खैर, अब बात यूट्यूब न्यूज चैनल वालों की कि क्या वे फर्जी हैं? क्या वे गैर कानूनी हैंï? सरकार तो उन्हें अधिकृत पत्रकार नहीं मानती, पत्रकार संगठन भी उन्हें मान्यता देने को तैयार नहीं हैं। इन संगठनों में केवल उनको सक्रिय सदस्य बनाया जाता है, जिनके नाम से समाचार पत्र है, अथवा वे किसी दैनिक समाचार पत्र में नियमित काम करते हैं, अथवा खुद के नाम से डोमेन लेकर न्यूज पोर्टल चलाते हैं।
उनका नियम तर्कसंगत भी है। एक ओर तो अखबार का टाइटल लेने के लिए स्नातक तक शिक्षा अर्जित करना जरूरी है, इसके अतिरिक्त उसे पत्रकारिता का पांच साल का अनुभव होना चाहिए। इतना होने के बाद बाकायदा उसकी पुलिस रिपोर्ट ली जाती है कि वह आपराधिक प्रवृत्ति का तो नहीं है अथवा उसकी वजह से कानून-व्यवस्था भंग होने का खतरा तो नहीं है। उसके बाद उपलब्धता के आधार पर टाइटल अलॉट होता है। इसके अतिरिक्त आजकल तो बड़े समाचार पत्रों में नौकरी पाने के लिए बीजेएमसी कोर्स की अनिवार्यता लागू की गई है, ताकि पत्रकारिता आरंभ करने से पहले उन्हें पत्रकारिता का बेसिक ज्ञान हो। इसके विपरीत यूट्यूब न्यूज चैनल के लिए न तो किसी भी प्रकार की पात्रता की जरूरत है और न ही कोई डिग्री। यहां तक न्यूनतम एजुकेशनल क्वालिफिकेशन की भी कोई बाध्यता नहीं है। उनका कोई भी पुलिस वेरिफिकेशन नहीं है। कोई भी वीडियो केमरा उठाए और न्यूज चैनल शुरू कर सकता है। कितना अंतर है, आप समझ गए होंगे। ऐसे में कथित असली पत्रकारों को तकलीफ होना स्वाभाविक है।
अब सिक्के का दूसरा पहलु। यह ठीक बात है कि रजिस्टर्ड न्यूज पेपर्स या न्यूज चैनल्स से उनकी कोई बराबरी नहीं, मगर वे फर्जी ही हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं। तकनीकी बात ये है कि जब सरकार ने ऐसे मीडिया कर्मियों के बारे में कोई नियम-विधान बनाया ही नहीं है तो उन्हें किस आधार पर अवैधानिक कहा जा सकता है। आखिरकार वे भी तो न्यूज का ही काम कर रहे हैं, जिसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। अगर वे कोई फर्जी, अपमानजनक या आपत्तिजनक न्यूज या न्यूज केंटेंट चलाते हैं तो शिकायत के आधार पर उनके खिलाफ सीआरपीसी की धाराओं के तहत कार्यवाही की जा सकती है। हां, यह जरूर अनुभव में आया है कि चूंकि अधिसंख्य ने बाकायदा पत्रकारिता का प्रशिक्षण नहीं लिया है, इस कारण पत्रकार की क्या-क्या मर्यादा है, इससे वे अनभिज्ञ हैं। वे ही क्या, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सीधे एंकर बने युवक-युवतियां अमर्यादित आचरण करती हैं, मगर चल रहा है। बावजूद इसके साफ सुथरी छवि के लोग भी हैं, जो ईमानदारी के साथ काम कर रहे हैं। चंद ब्लैकमेलरों की वजह से सभी को फर्जी करार नहीं दिया जाना चाहिए। यूट्यूब चैनल का पत्रकार माने, ब्लैकमेलर, ऐसा नेरेटिव बनाना उचित नहीं है। फिर सवाल ये भी है कि जिन्हें हम वास्तविक पत्रकार मान रहे हैं, क्या उनमें ब्लैकमेलर नहीं हैं?
