स्थूल व तार्किक बुद्धि का एक सवाल है कि हम भगवान की मूर्ति के आगे जो प्रसाद चढ़ाते हैं, क्या वह उसे ग्रहण करती है? अगर ग्रहण करती है तो वह कम क्यों नहीं होता? अगर मूर्ति प्रसाद का अंश मात्र भी ग्रहण नहीं करती तो फिर प्रसाद चढ़ाने का प्रयोजन क्या है? सवाल वाजिब है।
इसी से जुड़ा सवाल है कि जब सब कुछ भगवान का ही दिया हुआ है तो वही उसे अर्पण करने का क्या मतलब है? जिसने संपूर्ण चराचर जगत बनाया है, सारे भोज्य पदार्थ उसी की देन हैं। उसी का अंश मात्र अर्पित करने से उसे क्या फर्क पड़ता होगा?
भगवान की मूर्ति भोग ग्रहण करती है या नहीं, इस शंका का समाधान एक प्रसंग कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है-
एक शिष्य ने अपने गुरू से यह प्रश्न किया। इस पर उन्होंने पुस्तक में अंकित एक श्लोक कंठस्थ करने को कहा। एक घंटे बाद गुरू ने शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं। इस पर शिष्य ने शुद्ध उच्चारण के साथ श्लोक सुना दिया। गुरू ने पुस्तक दिखाते हुए कहा कि श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो वह तुम्हारी स्मृति में कैसे आ गया? स्वाभाविक रूप से शिष्य निरुत्तर हो गया। गुरू ने समझाया कि पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है । तुमने जब श्लोक पढ़ा तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया, लेकिन पुस्तक में स्थूल रूप में अंकित श्लोक में कोई कमी नहीं आई। इसी प्रकार भगवान हमारे प्रसाद को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के प्रसाद में कोई कमी नहीं आती।
वस्तुत: प्रसाद चढ़ाना एक भाव है, कृतज्ञता प्रकट करने का। और भाव की ही महिमा है। कहा तो यहां तक जाता है कि अगर हमारे पास पुष्प, फल, मिष्ठान्न आदि नहीं हैं तो भी अगर हम कल्पना करके सच्चे भाव से उसे अर्पित करते हैं तो वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भौतिक रूप से प्रसाद चढ़ाने का। अर्थात महत्व पदार्थ का नहीं, बल्कि भाव का है। उससे भी दिलचस्प बात ये है कि भगवान को चढ़ाया हुआ प्रसाद दिव्य हो जाता है। भले ही उसमें रासायनिक रूप से कोई अंतर न आता हो, तो भी उसके एक-एक कण में दिव्यता आ जाती है। यह भी एक भाव है। तभी तो कहते हैं कि प्रसाद का तो एक कण ही काफी है, जरूरी नहीं कि वह अधिक मात्रा में हो। इसके अतिरिक्त प्रयास ये भी रहता है कि वह अधिक से अधिक के मुख में जाए। यह भी एक भाव है, सबके भले का।
एक आरती में तो बाकायदा एक पंक्ति है कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा। ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि कृतज्ञता प्रकट करते समय यह अहम भाव न आ जाए कि मैने कुछ अर्पित किया है।
प्रसंगवश यह जान लीजिए कि श्रीमद् भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति तदहं भक्तयुपहृतमश्नामि प्रयतात्मन। अर्थात जो कोई भक्त प्रेमपूर्वक मुझे फूल, फल, अन्न, जल आदि अर्पण करता है, उसे मैं सगुण प्रकट होकर ग्रहण करता हूं। इसी प्रकार वेद कथन है कि यज्ञ में हृविष्यान्न और नैवेद्य समर्पित करने से व्यक्ति देव ऋण से मुक्त होता है।
हमारे यहां भिन्न-भिन्न देवताओं को भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रसाद चढ़ाने की परंपरा है। विष्णुजी को खीर या सूजी के हलवे का नैवेद्य चढ़ाया जाता है। शिव को भांग और पंचामृत का नैवेद्य पसंद है। हनुमानजी को हलुआ, पंच मेवा, गुड़ से बने लड्डू या रोठ, डंठल वाला पान, केसर भात, इमरती आदि अर्पित करते हैं। मान्यता है कि लक्ष्मीजी को सफेद और पीले रंग के मिष्ठान्न, केसर-भात बहुत पसंद हैं। दुर्गाजी को खीर, मालपुए, मीठा हलुआ, पूरणपोळी, केले, नारियल और मिष्ठान्न बहुत पसंद हैं। माता सरस्वती को दूध, पंचामृत, दही, मक्खन, सफेद तिल के लड्डू तथा धान का लावा पसंद है। गणेशजी को मोदक चढ़ाते हैं। भगवान श्रीराम को केसर भात, खीर, धनिए का भोग, कलाकंद, बर्फी, गुलाब जामुन आदि पसंद हैं। भगवान श्रीकृष्ण को माखन और मिश्री का नैवेद्य बहुत पसंद है। माता कालिका और भगवान भैरवनाथ को लगभग एक जैसा ही भोग लगता है। हलुआ, पूरी और मदिरा उनके प्रिय भोग हैं।
एक रोचक बात देखिए। भगवान को हम हमारा ही विराट रूप मानते हैं। इसी कारण जैसे मौसम के अनुसार हमारा भोजन परिवर्तित होता है, तो प्रसाद भी हम वैसा ही चढ़ाते हैं। यहां तक कि सर्दी में भगवान की मूर्ति को गरम वस्त्र पहनाते हैं। भला मूर्ति को भी कोई ठंड लगती है? मगर ये हमारा भाव है। और कहते भी हैं कि भगवान भाव के भूखे हैं। तभी तो वे शबरी के झूठे बेर भी ग्रहण कर लेते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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