रविवार, 8 नवंबर 2020

कानूनन सज्जादानशीन तो दरगाह दीवान ही हैं


हाल ही में मैने एक फेसबुक पेज व एक वेबसाइट के उस दावे की जानकारी दी थी, जिसमें दर्शाया गया है कि ख्वाजा साहब के ऑरीजिनल सज्जादानशीन तो पाकिस्तान में हैं, जबकि सच्चाई ये है कि महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के वर्तमान सज्जादानशीन दरगाह दीवान सैयद जैनुल आबेदीन अली खान हैं और उन्होंने अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया है। इस पर कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं।

जनाब पीरजादा फिरोज ने फेसबुक पर जो प्रतिक्रिया दी है, उसे हूबहू देखिए:-

पाकिस्तान माइग्रेशन पर उनकी सिविल डेथ हो चुकी है, मतलब भारतीय संविधान और कानून के तहत मिलने वाले उनके समस्त अधिकार समाप्त। भारत में यह पद खाली हो गया था और इस पद पर ख्वाजा साहब के वंशज ही विराजमान होते हैं जो उनके पाकिस्तान चले जाने पर खानदान के अन्य व्यक्ति को हस्तानांतरित हो गया। मतलब कोई अमेरिका, पाकिस्तान, लंदन, या कहीं भी चला गया तो यह पद समाप्त नहीं होगा, एक शाख से दूसरी शाख में अर्थात एक भाई के दूसरे देश माइग्रेशन पर यह पद दूसरे भाई या उसके परिवार (खानदान) के अन्य सदस्यों को हस्तानांतरित हो जाएगा। मतलब पहली शर्त यह कि ख्वाजा साहब का वंशज हों, और दूसरी यह कि वह भारत का नागरिक हो। तभी वो इस पद पर पदासीन हो सकता है।

उनकी यह प्रतिक्रिया बिलकुल सटीक है। उनका यह तर्क अकाट्य है कि पाकिस्तान माइग्रेशन पर उनकी सिविल डेथ हो चुकी है, मतलब भारतीय संविधान और कानून के तहत मिलने वाले उनके समस्त अधिकार समाप्त हो चुके हैं।

कुछ अन्य ने मुझे फोन करके प्रतिक्रिया दी कि जो भी सज्जन पाकिस्तान में रह कर अपने आप को ख्वाजा साहेब का सज्जादानशीन जाहिर कर रहे हैं, उसके पीछे जो भी तर्क हो, मगर चूंकि ख्वाजा साहब की दरगाह अजमेर में है, और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तहत जनाब जेनुल आबेदीन अली साहब बतौर दीवान अपने कर्तव्यों को अंजाम दे रहे हैं, इस कारण सज्जादानशीन वे ही कहलाएंगे। ज्ञातव्य है कि कोर्ट ने दीवान को मान्यता उनके ख्वाजा साहब के निकटतम संबंधी होने के नाते ही दी है। भारतीय संविधान के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट का फैसला अंतिम है, उससे ऊपर कोई नहीं है। यदि कोई विदेश जा कर स्वयं को उत्तराधिकारी करार देता है तो उसका भारतीय संविधान व सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रोशनी में कोई महत्व नहीं है। 

कुल जमा प्रतिक्रियाओं का निष्कर्ष ये है कि उन्हें पाकिस्तान में रहने वाले सज्जन को सज्जादानशीन कहलाने पर ऐतराज है। उनका तर्क ये है कि यदि उनके पूर्वज सज्जादानशीन पद पर रहना चाहते थे, दीवान रह कर ख्वाजा साहब की दरगाह में जरूरी रसूमात अंजाम देना चाहते थे, तो उन्हें भारत में रहना चाहिए था, पाकिस्तान क्यों चले गए? पाकिस्तान जाने के साथ ही भारतीय संविधान के मुताबिक उनका दावा समाप्त हो गया था। 

वस्तुत: यह मसला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाया जाना चाहिए था, मगर संभवत: ख्वाजा साहब की महानता और उनके प्रति करोड़ों लोगों की श्रद्धा को ख्याल में रख कर महत्वपूर्ण दीवान पद की गरिमा का ख्याल में रखते हुए व्यर्थ का विवाद आरंभ करने से बचा गया है, मगर इसका परिणाम ये है कि पाकिस्तान में ख्वाजा साहब के सज्जादानशीन होने का सम्मान पाया जा  रहा है। 

इस मसले के दो पहलु हो सकते हैं। एक धार्मिक आस्था और दूसरा कानून। किसी की भी धार्मिक आस्था का सम्मान किया जाना चाहिए, मगर कानून सबसे ऊपर है। यहां मैं यह साफ करना वाजिब समझता हूं कि ये मुद्दा उठाने के पीछे दीवान साहेब या खुद्दाम हजरात की शान में गुस्ताखी करना नहीं, बल्कि एक पहलु को सामने लाना मात्र था।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

1 टिप्पणी:

  1. Relevant Para’s of Supreme Court Judgment 1987.

    On October 23, 1975, the plaintiff died. His son Syed Zainul Abedin Ali Khan was brought on record in the pending Special Appeal before the Division Bench of the High Court. On March 7, 1980 Division Bench dismissed the Special Appeal affirming the judgment of learned single judge. Following that judgment, the Government again issued a communication dated January 24, 1981 recognising Syed Zainul Abedin Khan as Sajadanashin.

    It is clear, therefore, that the nature of the office and the rule of succession to it always remained undisputed. It was occupied by a hereditary descendant of the Saint. That was perhaps the reason, for not asking the High Power Committee constituted by the Government of India in 1948 to inquire into it. The said Committee was constituted only to enquire into the mal-administration of the Durgah and suggest remedies in the interests of devotees. The question of succession to the office of Sajadanashin was expressly kept outside its purview. It would be evident if one peruses the terms of reference made to the High Power Committee.
    The Government of India had also recognised that Sajadanashin has always been a descendant of the Saint and that position should not be disturbed. This has been reflected from the speech of the Home Minister in the Parliament while piloting the Khawaja Saheb Bill which later became the DKS Act. This is what the Home Minister stated: Lok Sabha Debate Pt. II Vol. V 25th July-13 Aug, 1985, p. 9391.
    "So far as Sajadanashin is concerned he is a religious office. He is the descendant of the Khawaja Sahib and therefore his position should be kept as it is and that position is not affected at all. Because he deals with the rituals he deals with the spiritual side of management and so far as that is concerned, it is entirely left to him"
    Against this background, it was not illogical or improper for parties to the suit to proceed on the basis that the hereditary office of Sajadanashin is entitled to be claimed by descendants of the Saint by the rule of primogeniture. They have stated the obvious which appears to have been recognised
    over the generations. If there was no such rule or principle, the Durgah Committee ought to have stated so. Or it could have stated that it was not bound to follow the customary rule of succession. It could have asserted its right to make a choice of its own. It did not state anything of the kind in the Courts below. It maintained a golden rule of silence. It is, therefore, now not open to the Durgah Committee to contend before us that it is not bound by the decision of the Courts. The Durgah Committee is as much a party to the suit as others. It is as much bound by the decision
    PEERZADA GHULAM NAJMI FAROOQI CHISHTY
    GOVT .ADVOCATE
    AND ADDITIONAL PUBLIC PROCECUTAR ..AJMER

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