यह अजीब विरोधाभास है कि धर्म का असल मकसद आदमी को जिस मंजिल तक पहुंचाना है, उस पर पहुंचने के बाद उसी धर्म के लोग विरोध में खड़े हो जाते हैं। प्रसिद्ध कथावाचक मुरारी बापू व साध्वी चित्रलेखा इसके साक्षात व ताजातरीन उदाहरण हैं। बेशक आज वे जिस मानसिक स्थिति पर पहुंचे हैं, उसमें हिंदू धर्म की ही भूमिका है, हिंदू जीवन पद्धति का ही प्रभाव है, मगर अब उनकी यह स्थिति धर्म की मर्यादाओं में ही रहने वालों को बर्दाश्त नहीं है। ज्ञातव्य है कि मुरारी बापू व साध्वी चित्रलेखा इन दिनों हिंदू धर्म के प्रबल अनुयाइयों के निशाने पर हैं। इन दोनों पर न केवल गालियों की बौछार हो रही है, अपितु उन्हें घृणा की नजर से भी देखा जा रहा है। ऐसा नहीं कि ऐसा अकेले हिंदू धर्म में हो रहा है, इस्लाम में भी यही हालात हैं।
आइये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर वह मन: स्थिति क्या है? दरअसल जितने भी धर्म हैं, उनका अंतिम लक्ष्य परम सत्ता से मिलन है। मात्र साक्षात्कार नहीं, उसी में मिल जाना। साक्षात्कार में तो दो की मौजूदगी होती है, उसी में लीन हो जाने से तात्पर्य हैं यहां। और लीन ही हो गए तो बात ही खत्म हो गई, प्रयोजन पूर्ण हो गया। यह अवस्था अद्वैत है। तभी ऋषि के मुख से निकलता है:- अहम ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। इससे ठीक पहले तक द्वैत बना रहता है। उससे भी पहले की अवस्था में संसार के प्रति समभाव आ जाता है। धार्मिक विभेद समाप्त हो जाता है। फिर अजान से भी वही भाव जागता है, जैसा कि प्रार्थना से। व्यवस्था के तहत धर्म विशेष के प्रति जो लगाव बनाया जाता है, अथवा बन ज्यादा, वह तिरोहित हो जाता है। तब आदमी को सभी धर्म एक जैसे लगने लगते हैं। भले ही वह पालना अपने धर्म की करता है, मगर दूसरे धर्म के प्रति भी उतना ही आदर हो जाता है, जितना अपने धर्म के प्रति। तभी तो मुरारी बापू को आध्यात्मिक शेरो-शायरी व अल्लाहू का आलाप सुनने-कहने में आनंद आता है। वे अल्लाह की इबादत को बड़े रस से सुनते हैं। झूमने लगते हैं। तभी तो साध्वी चित्रलेखा को यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि अगर अजान के दौरान भागवत कुछ समय के लिए स्थगित कर दी जाए तो उसमें क्या बुरा है? क्या फर्क पड़ता है कि हमने अजान की आवाज सुनाई देने पर कुछ समय के लिए भागवत कथा रोक दी। भला यह बात हिंदू धर्म की सीमाओं में बंधे लोगों को कैसे बर्दाश्त हो सकती है।
वैसे वे अपनी जगह ठीक हैं। मुरारी बापू जैसे संतों का जो सम्मान है, जो साधन संपन्नता है, वह हिंदू धर्म की मान्यताओं, शिक्षाओं आदि का प्रचार करने की वजह से है। आज उनके लाखों प्रशंसक हैं। अगर वे ही दूसरे धर्म को समान आदर देने लगेंगे तो विरोधी ये सवाल करेंगे ही न कि तो आप फिर उसी को धारण कर लीजिए। उनका यह भय स्वाभाविक ही है कि हिंदू संतों का इस प्रकार अन्य धर्मों के प्रति समादर हिंदू मतावलंबियों में अपने धर्म के प्रति शिथिलता उत्पन्न करेगा।