मसले का एक और पहलु देखिए। प्रशासन ने अगर ये कहा है कि यूट्यूब न्यूज चैनल वालों सरकारी दफ्तरों व कार्यक्रमों में कवरेज नहीं करने दिया जाएगा तो वह अपनी जगह ठीक है। हम नकली पत्रकारों की बात कर रहे हैं, अगर सरकार या प्रशासन चाहे तो असली पत्रकारों को भी कवरेज करने से रोक सकता है अथवा कुछ अंकुश या पाबंदी लगा सकता है। कोई असली है, तब भी बिना अधिकारी की अनुमति के उसके चैंबर अथवा दफ्तर में प्रवेश नहीं कर सकता। पत्रकार का मतलब ये कत्तई नहीं कि उन्हें कहीं भी घुसने का लाइसेंस मिल गया है।
आपको याद होगा कि वर्तमान सरकार के गठन के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सी. पी. जोशी ने विधानसभा परिसर में पत्रकारों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। काफी जद्दोजहद के बार जा कर मामला सुलझा। इसी प्रकार वरिष्ठ पत्रकारों को याद होगा कि जब नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत थे, तब उन्होंने पत्रकारों के प्रवेश पर अंकुश लगाया था। पत्रकार केवल इजाजत लेकर अध्यक्ष अथवा सचिव से मिल सकते थे। उन्हें पूरे दफ्तर में घूमने व क्लर्कों से सीधे संपर्क करने की आजादी नहीं थी। अजमेर के पत्रकारों को तो याद होगा कि एक-दो बार ऐसा भी हुआ है एसपी ने सीधे थानों से खबर लेने पर रोक लगा दी थी। अखबारों को केवल कंट्रोल रूम से जारी प्रेसनोट पर निर्भर रहना होता था।
यह बात भी समझने की है कि कोई प्रतिनिधिमंडल जब जिला कलेक्टर को ज्ञापन देने जाता है तो मीडिया कर्मी फोटो लेने या वीडियो बनाने के लिए घुस जाते हैं और जिला कलेक्टर कोई आपत्ति नहीं करते, इसका अर्थ ये नहीं कि कलेक्टर के चैंबर में घुसने का उनको जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर वे चाहें तो रोक सकते हैं, मगर रोकते नहीं, क्योंकि प्रशासन को मीडिया से तालमेल रखना ही होता है। आपने देखा होगा कि सरकारी बैठकों में पत्रकारों को नहीं जाने दिया जाता। केवल फोटो लेने के लिए कुछ पल के लिए फोटोग्राफर्स को प्रवेश दिया जाता है। बैठक की खबर सरकारी स्तर पर सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी के जरिए ही मिलती है। मतगणना स्थल पर भी मोबाइल इत्यादि पर रोक के साथ सिर्फ उन पत्रकारों को प्रवेश मिलता है, जिनको प्रशासन कार्ड जारी करता है। वीवीआईपी विजिट के दौरान भी केवल पास धारियों को कवरेज करने दिया जाता है।
आखिर में मुद्दे की अहम बात। कुछ पत्रकारों ने, जिनके नाम से बाकायदा आरएनआई से रजिस्टर्ड अखबार हैं, उन्होंने बाद में यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए, क्योंकि इन दिनों उसी का चलन है। अब तो बड़े दैनिक समाचार पत्रों ने ईपेपर व यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए हैं। असल में उनकी भी कानूनी स्थिति ये है कि वे भी अन्य चैनल्स जैसे ही हैं। आरएनआई से रजिस्ट्रेशन से यह तो अधिकार नहीं मिल जाता कि वे उस नाम से चैनल चलाएं, फिर भी ऐसे चैनल्स पर प्रशासन का रुख नर्म है। वो इसलिए कि कम से कम से ये तो पक्का है न कि वे उनके पेरामीटर में पत्रकार हैं। बिलकुल फर्जी नहीं हैं। केवल यूट्यूब चैनल वालों पर प्रशासन की टेढ़ी नजर है। वे फर्जी ही हैं, ऐसा कहना मेरी नजर में उचित नहीं है, लेकिन प्रशासन को यह अधिकार है कि वह उन्हें वास्तविक पत्रकार न मानें और उन्हें कवरेज करने से रोके।
