बुधवार, 13 मई 2020

कढ़ी-कचौड़ी को तरस गया मेरा अजमेर

मैं तारागढ़ हूं। भारत का पहला पहाड़ी दुर्ग। समुद्र तल से 1855 फीट ऊंचाई। अस्सी एकड़ जमीन पर विस्तार। वजूद 1033 ईस्वी से। राजा अजयराज चौहान द्वितीय की देन। पहले अजयमेरू दुर्ग नाम था। सन् 1505 में चितौड़ के राणा जयमल के बेटे पृथ्वीराज ने कब्जा किया और पत्नी तारा के नाम पर मेरा नामकरण कर दिया। सन् 1033 से 1818 तक अनगिनत युद्धों और शासकों के उत्थान-पतन का गवाह हूं। 1832 से 1920 के बीच अंग्रेजों के काम आया। अब दरगाह मीरां साहब, टूटी-फूटी बुर्जों, क्षत-विक्षत झालरे के अतिरिक्त कुछ नहीं। एक बस्ती जरूर मेरे आंचल में सांस लेती है। देश की आजादी के बाद हुए हर बदलाव का साक्षी हूं। अफसोस, आज कोराना महामारी का बदकिस्मत गवाह हूं।

कढ़ी-कचौड़ी को तरस गया मेरा अजमेर
मैं इस हालात का भी गवाह हूं कि लॉक डाउन व कफ्र्यू की गिरफ्त में आए मेरे अजमेर को बेशक दो वक्त की रोटी तो नसीब हो रही है, मगर इसकी जिंदगी की एक खास चीज जबरन छिन गई है। उसका दर्द इनकी पेशानी पर साफ झलकता है। वो है कढ़ी-कचौड़ी। इसके बिना तो सुबह का आगाज ही नहीं होता था। उसकी सौंधी खुशबू महसूस करने को नथुने तरस गए हैं। चटकारे लेती जीभ से आती सी-सी-सी की आवाज खो गई है। हकीकत ये है कि अगर कोई अजमेर आए और कढ़ी-कचौड़ी का स्वाद न चखे तो समझो उसका अजमेर आना ही अधूरा रह गया।
ऐसा नहीं है कि कढ़ी-कचौड़ी हमसे ताजिंदगी छूटने जा रही है, आखिर दुकानें खुलेंगी ही, लिहाजा बात प्रजेंट टैंस में करेंगे, मानो उसके ठीये आज भी आबाद हैं।
असल में अजमेर की कढ़ी-कचौड़ी का स्वाद बेहद लाजवाब है। वैसा लजीज जायका दुनिया में कहीं नहीं मिलता। यूं तो शहर के हर गली-मोहल्ले में कढ़ी-कचौड़ी व समोसे की दुकानें खुल गई हैं, मगर आज भी कुछ ऐसे खास ठिकाने ऐसे हैं, जहां सुबह होते ही भीड़ जुटना शुरू हो जाती है। किसी जमाने में पुरानी मंडी के नुक्कड़ पर केबिन में चलने वाली शंकर चाट भंडार पर सुबह तो क्या, दिनभर औरतों जमघट लगा रहता था। बताते हैं कि एक बार उसकी अपार सेल पर इन्कम टैक्स वालों की नजर पड़ गई। उन्हें दिनभर में इक_ा होने वाले दोनों से इन्कम का हिसाब लगाना पड़ा। अगर मेरी याददाश्त कमजोर नहीं हुई है तो वह केबिन स्टील लेडी के नाम से मशहूर हुई जिला कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता की सल्तनत में अतिक्रमण हटाओ अभियान की चपेट में आई। तब उन्होंने नया बाजार में गोल प्याऊ के पास नई दुकान खोली। वह दुकान पहले से भी ज्यादा चल रही है। इसी प्रकार कचहरी रोड पर आपका पंडित कचौड़ी वाला भी फेमस है, जो पहले बंगाली धर्मशाला के पास हाथ ठेला लगाया करते थे। अगर कुछ ज्यादा ही चटपटी कढ़ी-कचौड़ी खानी हो तो आपको केसरगंज में चक्कर के सामने रामपाल और गुलशन का रुख करना होगा। वहां तो ऐसा महसूस होता है, मानो कढ़ी के साथ कचौड़ी-समोसा-पकौड़ी-सांखिये खाने वालों का मेला सा लगा हो। एक बार तो ये आरोप भी लगा कि वे कढ़ी में तेजाब की लाग देते हैं, इसी कारण सिसकारी तेज उठती