सोमवार, 27 जुलाई 2020

संपादक के भीतर का लेखक मर जाता है?

एक पारंगत संपादक अच्छा लेखक नहीं हो सकता। उसके भीतर मौजूद लेखक लगभग मर जाता है। यह बात तकरीबन पच्चीस साल पहले एक बार बातचीत के दौरान राजस्थान राजस्व मंडल की पत्रिका राविरा के संपादक और आधुनिक राजस्थान में रविवारीय परिशिष्ट का संपादन करने वाले श्री भालचंद व्यास ने कही थी। तब ये बात मेरी समझ में नहीं आई, ऐसा कैसे हो सकता है? लंबे समय तक संपादन करने के बाद जा कर समझ आई कि वे सही कह रहे थे।
वस्तुत: होता ये है कि लगातार संपादन करने वाले पत्रकार की दृष्टि सिर्फ वर्तनी के त्रुटि संशोधन, व्याकरण और बेहतर शब्द विन्यास पर होती है। अच्छे से अच्छे लेखक की रचना या न्यूज राइटिंग करने वाले का समाचार बेहतर से बेहतर प्रस्तुत करने की विधा में वह इतना डूब जाता है कि उसके भीतर मौजूद लेखक विलुप्त प्राय: हो जाता है। यद्यपि संपादक को हर शैली की बारीकी की गहरी समझ होती है, मगर सतत अभ्यास के कारण अपनी खुद की शैली कहीं खो सी जाती है। जब भी वह कुछ लिखने की कोशिश करता है, तो उसका सारा ध्यान हर वाक्य को पूर्ण रूप से शुद्ध लिखने पर होता है। जगह-जगह पर अटकता है। हालांकि उसकी रचना में भरपूर कसावट होती है, गलती निकालना बेहद कठिन होता है, मगर रचना की स्वाभाविकता कहीं गायब हो जाती है। दरअसल उसमें वह फ्लो नहीं होता, झरने की वह स्वच्छंद अठखेली नहीं होती, जो कि एक लेखक की रचना में होता है। वह लेखन सप्रयास होता है। इसके विपरीत लेखक जब लिखता है तो उसका ध्यान भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति पर होता है। अतिरिक्त प्रयास नहीं होता। इस कारण उसमें सहजता होती है। उसमें एक मौलिक महक होती है। हर लेखक की अपनी विधा व शैली होती है। बेशक वह वर्तनी या व्याकरण की त्रुटियां कर सकता है, क्योंकि उस पर उसका पूरा ध्यान नहीं होता, मगर अभिव्यक्ति में विशिष्ट गंध होती है।
कुछ ऐसी ही सुगंध ओशो को कबीर के दोहों में नजर आती है, जिसमें भाषा का बहुत अधिक ज्ञान नहीं। उलटबांसी भी होती है तो अनगढ़, मगर गूढ़ अर्थ लिए हुए। इसके विपरीत बुद्ध की भाषा में शब्दों की बारीक नक्काशी तो होती है, परिष्कृत, बहुत ज्ञानपूर्ण, मगर वह रस नहीं, जो कि कबीर की वाणी में होता है।
खैर, मूल विषय को यूं भी समझ सकते हैं कि जैसे संगीतकार को संगीत की जितनी समझ होती है, उतनी गायक को नहीं होती, मगर वह अच्छा गा भी ले, इसकी संभावना कम ही होती है। गायक संगीतकार या डायरेक्टर के दिशा-निर्देश पर गाता है, मगर गायकी की, आवाज की मधुरता गायक की खुद की होती है। जैसे अच्छा श्रोता या संगीत का मर्मज्ञ किसी गायक की गायकी में होने वाली त्रुटि को तो तुरंत पकड़ सकता है, मगर यदि उसे कहा जाए कि खुद गा कर दिखा तो वह ऐसा नहीं कर सकता।
इस सिलसिले में एक किस्सा याद आता है। एक बार एक चित्रकार ने चित्र बना कर उसके नीचे यह लिख कर सार्वजनिक स्थान पर रख दिया कि दर्शक इसमें त्रुटियां निकालें। सांझ ढ़लते-ढ़लते दर्शकों ने इतनी अधिक त्रटियां निकालीं कि चित्र पूरी तरह से बदरंग हो गया। दूसरे दिन उसी चित्रकार ने चित्र के नीचे यह लिख दिया कि इसमें जो भी कमी हो, उसे दुरुस्त करें। शाम को देखा तो चित्र वैसा का वैसा था, जैसा उसने बनाया था। अर्थात त्रुटि निकालना तो आसान है, मगर दुुरुस्त करना अथवा और अधिक बेहतर बनाना उतना ही कठिन।
इस तथ्य को मैने गहरे से अनुभव किया है। अजमेर के अनेक लेखकों की रचनाओं व पत्रकारों की खबरों का मैने संपादन किया है। मुझे पता है कि किसके लेखन में क्या खासियत है और क्या कमी है? मगर मैं चाहूं कि उनकी शैली में लिखूं तो कठिन हो जाता है। दैनिक न्याय में समाचार संपादक के रूप में काम करने के दौरान एक स्तम्भ लेखक को उसकी अपेक्षा के अनुरूप पारिश्रमिक दिलवाने की स्थिति में नहीं था तो उसने एकाएक स्तम्भ लिखने से मना कर दिया। उस स्तम्भ की खासियत ये थी कि व्यंग्य पूरी तरह से उर्दू का टच लिए होता था। चूंकि वह स्तम्भ मैने ही आरंभ करवाया था, इस कारण उसका बंद होना मेरे लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। उसके जैसा लिखने वाला कोई दूसरा था नहीं। मजबूरी में वह स्तम्भ मैने लिखना आरंभ किया। यह ऊपर वाले की ही कृपा समझिये कि पाठकों को पता ही नहीं लगा कि लेखक बदल गया है। हूबहू उस स्तम्भकार की शैली में लिखा। मगर मन ही मन मैं जानता था कि उस स्तम्भ को लिखने में मुझे कितनी कठिनाई पेश आई। एक बार रफ्तार में व्यंग्य लिखता और फिर उसे उर्दू टच देता। समझा जा सकता है कि मौलिक स्तम्भकार की रचना में जो स्वाद हुआ करता था, उसे मेन्टेन करना कितना मुश्किल भरा काम हो गया था। पाठकों को भले ही पता नहीं लग पाता हो, मगर मुझे अहसास था कि ठीक वैसा स्वाद नहीं दे पाया हूं।
एक संपादक के रूप में लंबे समय तक काम करने के कारण जब भी मुझे अपना कुछ लिखने का मन करता तो परेशानी होती थी। एक बार सहज भाव से लिखता और फिर उसमें फ्लेवर डालता। दुगुनी मेहनत होती थी। अब भी होती है।
यह आलेख मूलत: लेखकों व पत्रकारों के लिए साझा कर रहा हूं, लेकिन सुधि पाठक भी इस विषय को जान लें तो कोई बुराई नहीं।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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