बुधवार, 2 दिसंबर 2020

कुत्ते के छोटे पिल्ले अच्छे क्यों लगते हैं?


यह अटपटा शीर्षक सिर्फ आपको आकृष्ठ करने के लिए है। शीर्षक यह भी हो सकता था, होना चाहिए था, कि बच्चे अच्छे क्यों लगते हैं, मगर तब कदाचित आप शीर्षक देख कर ही छोड सकते थे। हालांकि यह भी इस आलेख का हिस्सा है, मगर डुबकी कुछ गहरी लगाने की कोशिश गई है। मेरे एक मित्र इन दिनों कुत्ते के दो पिल्लों को बड़े प्यार से पाल रहे हैं। वे इसका जिक्र करते रहते हैं। इसी प्रकार एक अन्य मित्र हाल ही ठाकुर जी का छोटा सा विग्रह ले कर आए हैं और उसका जिक्र करते वक्त बेहद अभिभूत हो जाते हैं। इन दो प्रसंगों से यह आलेख लिखने को प्रवृत्त हुआ हूं।
यह उस परम सत्ता की ही मेहरबानी है कि कुत्ते का पिल्ला भी कुछ लिखने को प्रेरित कर सकता है। 
आइये, असल बात पर आते हैं। हमें इंसान का बच्चा बहुत अच्छा लगता है। यह ठीक है, क्योंकि वह हमारी ही छोटी इकाई हैं। मगर आश्चर्य कि हर जानवर, यथा कुत्ता, बिल्ली, गाय, बंदर आदि के बच्चे भी अच्छे लगते हैं। नवजात और भी प्यारे लगते हैं। सजीव ही नहीं, निर्जीव भी छोटे अच्छे लगते हैं। बहुत छोटी कटोरी-थाली कितनी प्यारी लगती है? बहुत छोटी मूर्ति कितना आकर्षित करती है? क्या आपने इस पर कभी विचार किया है कि सामान्य से छोटी हर वस्तु हमें अच्छी क्यों लगती है?
जहां तक मनुष्य के बच्चे का सवाल है तो आमतौर पर वह इस कारण अच्छा लगता है, क्योंकि वे अबोध है, निर्विकार है। उसे दुनिया की चालबाजियां छू तक नहीं पाई हैं। इसी कारण हम उसे भगवान का रूप भी कह देते हैं। बच्चे की भौतिक जगत की यात्रा आरंभ हुई है। अभी वह सच्चा है, इस कारण हमें अच्छा लगता है। वही बच्चा जब बड़ा हो जाता है, चालाक हो जाता है, तब हमें अच्छा नहीं लगता। इसी प्रकार जानवरों के बच्चे भी मासूम व अबोध होने के कारण पसंद आते हैं। 
निर्विकार भाव के प्रति श्रद्धा के कारण ही हम गृहस्थ साधु-संत को सम्मान देते हैं, उनके आगे सिर झुकाते हैं, क्योंकि उसने इंद्रियों पर विजय हासिल कर ली है। अर्थात हम विकारयुक्त हैं, यह स्वीकार भी करते हैं, लेकिन साथ ही पसंद निर्विकार को करते हैं। खुद जमाने भर की बेईमानी करते हैं, मगर पसंद ईमानदार नौकर को करते हैं। हम झूठ बोलते हैं, मगर पसंद सच बोलने वाले को करते हैं। इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हमारा मौलिक रूप निर्विकार है और सारी चालाकी, बेईमानी सीखी हुई है। हमारा मौलिक स्वरूप सत्य है, असत्य तो हमने स्वार्थ के कारण सीख लिया है। हमें पता है कि वह ठीक नहीं, फिर भी उसे ही अपनाए हुए हैं। भौतिक जगत में जीने के लिए।
जरा गहरे में विचार करते हैं। अध्यात्म में कहा जाता है कि शून्य व पूर्ण एक ही हैं। जो पूर्ण है, उसे भगवान कहते हैं और चूंकि हम अपूर्ण हैं, इसलिए इंसान की श्रेणी में हैं। इसी प्रकार शून्य को भी ईश्वर का रूप माना जाता है। वहीं से यात्रा आरंभ होती है और पूर्णता को प्राप्त होती है। वह एक वर्तुल है। यानि शून्य कहें या पूर्ण, बात एक ही है। कैसी विरोधाभासी, मगर दिलचस्प बात है। चूंकि पूर्णता हासिल करना कठिन लगता है, इस कारण शून्य की ओर लौटना हमें पसंद है। यही भाव हमें हर छोटी, अति सूक्ष्म के प्रति आकर्षित करता है, चूंकि हर छोटा सजीव प्राणी शून्य के करीब है। अभी उसकी यात्रा आरंभ हुई ही है। वह शुद्ध है। जैसे-जैसे वह बड़ा होगा, उसमें विकार आना शुरू हो जाएंगे। छोटे के प्रति आकर्षण का यह भाव स्थूल वस्तुओं के प्रति भी आ जाता है। जैसे किसी भी देवी-देवता का छोटा सा विग्रह हमें खींचता है।
