गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

अजमेर हिंदी बोलने वाला इकलौता शहर

 


यह बहुत दिलचस्प तथ्य है कि राजस्थान में इकलौता शहर अजमेर ऐसा है, जहां की आम बोली हिंदी है। अन्य सभी शहरों, यथा जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, बीकानेर इत्यादि में हालांकि हिंदी भी चलन में है, मगर आम बोलचाल की भाषा थोड़ा-थोड़ा अंतर लिए हुए राजस्थानी ही बोली जाती है। आम आदमी की बोली हिंदी का मतलब है कि अजमेर में आम आदमी अर्थात ठेले वाला, मोची, कूली, सब्जी बेचने वाला, चाय वाला, पान वाला, सभी आमतौर पर हिंदी में ही बात करते हैं। सरकारी दफ्तरों में भी हिंदी ही बोली जाती है। इसके विपरीत जयपुर के सचिवालय जैसी जगह में भी काईं छे वाली शैली की राजस्थानी बोली जाती है। जोधपुर की राजस्थानी का स्वाद भिन्न है तो नागौर, बीकानेर, उदयपुर, कोटा, भीलवाड़ा आदि का अलग-अलग। कहीं मारवाड़ी तो कहीं मेवाड़ी और कहीं हाड़ौती तो कहीं गुजराती का स्वाद लिए हुए बागड़ी।

ऐसा नहीं है कि अजमेर में राजस्थानी नहीं बोली जाती। बोली जाती है, मगर शहर के अंदरूनी हिस्सों, जैसे नया बजार, कड़क्का चौक, नला बाजार की गलियां इत्यादि। शहर के जुड़े ग्रामीण इलाकों में राजस्थानी बोली जाती है। अच्छा, हिंदी-हिंदी में भी फर्क है। अलवर गेट इलाके के कोली बहुल मोहल्लों में हिंदी कुछ और किस्म की है तो दरगाह व मुस्लिम बहुल क्षेत्रों की हिंदी कुछ और तरह की। सीमावर्ती गांवों को छोड़ दें तो अधिसंख्य मुस्लिम तनिक उर्दू युक्त हिंदी बोलते हैं।

अजमेर की आम बोली हिंदी होने का कारण है। वस्तुत: यह शहर विविध संस्कृतियों का संगम है। कभी इसकी अपनी विशेष संस्कृति रही होगी, मगर अब यह मिली-जुली संस्कृतियों वाला शहर है। रेलवे की इसमें विशेष भूमिका है। यहां बाहर से आ कर बसे सिंधी, जैन, सिख, ईसाई, पारसी आदि समुदायों के लोगों के बीच संवाद के लिए आरंभ से हिंदी का ही उपयोग किया जाता रहा है। इन समुदायों के अधिसंख्य लोग या तो राजस्थानी समझते नहीं, अगर समझ भी जाते हैं तो बोल नहीं पाते। हिंदी से अजमेर का गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है कि जब देश में साक्षरता अभियान चल रहा था तो अजमेर पूरे उत्तर भारत में संपूर्ण साक्षर जिला घोषित हुआ था।


-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 12 दिसंबर 2020

गांधीजी को शराबी साधक पर ऐतराज नहीं था!


किसी भी सिक्के के दो पहलु होते हैं। इसी प्रकार हर मसले के दो दृष्टिकोण होते हैं। सकारात्मक व नकारात्मक। यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसे चुनते हैं। जितने भी संत हैं, जितने मोटिवेशनल स्पीकर्स हैं, वे जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण अर्थात पॉजिटिव एटिट्यूड अपनाने की सलाह देते हैं। इस सिलसिले में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ा एक प्रसंग ख्याल में आता है। 

एक बार गांधीजी के कुछ अनुयाइयों ने गांधीजी से शिकायत की कि आश्रम का एक साधक शराबी है। वह आश्रम में भी नियमित आता है और रोज शाम को शराब की दुकान पर भी खड़ा दिखाई देता है। उन्होंने कहा कि हमारा साधक शराबी है, यह देख कर लोग क्या सोचेंगे? इससे हमारे आश्रम की बदनामी होगी कि गांधीजी के अनुयायी भी शराबी हैं। उन्होंने गांधीजी से आग्रह किया कि उस साधक को आश्रम में आने से रोका जाए। इस पर गांधीजी ने उत्तर दिया कि उस साधक को रोकने की कोई जरूरत नहीं है। उसे नियमित आने दिया जाए। आप ये क्यों सोचते हैं कि हमारा साधक शराबी है, ये क्यों नहीं सोचते कि एक शराबी हमारे यहां साधना करने आता है। शराबी होने के बावजूद अगर कोई साधक हमारे यहां नियमित आता है, इसका ये अर्थ है कि उसमें सुधरने की गुंजाइश है। यदि उसमें सुधरने की जरा भी ललक नहीं होती तो वह आश्रम में आता ही नहीं। शराबी होने के बावजूद उसकी रुचि सदाचार में है, इसी कारण आश्रम में आता है। यदि हम उसके प्रति मित्रवत व्यवहार करेंगे तो संभव है वह एक दिन शराब छोड़ दे। यदि उसे आश्रम में आने से रोक देंगे तो बात ही खत्म हो जाएगी और यदि उसके प्रति बुरा बर्ताव करेंगे, तो एक दिन वह आश्रम में आना बंद हो जाएगा। और सुधरने जो भी संभावना होगी, वह भी समाप्त हो जाएगी। इस पर शराबी साधक पर ऐतराज करने वाले साधक चुप हो गए। तभी तो कहा है कि नफरत बुराई से करें, बुरे आदमी से नहीं।

