सोमवार, 4 मई 2020

भई वाह, देवालय बंद पड़े हैं और मदिरालय खुल गए

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार है। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा किया और पत्नी तारा के नाम पर मेरा नाम कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया।  अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त  कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अफसोस, आज कोराना महामारी का बदकिस्मत गवाह।

आज मैं उस मंजर का भी गवाह बना, जब शराब की सरकारी दुकानों पर लंबी कतारें लग गईं। लॉक डाउन के दौरान यह दिन शराब के नाम समर्पित हो गया। दिनभर बस शराब और शराबी ही चर्चा में रहे। जैसे शराबी  तकरीबन 40 दिन के इंतजार के बाद दुकानों पर टूट पड़े, ठीक वैसे ही लोग भी शराबियों पर पिल पड़े। सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से सुरा प्रेमियों की जितनी लानत-मलामत हुई, अगर कोई गैरतमंद हो तो ताजिंदगी शराब को तिलांजलि दे दे। शराब पीने वालों को इतनी हेय दृष्टि से देखा गया, मानों वे उनकी ही तरह के इंसान न हो कर नाली के कीड़े हों। यकायक कबीर की उलटबांसी याद आ गई। जो लोग निजी जिंदगी में नियमित शराब पीते हैं, वे भी ऐसे-ऐसे उपदेश दे रहे थे, मानों उन्होंने तो शराब की बोतल छूना तो दूर, देखी तक नहीं। इसी दोगलेपन ने कुछ लिखने को मजबूर कर दिया।
मुंडे-मुंडे मतिभिन्ना। जितने मुंह, उतनी बातें। सबसे बड़ा तंज तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर कसा गया। उनके गांधीवादी होने की दुहाई देते हुए सवाल किया गया आखिर वे शराब के आगे कैसे नतमस्तक हो गए? अब उनको कौन समझाए कि गहलोत कोई कुबेर नहीं कि शराब से होने वाली रेवन्यू की भरपाई अपने निजी खाते से कर सकें। चिल्ल-पौं भी इतनी कि मानो लॉक डाउन से पहले शराब बंदी थी। अरे भाई, आप तब कहां थे, जब एट पीम, नो सीएम का जुमला जवान था। वैसे भी कुछ लोगों की आदत है कि हमला सीधे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री स्तर पर ही करते हैं, भले ही वहां तक आवाज जाए या नहीं, मगर कम से कम नीचे के नेता और अधिकारी तो चमकते रहेंगे।
इस सब जुगाली के बीच एक बात जरूर गौर तलब आई। वो ये कि अगर आपको शराब इतनी ही जरूरी लगी कि सोशल डिस्टेंसिंग की शर्त लगा कर उसकी दुकान तो खुलवा दी, तो भगवान का ख्याल क्यों नहीं आया? मंदिर-मस्जिद भी तो इसी तरह से खुलवाये जा सकते थे। क्या भगवान शराब से भी गया गुजरा है? हम कैसे खुदगर्ज इंसान हैं? इससे एक बात तो तय हो गई कि भगवान की पूजा के बिना तो जी सकते हैं, मगर गला तर किए बिना नहीं। अगर लाइन लगा कर शराब खरीद सकते हैं तो उसी अनुशासन से मंदिर के दर्शन भी कर सकते हैं। मगर सुरे कौन?
इस बीच पेट का एक दर्द भी कुलबुलाया। जो भी शराब खरीदने आए, उसकी तर्जनी अंगुली पर अमिट स्याही लगाई जाए, ताकि सभी मुफ्त राशन व भोजन बांटते समय यह पता लग जाए कि वह मुफ्त राशन का हकदार नहीं है। अब आपको कौन समझाए। वह इतना भी कम अक्ल नहीं कि खुद ही राशन लेने आएगा, बीवी को नहीं भेजेगा? अरे, उसे पहचानो, यह वही है, जो एक वक्त की रोटी के बिना तो जी सकता है, मगर शराब के बिना नहीं। कल तो आप पांच गुना रेट पर गुटखा-सिगरेट खरीदने वालों को भी आइटेंटिफाई करने की सलाह देंगे कि उनका राशन-पानी बंद करो।
तेजवानी गिरधर
असली तकलीफ का तो किसी को ख्याल ही नहीं। सोशल डिस्टेंसिंग की अवमानना तो बहाना था, दुख इस बात का था कि बाल बढऩे से हम जंगली हो गए हैं, ब्यूटी पार्लर बंद होने से असली चेहरा उभर आया है, और भी कई जरूरी चीजें हैं, जिनके बिना जिंदगी झंड हो रही है, और आपको दया आ रही है शराबियों पर।
वैसे एक बात है। शराब वाकई खराब है। पत्रकार व वकील डॉ. मनोज आहुजा ने इसका चित्रण कुछ इस प्रकार किया है:- आप कितने ही अच्छे इंसान हों। उस घटिया इंसान के सामने भी तुम्हारी उतनी इज्जत नहीं करेगी ये सोसायटी, जो सिर्फ शराब नहीं पीता है, बाकी उसमें दुनिया के सारे ऐब हैं।  ये शराब आपको करेक्टर सर्टिफिकेट देती है। आपका करेक्टर चाहे जितना अच्छा हो, मगर अकेली शराब आपका करेक्टर ढ़ीला कर देगी।
तर्क ये भी आया कि शराब व्यवसाइयों व कुछ नौकरशाहों ने मिलीभगत करके गहलोत से गलत निर्णय करवा लिया। जब कि तस्वीर का असल रूप ये है कि शराब बंदी में ज्यादा मजा था। शराब तो बिक रही थी, दो-तीन गुना दामों में। उसका फायदा कौन उठा रहा था?
ऐसा नहीं कि शराबियों की केवल जग हंसाई ही हो रही है। उन पर गर्व करने वाले भी हैं दुनिया में। बानगी देखिए:- सभी मुख्यमंत्रियों ने केन्द्र सरकार से शराब के ठेके खोलने की इजाजत मांगी है, क्योंकि प्रदेशों के पास अपने सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे नहीं हैं। शराबियों के लिए यह गर्व की बात है कि प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों के वेतन का भुगतान उनके द्वारा शराब पर खर्च किए गए पैसों से होता है। लेकिन शराबियों ने कभी घमंड नहीं किया, गालियां ही सुनीं। असल में हम जिनको बेवड़े समझते थे, वे ही तो देश की अर्थव्यवस्था के चौथे स्तंभ हैं।

आखिर में मनोरंजन के लिए एक वीडियो क्लिप, जिसमें पाएंगे कि लॉक डाउन के बाद शराब पीते ही कई वित्त मंत्री स्तर के लोग, जिनका टैलेंट छुपा पड़ा था, बाहर आने लगा है
https://youtu.be/4N2de9l926g

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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