अब बात करते हैं पूर्णता की। दुनिया में बड़ा, और बड़ा, और और बड़ा होने व वस्तुओं को बनाने का भाव वस्तुत: पूर्णता को हासिल करने का भाव है। बहुत बड़ी इमारतें, बहुत विशाल मूर्तियां बनाने की होड़ क्या है, वही पूर्णता की ओर अग्रसर होने की कामना। लेकिन पूर्णता की ओर अग्रसर होने से हमारा अहम और घनीभूत हो जाता है। हालांकि पूर्ण हो चुकने पर भी अहम तिरोहित हो जाता है, मगर पूर्णता की ओर अग्रसर यात्रा के दौरान ऐसा प्रतीत होता है कि अहंकार बढ़ रहा है। पूर्ण होते ही ईश्वर से साक्षात्कार हो जाता है। अहम ब्रह्म में विस्तीर्ण हो जाता है। तभी ऋषि के मुंह से निकलता है- अहम ब्रह्मास्मि। मैं ही ब्रह्म हूं। यही उद्घोषणा अनलहक कह कर सूफी मंसूर-बिन-हल्लाज करता है। अर्थात मैं ही खुदा हूं। चूंकि इस प्रकार की घोषणा करने वाले में हमें दंभ नजर आता है, इस कारण शून्य, अहंकार मुक्त होना बेहतर माना जाता है। इसी कारण शून्य को पूर्ण से बेहतर माना जाता है। इसी क्रम में यह श्लोक भी प्रासंगिक है:-
ओम पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
भावार्थ - परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उसी पूर्ण से ही उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।
सूक्ष्म से सूक्ष्म होने व विशालतम होने की इच्छा का ही परिणाम है कि योगी अणिमा व महिमा की सिद्धि चाहता है। वह ईश्वर के करीब होने का उपाय है। आपको जानकारी होगी कि श्रीराम भक्त हनुमान को आठ सिद्धियां व नौ निधियां हासिल थीं। हनुमान चालीसा में उसका उल्लेख इस पंक्ति में आता है:- अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता, असवर दीन जानकी माता। आठ में से दो सिद्धियां बहुत महत्वपूर्ण हैं। एक अणिमा। यह पहली सिद्धि है। इसका अर्थ अपनी देह को एक अणु के समान सूक्ष्म करने की शक्ति से है।  वह शून्य की दिशा में ले जाती है।
दूसरी है महिमा। यह अणिमा के ठीक विपरीत प्रकार की सिद्धि है। महिमा सिद्धि हासिल होने पर साधक जब चाहे अपने शरीर को असीमित विशाल करने में सक्षम होता है। वह अपने शरीर को किसी भी सीमा तक फैला सकता है। जिस प्रकार ब्रह्मांड असीमित है, निरंतर विस्तीर्ण होता जा रहा है। महिमा ब्रह्मस्वरूप हो जाने की दिशा में बढ़ा कदम है।
अब आते हैं छोटे और बड़े के हमारे जीवन में महत्व का। किसी भी देवी-देवता अथवा ईष्ट का विग्रह जितना छोटा होगा, वह हमें अधिक एकाग्रता प्रदान करेगा। उसकी सेवा-पूजा में ध्यान अधिक केन्द्रित करने के कारण चित्त की एकाग्रता बढ़ेगी। इसी प्रकार विशाल से विशाल मूर्ति का जब हम दर्शन करेंगे तो उसके समक्ष हमारी तुच्छता का भान होगा। यह अवस्था हमारे अहम भाव को तिरोहित करेगी।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

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