रविवार, 28 जून 2020

अखबार के दफ्तर को छूकर बन गया खबरनवीस!

पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाती है। यह सरकार व आमजन के बीच सेतु का काम करती हैं। न केवल जमीनी हकीकत से सत्ता को रूबरू कराती है, अपितु उसे आइना दिखाने का भी काम करती है। ऐसे में इसने एक शक्ति केन्द्र का रूप अख्तियार कर लिया है। पत्रकार को प्रशासन व सोसायटी में अतिरिक्त सम्मान मिलता है। यानि के पत्रकार ग्लेमर्स लाइफ जीता है। किसी जमाने में पत्रकारिता एक मिशन थी, मगर अब ये केरियर भी बन गई। इन्हीं दो कारणों से इसके प्रति क्रेज बढ़ता जा रहा है।
जहां तक केरियर का सवाल है, सिर्फ वे ही पिं्रट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में टिक पाते हैं या स्थान बना पाते हैं, जो एकेडमिक बेस रखते हैं, इसके प्रति गंभीर होते हैं और प्रोफेशनल एटीट्यूड रखते हैं। बाकी के केवल रुतबा बनाने के लिए घुस गए हैं। वे जहां-तहां से आई कार्ड हासिल कर लेते हैं और उसे लेकर इठलाते हैं। उन्हें न तो इससे कुछ खास आय होती है और न ही उसकी दरकार है। ये ही फर्जी पत्रकार माने जाते हैं। मगर कुछ ऐसे भी हैं, जिन्होंने इसे आजीविका का जरिया समझ लिया है। न तो उन्हें कुछ आता-जाता है और न ही उनको नियमित आय होती है। ऐसे में वे ब्लैकमेलिंग करके गुजारा करते हैं।
ज्ञातव्य है कि जैसे ही सरकार व प्रशासन के संज्ञान में आया है कि फर्जी व ब्लेकमेलर पत्रकारों की एक जमात खड़ी हो गई है, उसने पर इन अंकुश लगाने की कोशिश भी शुरू कर दी है। पत्रकारों के संगठन भी इनको लेकर चिंतित हैं, क्योंकि इस जमात ने पत्रकारिता को बहुत बदनाम किया है।
लंबे समय तक पत्रकारिता करने के चलते मुझे इस पूरे गड़बड़झाले की बारीक जानकारी हो गई है। उस पर फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। आज एक ऐसा उदाहरण पेश कर रहा हूं, जो कि फर्जी पत्रकारिता की पराकाष्ठा है।
हुआ यूं कि कुछ साल पहले दैनिक न्याय घराने के श्री ऋषिराज शर्मा ने न्याय सबके लिए के नाम से नया अखबार शुरू किया। उन्होंने स्टाफ की भर्ती के लिए आवेदन मांगे। मुझे बुला लिया इंटरव्यू के लिए। छोटी-मोटी कई रोचक घटनाएं हुईं, मगर उनमें से सबसे ज्यादा दिलचस्प वाकया बताता हूं। एक युवक आया कि मुझे रिपोर्टर बनना है। असल में उसे कोई अनुभव नहीं था। बिलकुल फ्रैश था। मैने उससे कहा कि ऐसा करो, पहले कुछ छोटा-मोटा लेख या समाचार बना कर आओ, ताकि यह पता लग सके कि आपको ठीक से हिंदी आती भी है या नहीं। उसने कहा कि ठीक है, कल आता हूं। वह नहीं आया। यानि कि वह अखबार के दफ्तर को छूकर गया। मैं भी भूल-भाल गया। कोई छह बाद अज्ञात