एक सृष्टि वो है, जो हमारे चारों ओर विद्यमान है, उसके हम अंग हैं, हम उसी के अनुरूप उठते-बैठते, खाते-पीते हैं, हम उससे बंधे हुए हैं, मगर एक सृष्टि वह भी है, जो हम निर्मित करते हैं। हमारे आस-पास। जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि का कथन उसी संदर्भ में है। ऐसा नहीं है कि जैसी हमारी दृष्टि होगी, पूरी की पूरी सृष्टि भी वैसी ही हो जाएगी। वजह ये कि सृष्टि नियंता की तरह हम उतने शक्तिमान नहीं हैं, हमारी शक्ति की सीमाएं हैं। जैसे पूरी सृष्टि के शाश्वत व सार्वभौमिक नियम हम पर लागू होते हैं, वैसे ही हमारी बनाई हुई सृष्टि के नियम भी हम को प्रभावित करते हैं। एक सीमा तक।
आपने देखा होगा कि कई बार मंगलवार या शनिवार अथवा किसी और वार का व्रत रखने वाले किसी पार्टी में होते हैं तो कहते हैं कि आज अमुक वार है, मेरा व्रत है, अत: रात के बारह बजे दूसरा वार शुरू होने पर ही अन्न अथवा मदिरा का सेवन कर पाऊंगा। सवाल ये उठता है कि हम अपनी हिंदू संस्कृति के तहत व्रत रखते हैं तो उसमें वार का नियम भी हिंदू संस्कृति का लागू होगा, रात बारह बजे वार बदलने का नियम तो आंग्ल नियम है। हमारे यहां तो सूर्योदय के समय नया वार शुरू होता है, जो कि दूसरे दिन सूर्योदय तक रहता है। अर्थात कोई भी वार दिन से शुरू होता है और उसके बाद उस वार की रात आती है। इसी प्रकार इस्लामिक परंपरा में पहले रात व बाद में दिन शुरू होता है। तभी तो जुम्मे अर्थात शुक्रवार से पहले आने वाले गुरुवार को जुम्मेरात कहते हैं।
मुद्दा ये है कि आपने यदि मंगलवार को व्रत रखा हुआ है तो वह अगले दिन सुबह सूर्योदय तक चलना चाहिए, जबकि अमूमन लोग रात बारह बजे ही वार बदलने वाले नियम को मानते हुए बारह बजते ही व्रत तोड़ देते हैं। आपने ये भी देखा होगा कि जो व्यक्ति मंगलवार का व्रत रखता है तो वह सोमरात की रात बारह बजे से पहले खा-पी लेता है, वह मानता है कि बारह बजे मंगलवार शुरू हो जाएगा, जबकि वह गलत है। इस बात को लेकर आपने कई बार मित्र मंडली में बहस होती हुई देखी होगी।
मेरा ऐसा अनुभव है कि कोई भी व्यक्ति जो भी नियम अपने लिए बनाता है, वह उस पर लागू होता है, उसमें संस्कृति के अनुसार बने हुए नियम का कोई अर्थ नहीं होता। यदि हमने मंगलवार की रात बारह बजे वार बदलने की धारणा अपने मन में कायम कर रखी है तो वही हमें प्रभावित करेगी। यदि हम उस धारणा को भंग करेंगे तो कदाचित वह प्रतिकूलता दे सकती है। और एक बार प्रतिकूलता मिली तो हमारा यकीन मजबूत हो जाता है कि मैंने अपना बनाया हुआ नियम तोड़ा, इस कारण प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हुई। वस्तुत: यह हमारी आस्था का सवाल है। एक गीत आपने सुना होगा- मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी। ताजा मुद्दे पर यह पंक्ति सटीक बैठती है। मेरी नजर में इसका मानसिक खेल ये है कि जैसे ही किसी कारणवश हम अपनी निर्मित धारणा, जिसे कि हम लघु सृष्टि भी कह सकते हैं, के विपरीत कोई काम करेंगे, तो हमारे भीतर अपराधबोध उत्पन्न होगा, जो कि हमारी मानसिक शक्ति को कमजोर करेगा व मन में आशंका उत्पन्न होगी। कदाचित प्रतिकूल परिणाम भी हो सकता है। दूसरी ओर जिसने इस प्रकार वार का नियम नहीं बना रखा है तो उस को कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक और उदाहरण देखिए। परंपरागत रूप से कुछ लोग मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल-नाखून आदि नहीं काटते, जबकि अनेक लोग बाल काटते समय वार को कोई अहमियत नहीं देते। दोनों प्रकार के लोगों पर अपने-अपने हिसाब से बनाई गई धारणा काम करती है। यह ठीक है कि जब भी मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल नहीं कटवाने की परंपरा शुरू हुई, उस वक्त उसके कोई तार्किक कारण रहे होंगे। हमारे दैनंदिन जीवन में प्रतिदिन में हम अनेकानेक परंपरागत नियमों का पालन करते हैं, मगर आपने देखा होगा कि समय बदलने के साथ वे नियम टूटे भी हैं और उनमें शिथिलता आई है। अब किसी ने नियम तोड़ा है तो उसे नुकसान हुआ ही है या होगा और किसी ने नियम पाला है तो उसे बहुत फायदा हुआ ही है या होगा, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।
यूं नियम की बड़ी महत्ता है, इस पर विस्तार से कभी और बात करेंगे।
आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। प्रकृति के मामले में हमारा बोला हुआ तथ्य पूर्ण सत्य होगा, इसकी संभावना कम है, क्योंकि प्रकृति में दो और दो चार नहीं होता। कभी पांच तो कभी तीन हो जाता है। यही वजह है कि प्रकृति समझ में नहीं आती। वस्तुत: यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
आपने देखा होगा कि कई बार मंगलवार या शनिवार अथवा किसी और वार का व्रत रखने वाले किसी पार्टी में होते हैं तो कहते हैं कि आज अमुक वार है, मेरा व्रत है, अत: रात के बारह बजे दूसरा वार शुरू होने पर ही अन्न अथवा मदिरा का सेवन कर पाऊंगा। सवाल ये उठता है कि हम अपनी हिंदू संस्कृति के तहत व्रत रखते हैं तो उसमें वार का नियम भी हिंदू संस्कृति का लागू होगा, रात बारह बजे वार बदलने का नियम तो आंग्ल नियम है। हमारे यहां तो सूर्योदय के समय नया वार शुरू होता है, जो कि दूसरे दिन सूर्योदय तक रहता है। अर्थात कोई भी वार दिन से शुरू होता है और उसके बाद उस वार की रात आती है। इसी प्रकार इस्लामिक परंपरा में पहले रात व बाद में दिन शुरू होता है। तभी तो जुम्मे अर्थात शुक्रवार से पहले आने वाले गुरुवार को जुम्मेरात कहते हैं।
मुद्दा ये है कि आपने यदि मंगलवार को व्रत रखा हुआ है तो वह अगले दिन सुबह सूर्योदय तक चलना चाहिए, जबकि अमूमन लोग रात बारह बजे ही वार बदलने वाले नियम को मानते हुए बारह बजते ही व्रत तोड़ देते हैं। आपने ये भी देखा होगा कि जो व्यक्ति मंगलवार का व्रत रखता है तो वह सोमरात की रात बारह बजे से पहले खा-पी लेता है, वह मानता है कि बारह बजे मंगलवार शुरू हो जाएगा, जबकि वह गलत है। इस बात को लेकर आपने कई बार मित्र मंडली में बहस होती हुई देखी होगी।
मेरा ऐसा अनुभव है कि कोई भी व्यक्ति जो भी नियम अपने लिए बनाता है, वह उस पर लागू होता है, उसमें संस्कृति के अनुसार बने हुए नियम का कोई अर्थ नहीं होता। यदि हमने मंगलवार की रात बारह बजे वार बदलने की धारणा अपने मन में कायम कर रखी है तो वही हमें प्रभावित करेगी। यदि हम उस धारणा को भंग करेंगे तो कदाचित वह प्रतिकूलता दे सकती है। और एक बार प्रतिकूलता मिली तो हमारा यकीन मजबूत हो जाता है कि मैंने अपना बनाया हुआ नियम तोड़ा, इस कारण प्रतिकूल स्थिति उत्पन्न हुई। वस्तुत: यह हमारी आस्था का सवाल है। एक गीत आपने सुना होगा- मानो तो गंगा मां हूं, ना मानो तो बहता पानी। ताजा मुद्दे पर यह पंक्ति सटीक बैठती है। मेरी नजर में इसका मानसिक खेल ये है कि जैसे ही किसी कारणवश हम अपनी निर्मित धारणा, जिसे कि हम लघु सृष्टि भी कह सकते हैं, के विपरीत कोई काम करेंगे, तो हमारे भीतर अपराधबोध उत्पन्न होगा, जो कि हमारी मानसिक शक्ति को कमजोर करेगा व मन में आशंका उत्पन्न होगी। कदाचित प्रतिकूल परिणाम भी हो सकता है। दूसरी ओर जिसने इस प्रकार वार का नियम नहीं बना रखा है तो उस को कोई फर्क नहीं पड़ता।
एक और उदाहरण देखिए। परंपरागत रूप से कुछ लोग मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल-नाखून आदि नहीं काटते, जबकि अनेक लोग बाल काटते समय वार को कोई अहमियत नहीं देते। दोनों प्रकार के लोगों पर अपने-अपने हिसाब से बनाई गई धारणा काम करती है। यह ठीक है कि जब भी मंगलवार व वृहस्पतिवार को बाल नहीं कटवाने की परंपरा शुरू हुई, उस वक्त उसके कोई तार्किक कारण रहे होंगे। हमारे दैनंदिन जीवन में प्रतिदिन में हम अनेकानेक परंपरागत नियमों का पालन करते हैं, मगर आपने देखा होगा कि समय बदलने के साथ वे नियम टूटे भी हैं और उनमें शिथिलता आई है। अब किसी ने नियम तोड़ा है तो उसे नुकसान हुआ ही है या होगा और किसी ने नियम पाला है तो उसे बहुत फायदा हुआ ही है या होगा, इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।
यूं नियम की बड़ी महत्ता है, इस पर विस्तार से कभी और बात करेंगे।
आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। प्रकृति के मामले में हमारा बोला हुआ तथ्य पूर्ण सत्य होगा, इसकी संभावना कम है, क्योंकि प्रकृति में दो और दो चार नहीं होता। कभी पांच तो कभी तीन हो जाता है। यही वजह है कि प्रकृति समझ में नहीं आती। वस्तुत: यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
It is due to ignorance, as per the astrological traditions we have a day from sunrise to next sunrise; the english people change the date at 12 a. m. such date change does not change the day that we follow by traditions.
जवाब देंहटाएंthan k u sir
जवाब देंहटाएं