। बेशक आखिर में उनकी जीत होती है, मगर तब तक कितनी जद्दोजहद करनी होती है। और दिलचस्प बात है कि आखिर में रावण की सद्गति होती है। एक और उदाहरण देखिए। सदैव राक्षस देवताओं को परेशान करते हैं। देवता उनसे त्रस्त रहते हैं। कभी आपने सुना कि राक्षसों ने कभी देवताओं से दुखी हो कर भगवान से उनसे मुक्ति की मांग की हो। सदैव देवता ही भगवान के पास जा कर त्राहि माम त्राहि माम करते हैं। हालांकि आखिर में भगवान प्रकट हो कर उन्हें राक्षसों से मुक्ति दिलाते हैं और उनकी जीत होती है, मगर फिर भी राक्षसों से त्रस्त रहते हैं। ऐसे में सवाल उठता ही है न कि यदि भगवान सत्य के साथ हैं, सत्य ही हैं, तो असत्य को इतनी शक्ति देते ही क्यों हैं कि सत्य को उससे संघर्ष करना पड़े? वस्तुत: यह प्रकृति का बेहद गूढ़ रहस्य है। इस पर अलग से चर्चा करेंगे। फिलवक्त इस विषय पर आते हैं कि धर्म के मार्ग पर चलने वाले को कठिनाइयां क्यों आती हैं?
मेरा अनुभव ये है कि जैसे-जैसे हम धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तो अधर्म की ताकत उसकी बाधा बनती है। सारा खेल शक्ति का है। यह प्रकृति कुल मिला कर शक्ति के संतुलन से गतिमान है। कभी किसी का पलड़ा भारी तो कभी किसी का। इस सिलसिले में गीता के अध्याय चार के श्लोक सात व आठ पर नजर डालिए, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। साधुओं का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूं।
इस सूत्र में ही अंतनिर्हित है कि धर्म की हानि होती ही, अधर्म की वृद्धि होती ही है, साधु कष्ट पाते ही हैं, पापी बढ़ते ही हैं, किस वजह से, कदाचित कर्मों के कारण, वह अलग विषय है, मगर ऐसा होता है।
अब मूल मुद्दे पर आते हैं। हमें क्यों लगता है कि धर्म क्यों नहीं फलित होता दिखाई देता? सज्जनता कष्ट में क्यों रहती है? इस विषय को एक अलग आयाम में पुष्कर की ज्योतिर्विद एस्ट्रो ज्योति दाधीच ने समझाने की कोशिश की है। उन्होंने मुझे एक आलेख भेजा है, उसे हूबहू आपके समझ रख रहा हूं।
मंत्र क्यों सिद्ध नहीं होते?
माधवाचार्य गायत्री के घोर उपासक थे। वृंदावन में उन्होंने तेरह वर्ष तक गायत्री के समस्त अनुष्ठान विधिपूर्वक किये, लेकिन उन्हे इससे न भौतिक, न आध्यायत्मिकता लाभ दिखा। वे निराश हो कर काशी गये। वहां उन्हें एक अवधूत मिला, जिसने उन्हें एक वर्ष तक काल भैरव की उपासना करने को कहा। उन्होंने एक वर्ष से अधिक ही काल भैरव की आराधना की। एक दिन उन्होंने आवाज सुनी- मैं प्रसन्न हूं, वरदान मांगो। उन्हें लगा कि ये उनका भ्रम है, क्योंकि सिर्फ आवाज सुनायी दे रही थी, कोई दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने सुना अनसुना कर दिया, लेकिन वही आवाज फिर से उन्हें तीन बार सुनायी दी। तब माधवाचार्य जी ने कहा आप सामने आ कर अपना परिचय दें, मैं अभी काल भैरव की उपासना मे व्यस्त हूं। सामने से आवाज आयी- तू जिसकी उपासना कर रहा है, वो मैं ही काल भैरव हूं। माधवाचार्य जी ने कहा तो फिर सामने क्यों नहीं आते? काल भैरव ने कहा- माधवा, तुमने तेरह साल तक जिन गायत्री मंत्रों का अखंड जाप किया है, उसका तेज तुम्हारे चारों ओर व्याप्त है। मनुष्य रूप मैं उसे सहन नहीं कर सकता, इसीलिए सामने नहीं आ सकता। माध्वाचार्य ने कहा जब आप उस तेज का सामना नहीं कर सकते, तब आप मेरे किसी काम के नहीं, आप वापस जा सकते हैं। काल भैरव ने कहा- लेकिन मैं तुम्हारा समाधान किये बिना नहीं जा सकता हूं। इस पर माधवाचार्य ने पूछा कि तेरह वर्ष से किया गायत्री अनुष्ठान मुझे क्यों नहीं फला? काल भैरव ने कहा कि वो अनुष्ठान निष्फल नहीं हुए हैं। उससे तुम्हारे जन्म-जन्मांतरों के पाप नष्ट हुए हैं।
माधवाचार्य- तो अब मैं क्या करूं?
काल भैरव- फिर से वृंदावन जा कर और एक वर्ष गायत्री का अनुष्ठान कर। इससे तेरे इस जन्म के भी पाप नष्ट हो जायेंगे, फिर गायत्री मां प्रसन्न होंगी।
माधवाचार्य वृंदावन लौट आये। अनुष्ठान शुरू किया। एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में अनुष्ठान में बैठने ही वाले थे कि उन्होंने आवाज सुनी- मैं आ गयी हूं, माधव, वरदान मांगो।
माधवाचार्य फूट-फूट कर रोने लगे। पहले बहुत लालसा थी कि वरदान मांगू, लेकिन अब कुछ मांगने की इच्छा रही नहीं। मां, आप जो मिल गयी हो।
गायत्री मां- माधव तुम्हें मांगना तो पड़ेगा ही।
माधवाचार्य- मां, ये देह भले ही नष्ट हो जाये, लेकिन इस शरीर से की गयी भक्ति अमर रहे। इस भक्ति की आप सदैव साक्षी रहो। यही वरदान दो।
गायत्री मां- तथास्तु।
बाद में तीन वर्षों में माधवाचार्य जी ने माधव नियम नाम का आलौकिक ग्रंथ लिखा। याद रखिये, आपके द्वारा शुरू किये गये मंत्र-जाप पहले दिन से ही काम करना शुरू कर देतै हैं, लेकिन सबसे पहले प्रारब्ध के पापों को नष्ट करते हैं। देवताओं की शक्ति इन्हीं पापों को नष्ट करने मे खर्च हो जाती हैं। और जैसे ही ये पाप नष्ट होते हैं, आपको एक आलौकिक तेज, एक आध्यात्मिक शक्ति और सिद्धि प्राप्त होने लगती है।
निष्कर्ष ये कि भले ही कितनी ही कठिनाइयां आएं, हमें अपने धर्म के मार्ग पर चलते रहना चाहिए। बीच रास्ते में हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, जिस दिन पूर्व के संचित अधर्म जनित पाप नष्ट हो जाएंगे, हमें सुफल अवश्य मिलेगा। इसका मतलब ये भी कि सज्जनता तब तक कष्ट में रहती है, जब तक कि पुराना हिसाब खत्म न हो जाए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
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