यह प्रसंग किसी गिलास के आधा भरा होने जैसा है। हम ये भी सोच सकते हैं कि गिलास आधा ही भरा हुआ है और सोच का एक आयाम ये भी है कि गिलास आधा खाली है। निष्कर्ष ये है कि हर मसले के दो पहलु होंगे ही। एक अच्छा और दूसरा बुरा। कोई संपूर्ण अच्छा नहीं हो सकता और कोई संपूर्ण बुरा नहीं हो सकता। अच्छे से अच्छे आदमी में भी बुराई मिल जाएगी और बुरे से बुरे इंसान में भी अच्छाई होती है। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारा फोकस किस पर है। 

आपको ख्याल में होगा कि मैनेजमेंट गुरू सदैव अपने कर्मचारी या अधीनस्थ की अच्छाई की तारीफ करने की सलाह देते हैं। बेशक बुराई की ओर भी ध्यान आकर्षित करने को कहते हैं, मगर साथ ही सद्गुण की प्रशंसा भी करने पर जोर देते हैं। इससे अधीनस्थ का उत्साह बढ़ता है और सुधार की गुंजाइश बनती है।

यह हमारी मनोवृत्ति का दोष है कि हम अच्छाई की तुलना में बुराई को जल्द स्वीकार करते हैं। जैसे हम अगर किसी की बुराई करते हैं तो लोग उसे तुरंत सच मान लेते हैं, उस पर सहसा यकीन कर लेते हैं, जबकि अगर किसी की प्रशंसा करते हैं तो उसे यकायक मंजूर नहीं करते। यह सोचते हैं कि अमुक आदमी के अमुक आदमी से अच्छे संबंध होंगे, या फिर उससे उसका स्वार्थ सिद्ध हो रहा होगा, इसी कारण वह उसकी तारीफ कर रहा है। इसका एक उदाहरण ये भी है कि हर फिल्म एक अच्छा संदेश देती है। एक भी फिल्म बुरा संदेश देने के लिए नहीं बनती। लेकिन हम अच्छे संदेश को अंगीकार करने की बजाय फिल्म में दिखाई गई बुराइयों को तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। कैसा विरोधाभास है कि हम अच्छाई की तारीफ तो करते हैं, मगर बुराई को इसलिए अपना लेते हैं क्योंकि उससे हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है।

हमारी सोच किस तरह का है यह इससे पता लगता है कि अगर कोई युवती किसी युवक के साथ जा रही है तो हम तुरंत यह अनुमान लगा लेते हैं कि वे प्रेमी-प्रमिका या पति-पत्नी ही होंगे। हम कभी ये नहीं सोचते कि वे भाई-बहिन भी तो हो सकते हैं।

बहरहाल, समारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के लिए गांधीजी से जुड़ा प्रसंग सटीक लगा, इसी कारण साझा करने की इच्छा हुई।


-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

जब भी थके हुए हों तो करें ये प्रयोग, थकावट छूमंतर हो जाएगी


आमतौर पर जब भी हम काम की अधिकता के कारण थक जाते हैं तो कुछ वक्त आराम करते हैं अथवा सो जाते हैं। सोने से थकावट मिट जाती है। लेकिन अगर हमारे पास आराम करने का वक्त नहीं है और फिर से काम करना है तो बहुत दिक्कत हो जाती है। हम अंडर रेस्ट हो जाते हैं।

