नियम की बड़ी महत्ता है। इस जगत में अनियामक कुछ भी नहीं। सभी विद्वान नियम की पालना पर जोर देते हैं। हम तो फिर भी अखिल ब्रह्मांड की बहुत छोटी, बहुत ही छोटी सी इकाई हैं, मगर स्वयं प्रकृति भी नियम की पालना करती है। बेशक उसमें भी कभी विक्षोभ होता है, मगर अमूमन वह भी नियम से बंधी हुई है। ऊर्जा व जीवन का स्रोत सूर्य भी नियम की पालना करता है। हजारों साल से नियत समय पर उगता है और अस्त होता है। सारे ग्रह नियम से सूर्य की परिक्रमा करते हैं। पृथ्वी भी परिक्रमा के साथ-साथ अपनी धूरि पर भी नियम से घूमती है, जिससे ऋतुएं भी नियमानुसार परिवर्तित होती हैं और दिन-रात होते हैं।
मैने नियम को जिस रूप में जाना है, उसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा। मेरा अनुभव है कि जैसे हम यदि प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कृत्य करते हैं तो अनेक तरह की आपदाओं को झेलते हैं, जैसे शासन-प्रशासन के नियम की अवहेलना करने पर दंड के भागी होते हैं, वैसे ही हम हमारे ही बनाए हुए नियम की ठीक से पालना न करने पर भी कष्ट के भागी होते हैं। जिस नियम के निर्माता हम स्वयं हैं, या जो नियम हमने अपने ऊपर खुद ओढ़ा है, हम उससे भी बंध जाते हैं। इसलिए सदैव वही नियम बनाएं, जिसकी पालना कर सकें।
नियम कुछ उदाहरण देखिए। प्रकृति ने हमारे शरीर को कुछ ऐसा बनाया है कि जैसे नियमों में उसे ढ़ालते हैं, वैसा ही हो जाता है। जैसे यदि हमने सुबह चार बजे उठने का नियम बनाया है तो वह शरीर की आदत बन जाता है। फिर अलार्म क्लॉक की जरूरत नहीं होती। खुदबखुद चार बजे नींद खुल जाती है। असल में शरीर के भीतर की घड़ी काम कर रही होती है। ठीक इसी प्रकार भोजन के साथ है। जितने बजे हमने खाने की आदत बनाई है, ठीक उसी समय पेट में चूहे दौडऩे लगते हैं। शरीर की घड़ी खाने को पचाने के लिए लीवर को सक्रिय कर देती है और उससे पित्त रस निकलने लगता है। शरीर ने अपना काम शुरू कर दिया, मगर यदि हमने व्यस्तता अथवा किसी ओर वजह से ध्यान नहीं दिया तो एसिडिटी हो जाती है।
एक और एंगल देखिए। विद्वान कहते हैं न कि जैसे भोजन समय पर करना चाहिए, वैसे ही भगवान की पूजा भी नियत समय पर करनी चाहिए। हालांकि हम किसी भी वक्त भगवान को याद कर सकते हैं, उसमें कोई बंदिश नहीं, मगर नियत समय पर पूजा करने का महत्व अलग है। उस वक्त चित्त की एकाग्रता अधिक हो जाती है। योग व ध्यान के साथ भी ऐसा है। निर्धारित समय पर ध्यान करने से जल्द ही ध्यान की अवस्था में आ जाते हैं। आपने देखा होगा कि यदि हमने किसी वार पर किसी मंदिर के दर्शन करने का नियम बनाया है, मगर किसी वजह से किसी दिन हम दर्शन करने नहीं जा पाते तो उस दिन एक अभाव सा छाया रहता है। मन में नियम की अवहेलना का भाव कचोटता रहता है। नियम से रोज सुबह टहलने वाला व्यक्ति किसी दिन टहलने नहीं जा पाता तो पूरे दिन सुस्ती सी छायी रहती है।
नियम की महत्ता बताने के लिए सुधिजन एक कहानी कहा करते हैं। आपने भी सुनी होगी। एक सज्जन गांव से दूर जंगल में स्थित एक मंदिर में प्रतिदिन दीया जलाने जाया करता था। एक दुष्ट ने भी नियम बना रखा था। वह दीया बुझा कर आता था। एक बार बहुत आंधी-तूफान आया। सज्जन की हिम्मत ने जवाब दे दिया। सुस्ती में नागा कर गया। मगर दुष्ट की कटिबद्धता अधिक प्रबल थी। वह ठीक समय पर दीया बुझाने पहुंच गया। इस पर उस मंदिर के देवता ने उसे अशीर्वाद दिया। इसलिए कि वह नियम का पक्का निकला। सवाल ये नहीं कि वह गलत काम कर रहा था, बल्कि ये कि गलत काम भी नियम से कर रहा था। ये कहानी काल्पनिक भी हो सकती है, मगर संदेश यही है कि नियमितता का जीवन में बहुत महत्व है।
नियम, जो कि आदत जाता है, उसका एक और उदाहरण देखिए। एक सुप्रसिद्ध बेरिस्टर के बारे में मान्यता थी कि उन्हें हराना आसान नहीं है। एक वकील ने तय किया कि वह उन्हें हरा कर ही मानेगा। उसने बेरिस्टर के लौंड्री वाले से सेटिंग की और उनके कोट का एक बटन हटवा दिया। बेरिस्टर ने जैसे ही कोर्ट में जिरह शुरू की तो उनकी जुबान लडख़ड़ाने लगी। वजह ये कि उनकी एक आदत थी कि बहस करते वक्त एक हाथ से बटन पर अंगुलियां घुमाया करते थे। आदत के मुताबिक बार-बार उनका हाथ बटन पर जा रहा था, मगर वहां पर बटन नहीं था। उनका माइंड सेट गड़बड़ा गया और वे ठीक से जिरह नहीं कर पाए व केस हार गए। है न दिलचस्प किस्सा। एक छोटी सी आदत भी हमें कितना प्रभावित करती है।
कुल जमा बात ये कि प्रकृति के नियम तो हम पर लागू होते ही हैं, खुद अपने बनाए नियम भी लागू हो जाते हैं। उन्हें तोडऩे पर उतना की कष्ट होता है, जितना प्रकृति के नियम तोडऩे पर होता है।
-तेजवानी गिरधर
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