हम कई बार फालतू के सवाल करते हैं। जैसे किसी के घर गए और वह खाना खा रहा है तो यकायक हम पूछ बैठते हैं, खाना खा रहे हो। या ये ही पूछ बैठते हैं कि बैठे हो? अव्वल तो ये सवाल ही बेमानी हैं। जो दिख रहा है, उसी के बारे क्या पूछना? दिलचस्प बात ये है कि खाना खाने वाला भी जवाब देता है कि हां, खाना खा रहा हूं, मानो उसके पास ये विकल्प हो कि वह यह कह सके कि नहीं खाना नहीं खा रहा। वह भी जवाब देता है कि हां, बैठा हूं, मानो कुछ और कहने, यथा नहीं, नाच रहा हूं का विकल्प हो उसके पास। हम अगर ये पूछते हैं कि कैसे हो तो फिर भी ठीक है, क्यों हमें पता नहीं कि उसके क्या हालचाल हैं?
इसी प्रकार फालतू के काम भी बहुत किया करते हैं हम। जैसे रास्ते से गुजरते वक्त और कुछ नहीं तो, दुकानों के साइन बोर्ड ही पढ़ते जाते हैं। एक बार नहीं। बार-बार। जब भी गुजरते हैं, फिर पढ़ते हैं। वस्तुत: उसका कोई मतलब नहीं। हां, यह तो ठीक है कि हमने एक बार पढ़ लिया तो वह काम का है। इससे हमको ख्याल रहता है कि अमुक दुकान कहां पर है। वस्तुत: हम अपने मस्तिष्क के स्मरण कक्ष में फालतू का कचरा भरते रहते हैं। वैसे विज्ञान का मानना है कि मस्तिष्क नामक सुपर कंप्यूटर की जितनी रेम है, उसका हम पूरे जीवन में एक प्रतिशत भी उपयोग नहीं कर पाते। मगर फालतू का कचरा भरना तो ठीक नहीं।
मैं अपनी ही बता दूं। जब भी साइन बोर्ड पढ़ता हूं तो संपादन की आदत के कारण उसकी स्पेलिंग मिस्टेक पर ही ध्यान रहता है और व्यर्थ ही कुंठित होता हूं।
फालतू की एक बात का जिक्र कर रहा हूं। गर्मी या सर्दी होने पर अपने पास बैठे व्यक्ति से कहते हैं कि आज तो बहुत गर्मी या सर्दी है। वह भी हामी भरते हुए कहता है कि वाकई बहुत गर्मी या सर्दी है। जब दोनों का पता है कि बहुत गर्मी या सर्दी है, उस पर चर्चा की जरूरत ही नहीं, फिर भी किसी भी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के मानव स्वभाव के कारण हम ऐसा करते हैं।
इस बारे में ओशो ने अपने एक प्रवचन में जिक्र किया है। वे बताते हैं कि एक दार्शनिक प्रात:कालीन सैर किया करते थे। कुछ दिन बाद देखा कि एक अन्य व्यक्ति भी सैर कर रहा है। उन्होंने देख कर अनदेखा कर दिया। दो-तीन दिन ऐसा चलता रहा। फिर उस व्यक्ति ने अभिवादन करना शुरू कर दिया। दार्शनिक भी अनमने मन से प्रत्युत्तर दे देते। फिर उस व्यक्ति ने बातें करना शुरू कर दिया। जैसे आज मौसम कितना सुहावना है, ये फूल कितना खूबसूरत है, आज सर्दी ज्यादा है इत्यादि। दार्शनिक महाशय बहुत परेशान हो गए। आखिर, उनसे रहा नहीं गया और उस व्यक्ति से कहा कि मान्यवर, आप बहुत बातूनी हैं। मेरी सैर का मजा खराब कर रहे हैं। अरे भाई, मौसम सुहावना है, वह मुझे भी महसूस हो रहा है, फूल की खूबसूरती मुझे भी दिखाई दे रही है, सर्दी के ज्यादा होने का अहसास भी मुझे है। क्यों, व्यर्थ ही इनका जिक्र करते हो। बेहतर ये है कि आप भी सुहावने मौसम का आनंद लो। उसका जिक्र करना जरूरी है क्या? न तो वह आपके कहने से कम होना है और न ही ज्यादा। क्यों नहीं हम दोनों ही मौसम, फूल व सर्दी की अनुभूति का मजा अंदर ही अंदर लें। खैर, अगले दिन से उस व्यक्ति ने आना बंद कर दिया।
दार्शनिक अपनी जगह ठीक थे। जो बात दोनों का ज्ञात है, उसके बारे में चर्चा क्या करना? चर्चा तो उस पर होनी चाहिए, जो एक को पता हो और दूसरे को नहीं।
इसी संदर्भ में ओषो ने अपने प्रवचन में एक प्रसंग का जिक्र किया है। एक बार यह तय हुआ कि अमुक दिन अमुक गांव में गुरू नानक व कबीर की मुलाकात होगी। दोनों चेले बहुत प्रसन्न थे कि मुलाकात के दौरान दोनों के बीच ज्ञान की बातें होंगी तो हमें बहुत आनंद आएगा। एक दिन मुलाकात का अवसर आ ही गया। दोनों की मुलाकात हुई। एक दूसरे का अभिवादन किया। और बैठ गए। एक दूसरे को एकटक निहारते रहे। बात कुछ भी नहीं की। मुलाकात का समय समाप्त हुआ। दोनों ने एक दूसरे का अभिवादन किया और अपने-अपने गंतव्य स्थान की ओर प्रस्थान कर गए। दोनों के चेले बहुत निराष हुए। सोचा था कि ज्ञान चर्चा का आनंद लेंगे, मगर इन्होंने तो कोई बात ही नहीं की। दोनों के चेलों ने अपने-अपने गुरू से पूछा कि आपने आपस में कोई बात क्यों नहीं की। दोनों का एक ही उत्तर था। चर्चा करने को कुछ था ही नहीं। जो एक जानता था, वही दूसरा भी जानता था। अर्थात भगवान के बारे में। तो चर्चा किस पर करते।
इस प्रसंग की ऐतिहासिक तथ्यात्मकता भिन्न हो सकती है, मगर सार की बात ये है कि चर्चा उसी पर होती है, जिसके बारे में एक जानता हो और दूसरा नहीं। तभी उसकी सार्थकता है, अन्यथा व्यर्थ है।
अपने पल्ले तो यही आया कि व्यर्थ की बातों में अपनी क्षमता व समय को नहीं गंवाना चाहिए। बात उतनी ही करें, जितनी बहुत जरूरी हो। इससे हमारी ताकत का क्षरण बच जाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
गोविंद गोविंद सब कहे गुरु कहे न कोई
जवाब देंहटाएंगुरु बिन गोविंद कहां से हुई
गोविंद की प्राप्ति के लिए गुरु का होना अनिवार्य है जिस प्रकार से फल की प्राप्ति के लिए पेड़ का होना अनिवार्य है
आप सही कह रहे हैं, मगर इसका इस आलेख से क्या संबंध है, वह समझ में नहीं आया, आपने अपनी पहचान भी छुपा रखी है
हटाएंसच तो यही है कि हम अपने जीवन का 99.99.99%ईनही फालतू /पराई पचर में गंवा देते हैं परन्तु संसार की इस मोह माया ने इन्सान को इस कदर उलझा दिया है कि हम इसके सिवा और कुछ सोच नहीं सकते हैं ना ही कुछ कर पाते हैं
जवाब देंहटाएंharish khemani