थकावट से उबरने के लिए वर्षों पहले मुझे एक जैन मुनि ने रोचक व उपयोगी जानकारी दी थी। वह आपसे साझा कर रहा हूं। लाडनूं स्थित जैन विश्व भारती में मेरा नियमित जाना होता था। वहां एक जैन मुनि श्री किशनलाल जी से निकटता हो गई। योग, ध्यान व सम्मोहन के बारे में उनकी गहरी जानकारी थी। उन्होंने मेरे सामने सम्मोहन के अनेक प्रयोग करके दिखाए थे। हां, उनका यह कहना था कि सम्मोहित उसे ही किया जा सकता है, जो उसके लिए सहयोग करे। उनसे कई विषयों पर चर्चा होती थी। एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि थकावट की स्थिति से आसानी से उबरा जा सकता है। इसके लिए करीब बीस मिनट लेट जाएं और तीन-चार बार अपनी गुदा अर्थात मलद्वार को संकुचित करें। जितना ज्यादा समय तक संकुचन करेंगे, उतना ही जल्दी थकावट मिट जाएगी और पूरे शरीर में ऊर्जा का संचार हो जाएगा। शरीर में स्फूर्ति आ जाएगी। उन्होंने बताया कि गुदा के पास ही मूलाधार चक्र है। गुदा को संकुचित करने से वह शक्ति केन्द्र जागृत हो जाता है और नई ऊर्जा उत्पन्न होती है। मैने उनके बताए इस प्रयोग को कई बार इस्तेमाल किया और पाया कि उन्होंने सही जानकारी दी है। आज इस जानकारी को साझा करते हुए मैं उनको तहेदिल से साधुवाद देता हूं।

आपने पाया होगा कि जब भी हम ज्यादा वजन उठाते हैं, तो उस वक्त भी स्वत: गुदा संकुचित हो जाती है, हालांकि हमें इसका भान नहीं होता। इससे भी सिद्ध होता है कि गुदा संकुचन से ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस सिलसिले में मुझे यकायक एक कहावत का ख्याल आ गया। शब्दों में उसका प्रयोग इस प्रकार है- किसी को चुनौति देते वक्त यह कहते हैं न कि लगा ले अपनी गुदा का जोर। या उसने गुदा का पूरा जोर लगा लिया, मगर वह अमुक काम नहीं कर पाया। अर्थात गुदा के पास स्थित मूलाधार चक्र शक्ति का केन्द्र है, इसकी जानकारी हमारी संस्कृति में बहुत पहले से रही है। उसी वजह से यह कहावत बनी है।


-तेजवानी गिरधर

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बुधवार, 9 दिसंबर 2020

भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु का रोचक तथ्य


भगवान श्रीकृष्ण की मौत के बारे में आम मान्यता है कि जब वे एक वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे, तब एक बहेलिये के भ्रमवश तीर चलाने की वजह से उनकी मृत्यु हो गई। भ्रम के बारे यह बताया जाता है कि चूंकि श्रीकृष्ण भगवान के अवतार थे, इस कारण उनके पैर के तलुवे में पद्म मणि थी, उसकी चमक को बहेलिये ने हिरण की आंख समझ लिया और तीर चला दिया।

इस बारे में एक मान्यता ये भी है कि महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए शाप दिया की जिस प्रकार कौरव वंश का नाश हुआ है, ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा। इस पर श्रीकृष्ण द्वारिका लौट कर यदुवंशियों के साथ प्रभास क्षेत्र में आ गए। वहां महाभारत युद्ध की चर्चा के दौरान सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया और सात्यकि ने कृतवर्मा का सिर काट दिया। इससे दोनों पक्षों में युद्ध भड़क उठा। इस लड़ाई में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न और मित्र सात्यकि समेत लगभग सभी यदुवंशी मारे गए थे, केवल बब्रु और दारूक ही बचे। प्रभास क्षेत्र में एक दिन श्रीकृष्ण पीपल के वृक्ष के नीचे योगनिद्रा में लेटे थे, तभी जरा नामक एक बहेलिए ने उन्हें हिरण समझ कर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु हो गई। इस बारे में कुछ लोगों का मानना है कि असल में यह श्रीकृष्ण की लीला थी। इसके पीछे एक प्रसंग का जिक्र आता है। वो यह कि त्रेता युग में भगवान के अवतार श्री राम ने बाली को छुप कर तीर मारा था। द्वापर युग में श्रीकृष्ण के समय भगवान ने उसी बाली को जरा नामक बहेलिया बनाया और अपने लिए वैसी ही मृत्यु चुनी, जैसी बाली को दी थी। 

