यह शृंखला इसलिए आरंभ की है, ताकि वह सब कुछ जो मेरे जेहन में दफन है, वह आपको बांट दूं, ताकि जब मैं इस फानी दुनिया से अलविदा करूं तो इन यादों का बोझ साथ न रहे।
यह वाकया लिखते समय ऐसा लग रहा है कि आप इस पर यकीन करेंगे अथवा नहीं, लेकिन जो बीता है, उसे अभिव्यक्त करने से आपने आपको रोक नहीं पा रहा। तब मेरी उम्र महज 16 साल थी। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था। पिताजी स्वर्गीय श्री टी. सी. तेजवानी लाडनूं में हायर सेकंडरी स्कूल के प्रधानाचार्य थे। उन दिनों बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं। ज्योतिष, तंत्र-मंत्र विद्या, योग, अध्यात्म, दर्शन साहित्य, विज्ञान इत्यादि विषयों का खूब अध्ययन किया। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, महर्षि दयानंद सरस्वती सहित अनेक महापुरुषों के अतिरिक्त ओशो रजनीश को भी जम कर पढ़ा। चूंकि जैन विश्व भारती लाडनूं की चौथी पट्टी के सिरे पर है, इस कारण वहां नियमित जाना होता था, इस कारण जैन दर्शन के बारे में भी बहुत कुछ जाना। योग व ध्यान के प्रयोग भी किए। तब मुझे यह फहमी हो गई थी कि मुझे सब कुछ आता है। हर विषय पर मेरी पकड़ है। चाहे किसी भी विषय का सवाल हो, मैं जवाब दे सकता हूं। आप तो यकीन नहीं ही करेंगे, मुझे भी अब तक यकीन नहीं होता है कि उस वक्त हाफ टाइम के आधे घंटे के दौरान कैसे मेरे इर्द गिर्द समकक्ष और छोटे विद्यार्थी जमा हो जाते थे और मैं उनसे सवाल आमंत्रित करता और उनके जवाब देता था। तब मेरे अनेक शिष्य बन गए थे। अपना नाम आजाद सिंह रख लिया था। मैने अभिवादन के रूप में लव इस लाइफ व लव इस गॉड के स्लोगन दिए थे। हर शिष्य इसी अभिवादन के साथ मिलता था। स्थिति ये हो गई कि मेरे शिष्यों की माताएं, जो कि मुझ से पंद्रह-बीस साल बड़ी थीं, मेरे पास जिज्ञासा लेकर आती थीं। कई मित्र मुझे फिलोसोफर कहने लगे। मैं तब स्कूल ड्रेस के अतिरिक्त केवल खादी का कुर्ता व पायजामा ही पहनता था। सगाई भी इसी वेशभूषा में हुई। पेंट-शर्ट तो थे ही नहीं। ससुराल वालों ने जाने कैसे मुझे पसंद किया। पच्चीस की उम्र में जब शादी हुई, तब जा कर पेंट-शर्ट सिलवाए। आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो समझ ही नहीं पाता कि वह क्या था? वह कैसा आकर्षण था कि लोग मेरी ओर खिंचे चले आते थे? प्रकृति की यह कैसी लीला थी?