है। हालांकि इसका सबूत कभी नहीं मिला। पिछले कुछ सालों से वैशाली नगर में धन्ना की कचोड़ी ने भी खूब नाम कमाया है। पुष्कर रोड पर पंचोली चौराहे की ओर जाने वाली रोड के नुक्कड़ पर साहू की दुकान ने भी खूब नाम कमाया है। यूं सूखी कचौड़ी के मामले में तेलण की कचौड़ी ने लोगों को सबसे ज्यादा लुभाया है। आम कचौड़ी से कुछ  बड़ी इस कचौड़ी में भरा काली मिर्ची से सना दाल का मसाला पसीने छुड़ा देता है। दो-चार साल से हींग वाली कोटा कचौड़ी ने भी कचहरी रोड पर एलआईसी के पास खूब धूम मचाई है। उसी की तर्ज पर मदार गेट चौराहे के आइसक्रीम प्याले वाले के पास नुक्कड़ पर भी स्वाद के मारों का जमघट लगा रहता है। मदार गेट के अंदर घुसने पर पुरानी मंडी की ओर जाने वाली गली का नुक्कड़ भी कम आबाद नहीं रहता। बात अगर नया बाजार की करें तो सबको पता है, वहां के सेठ स्वाद और क्वालिटी के साथ कोई समझौता नहीं करते। बादशाह बिल्डिंग के पास खस्ता कचौड़ी के साथ कढ़ी का स्वाद कुछ और ही लुफ्त देता है। पिछले कुछ सालों से नया बाजार से लेकर चूड़ी बाजार तक शाम ढ़लते ही सजने वाली चौपाटी चाट, समोसे, कोफ्ते, आलू की टिक्किया, छोले-भटूरे, दही बड़े, मिर्ची बड़े से लेकर दक्षिण भारतीय सांभर वड़ा, इटली डोसा आदि चुंबक की तरह खींचते हैं। लोढ़ा धर्मशाला के नीचे वाली दुकान पर बनने वाली प्याज की कचौड़ी के भी क्या कहने?
जीभ का स्वाद चरपरा करने की बात चल रही है तो डिग्गी बाजार व खारी कुई इलाके के दुकानदार भी कम शौकीन नहीं हैं। शाम का नाश्ता छोला-डबल-चटनी से ही हुआ करता है। खारी कुई वाले चेटू के पकौड़े  तो पूरे शहर में मशहूर हुआ करते थे। लगे हाथ पानी-पूरी की बात भी किए लेते हैं, वरना नारी जाति नाराज हो जाएगी। श्री टाकीज, जो कि अब कॉम्पलैक्स बन गया है, उसके आगे लगने वाला ठेला औरतों को बरबस खींच लेता है। अब तो कई जगह पानी पूरी के ठेले सजते हैं। अब तो चार फ्लैवर में पानी मिलने लगा है। बजरंग गढ़ पर लगने वाला ठेला भी शौकीनों की खास पसंद है। सूचना केन्द्र के पास लगने वाले वड़ा पाव व मामोज के ठेले की बात नहीं करेंगे तो बात अधूरी रह जाएगी। वहां खड़े होने वालों को इसलिए इंतजार करना पड़ता है, क्योंकि पैकिंग करवाने वालों का ही नंबर लगा रहता है। कुछ इसी तरह कचहरी रोड पर दाल की पकौड़ी को भूलना गुनाह की श्रेणी में गिना जाएगा।
चलते रस्ते एक बात और जान लो। राजस्व मंडल की त्रैमासिक पत्रिका के संपादक रहे श्री भालचंद व्यास ने एक बार बताया था कि अभी हम जो कचौड़ी खाते हैं, वह असल कचौड़ी के आगे कुछ नहीं। राजा-महाराजाओं के जमाने में जो कचौड़ी बनती थी, उसमें तो न जाने कितने मसाले और सूखे मेवे डलते थे।
भगवान से प्रार्थना है, खुदा से इल्तजा है कि लॉक डाउन जल्द ही खुल जाए। हम तो जी भर के कढ़ी-कचौड़ी खाएं ही और इस नायाब व्यंजन को जिंदा रखने वाले भी फिर से आबाद हो जाएं।
खैर, फिर मुलाकात होगी।

आपका खैरख्वाह
तारागढ़

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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