जिस तीर से श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई, उस बारे में कहा जाता है कि एक बार कृष्ण के पुत्र सांब शरारत करते हुए स्त्री वेष में ऋषि विश्वामित्र, दुर्वासा, वशिष्ठ और नारद से मिले गए और कहा कि वह गर्भवती है, वे उसे बताएं कि उसके गर्भ में नर है या मादा। उनमें से एक ऋषि ने अंतर्दृष्टि से यह जान लिया कि वह स्वांग कर रहा है। उन्होंने गुस्से में सांब को श्राप दिया कि वह लोहे के तीर को जन्म देगा, जिससे उनके कुल का विनाश होगा। सांब ने इस श्राप के बारे में उग्रसेन को जानकारी दी तो उन्होंने सलाह दी कि वे तांबे के तीर का चूर्ण बना कर प्रभास नदी में प्रवाहित कर दें, जिससे उन्हें श्राप से छुटकारा मिल जाएगा। सांब ने ऐसा ही किया। लोहे की छड़ का चूर्ण एक मछली ने निगल लिया, जो कि उसके पेट में जाकर धातु का एक टुकड़ा बन गया। जरा नामक बहेलिये ने उस मछली को पकड़ा और उसके शरीर से निकले धातु के टुकड़े से तीर बनाया। उसी तीर से श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई।

इन प्रसंगों से यह तो स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण की मृत्यु बहेलिये के तीर से हुई। इस बारे में सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने और भी रोचक जानकारी दी है। एक प्रवचन के दौरान उन्होंने बताया कि पैर के पंजे में टखने के पास अकीलीज नामक स्नायु बिंदु है, जो कि शरीर की ज्यामिति का एक केन्द्र है। बहेलिये ने तीर इसी बिंदु पर मारा था, जिससे श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई। वस्तुत: वे एक सवाल का जवाब दे रहे थे कि वे प्रवचन के दौरान एक पैर गुदा के नीचे क्यों रखते हैं। इस पर उनका कहना था कि पैर के अकीलीज बिंदु व गुदा के निकट मूलाधार चक्र के संपर्क में आने से शरीर की ज्यामिति बदल जाती है और अतिरिक्त सजगता आ जाती है। इसी के साथ उन्होंने श्रीकृष्ण की मृत्यु का कारण तीर के अकीलीज पर लगने को बताया है। वैसे यह स्वाभाविक सा सवाल है कि भला पैर पर तीर लगने मात्र से मृत्यु कैसे हो सकती है? संभव है कि सद्गुरू की जानकारी सही हो, मगर इससे सवाल उठता है कि कहीं बहेलिये ने जानबूझ कर श्रीकृष्ण के अकीलीज बिंदु पर तो तीर नहीं मारा। या वह एक संयोग भी हो सकता है। कदाचित श्रीकृष्ण ने इसी प्रकार मृत्यु को चुना हो।

बहरहाल, प्रसंगवश बता दें कि श्रीगणेश की मूर्तियों में उसी प्रकार की मुद्रा होती है, जिसका जिक्र सद्गुरू कर रहे हैं।


-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 7 दिसंबर 2020

पत्नी को पति का नाम लेने से क्यों रोका गया?


हम देखते हैं कि आजकल नव दंपत्ति बेहिचक एक-दूसरे को उनके नाम से पुकारते हैं। न तो इसमें उन्हें तनिक शर्म महसूस होती है और न ही ऐसा करने में उनको कुछ आपत्तिजनक लगता है। यहां तक कि अब तो प्यार से रखे गए शॉर्ट नेम का भी उपयोग करने लगे हैं। इसे एक दूसरे के प्रति प्रेम का द्योतक माना जाने लगा है। इसके विपरीत परंपरा ये रही है कि पत्नी पति को न तो नाम से बुलाती है और न ही किसी के सामने पति का जिक्र उसका नाम ले कर करती है। पति ही नहीं, पति के बड़े भाई अर्थात जेठ का नाम लेने से भी परहेज करती हैं। आज भी ऐसी पीढ़ी मौजूद है, जिसमें इस परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है। वैसे, कई ऐसे पुरुष भी हैं जो पत्नी को नाम से नहीं पुकारते। वे सुनती हो, ऐसा कह कर बुलाते हैं। इसी प्रकार पत्नी नाम से पुकारने की बजाय अजी सुनते हो, कह कर संबोधित करती हैं।

मैंने ऐसे अनेक प्रसंग देखे हैं, जिनमें किसी सरकारी काम के दौरान महिला से पति का नाम पूछा गया तो उसे नाम लेने में बहुत हिचक हुई और साथ में खड़े अन्य व्यक्ति से कहा कि आप मेरे पति का नाम बता दीजिए। अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी महिला की छोडिय़े, पढ़ी लिखी महिलाएं भी कभी अपने पति का जिक्र करती हैं तो मेरे पति या उसके नाम का संबोधन करने से बचती हैं और हमारे ये या हमारे साहब कह कर इंगित करती हैं। 