दूसरी ओर यह भी सच है कि हिंदू मतावलंबी आम तौर पर बहुत कट्टर नहीं होता। उसे कट्टर बनाए रखने के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ती है। अधिसंख्य हिंदुओं को आपने दरगाहों में मत्था टेकते देखा होगा। उसे सिख धर्म के गुरु नानक व गुरु ग्रंथ साहब, जैन धर्म के भगवान महावीर, बौद्ध धर्म के महात्मा बुद्ध, ईसाई धर्म के ईसा मसीह के आगे सिर झुकाने में जरा भी संकोच नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार अजमेर स्थित दरगाह ख्वाजा साहब की जियारत करने आने वालों में तकरीबन आधे हिंदू होते हैं। सोशल मीडिया पर इसका गाहेबगाहे विरोध होता है, मगर हिंदुओं पर कोई असर ही नहीं होता। यह सनातन धर्म की ही विशालता व उदारता ही है कि उसे अहम ब्रह्मास्मि कहने वालों पर जरा भी क्रोध नहीं आता।
ऐसा प्रतीत होता है कि मुरारी बापू जैसे संतों को न केवल विशेष मानसिक अवस्था में पहुंचने के कारण अन्य धर्म भी समान लगते हैं, अपितु इसकी वजह ये भी है कि वे अपेक्षाकृत उदार हिंदू धर्म में ही शिक्षित-दीक्षित होने के कारण अन्य धर्मों के प्रति आदर रखते हैं।
बात करें इस्लाम की। वहां अपेक्षाकृत अधिक कट्टरता है। पक्का मुसलमान केवल एक खुदा को ही मानता है। बुत परस्ती वहां जायज नहीं, इस कारण वह दरगाहों में मत्था नहीं टेकता। केवल मस्जिद में नमाज अदा करता। हालत ये है कि अरब देशों के मुसलमान भारत व पाकिस्तान के मुस्लिमों को अपने से हेय मानते हैं और उन्हें हिंदुस्तानी मुसलमान कह कर संबोधित करते हैं। इस्लाम का प्रचार-प्रसार जब हिंदुस्तान में हुआ तो उसमें तनिक शिथिलता आई। सूफिज्म उसी शिथिलता का परिणाम है। सूफिज्म में आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष के बावजूद धर्म की सीमा रेखाएं शिथिल हो जाती हैं। आपने अहम ब्रह्मास्मि की तरह का एक शब्द सुना होगा:- अनलहक। अनलहक सूफियों की एक इत्तला है, जिसके द्वारा वे आत्मा को परमात्मा की स्थिति में लय कर देते हैं। सूफियों के यहां खुदा तक पहुंचने के चार दर्जे बताये जाते हैं। जो सूफी मत को मानता है, उसे क्रमश: शरीयत, तरीकत, मारफत व हकीकत पर चलना होता है। पहले दर्ज में नमाज, रोजा आदि पर अमल करना होता है। दूसरे पड़ाव में उसे एक पीर की जरूरत पड़ती है। पीर से प्यार करने की और पीर का कहा मानने की। तरीकत की राह में उसका मन-मस्तिष्क प्रकाशमान हो जाता है, अर्थात वह ज्ञानी हो जाता है, जिसे मारफत कहते हैं। अंतिम पायदान पर वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। अर्थात हकीकत से रूबरू हो जाता है। खुद को खुदा में फना कर देता हैं। मैं और तू का भेद मिट जाता है। उसी अवस्था में भीतर से यह आवाज आती है कि अनलहक। मैं खुदा हूं। अनलहक कहने वाला पहला सूफी था मंसूर बिन हल्लाज था। खुदाई का यह दावा आलिमों को मंजूर नहीं था, नतीजतन उसे सूली पर लटका दिया गया। इस्लामी शिक्षाओं की मौलिकता को चुनौती देने के कारण उसको इस्लाम का करार दे दिया गया।
मंसूर की एक आध्यात्मिक गज़़ल बहुत चर्चित है। वह उर्दू में है और चूंकि मंसूर उर्दू नहीं जानते थे, इसलिए माना गया कि उनके किसी अनुयायी ने उनकी फ़ारसी रचना का उर्दू में अनुवाद किया होगा।
उस गज़़ल की चंद पंक्तियां देखिए:-
मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।
न हो मुल्ला, न हो बिरहमन, दुई की छोड़ कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनलहक तू कहाता जा।
मंसूर का हश्र देख कर एक लेखक ने लिखा है कि सच बोलने वालों को नादान दुनियावी लोगों ने सदैव मौत की सजा दी है। सुकरात से रजनीश तक, सब की एक ही कहानी है। यहां सच से तात्पर्य है वह अवस्था, जहां धार्मिक जीवन शैलियों की विविधता समाप्त हो जाती है। सब एक जैसे लगते हैं। और वह अवस्था धर्म से बंधे लोगों को असहज करती है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