नंबर से एक फोन आया। उसने अपना नाम बताते हुए कहा कि आपको याद है कि मैं आपके पास पत्रकार बनने आया था। मैंने दिमाग पर जोर लगाया, तो याद आया कि इस नाम का एक युवक आया तो था। उसने बड़े विनती भरे अंदाज में कहा कि प्लीज मेरी मदद कीजिए। मैने पूछा-बोलो। उसने कहा कि वह क्लॉक टॉवर पुलिस थाने में खड़ा है। मोटरसाइकिल के कागजात नहीं होने के कारण उसे पकड़ लिया है। उसने पुलिस से कहा है कि वह पत्रकार है। पुलिस ने उसे वेरिफिकेशन कराने को कहा तो उसने कह दिया कि वे न्यास सबके लिए का पत्रकार है। प्लीज, आप उनसे कह दीजिए कि मैं आपके अखबार में काम करता हूं। ओह, ऐसा सुनते ही मेरा तो दिमाग घनचक्कर हो गया। खैर, मैने उसे न केवल डांटा, बल्कि साफ कह दिया कि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। आप कल्पना कर सकते हैं कि ये मामला तो उसके पकडे जाने का है, न जाने उसने कितनी जगह अपने आपको पत्रकार के रूप में पेश किया होगा। बाद में सोचने लगा कि कैसा जमाना आ गया है। जिसने पत्रकारिता का कक्का भी नहीं सीखा, वह पत्रकार बन कर घूम रहा है। जो किसी अखबार की बिल्डिंग को मात्र छू कर आ गया, वही पत्रकार कहलाने लगा है। फर्जीवाड़े की इससे ज्यादा पराकाष्ठा नहीं हो सकती।
यह तो महज एक उदाहरण है। इस किस्म के कई पत्रकार हैं शहर में, जो किसी पत्रकार के मित्र हैं और मौका देखते ही पत्रकार बन जाते हैं। होता ये है कि वे पत्रकारिता तो बिलकुल नहीं जानते, मगर पत्रकारिता जगत के बारे में पूरी जानकारी रखते हैं। इस कारण किसी से बात करते हुए यह इम्प्रेशन देते हैं कि वे पत्रकार हैं। ऐसे पत्रकार भी हैं, जिन्होंने महिना-दो महिना या साल-दो साल शौकिया पत्रकारिता की, उसका फायदा उठाया और अब कुछ और धंधा करते हैं, मगर अब भी पत्रकार कहलाते हैं। इस किस्म के पत्रकारों की जमात ने न केवल पत्रकारिता के स्तर का सत्यानाश किया है, अपितु बदनाम भी बहुत किया है।
सोशल मीडिया के जमाने में जमाने में पत्रकारिता टाइप की एक नई शाखा फूट पड़ी है। यह कोरोना की तरह एक वायरस है, जो यूट्यूब, फेसबुक, वाट्स ऐप पर वायरल हो गया है। ब्लॉगिंग तो फिर भी और बात है, मगर यह खेप दो-चार पैरे लिख कर मन की भड़ास निकाल रही है। कई नए यूट्यूब न्यूज चैनल शुरू हो चुके हैं। इन्हीं की वैधानिकता पर सवाल उठ रहे हैं। पत्रकार संगठनों को समझ नहीं आ रहा कि इन्हें पत्रकार माने या नहीं, चूंकि वे कर तो पत्रकारिता ही रहे हैं, अधिकृत या अनधिकृत, यह बहस का विषय है। प्रशासन ने तो इन्हें मानने से इंकार कर ही दिया है। इसकी बारीक पड़ताल फिर कभी।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