मैं आज भी उस काल खंड की मानसिकता व गलतफहमी के बारे में सोच कर अपने आप पर हंसता हूं कि वह कैसा पागलपन था। उसी दौर में एक बार संन्यास के लिए घर से भागा भी, वह कहानी फिर कभी।
खैर, अब तो यह अच्छी तरह से समझ आ चुका है कि दुनिया में इतना ज्ञान भरा पड़ा है कि एक जिंदगी बीत जाए तब भी उसे अर्जित नहीं किया जा सकता। मुझे अच्छी तरह से पता है कि अलविदा के वक्त तक बहुत, बहुत कुछ जानने से रह जाएगा। हालांकि यह सही है कि उन नौ साल के दौरान जितना कुछ स्वाध्याय किया, वही संचय आज काम आ रहा है। यद्यपि मैं ओशो रजनीश से कई मामलों में असहमत हूं, मगर मेरे चिंतन पर उनके सोचने के तरीके व तर्क की विधा का ही प्रभाव है। पहले जहां दुनिया का सारा ज्ञान अर्जित करने की चाह रही, वहीं अब परिवर्तन ये आ गया है कि अब दुनिया का ज्ञान तुच्छ लगने लगा है। पिछले लंबे समय से सारा ध्यान प्रकृति के रहस्य व स्वयं को जानने पर केन्द्रित हो गया है। पता नहीं, ये पूरा हो पाएगा या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
यह वाकया लिखते समय ऐसा लग रहा है कि आप इस पर यकीन करेंगे अथवा नहीं, लेकिन जो बीता है, उसे अभिव्यक्त करने से आपने आपको रोक नहीं पा रहा। तब मेरी उम्र महज 16 साल थी। ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था। पिताजी स्वर्गीय श्री टी. सी. तेजवानी लाडनूं में हायर सेकंडरी स्कूल के प्रधानाचार्य थे। उन दिनों बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं। ज्योतिष, तंत्र-मंत्र विद्या, योग, अध्यात्म, दर्शन साहित्य, विज्ञान इत्यादि विषयों का खूब अध्ययन किया। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, महर्षि दयानंद सरस्वती सहित अनेक महापुरुषों के अतिरिक्त ओशो रजनीश को भी जम कर पढ़ा। चूंकि जैन विश्व भारती लाडनूं की चौथी पट्टी के सिरे पर है, इस कारण वहां नियमित जाना होता था, इस कारण जैन दर्शन के बारे में भी बहुत कुछ जाना। योग व ध्यान के प्रयोग भी किए। तब मुझे यह फहमी हो गई थी कि मुझे सब कुछ आता है। हर विषय पर मेरी पकड़ है। चाहे किसी भी विषय का सवाल हो, मैं जवाब दे सकता हूं। आप तो यकीन नहीं ही करेंगे, मुझे भी अब तक यकीन नहीं होता है कि उस वक्त हाफ टाइम के आधे घंटे के दौरान कैसे मेरे इर्द गिर्द समकक्ष और छोटे विद्यार्थी जमा हो जाते थे और मैं उनसे सवाल आमंत्रित करता और उनके जवाब देता था। तब मेरे अनेक शिष्य बन गए थे। अपना नाम आजाद सिंह रख लिया था। मैने अभिवादन के रूप में लव इस लाइफ व लव इस गॉड के स्लोगन दिए थे। हर शिष्य इसी अभिवादन के साथ मिलता था। स्थिति ये हो गई कि मेरे शिष्यों की माताएं, जो कि मुझ से पंद्रह-बीस साल बड़ी थीं, मेरे पास जिज्ञासा लेकर आती थीं। कई मित्र मुझे फिलोसोफर कहने लगे। मैं तब स्कूल ड्रेस के अतिरिक्त केवल खादी का कुर्ता व पायजामा ही पहनता था। सगाई भी इसी वेशभूषा में हुई। पेंट-शर्ट तो थे ही नहीं। ससुराल वालों ने जाने कैसे मुझे पसंद किया। पच्चीस की उम्र में जब शादी हुई, तब जा कर पेंट-शर्ट सिलवाए। आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो समझ ही नहीं पाता कि वह क्या था? वह कैसा आकर्षण था कि लोग मेरी ओर खिंचे चले आते थे? प्रकृति की यह कैसी लीला थी?
मैं आज भी उस काल खंड की मानसिकता व गलतफहमी के बारे में सोच कर अपने आप पर हंसता हूं कि वह कैसा पागलपन था। उसी दौर में एक बार संन्यास के लिए घर से भागा भी, वह कहानी फिर कभी।
खैर, अब तो यह अच्छी तरह से समझ आ चुका है कि दुनिया में इतना ज्ञान भरा पड़ा है कि एक जिंदगी बीत जाए तब भी उसे अर्जित नहीं किया जा सकता। मुझे अच्छी तरह से पता है कि अलविदा के वक्त तक बहुत, बहुत कुछ जानने से रह जाएगा। हालांकि यह सही है कि उन नौ साल के दौरान जितना कुछ स्वाध्याय किया, वही संचय आज काम आ रहा है। यद्यपि मैं ओशो रजनीश से कई मामलों में असहमत हूं, मगर मेरे चिंतन पर उनके सोचने के तरीके व तर्क की विधा का ही प्रभाव है। पहले जहां दुनिया का सारा ज्ञान अर्जित करने की चाह रही, वहीं अब परिवर्तन ये आ गया है कि अब दुनिया का ज्ञान तुच्छ लगने लगा है। पिछले लंबे समय से सारा ध्यान प्रकृति के रहस्य व स्वयं को जानने पर केन्द्रित हो गया है। पता नहीं, ये पूरा हो पाएगा या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
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