आखिर में एक महत्वूपूर्ण बात। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे कई बड़े पत्रकार हैं, जिनकी प्रतिष्ठित सेटेलाइट चैनल्स से नौकरी छूट गई। उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा के दम पर खुद के यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए हैं, जिन पर फिलवक्त तो सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। कारण वही कि अभी तक इस बारे में सरकार कोई नियम-कानून या सिस्टम नहीं बना पाई है। उनके खिलाफ भी मुकदम दर्ज हुए हैं, मगर मौजूदा सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत। सरकार किसी न किसी दिन नए नियमों के तहत उन पर नियंत्रण करेगी, मगर उसका आधार ये होगा कि केवल उन यूट्यूब चैनल्स को ही विज्ञापन व अन्य सुविधाएं देगी, जिन्होंने नए नियमों के तहत रजिस्ट्रेशन करवाया है। ऐसे में हर यूट्यूब चैनल चाहेगा कि पंजीयन करवाए।
इस विषय पर कुछ पत्रकार साथियों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं, उन पर भी चर्चा करेंगे। हो सकता है, उनके तर्क में अधिक दम हो। मकसद सिर्फ इतना कि हम बेहतर निष्कर्ष पर पहुंच सकें।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
उनका नियम तर्कसंगत भी है। एक ओर तो अखबार का टाइटल लेने के लिए स्नातक तक शिक्षा अर्जित करना जरूरी है, इसके अतिरिक्त उसे पत्रकारिता का पांच साल का अनुभव होना चाहिए। इतना होने के बाद बाकायदा उसकी पुलिस रिपोर्ट ली जाती है कि वह आपराधिक प्रवृत्ति का तो नहीं है अथवा उसकी वजह से कानून-व्यवस्था भंग होने का खतरा तो नहीं है। उसके बाद उपलब्धता के आधार पर टाइटल अलॉट होता है। इसके अतिरिक्त आजकल तो बड़े समाचार पत्रों में नौकरी पाने के लिए बीजेएमसी कोर्स की अनिवार्यता लागू की गई है, ताकि पत्रकारिता आरंभ करने से पहले उन्हें पत्रकारिता का बेसिक ज्ञान हो। इसके विपरीत यूट्यूब न्यूज चैनल के लिए न तो किसी भी प्रकार की पात्रता की जरूरत है और न ही कोई डिग्री। यहां तक न्यूनतम एजुकेशनल क्वालिफिकेशन की भी कोई बाध्यता नहीं है। उनका कोई भी पुलिस वेरिफिकेशन नहीं है। कोई भी वीडियो केमरा उठाए और न्यूज चैनल शुरू कर सकता है। कितना अंतर है, आप समझ गए होंगे। ऐसे में कथित असली पत्रकारों को तकलीफ होना स्वाभाविक है।
अब सिक्के का दूसरा पहलु। यह ठीक बात है कि रजिस्टर्ड न्यूज पेपर्स या न्यूज चैनल्स से उनकी कोई बराबरी नहीं, मगर वे फर्जी ही हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं। तकनीकी बात ये है कि जब सरकार ने ऐसे मीडिया कर्मियों के बारे में कोई नियम-विधान बनाया ही नहीं है तो उन्हें किस आधार पर अवैधानिक कहा जा सकता है। आखिरकार वे भी तो न्यूज का ही काम कर रहे हैं, जिसके लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। अगर वे कोई फर्जी, अपमानजनक या आपत्तिजनक न्यूज या न्यूज केंटेंट चलाते हैं तो शिकायत के आधार पर उनके खिलाफ सीआरपीसी की धाराओं के तहत कार्यवाही की जा सकती है। हां, यह जरूर अनुभव में आया है कि चूंकि अधिसंख्य ने बाकायदा पत्रकारिता का प्रशिक्षण नहीं लिया है, इस कारण पत्रकार की क्या-क्या मर्यादा है, इससे वे अनभिज्ञ हैं। वे ही क्या, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सीधे एंकर बने युवक-युवतियां अमर्यादित आचरण करती हैं, मगर चल रहा है। बावजूद इसके साफ सुथरी छवि के लोग भी हैं, जो ईमानदारी के साथ काम कर रहे हैं। चंद ब्लैकमेलरों की वजह से सभी को फर्जी करार नहीं दिया जाना चाहिए। यूट्यूब चैनल का पत्रकार माने, ब्लैकमेलर, ऐसा नेरेटिव बनाना उचित नहीं है। फिर सवाल ये भी है कि जिन्हें हम वास्तविक पत्रकार मान रहे हैं, क्या उनमें ब्लैकमेलर नहीं हैं?