6 टिप्‍पणियां:

  1. पत्रकारिता को धंधा बनाने वालों में आजकल अखबार मालिक भी शामिल हैं। वे किसी व्यक्ति को विज्ञापन का या प्रसार संख्या बढ़ाने का टारगेट देकर पत्रकार का आई कार्ड दे देते हैं। अनेक प्रकाशक तो रुपये लेकर आई कार्ड देते हैं, ऐसे में सिद्धान्त वाली पत्रकारिता लुप्त हो चुकी है।

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  2. पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने शादी बारात की वीडियो बनाने वालों को पत्रकार बना दिया, और अब सोशल मीडिया ने घर घर पत्रकार पैदा कर दिए। जिसे देखो you ट्यूब पर किसी भी घटना का वीडियो डाल कर कहता है कि न्यूज़ कवरेज। सबसे पहली बात तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया के you tube चेनल वाले पत्रकार हैं ही नहीं। "पत्रकार" शब्द से ही स्पष्ट है कि "पत्र" में कार यानी "कार्य" करने वाला। पत्र यानी समाचार पत्र अर्थात अखबार। पत्र माने चिट्ठी, यानी पत्रकारिता लेखन का कार्य है, ना कि बकवास करने का।
    इलेक्ट्रॉनिक व you ट्यूब वाले सिर्फ मीडिया कर्मचारी हैं। इधर वीडियो शूट किया, और उधर एक दो लाइन का एंकरिंग पार्ट डाल कर बाकी जानकारी लोगों की बाइट्स अथवा फुटेज चला कर न्यूज़ दिखा दी। दरअसल यह काम कोई भी कर सकता है, बल्कि अब तो हर कोई ही कर रहा है। जैसा ऊपर अर्ज़ किया कि कम पढ़े लिखे औऱ रोजी रोटी के लिए शादी ब्याह में वीडियोग्राफी करने वाले so called पत्रकार के रूप में स्थापित हो गए हैं। ईश्वर उनकी रोजी रोटी चलाते रहें। मगर, लेखन बिना पत्रकार कैसा।
    मुझे भी एक किस्सा याद आता है। एक चैनल में नौकरी करते समय एक सिफारिशी भर्ती लड़का new commer आया। उच्चाकांक्षाएँ और सिफारिश का जोम भी इतना था के सीधे वरिष्ठ लोगों के बराबर आने को उतावला। वो ऐसी हिमाकत कर भी सकता था, क्योंकि जिस नेपोटिज़्म, सिफारिश, पक्षपात, भेदभाव को लेकर आज कल मीडिया फ़िल्म एक्ट सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को भुना रहा है, यही गन्दगी इस मीडिया व पत्रकारिता लाइन में जड़ें जमा चुकी हैं। बहरहाल, मैं कह रहा था कि वो लड़का आया और अपने गॉड फादर के दम पर रिपोर्टर बन कर काम करने लगा। मगर जब चेनल के दिनमान खराब आये और दुकान बंद हुई तो उस लड़के को नई नौकरी तलाशनी थी। हुआ यूं के चैनल बंद होने के बाद उसने राज्य स्तरीय और एक राष्ट्रीय अखबार में जाकर नौकरी के लिए साक्षात्कार दिया, मगर उसका रिज्यूम रिजेक्ट कर दिया गया, क्योंकि उसे लिखना तो आता ही नही था। लब्बोलुआब ये कि किसी कैमरामैन / वीडियोग्राफर के साथ फील्ड पर जाना और आयोजकों से प्रेसनोट लाकर चेनल के दफ्तर में कंटेंट एडिटरों को दे देना पत्रकारिता नही होती। यह काम तो चाय की दुकान पर प्याले धोने वाला लड़का भी कर लेगा।
    आज ईश्वर की कृपा से कई ऐसे ही टाइप के मीडिया वालों का काम चल रहा है। उनमें से जिन्होंने मीडिया को ही पेशा बनाने का सीरियसली सोचा, तो उन्होंने काम को सीखा और कई ऐसे लोग अपने हुनर से सफल इलेक्ट्रोनिक मीडिया कर्मचारी बने, उन्हें बधाई। मगर पत्रकार वो अब भी नही बने, क्योंकि आज भी यदि वे किसी अखबार में जॉब करने जाएंगे, तो कोई इक्का दुक्का को छोड़ सब रिजेक्ट हो जाएंगे, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो स्तरहीन खबरों की दुकान है, बेबात की बातों से दर्शकों को पकाने के अलावा उनके पास कोई हुनर नही। जबकि प्रिंट मीडिया पत्रकारिता की पाठशाला है। प्रिंट मीडिया वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सफलता से काम कर सकते हैं, मगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जर्नलिज़्म शुरू करने वालों में से कोई एक आध फीसदी ही होगा जो प्रिंट मीडिया में चल सके।
    जिसने विज्ञप्ति लिखनी नही सीखी, जिसे कंटेंट की जानकारी नहीं, जिसे शब्द ज्ञान अधूरा आता हो, जिसका भाषा ज्ञान शून्य अथवा ना के बराबर हो, वो किसी भी भाषा शैली में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कुछ भी बोल कर काम चला लेगा, क्योंकि tv पर बोलना भले बीस मिनट तक है, मगर गिनी चुनी चार लाइन बोलनी हैं उस बीस मिनट में चालीस बार। और उन्हें ही यदि चालीस लाइन की एक अखबार की खबर लिखने को दे दें तो दस बार पेन हाथ से गिर जाएगा।

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  4. विजय कुमार शर्मा जी व अमित टंडन जी का शुक्रिया

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  5. पत्रकारिता का गिरता स्तर देख शर्म आने लगी है। हर पत्रकार (कथित) केवल खबरों का आदान प्रदान कर रहा है नाही कोई तथ्यात्मक समाचार होते हैं ना ही कोई खोज।

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