सवाल ये उठता है कि आखिर किस वजह से पत्नी को पति का नाम न लेने की सीख दी गई। इस बारे में बहुत खोज करने पर यह जानकारी हासिल हुई कि स्कंध पुराण में कहा गया है कि पति का नाम लेने से उनकी उम्र कम होने लगती है। ऐसा करने पर उम्र कम क्यों होती है, इस बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। भला नाम लेने या न लेने का उम्र से क्या ताल्लुक? ज्ञातव्य है कि शास्त्रज्ञों के अनुसार श्रीगणेश ने भगवान वेद व्यास के मुख निकली वाणी को स्कंध पुराण में लिखा है। उसी में पतिव्रता स्त्रियों की मर्यादाओं का भी उल्लेख है। इन मर्यादाओं में पति के सोने के बाद सोना, सुबह पति से पहले उठना, पति के भोजन करने के बाद भोजन करना शामिल है। यहां तक कि पति के परदेश जाने पर शृंगार न करने तक की हिदायत दी गई है। जिन भी ऋषि-मुनियों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया, उसके पीछे उनका क्या प्रयोजन था, ये तो पता नहीं, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब पुरुष प्रधान समाज की देन है। उसी पुरुष प्रधान व्यवस्था ने पति को परमेश्वर की संज्ञा दी है। एक तरफ यह कह कर महिला को महत्ता दी गई कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, तत्र रंमते देवता, वहीं दूसरी ओर मर्यादा के नाम पर महिलाओं पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए। सर्व विदित है कि महिलाएं पति की उम्र लंबी होने की कामना के साथ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। मैंने कई  प्रगतिशील महिलाओं तक को करवा चौथ का व्रत करते देखा है। कैसी अजीब बात है कि पत्नी की उम्र बढ़ाने के उद्देश्य से पति के लिए किसी व्रत अथवा आयोजन का प्रावधान नहीं किया गया।

धरातल की सच्चाई है कि आज भी वह पीढ़ी मौजूद है, जो पतिव्रता स्त्रियों के लिए बनाई गई मर्यादाओं का पूरी श्रद्धा से पालन करती है। कई महिलाएं पति के भोजन करने के बाद उसकी जूठी थाली में ही भोजन करती हैं। आज भी कई ऐसे परिवार हैं, जिनमें पहले पुरुषों को भोजन करवाने की व्यवस्था है, महिलाएं बाद में भोजन करती हैं। नॉन वेज खाने वाले परिवारों में पुरुषों को अच्छी बोटियां परोसी जाती है और महिलाएं जो कुछ बच जाता है, उसी को खा कर संतुष्ट रहती हैं।

हालांकि समय के साथ मर्यादाएं क्षीण हो रही हैं। महिलाएं पुरुषों के बराबर में आ कर खड़ी होने लगी हैं। विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों से बेहतर परिणाम दिए हैं। महिलाओं के कामकाजी होने के कारण परिवारों में उनकी अहमियत बढ़ रही हैं। लेकिन साथ उसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। इस बारे में किसी लेखक ने कहा है कि दुनिया में भी भले ही लोकतंत्र की बड़ी महत्ता हो, मगर परिवार में राजशाही ही पनपती है। अगर घर की बहू को भी समान अधिकार दे दिए जाते हैं तो वह पति व ससुर की बराबरी करने लगेगी, नतीजतन टकराव होगा और सामान्य शिष्टाचार शिथिल हो जाएगा। उनकी बात में दम है। किसी भी इकाई, परिवार हो या दफ्तर, उसमें किसी एक का प्रधान होना जरूरी है, अन्यथा अराजकता फैल जाएगी। 


-तेजवानी गिरधर

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शनिवार, 5 दिसंबर 2020

अपनी गली में कुत्ता भी शेर क्यों होता है?


एक कहावत आपने सुनी होगी- अपनी गली में तो कुत्ता भी शेर होता है। वो इसलिए कि वह खुद को अपनी गली का राजा मानता है। किसी भी अन्य कुत्ते, सूअर, बिल्ली आदि को वह प्रवेश नहीं करने देता। आसन की महत्ता हम इंसान तो जानते ही हैं, एक कुत्ता तक इसका महत्व जानता है। वह गली में निर्माणाधीन मकान के पास डाले गए बजरी के ढ़ेर पर चढ़ कर बैठता है, और यह अहसास करता है मानो किसी सिंहासन पर बैठा हो। आसन ही क्या, वह अपना साम्राज्य अर्थात क्षेत्र तक बिजली के पोल या वृक्ष पर मूत्र विसर्जन करके तय करता है। गलती से वही कुत्ता किसी अन्य गली में पहुंच जाता है तो वहां का कुत्ता उस पर हावी हो जाता है और उसे दुम दबा कर भागना पड़ता है। इसका भावार्थ ये है कि अपने लिए सुरक्षित स्थान पर हर कोई पूरी क्षमता के साथ काम कर सकता है, जबकि असुरक्षित जगह पर वही प्रतिभा सशंकित हो कर कमजोर बनी रहती है। वस्तुत: महत्ता व्यक्ति की नहीं, बल्कि स्थान की होती है।

