गुरुवार, 14 मई 2020

अजमेर के आंचल में जुटते हैं अनेक मेले

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा किया और पत्नी तारा के नाम पर मेरा नामकरण कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अफसोस, आज गलियां सूनी और बाजार वीरान हैं। मगर जब इसको कोरोना की नजर नहीं लगी थी, तब मेरे इस अजमेर शहर में मेलों की खूब धूम रही है, जिनकी गूंज देश-विदेश में सुनाई देती रही है। आइये, आज आपको मेलों की रेलमपेल बयां करता हूं:-

ख्वाजा साहब का उर्स:- महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का सालाना उर्स इस्लामिक कलेंडर के अनुसार रजब माह की एक से छह तारीख तक मनाया जाता है। उनका उर्स छह दिन मनाने की परंपरा की वजह ये है कि यह ज्ञात नहीं हो पाया कि एक से छह रजब तक किसी दिन उन्होंने देह त्यागी। असल में वे सभी को यह हिदयात दे कर एक कोठड़ी में इबादत करने गए कि उन्हें कोई व्यवधान डाले। जब वे बाहर नहीं आए तो छह रजब को कोठड़ी खोली गई। देखा कि वे देह त्याग चुके हैं। उन्होंने किस दिन देह त्यागी, इसका पता नहीं लगने के कारण छहों दिन उर्स मनाया जाने लगा। छठे दिन कुल की रस्म के साथ ही उर्स संपन्न हो जाता है। कुल की रस्म में जायरीन दरगाह के दर-ओ-दीवार को गुलाब व केवड़ा जल से धोते हैं और वह पानी इकट्ठा कर तवर्रुख के रूप में जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि उस पानी से बीमारियों से छुटकारा मिलता है। एक परंपरा यह भी है कि नौ रजब को जायरीन पूरी दरगाह को धोते हैं। इसे बड़े कुल की रस्म कहा जाने लगा। इसी वजह से छह रजब को होने वाली रस्म को छोटे की रस्म कहा जाने लगा। एक रजब से छह रजब तक दरगाह परिसर स्थित जन्नती दरवाजा भी खोला जाता है। छहों दिन महफिलखाने में महफिल होती है, जिसकी सदारत दरगाह दीवान जनाब जेनुल आबेदीन करते हैं। मेले के दौरान आने वाले शुक्रवार को जुम्मे की नमाज होती हैं, जिसमें सभी जायरीन शिरकत करते हैं। इस मेले में तकरीबन दो से तीन लाख जायरीन आते हैं। उनके लिए पुष्कर रोड, कायड़ व ट्रांसपोर्ट नगर में विश्राम स्थलियां बनी हुई हैं। ज्यादा जायरीन पुष्कर रोड वाली विश्राम स्थली पर ठहरते हैं।
मोहर्रम:- यूं तो पूरे देश में मुसलमान मोहर्रम मनाते हैं, मगर यहां दरगाह ख्वाजा साहब की वजह से जायरीन बड़ी तादात में आते हैं। प्रशासन को भी उर्स मेले की तरह के इंतजामात करने होते हैं, इस कारण इसे मिनी उर्स कहा जाने लगा है। पूरे देश में अकेले अजमेर में ही मोहर्रम के दौरान हाईदोस खेला जाता है। इसमें हाईदोस खेलने वाले नंगी तरवारों से करतब दिखाते हैं। मोहर्रम माह के दौरान तारागढ़ पर विशेष मातम मनाया जात है। मोहर्रम के दिन सीने को पीट-पीट कर लहुलहान कर देने वाला मंजर रूह का कंपा देने कर देने वाला होता है। इसके अतिरिक्त अंगारों पर चलना भी शरीर का रोम-रोम खड़ा कर देता है।
पुष्कर मेला:- अजमेर से तकरीबन 11 किलोमीटर दूर तीर्थराज में हर साल कार्तिक एकादशी से पूर्णिमा तक धार्मिक मेला भरता है। ऐसी मान्यता है कि इस दौरान पुष्कर सरोवर में स्नान करने विशेष पुण्य मिलता है। इसमें शामिल होने के लिए लाखों तीर्थयात्री आते हैं। ग्रामीण परिवेश की रंगीन संस्कृति के इस मेले में सर्वाधिक भीड़ पूर्णिमा के दिन होती है। यह भी मान्यता है कि कार्तिक मेले के दौरान पुष्कर का पानी हिलने के साथ ही सर्दी जोर पकडऩे लगती है। इस मेले से कुछ दिन पूर्व ही यहां पशु मेला भी जुटता है। इसमें देश के अनेक प्रांतों से पशुपालक अपने पशु बेचने आते हैं। इस प्रकार इस मेले का दोहरा महत्व है। मेले में ग्रामीण परिवेश के रंग उभर कर आते हैं, इसी कारण अनेक विदेशी पर्यटक इसका आनंद लेने आते हैं। पर्यटन विभाग पर्यटकों के लिए विशेष सुविधाएं जुटाता है व पशुपालन विभाग व जिला प्रशासन प्रदर्शनी आयोजित करते हैं। पुष्कर के पशु मले की भांति अन्य पशु मेले जिले के लामाना, तिलोनिया व रूपनगढ़ में भी आयोजित किए जाते हैं।