आइये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर वह मन: स्थिति क्या है? दरअसल जितने भी धर्म हैं, उनका अंतिम लक्ष्य परम सत्ता से मिलन है। मात्र साक्षात्कार नहीं, उसी में मिल जाना। साक्षात्कार में तो दो की मौजूदगी होती है, उसी में लीन हो जाने से तात्पर्य हैं यहां। और लीन ही हो गए तो बात ही खत्म हो गई, प्रयोजन पूर्ण हो गया। यह अवस्था अद्वैत है। तभी ऋषि के मुख से निकलता है:- अहम ब्रह्मास्मि। मैं ब्रह्म हूं। इससे ठीक पहले तक द्वैत बना रहता है। उससे भी पहले की अवस्था में संसार के प्रति समभाव आ जाता है। धार्मिक विभेद समाप्त हो जाता है। फिर अजान से भी वही भाव जागता है, जैसा कि प्रार्थना से। व्यवस्था के तहत धर्म विशेष के प्रति जो लगाव बनाया जाता है, अथवा बन ज्यादा, वह तिरोहित हो जाता है। तब आदमी को सभी धर्म एक जैसे लगने लगते हैं। भले ही वह पालना अपने धर्म की करता है, मगर दूसरे धर्म के प्रति भी उतना ही आदर हो जाता है, जितना अपने धर्म के प्रति। तभी तो मुरारी बापू को आध्यात्मिक शेरो-शायरी व अल्लाहू का आलाप सुनने-कहने में आनंद आता है। वे अल्लाह की इबादत को बड़े रस से सुनते हैं। झूमने लगते हैं। तभी तो साध्वी चित्रलेखा को यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि अगर अजान के दौरान भागवत कुछ समय के लिए स्थगित कर दी जाए तो उसमें क्या बुरा है? क्या फर्क पड़ता है कि हमने अजान की आवाज सुनाई देने पर कुछ समय के लिए भागवत कथा रोक दी। भला यह बात हिंदू धर्म की सीमाओं में बंधे लोगों को कैसे बर्दाश्त हो सकती है।
वैसे वे अपनी जगह ठीक हैं। मुरारी बापू जैसे संतों का जो सम्मान है, जो साधन संपन्नता है, वह हिंदू धर्म की मान्यताओं, शिक्षाओं आदि का प्रचार करने की वजह से है। आज उनके लाखों प्रशंसक हैं। अगर वे ही दूसरे धर्म को समान आदर देने लगेंगे तो विरोधी ये सवाल करेंगे ही न कि तो आप फिर उसी को धारण कर लीजिए। उनका यह भय स्वाभाविक ही है कि हिंदू संतों का इस प्रकार अन्य धर्मों के प्रति समादर हिंदू मतावलंबियों में अपने धर्म के प्रति शिथिलता उत्पन्न करेगा।
दूसरी ओर यह भी सच है कि हिंदू मतावलंबी आम तौर पर बहुत कट्टर नहीं होता। उसे कट्टर बनाए रखने के लिए बहुत ताकत लगानी पड़ती है। अधिसंख्य हिंदुओं को आपने दरगाहों में मत्था टेकते देखा होगा। उसे सिख धर्म के गुरु नानक व गुरु ग्रंथ साहब, जैन धर्म के भगवान महावीर, बौद्ध धर्म के महात्मा बुद्ध, ईसाई धर्म के ईसा मसीह के आगे सिर झुकाने में जरा भी संकोच नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार अजमेर स्थित दरगाह ख्वाजा साहब की जियारत करने आने वालों में तकरीबन आधे हिंदू होते हैं। सोशल मीडिया पर इसका गाहेबगाहे विरोध होता है, मगर हिंदुओं पर कोई असर ही नहीं होता। यह सनातन धर्म की ही विशालता व उदारता ही है कि उसे अहम ब्रह्मास्मि कहने वालों पर जरा भी क्रोध नहीं आता।
ऐसा प्रतीत होता है कि मुरारी बापू जैसे संतों को न केवल विशेष मानसिक अवस्था में पहुंचने के कारण अन्य धर्म भी समान लगते हैं, अपितु इसकी वजह ये भी है कि वे अपेक्षाकृत उदार हिंदू धर्म में ही शिक्षित-दीक्षित होने के कारण अन्य धर्मों के प्रति आदर रखते हैं।