हम देखते हैं कि जितने भी ज्योतिषी, तांत्रिक आदि हैं, वे अपने नियत स्थान पर ही अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं। बेशक कोई ज्योतिषी अपनी विद्या का उपयोग कहीं पर भी बैठ कर कर सकता है, मगर सटीक भविष्यवाणी अपने आसन पर बैठ कर ही कर पाता है। नियत समय पर तो और भी अधिक बेहतर परिणाम देता है। अर्थात स्थान के साथ समय की भी विशेष महत्ता है। अमुक समय में उसकी विद्या पूरी तरह से सक्रिय होती है। इसी प्रकार हम देखते हैं कि तांत्रिक अपने सिद्ध स्थान पर ही तंत्र के प्रयोग करते हैं। सर्वविदित है कि राजा विक्रमादित्य अपने सिंहासन पर बैठ कर ही न्याय किया करते थे। 

श्रीमद्भागवत की कथा करने वाले कथावाचक इसीलिए पूजनीय हो जाते हैं, क्योंकि वे जिस आसन पर बैठ कर कथा करते हैं, उसे व्यास पीठ माना जाता है। व्यास पीठ की मर्यादाएं उच्च कोटि की होती हैं। स्थान का कितना असर पड़ता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि जब किसी जिला कलेक्टर से उसके निवास स्थान पर मिलते हैं तो उसका व्यवहार कुछ भिन्न होता है, जबकि उसके चैंबर में मिलते हैं तो उसका मिजाज कुछ और होता है। वह स्थान का प्रभाव है। तांत्रिक अथवा धर्मगुरू के उनके सिद्ध स्थान पर किए जाने वाले व्यवहार और अन्य स्थान पर किए जाने वाले व्यवहार में भिन्नता आप स्पष्ट महसूस कर सकते हैं। सिद्ध स्थान उनको न केवल मर्यादा में बांधता है, अपितु वही उन्हें शक्ति प्रदान करता है। आपने देखा होगा कि कई उपासक आम जिंदगी जीते हैं, मगर उपासना स्थल पर उनकी महत्ता कई गुना बढ़ जाती है। अजमेर के निकट राजगढ़ धाम की ही बात करें। इस धाम के उपासक श्री चंपालाल जी महाराज जब अपने आसन पर बैठ कर विशेष भाव अवस्था में शराब की अनगिनत बोतलें पी जाते हैं, तो लोग दांतों तले अंगुली दबाने को विवश हो जाते हैं। कैसी विचित्र बात है कि वे अपने ईष्ट को तो उनकी प्रिय मदिरा अर्पित करते हैं, जबकि उसी प्रांगण में हजारों भक्तों को जीवन को नष्ट करने वाली शराब का परित्याग करने की प्रेरणा देते हैं। बताते हैं कि उस स्थान पर शराब छोडऩे का संकल्प लेने वाले बाद में कभी शराब का सेवन नहीं करते। वह उस स्थान का प्रभाव है।

स्थान की महत्ता के बारे में एक श्लोक है:-

जानामि नागेश तव प्रभावम 

कण्ठस्थित गर्जसि शंकरस्य 

स्थानम प्रधानम, न च बलम प्रधानम 

द्वारस्थित को अपि न सिंघ:

स्थानं प्रधानम, न बलं प्रधानम।

इसका प्रसंग इस प्रकार है:-

एक बार भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर बैठ कर शिवजी से मिलने कैलाश पर्वत पर पहुंचे। शिवजी के गले में पड़ा सर्प, गरुड़ को देख कर फूंकार मारता रहा। इस पर मन मसोस कर गरुड़ ने कहा- स्थानं प्रधानम न बलं प्रधानम। तेरा मेरा बैर हर कोई जानता है, लेकिन इस समय तू शिवजी के गले में है, इसलिए फूंकार मार रहा है। ये तेरे बल की नहीं, स्थान की प्रधानता है।