सुधाबाय का मेला:- पुष्कर के ही निकट सुधाबाय में हर मंगला चौथ अर्थात मंगलवार व चतुर्थी तिथी का संगम होने पर मेला भरता है। यहां श्रद्धालु अपने पितरों की आत्मा की शांति के लिए अनुष्ठान करते हैं। अनेक वे लोग, जो आर्थिक अथवा अन्य कारणों से अपने पितरों के पिंड भरने गया नहीं जा पाते, वे यहां यह अनुष्ठान करवाते हैं। बताया जाता है कि भगवान राम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध इसी कुंड में किया था। मान्यता है कि यहां कुंड में स्नान से प्रेत-बाधा से मुक्ति मिलती है। इस कारण कथित ऊपरी हवा से पीडि़त लोगों को उनके परिजन यहां लाते हैं और कुंड में डुबकी लगवा कर राहत पाते हैं।
तेजाजी का मेला:- जिले में तेजाजी का मेला धूमधाम से मनाया जाता है। किशनगढ़ के निकट सुरसुरा गांव में यह मेला बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। ग्रामीण अंचल के ही केकड़ी, ब्यावर, टाटगढ़, देवखेड़ा, सुरडिय़ा, भगवानपुरा, जवाजा, सागरवास, बडिय़ा नंगा, लाखोना, बेरनी खेड़ा में भाद्रपद माह में इस मेले की विशेष धूम होती है।
बाबा रामदेवजी का मेला:- बाबा रामदेवजी का मेला जिले के बिठूर, देवखेड़ा, बामन हेड़ा, लोटियाना, शेरों का नला व खेड़ा दांता में सितंबर माह में भरता है।
कल्पवृक्ष का मेला :- अजमेर शहर से करीब पच्चीस किलोमीटर दूर ब्यावर मार्ग पर मांगलियावास गांव में स्थित कल्पवृक्ष के पास हरियाली अमवस्या के दिन विशाल मेला भरता है। यहां कल्पवृक्ष नर, नारी व राजकुमार के रूप में मौजूद है। पौराणिक मान्यता है कि कल्पवृक्ष के नीचे खड़े हो कर मन्नत मांगने पर वह पूरी होती है।
बालाजी का मेला :- अजमेर जिले के किशनगढ़ में मदनगंज क्षेत्र में सितंबर माह में बालाजी का मेला धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर अनेकानेक खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।
अन्य मेले :- इसी प्रकार अन्य कई मेले भी भरते हैं, जिनमें  बिड़क्यिावास, नांद, टाटगढ़, सोलियाना आदि स्थानों पर भरने वाला माताजी का मेला, दांतड़ा गांव में अक्टूबर माह में भरने वाला भैरूंजी का मेला, गांव भगवानपुरा में पाबूजी का मेला, होली पर सूरजपुरा में गैर मेला, देलवाड़ा, सराधना, रावतमाल व गोला में महादेवजी का मेला आदि प्रमुख हैं। भाद्रपद की अमावस्या के बाद आने वाल अष्ठमी पर पुष्कर स्थित सावित्री मंदिर पर मेला भरता है।
अजयपाल में प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में दूसरे पखवाड़े के छठे दिन यहां बाबा का मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से कनफटे जोगी आते हैं। सावन-भादौ में लीलासेवड़ी, चामुंडा और कोटेश्वर के मेले भरते हैं। अजमेर में शीतला सप्तमी पर सुभाष उद्यान के पास शीतला माता का मेला और बजरंगगढ पर हनुमान जयंती पर मेला भरता है। अजमेर के नया बाजार में लाल्या-काल्या का मेला भी प्रसिद्ध है। होली के अवसर पर ब्यावर की तर्ज पर कुछ वर्षों से अजमेर में भी नगर निगम बादशाह का मेला आयोजित किया जाता है। इसकी शुरुआत तत्कालीन नगर परिषद सभापति स्वर्गीय वीर कुमार ने की। सावन माह के दौरान बापूगढ़ स्थित बालाजी के मंदिर पर मेला भरता है।
गुजरात से आई गरबा संस्कृति:- यूं तो अनेक साल से यहां बसा गुजराती समाज नवरात्री के दौरान गरबा-डांडिया आयोजित करता रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों से यह बड़े पैमाने पर मनाया जाने लगा है। शहर के अनेक स्थानों पर गरबा होते हैं। नगर निगम भी कुछ साल से दशहरा महोत्सव के तहत गरबा आयोजित करने लगा है। इसमें गुजरात के कलाकार बुलवाए जाते हैं।
खैर, फिर मुलाकात होगी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-प्रस्तोता
तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें