बुधवार, 9 सितंबर 2020

ओशो के प्रभाव से पत्रकार मित्र का सांसारिक जीवन बेकार हो गया

मैं जब नागौर में कॉलेज लाइफ जी रहा था, तब मेरे एक घनिष्ठ मित्र  थे महेन्द्र पाल व्यास। कोई दस साल पहले नागौर जाना हुआ, तब उनके दीदार हुए थे, अब किस हाल में हैं कुछ नहीं पता। हालांकि ओशो के प्रभाव व अत्यधिक दार्शनिकता के कारण उनका सांसारिक जीवन लगभग बेकार हो गया, मगर मुझे एक सीख जरूर मिल गई। किसी में ज्ञान की अधिकता और सांसारिक व्यवस्थाओं के बीच अगर तालमेल न हो तो उसका जीवन कैसा बेकार सा हो जाता है, इसका साक्षात अनुभव उनसे मिला।

असल में वे मूलत: दार्शनिक थे। बहुत अध्ययन करते थे। ओशो को तो उन्होंने बहुत पढ़ा। हिंदी भाषा पर गजब का कमांड। अच्छे वक्ता भी। कॉलेज टाइम में ही पत्रकारिता आरंभ की। दैनिक नवज्योति के लिए नागौर से खबरें भेजा करते थे। उन दिनों मैं भी पत्रकारिता आरंभ कर चुका था। लाडनूं से प्रकाशित लाडनूं ललकार पाक्षिक का सहायक संपादक रहा। इसके अतिरिक्त जयपुर से प्रकाशित दैनिक अरानाद व दैनिक अंबर को खबरें भेजा करता था। हम बहुत अच्छे मित्र थे। लगभग रोजाना मिलते थे। अनेकानेक विषयों पर चर्चा किया करते थे। विशेष रूप से ओशो पर। मेरा भी ओशो पर बहुत अध्ययन था। फर्क सिर्फ इतना था मैंने तो ओशो को जाना मात्र, जबकि वे उसमें ही डूब गए। नजीतजन असामान्य हरकतें करने लगे। एक बार अपना नाम बदल कर मुस्लिम नाम रख लिया। कुछ दिन तक हाथ में तिरंगी छड़ी लेकर घूमते थे। कभी अंगूठे के नाखून पर तिरंगी नेल पॉलिश लगाते थे। खैर, थे बहुत अच्छे बुद्धिजीवी। तक मैं सोचा करता था कि यह आदमी एक दिन जरूर नाम कमाएगा। मगर हुआ उसका उलटा। नागौर छोडऩे के कोई दस साल बाद एक बार नागौर जाना हुआ। मैंने उनका पता किया। वे कलेक्ट्रेट के बाहर जमीन पर चटाई बिछा कर लोगों के हाथ देख रहे थे। मुफलिसी के दौर से गुजर रहे थे। मात्र पांच रुपए में उन्होंने मेरा भी हाथ देखा। कुछ मित्रों से उनके बारे में पूछा तो पता लगा कि दार्शनिकता इतनी अधिक सवार हो गई थी कि न तो रोजगार के लिए कुछ किया और पारिवारिक जीवन पर भी ध्यान नहीं दिया। मुझे बहुत अफसोस हुआ। जिस शख्स में अपार संभावनाएं थीं, वह ज्ञान के अतिरेक में तिरोहित हो गईं। वस्तुत: ज्ञान का बोझ वे सहन नहीं कर पाए। हालत ऐसी हो गई, जैसा वेदांत को जान कर उसी में डूब जाने वालों की होती है। बेशक वेदांत वेदों का सार है, बहुत गहरा ज्ञान, मगर माना जाता है कि जो भी वेदांत को जीवन में अपना लेता है, वह अकर्मण्य हो जाता है। हो ही जाएगा। उसे पेड़, पशु-पक्षी, पत्थर में भी ईश्वर का भान होता है। उसका पूरा व्यवहार भिन्न हो जाएगा। ऐसे में भौतिक जगत में वह मिसफिट हो जाएगा। कमोबेश यही हालत मेरे उस अति विद्वान मित्र की हो गई। 

असल में दुनियाभर में अपने क्रांतिकारी प्रवचनों के कारण प्रसिद्ध ओशो को समझना बहुत मुश्किल है। आम आदमी तो उनकी पुस्तक एक पन्ना तक नहीं समझ सकता। भाषा बहुत सामान्य, मगर निहितार्थ इतने गहरे होते हैं, कि कई लोगों के सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। मेरी समझ में उनके जैसा ज्ञानी व तार्किक अब तक तो दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने जीवनभर परंपराओं और व्यवस्थाओं का अतिक्रमण किया। बहुत अति दुस्साहपूर्ण तर्क दिए। इस कारण विवादास्पद भी खूब हुए। वे जिस तरह की बातें करते थे, अगर आदमी उन पर हूबहू चलने की कोशिश करेगा तो दुनिया की व्यवस्थाओं के साथ चल ही नहीं सकता। समझने वाले जानते हैं कि उन्होंने जो तर्क दिए हैं, वे कभी काटे नहीं जा सकते, अकाट्य हैं, जो दृष्टि दी, वह सत्य के बिलकुल करीब है, मगर चूंकि दुनिया उनसे बिलकुल उलट है, उसको स्वीकार करने को तैयार नहीं है, इस कारण उन पर चलने वाला मिसफिट हो ही जाएगा। मुझे बेहद अफसोस है कि मेरे मित्र ने ओशो के ज्ञान का संतुलित उपयोग नहीं किया, नतीजतन उनका सांसारिक जीवन बेकार सा हो गया। जो शख्स बहुत नाम कमा सकता था, वह गुमनामी में खो गया। इसमें दोष ओशो का नहीं। वे सदैव करते रहे कि मेरा अनुकरण या अनुसरण न करें, स्वविवेक से निर्णय करें। मगर मेरे मित्र एक और ओशो बनने के प्रयास में सामान्य मानव व्यवहार को ही भूल बैठे।

यद्यपि इस दुनिया का जितना भी ज्ञान है, वह दर्शन की ही देन है, मगर दार्शनिक कई बार दुनिया में हंसी का पात्र बन जाता है। उनकी खिल्ली उड़ती है। जैसे एक दार्शनिक एक बार एक गांव में गया। उसने देखा कि दीवारों पर गाय का गोबर थापा हुआ है। आम गंवार भी समझ सकता है कि वे कंडे हैं, मगर वह दार्शनिक सोच में डूब गया कि गाय ने आखिर किस प्रकार खड़े हो कर दीवार पर गोबर किया है?

इसी के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं। मुझे तो मेरे मित्र ने यही सीख दी है कि निखालिस ज्ञान अर्थात सार व संसार के बीच तालमेल होना ही चाहिए।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

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