बात करें इस्लाम की। वहां अपेक्षाकृत अधिक कट्टरता है। पक्का मुसलमान केवल एक खुदा को ही मानता है। बुत परस्ती वहां जायज नहीं, इस कारण वह दरगाहों में मत्था नहीं टेकता। केवल मस्जिद में नमाज अदा करता। हालत ये है कि अरब देशों के मुसलमान भारत व पाकिस्तान के मुस्लिमों को अपने से हेय मानते हैं और उन्हें हिंदुस्तानी मुसलमान कह कर संबोधित करते हैं। इस्लाम का प्रचार-प्रसार जब हिंदुस्तान में हुआ तो उसमें तनिक शिथिलता आई। सूफिज्म उसी शिथिलता का परिणाम है। सूफिज्म में आध्यात्मिक चरमोत्कर्ष के बावजूद धर्म की सीमा रेखाएं शिथिल हो जाती हैं। आपने अहम ब्रह्मास्मि की तरह का एक शब्द सुना होगा:- अनलहक। अनलहक सूफियों की एक इत्तला है, जिसके द्वारा वे आत्मा को परमात्मा की स्थिति में लय कर देते हैं। सूफियों के यहां खुदा तक पहुंचने के चार दर्जे बताये जाते हैं। जो सूफी मत को मानता है, उसे क्रमश: शरीयत, तरीकत, मारफत व हकीकत पर चलना होता है। पहले दर्ज में नमाज, रोजा आदि पर अमल करना होता है। दूसरे पड़ाव में उसे एक पीर की जरूरत पड़ती है। पीर से प्यार करने की और पीर का कहा मानने की। तरीकत की राह में उसका मन-मस्तिष्क प्रकाशमान हो जाता है, अर्थात वह ज्ञानी हो जाता है, जिसे मारफत कहते हैं। अंतिम पायदान पर वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। अर्थात हकीकत से रूबरू हो जाता है। खुद को खुदा में फना कर देता हैं। मैं और तू का भेद मिट जाता है। उसी अवस्था में भीतर से यह आवाज आती है कि अनलहक। मैं खुदा हूं। अनलहक कहने वाला पहला सूफी था मंसूर बिन हल्लाज था। खुदाई का यह दावा आलिमों को मंजूर नहीं था, नतीजतन उसे सूली पर लटका दिया गया। इस्लामी शिक्षाओं की मौलिकता को चुनौती देने के कारण उसको इस्लाम का करार दे दिया गया।
मंसूर की एक आध्यात्मिक गज़़ल बहुत चर्चित है। वह उर्दू में है और चूंकि मंसूर उर्दू नहीं जानते थे, इसलिए माना गया कि उनके किसी अनुयायी ने उनकी फ़ारसी रचना का उर्दू में अनुवाद किया होगा।
उस गज़़ल की चंद पंक्तियां देखिए:-
मुसल्ला छोड़, तसवी तोड़, किताबें डाल पानी में,
पकड़ तू दस्त फरिश्तों का, गुलाम उनका कहाता जा।
न हो मुल्ला, न हो बिरहमन, दुई की छोड़ कर पूजा,
हुकुम शाहे कलंदर का, अनलहक तू कहाता जा।
मंसूर का हश्र देख कर एक लेखक ने लिखा है कि सच बोलने वालों को नादान दुनियावी लोगों ने सदैव मौत की सजा दी है। सुकरात से रजनीश तक, सब की एक ही कहानी है। यहां सच से तात्पर्य है वह अवस्था, जहां धार्मिक जीवन शैलियों की विविधता समाप्त हो जाती है। सब एक जैसे लगते हैं। और वह अवस्था धर्म से बंधे लोगों को असहज करती है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
गिरधर जी बहुत समर्भित् आलेख । हिंदू कटर तो कभी था ही उसे कटर होने को हमारी सियासी पार्टियों ने मजबूर किया है। हिंदू कटर होता, नानक, कबीर, बुले शाह, बाबा फरीद की सीख उनकी वाणी कभी नहीं पढ़ता, गाता।
जवाब देंहटाएंजैसे मुरारी बापू सत्संग me अलाहू मे रम जाते है झूमने लगते हैं कोई मुस्लिम संत या दरवेश क्यो nahi राधे कृष्ण या राम मय हो जाता है।
आदरणीय, आपको जानकारी होनी चाहिए कि हिंदू बहुदेव वाद में यकीन करता है, जब कि मुस्लिम एकेष्वरवाद में यकीन रखता है, केवल अल्लाह को मानता है, वह राम का नाम नहीं लेता तो इस पर आपका ऐतराज बेमानी है
हटाएं