स्थान के महत्व को बताने वाली एक पोस्ट वाट्स ऐप पर देखी। पेश है:- 

आदमी की पोजीशन,

उसके व्यवहार में स्पष्ट दिखाई देती है

सुहागरात को दुल्हन बनी गधी भी इतराती है

गरीब से गरीब आदमी भी,

जब घोड़ी चढ़ता है, दूल्हा राजा बन जाता है

कुर्सी पर बैठा, छोटा सा जज भी,

बड़े-बड़े लोगों को जेल भिजवाता है

अदना सा ट्रेफिक हवालदार हाथ के इशारे से

सड़क के चौराहे पर बड़े-बड़े लोगों की गाडिय़ां रोक देता है

बाल जब सर पर उगते हैं

तो कुंतल बन लहराते, संवारे जाते हैं

वो ही बाल जब गालों पर उगने का दुस्साहस करते हैं,

रोज-रोज शेविंग कर काट दिए जाते हैं


एक लेखक श्री मदन मोहन बाहेती ने इस स्थिति की व्याख्या कुछ इस प्रकार की है:-

काजल जो लागे कहीं, तो कालिख कहलाय।

गौरी की आंखों अंजे, दूनो रूप बढ़ाय।।

बीस तीस की माखनी, दाल मिले जो आम।

पहुंची होटल मौर्या, हुए आठ सौ दाम।।

गौरी की गोदी रहे श्वान लिपट इतराय।

देख गली के कूकरे,भौंक भौंक चिल्लाय।।

रोड़ा पत्थर राह का हर कोई देय हटाय।

मंदिर में सिन्दूर लग निशदिन पूजा जाय।।

लब्बोलुआब ये कि स्थान की बड़ी महिमा है और हमें सदैव उसकी मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। उस स्थान पर बैठे व्यक्ति को साधारण नहीं मान कर विशिष्ट समझना चाहिए।

-तेजवानी गिरधर

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बुधवार, 2 दिसंबर 2020

कुत्ते के छोटे पिल्ले अच्छे क्यों लगते हैं?


