रविवार, 3 मई 2020

हे कोराना, तेरा सत्यानाश हो, तूने मेहनतकश को बना दिया भिखारी?

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई पर। अस्सी एकड़ जमीन पर पसरा हुआ। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा कर पत्नी तारा के नाम पर नाम कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। अफसोस, आज कोराना महामारी का बदकिस्मत गवाह हूं।
मुझे बेहद मलाल है। मेहनत-मजदूरी करके अपने इकबाल ओ ईमान ओ मर्दानगी को जिंदा रखने वाले हजारों अजमेरी लाल आज लॉक डाउन में दानदाताओं की दया और सरकारी अनुदान की रोटी खाने को मजबूर हैं। उसके लिए भी कई बार जद्दोजहद करनी पड़ती है। इसे भीख कहना कत्तई ठीक नहीं। वह उनके स्वाभिमान से खिलवाड़ माना जाएगा। मगर वह है तो किसी और की ही कमाई का निवाला ना। है तो बिना मजदूरी का फोकट राशन।
पेट की खातिर फेरी लगाते मेहनतकश कबाड़ी वाले, सड़क पर चादर फैला सब्जियां बेच कर घर चलाती जुझारू महिलाएं, तपती धूप, कड़कड़ाती सर्दी व बारिश में इधर से उधर भटकते ठेले वाले, रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले दिहाड़ी मजदूर, सड़क किनारे हेलमेट ओ मोबाइल स्क्रीन गार्ड के साथ दिनभर धूनी रमाने वाले, चंद रुपयों की खातिर डोर टू डोर सप्लाई करने वाले युवक, विकासशील कॉलोनियों के इर्द-गिर्द टाटपट्टी की झोंपडिय़ों में रहने वाले श्रमिक, घर-घर काम करने को मजबूर बाइयां, इन सबके दिल पर क्या गुजर रही होगी? वे तो अब भी मेहनत करने को तैयार हैं, मगर लॉक डाउन ने उनको निठल्ला कर दिया है।
उधर गरीब नवाज ओ तीर्थराज पुष्कर की अनुकंपा पर पलने वाले खानाबदोशों को नीला आसमान छिनने का मलाल है। शेल्टर्स होम में दो वक्त की रोटी तो है, मगर मानसिक सुकून पाने को तरस गए हैं। शायद इसीलिए बार-बार भाग जाते हैं।
हाल तो छोटे-छोटे दुकानदारों का भी बहुत बुरा है। शायद सबसे ज्यादा बुरा। न तो शर्म ओ लिहाज छोड़ कर दान का राशन व फूड पैकेट ले सकते हैं और न ही डेढ़ व दो गुना महंगी चीजें लेने के लिए पैसे बचे हैं। आखिर कब तक उधार से काम चलाएंगे? आंखों के आगे अंधेरा छा गया है। रोएंगे तो कर्जदार भी। कब शुरू होगी कमाई और कब उतारेंगे कर्जा। ब्याजखोर भी टेंशन में है, कि ब्याज डूब न जाए।
इन्हीं हालातों के बीच एक कविनुमा अज्ञात लेखक ने सोशल मीडिया पर अपना दर्द कुछ इस प्रकार बयां किया है, जिसे थोड़ा सा परिमार्जित कर आपकी नजर पेश है:-

न जाने किसकी बुरी नजर का शिकार हो गया हूं।
दरगाह बाजार में दिन-रात की रेलमपेल को कौन शैतान निगल गया।
हर पल किलोल करने वाला मेरा आनासागर आज शांत बैठा है।
अपने छाती पर बैठा ठंडी हवाओं का लुत्फ देने वाली बारादरी वीरान है।
प्यारी चौपाटियां कदमताल सुनने को बेचैन हैं।
मेरे सेठों का नया बाजार न जाने कब महकेगा।
मेरी बहनों की पुरानी मंडी न जाने कब चहकेगी।
गोल प्याऊ पर न जाने कब होगा चटोरों का शोरगुल।
कब दिखेगा केसरगंज में रामपाल ओ गुलशन पर दोने चाटता हुजूम।
रेस्त्रां कब होंगे पिज्जा ओ चाउमीन से आबाद।
कब सजेगा सूचना केन्द्र पर मोमोज ओ वड़ा पाव वाला ठेला।
मदार गेट के प्याले का स्वाद तो भुलाए नहीं भूलता।
कोटा कचोड़ी की सुगंध ख्याल में आते ही नाक में खलबली मचती है।
भिक्कीलाल के शरबत ओ आचार की याद मुंह में पानी भर देती है।
ओह...
चुपचाप है मेरा मदार गेट।
टेंशन न ले, कह रहा आगरा गेट।
बीमार है मेरा दिल्ली गेट।
दु:खी न हो, कह रहा अलवर गेट।
हो चाहे जितनी भी मुसीबत।
डट कर मुकाबला करुंगा।
न झुकूंगा, न रुकूंगा।
जलाऊंगा आशा का चिराग।
यह अजमेर नहीं मिटने दूंगा।

आखिर में हल्का सा विनोद। रोज गुड मॉर्निंग का आगाज करने वाली कढ़ी-कचोड़ी का छिन जाना बहुत सालता है। गला तर करने को अवैध हथकड़ भी अमृत बन जाना वर्षों तक बेवड़ों के जेहन में रहेगा। दिनभर जुगाली करने वालों को चार-पांच गुना महंगे गुटखे खरीदना भी सालों याद रहेगा। गोल्ड फ्लेक का आनंद बीड़ी में आना कोरोना का ही तो कमाल है।
खैर, फिर मुलाकात होगी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

बिच्छू ने डंक मारा, मगर जहर का असर नहीं हुआ

दोस्तो, नमस्कार। किसी को बिच्छु काटे और उस पर उसके जहर का असर न पडे। क्या ऐसा संभव है? बिलकुल संभव है। मैं स्वयं इस अनुभव से गुजरा हूं। हुआ ...