मसले का एक और पहलु देखिए। प्रशासन ने अगर ये कहा है कि यूट्यूब न्यूज चैनल वालों सरकारी दफ्तरों व कार्यक्रमों में कवरेज नहीं करने दिया जाएगा तो वह अपनी जगह ठीक है। हम नकली पत्रकारों की बात कर रहे हैं, अगर सरकार या प्रशासन चाहे तो असली पत्रकारों को भी कवरेज करने से रोक सकता है अथवा कुछ अंकुश या पाबंदी लगा सकता है। कोई असली है, तब भी बिना अधिकारी की अनुमति के उसके चैंबर अथवा दफ्तर में प्रवेश नहीं कर सकता। पत्रकार का मतलब ये कत्तई नहीं कि उन्हें कहीं भी घुसने का लाइसेंस मिल गया है।
आपको याद होगा कि वर्तमान सरकार के गठन के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सी. पी. जोशी ने विधानसभा परिसर में पत्रकारों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। काफी जद्दोजहद के बार जा कर मामला सुलझा। इसी प्रकार वरिष्ठ पत्रकारों को याद होगा कि जब नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत थे, तब उन्होंने पत्रकारों के प्रवेश पर अंकुश लगाया था। पत्रकार केवल इजाजत लेकर अध्यक्ष अथवा सचिव से मिल सकते थे। उन्हें पूरे दफ्तर में घूमने व क्लर्कों से सीधे संपर्क करने की आजादी नहीं थी। अजमेर के पत्रकारों को तो याद होगा कि एक-दो बार ऐसा भी हुआ है एसपी ने सीधे थानों से खबर लेने पर रोक लगा दी थी। अखबारों को केवल कंट्रोल रूम से जारी प्रेसनोट पर निर्भर रहना होता था।
यह बात भी समझने की है कि कोई प्रतिनिधिमंडल जब जिला कलेक्टर को ज्ञापन देने जाता है तो मीडिया कर्मी फोटो लेने या वीडियो बनाने के लिए घुस जाते हैं और जिला कलेक्टर कोई आपत्ति नहीं करते, इसका अर्थ ये नहीं कि कलेक्टर के चैंबर में घुसने का उनको जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर वे चाहें तो रोक सकते हैं, मगर रोकते नहीं, क्योंकि प्रशासन को मीडिया से तालमेल रखना ही होता है। आपने देखा होगा कि सरकारी बैठकों में पत्रकारों को नहीं जाने दिया जाता। केवल फोटो लेने के लिए कुछ पल के लिए फोटोग्राफर्स को प्रवेश दिया जाता है। बैठक की खबर सरकारी स्तर पर सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी के जरिए ही मिलती है। मतगणना स्थल पर भी मोबाइल इत्यादि पर रोक के साथ सिर्फ उन पत्रकारों को प्रवेश मिलता है, जिनको प्रशासन कार्ड जारी करता है। वीवीआईपी विजिट के दौरान भी केवल पास धारियों को कवरेज करने दिया जाता है।
आखिर में मुद्दे की अहम बात। कुछ पत्रकारों ने, जिनके नाम से बाकायदा आरएनआई से रजिस्टर्ड अखबार हैं, उन्होंने बाद में यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए, क्योंकि इन दिनों उसी का चलन है। अब तो बड़े दैनिक समाचार पत्रों ने ईपेपर व यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए हैं। असल में उनकी भी कानूनी स्थिति ये है कि वे भी अन्य चैनल्स जैसे ही हैं। आरएनआई से रजिस्ट्रेशन से यह तो अधिकार नहीं मिल जाता कि वे उस नाम से चैनल चलाएं, फिर भी ऐसे चैनल्स पर प्रशासन का रुख नर्म है। वो इसलिए कि कम से कम से ये तो पक्का है न कि वे उनके पेरामीटर में पत्रकार हैं। बिलकुल फर्जी नहीं हैं। केवल यूट्यूब चैनल वालों पर प्रशासन की टेढ़ी नजर है। वे फर्जी ही हैं, ऐसा कहना मेरी नजर में उचित नहीं है, लेकिन प्रशासन को यह अधिकार है कि वह उन्हें वास्तविक पत्रकार न मानें और उन्हें कवरेज करने से रोके।
आखिर में एक महत्वूपूर्ण बात। राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे कई बड़े पत्रकार हैं, जिनकी प्रतिष्ठित सेटेलाइट चैनल्स से नौकरी छूट गई। उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा के दम पर खुद के यूट्यूब चैनल शुरू कर दिए हैं, जिन पर फिलवक्त तो सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। कारण वही कि अभी तक इस बारे में सरकार कोई नियम-कानून या सिस्टम नहीं बना पाई है। उनके खिलाफ भी मुकदम दर्ज हुए हैं, मगर मौजूदा सीआरपीसी के प्रावधानों के तहत। सरकार किसी न किसी दिन नए नियमों के तहत उन पर नियंत्रण करेगी, मगर उसका आधार ये होगा कि केवल उन यूट्यूब चैनल्स को ही विज्ञापन व अन्य सुविधाएं देगी, जिन्होंने नए नियमों के तहत रजिस्ट्रेशन करवाया है। ऐसे में हर यूट्यूब चैनल चाहेगा कि पंजीयन करवाए।
इस विषय पर कुछ पत्रकार साथियों ने अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं, उन पर भी चर्चा करेंगे। हो सकता है, उनके तर्क में अधिक दम हो। मकसद सिर्फ इतना कि हम बेहतर निष्कर्ष पर पहुंच सकें।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
मेरे ब्लॉग "क्या यूट्यूब न्यूज चैनल वाले फर्जी पत्रकार हैं?" पर एनसीईआरटी के असिस्टेंट प्रोफेसर और इंटरनेशनल टेनिस कोच श्री अतुल दुबे की प्रतिक्रिया
जवाब देंहटाएंयदि मैं किसी
1-समसामयिक घटना
2- दिन विशेष
3- व्यक्ति विशेष
पर
मेरे मौलिक विचार थोड़े बहुत शोध व
कुछ सांख्यिकीय आँकड़ों के साथ लिख कर
समाज में उक्त तत्व की उपादेयता के साथ
किसी सोशल नेटवर्किंग साईट पर अपलोड करता हूँ
तो यह
किस श्रेणी मे आयेगा...?