यह अटपटा शीर्षक सिर्फ आपको आकृष्ठ करने के लिए है। शीर्षक यह भी हो सकता था, होना चाहिए था, कि बच्चे अच्छे क्यों लगते हैं, मगर तब कदाचित आप शीर्षक देख कर ही छोड सकते थे। हालांकि यह भी इस आलेख का हिस्सा है, मगर डुबकी कुछ गहरी लगाने की कोशिश गई है। मेरे एक मित्र इन दिनों कुत्ते के दो पिल्लों को बड़े प्यार से पाल रहे हैं। वे इसका जिक्र करते रहते हैं। इसी प्रकार एक अन्य मित्र हाल ही ठाकुर जी का छोटा सा विग्रह ले कर आए हैं और उसका जिक्र करते वक्त बेहद अभिभूत हो जाते हैं। इन दो प्रसंगों से यह आलेख लिखने को प्रवृत्त हुआ हूं।
यह उस परम सत्ता की ही मेहरबानी है कि कुत्ते का पिल्ला भी कुछ लिखने को प्रेरित कर सकता है। 
आइये, असल बात पर आते हैं। हमें इंसान का बच्चा बहुत अच्छा लगता है। यह ठीक है, क्योंकि वह हमारी ही छोटी इकाई हैं। मगर आश्चर्य कि हर जानवर, यथा कुत्ता, बिल्ली, गाय, बंदर आदि के बच्चे भी अच्छे लगते हैं। नवजात और भी प्यारे लगते हैं। सजीव ही नहीं, निर्जीव भी छोटे अच्छे लगते हैं। बहुत छोटी कटोरी-थाली कितनी प्यारी लगती है? बहुत छोटी मूर्ति कितना आकर्षित करती है? क्या आपने इस पर कभी विचार किया है कि सामान्य से छोटी हर वस्तु हमें अच्छी क्यों लगती है?
जहां तक मनुष्य के बच्चे का सवाल है तो आमतौर पर वह इस कारण अच्छा लगता है, क्योंकि वे अबोध है, निर्विकार है। उसे दुनिया की चालबाजियां छू तक नहीं पाई हैं। इसी कारण हम उसे भगवान का रूप भी कह देते हैं। बच्चे की भौतिक जगत की यात्रा आरंभ हुई है। अभी वह सच्चा है, इस कारण हमें अच्छा लगता है। वही बच्चा जब बड़ा हो जाता है, चालाक हो जाता है, तब हमें अच्छा नहीं लगता। इसी प्रकार जानवरों के बच्चे भी मासूम व अबोध होने के कारण पसंद आते हैं। 
निर्विकार भाव के प्रति श्रद्धा के कारण ही हम गृहस्थ साधु-संत को सम्मान देते हैं, उनके आगे सिर झुकाते हैं, क्योंकि उसने इंद्रियों पर विजय हासिल कर ली है। अर्थात हम विकारयुक्त हैं, यह स्वीकार भी करते हैं, लेकिन साथ ही पसंद निर्विकार को करते हैं। खुद जमाने भर की बेईमानी करते हैं, मगर पसंद ईमानदार नौकर को करते हैं। हम झूठ बोलते हैं, मगर पसंद सच बोलने वाले को करते हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हमारा मौलिक रूप निर्विकार है और सारी चालाकी, बेईमानी सीखी हुई है। हमारा मौलिक स्वरूप सत्य है, असत्य तो हमने स्वार्थ के कारण सीख लिया है। हमें पता है कि वह ठीक नहीं, फिर भी उसे ही अपनाए हुए हैं। भौतिक जगत में जीने के लिए।
जरा गहरे में विचार करते हैं। अध्यात्म में कहा जाता है कि शून्य व पूर्ण एक ही हैं। जो पूर्ण है, उसे भगवान कहते हैं और चूंकि हम अपूर्ण हैं, इसलिए इंसान की श्रेणी में हैं। इसी प्रकार शून्य को भी ईश्वर का रूप माना जाता है। वहीं से यात्रा आरंभ होती है और पूर्णता को प्राप्त होती है। वह एक वर्तुल है। यानि शून्य कहें या पूर्ण, बात एक ही है। कैसी विरोधाभासी, मगर दिलचस्प बात है। चूंकि पूर्णता हासिल करना कठिन लगता है, इस कारण शून्य की ओर लौटना हमें पसंद है। यही भाव हमें हर छोटी, अति सूक्ष्म के प्रति आकर्षित करता है, चूंकि हर छोटा सजीव प्राणी शून्य के करीब है। अभी उसकी यात्रा आरंभ हुई ही है। वह शुद्ध है। जैसे-जैसे वह बड़ा होगा, उसमें विकार आना शुरू हो जाएंगे। छोटे के प्रति आकर्षण का यह भाव स्थूल वस्तुओं के प्रति भी आ जाता है। जैसे किसी भी देवी-देवता का छोटा सा विग्रह हमें खींचता है।
अब बात करते हैं पूर्णता की। दुनिया में बड़ा, और बड़ा, और और बड़ा होने व वस्तुओं को बनाने का भाव वस्तुत: पूर्णता को हासिल करने का भाव है। बहुत बड़ी इमारतें, बहुत विशाल मूर्तियां बनाने की होड़ क्या है, वही पूर्णता की ओर अग्रसर होने की कामना। लेकिन पूर्णता की ओर अग्रसर होने से हमारा अहम और घनीभूत हो जाता है। हालांकि पूर्ण हो चुकने पर भी अहम तिरोहित हो जाता है, मगर पूर्णता की ओर अग्रसर यात्रा के दौरान ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार बढ़ रहा है। पूर्ण होते ही ईश्वर से साक्षात्कार हो जाता है। अहम ब्रह्म में विस्तीर्ण हो जाता है। तभी ऋषि के मुंह से निकलता है- अहम ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्म हूं। यही उद्घोषणा अनलहक कह कर सूफी मंसूर-बिन-हल्लाज करता है। अर्थात मैं ही खुदा हूं। चूंकि इस प्रकार की घोषणा करने वाले में हमें दंभ नजर आता है, इस कारण शून्य, अहंकार मुक्त होना बेहतर माना जाता है। इसी कारण शून्य को पूर्ण से बेहतर माना जाता है। इसी क्रम में यह श्लोक भी प्रासंगिक है:-
ओम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
भावार्थ - परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उसी पूर्ण से ही उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।
सूक्ष्म से सूक्ष्म होने व विशालतम होने की इच्छा का ही परिणाम है कि योगी अणिमा व महिमा की सिद्धि चाहता है। वह ईश्वर के करीब होने का उपाय है। आपको जानकारी होगी कि श्रीराम भक्त हनुमान को आठ सिद्धियां व नौ निधियां हासिल थीं। हनुमान चालीसा में उसका उल्लेख इस पंक्ति में आता है:- अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, असवर दीन जानकी माता। आठ में से दो सिद्धियां बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक अणिमा। यह पहली सिद्धि है। इसका अर्थ अपनी देह को एक अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से है।  वह शून्य की दिशा में ले जाती है।
दूसरी है महिमा। यह अणिमा के ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि है। महिमा सिद्धि हासिल होने पर साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशाल करने में सक्षम होता है। वह अपने शरीर को किसी भी सीमा तक फैला सकता है। जिस प्रकार ब्रह्मांड असीमित है, निरंतर विस्तीर्ण होता जा रहा है। महिमा ब्रह्मस्वरूप हो जाने की दिशा में बढ़ा कदम है।
अब आते हैं छोटे और बड़े के हमारे जीवन में महत्व का। किसी भी देवी-देवता अथवा ईष्ट का विग्रह जितना छोटा होगा, वह हमें अधिक एकाग्रता प्रदान करेगा। उसकी सेवा-पूजा में ध्यान अधिक केन्द्रित करने के कारण चित्त की एकाग्रता बढ़ेगी। इसी प्रकार विशाल से विशाल मूर्ति का जब हम दर्शन करेंगे तो उसके समक्ष हमारी तुच्छता का भान होगा। यह अवस्था हमारे अहम भाव को तिरोहित करेगी।

-तेजवानी गिरधर

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