*ब्लॉग*
या
*ई पत्रकारिता*
क्योंकि
*ब्लॉग*
शब्द का जन्म पीटर मैर्होल्ज
ने मज़ाक़ मज़ाक़ में किया था
जब
*वर्ल्ड वाईड वैब*
पर लॉग इन कर कुछ कंटेंट टाईप किया
तो
WWW. पर लॉग इन करने को
कहा गया
वैब्लॉग
जो कालांतर में ब्लॉग रह गया
*तेजवानी सर*
मेरी दृष्टि से
अगले चार पॉंच सालों में
मंथन इतनी तेज गति से हो चुका होगा और
पुन: जैसे
पंत, निराला, गुप्त, दिनकर, वर्मा, बच्चन, गॉंधी, नेहरू, गोलवलकर, विनोबा भावे आदि के द्वारा प्रतिदिन की दैनंदिनी लिखी जाती थी जो कालांतर में उनकी जीवनी का रूप लेकर छपीं
उसी प्रकार
उपरोक्त वर्णित कथ्य के अनुसार
जैसे
आपके लेख पर मैनें अभी अपने मौलिक विचार लिखे उसी प्रकार की
ब्लॉगिंग का अस्तित्व बचा रहा जायेगा
उस स्थिति में
टीवी चैनल से समाचार सुनकर
अपने चैनल पर अपलोड कर के
ढेर सारी व्याकरणीय अशुद्धियों
व ग़ैर संसदीय शब्दों के साथ लिखे गये लेख को पढ़ने वालों की संख्या इकाई या दहाई से ज्यादा नहीं होगी
तब बचेंगे वही
जिनकी भाषा शुद्ध व संस्कारी होगी
जिनका व्याकरणीय ज्ञान स्तरीय होगा
जो तत्वान्वेषी के साथ साथ
ध्रुवीकरण से बचते हुए अपनी मूल भावना लिखेंगे
यानि की
फिर से
कुकुरमुत्तों के जंगल में
पुराने वटवृक्ष दूर से ही नजर आने लगेंगे
यूट्यूब व वेब पोर्टल चलाने वाले और अख़बार चलाने वाले में कोई फर्क नहीं |
जवाब देंहटाएंइस देश में एक अनपढ़ व्यक्ति, गरीब, अपराधी कोई भी अख़बार निकाल सकता है | बेशक शिक्षा के बारे में पूछा जाता है, पुलिस इन्क्वायरी भी की जाती है पर आवेदन कर्ता अनपढ़ है, आर्थिक स्थिति कमजोर है, उसके खिलाफ मुकदमें चल रहे हैं तो भी अख़बार निकालने से रोका नहीं जा सकता |
रही बात फर्जीवाड़े की |
आप भी जानते हैं कि कितने ही पत्रकार किसी पंजीकृत अख़बार से पहचान पत्र बनाकर अवैतनिक काम कर रहे हैं, उनकी कमाई का जरिया सब जानते हैं |
इस देश के 90 % पंजीकृत अख़बार सिर्फ फाइल में चल रहे हैं, GST लागू के होने के बाद उनकी फर्जी प्रसार संख्या की रिटर्न फाइल करने पर स्वत: रोक लगी है |
यूट्यूब आदि पर काम करने वालों को भी आप फाइल अख़बार चलाने वालों की श्रेणी में रख सकते हैं, पर यूट्यूब चैनल वाले भी कानून के दायरे में आते हैं आजकल लोग गलत बोलने पर दो मिनट में मुकदमें ठोक देते हैं, ऐसे में यूट्यूब पर भी वे लोग ही रहेंगे जो अपनी जिम्मेदारी समझते हैं |
रही बात पत्रकारिता में अनुभव की, मैंने अपने व पुत्र के नाम से अख़बार पंजीकृत कराया है किसी ने अनुभव नहीं पूछा |
आपने एक और एंगल दिया है, शुक्रिया
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