गुरुवार, 10 सितंबर 2020

श्रीमद्भागवत कथा में तोता क्यों रखा जाता है?


हालांकि आकाश में स्वछंद विचरण करने वाले किसी पक्षी को पिंजरे में कैद रखना उचित प्रतीत नहीं होता, लेकिन हमारे यहां तोते को पालने का प्रचलन रहा है। उसे शुभ माना जाता है। चूंकि तोते की आवाज मीठी होती है और वह राम-राम जैसे कुछ शब्द आसानी से सीख लेता है, इस कारण कुछ लोग मनोविनोद के कारण उसे पालते हैं। शौक में कई लोग रंग-बिरंगी चिडिय़ाएं यथा लव बर्ड्स भी पालते हैं।

आपने देखा होगा कि जहां भी श्रीमद्भागवत कथा होती है तो वहां पर तोता रखा जाता है। अगर तोता उपलब्ध न हो तो कथा स्थल के मुख्य द्वार पर कार्ड बोर्ड का बना तोता टांगा जाता है। मैने स्वयं ने कई जगह ऐसा देखा है। स्वाभाविक रूप से यह जिज्ञसा होती है कि आखिर ऐसा क्यों किया जाता है?

पौराणिक जानकारी के अनुसार जैसे बंदर में हनुमान जी की उपस्थिति मानी जाती है, उसी प्रकार तोते को शुकदेव जी का प्रतिनिधि माना जाता है। ज्ञातव्य है कि शुकदेव जी ने राजन परीक्षित को श्रीमद्भागवत कथा सुनाई थी। शुकदेवजी का जन्म व्यासजी की पत्नी पिंगला के गर्भ से हुआ था, जिनके पेट में वह तोता 12 साल तक रहा था। उसने हिमालय की गुफा में उस वक्त  कथा सुन ली थी, जब भगवान शंकर पार्वतीजी को यह कथा सुना रहे थे और इस दौरान पार्वती जी को निद्रा आ गई। स्वयं भगवान शंकर के श्रीमुख से कथा के दस स्कंध सुनने के कारण तोते की महिमा हो गई। तोते को शुक भी कहा जाता है।

ऐसी मान्यता है कि तोते की मौजूदगी के बिना व्यास कथा का महत्व नहीं रहता। तोते को आसन दे कर उसकी पूजा किए बिना श्रीमद्भागवत कथा मान्य ही नहीं है। हालांकि कथा करने वाले को कथा व्यास की पदवी होती है, मगर तोते की मौजूदगी के बिना वह कथा फल प्रदान नहीं करती।

प्रसंगवश बता दें कि पक्षियों में तोता ऐसा पक्षी है, जो कि मनुष्य की तरह बोल सकता है, अगर उसे प्रशिक्षित किया जाए। वैज्ञानिकों के अनुसार तोते के मस्तिष्क का सेरीब्रम पार्ट काफी विकसित होता है, इसी कारण उसे मनुष्य की बोली का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। 


-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

बुधवार, 9 सितंबर 2020

ओशो के प्रभाव से पत्रकार मित्र का सांसारिक जीवन बेकार हो गया

मैं जब नागौर में कॉलेज लाइफ जी रहा था, तब मेरे एक घनिष्ठ मित्र  थे महेन्द्र पाल व्यास। कोई दस साल पहले नागौर जाना हुआ, तब उनके दीदार हुए थे, अब किस हाल में हैं कुछ नहीं पता। हालांकि ओशो के प्रभाव व अत्यधिक दार्शनिकता के कारण उनका सांसारिक जीवन लगभग बेकार हो गया, मगर मुझे एक सीख जरूर मिल गई। किसी में ज्ञान की अधिकता और सांसारिक व्यवस्थाओं के बीच अगर तालमेल न हो तो उसका जीवन कैसा बेकार सा हो जाता है, इसका साक्षात अनुभव उनसे मिला।

असल में वे मूलत: दार्शनिक थे। बहुत अध्ययन करते थे। ओशो को तो उन्होंने बहुत पढ़ा। हिंदी भाषा पर गजब का कमांड। अच्छे वक्ता भी। कॉलेज टाइम में ही पत्रकारिता आरंभ की। दैनिक नवज्योति के लिए नागौर से खबरें भेजा करते थे। उन दिनों मैं भी पत्रकारिता आरंभ कर चुका था। लाडनूं से प्रकाशित लाडनूं ललकार पाक्षिक का सहायक संपादक रहा। इसके अतिरिक्त जयपुर से प्रकाशित दैनिक अरानाद व दैनिक अंबर को खबरें भेजा करता था। हम बहुत अच्छे मित्र थे। लगभग रोजाना मिलते थे। अनेकानेक विषयों पर चर्चा किया करते थे। विशेष रूप से ओशो पर। मेरा भी ओशो पर बहुत अध्ययन था। फर्क सिर्फ इतना था मैंने तो ओशो को जाना मात्र, जबकि वे उसमें ही डूब गए। नजीतजन असामान्य हरकतें करने लगे। एक बार अपना नाम बदल कर मुस्लिम नाम रख लिया। कुछ दिन तक हाथ में तिरंगी छड़ी लेकर घूमते थे। कभी अंगूठे के नाखून पर तिरंगी नेल पॉलिश लगाते थे। खैर, थे बहुत अच्छे बुद्धिजीवी। तक मैं सोचा करता था कि यह आदमी एक दिन जरूर नाम कमाएगा। मगर हुआ उसका उलटा। नागौर छोडऩे के कोई दस साल बाद एक बार नागौर जाना हुआ। मैंने उनका पता किया। वे कलेक्ट्रेट के बाहर जमीन पर चटाई बिछा कर लोगों के हाथ देख रहे थे। मुफलिसी के दौर से गुजर रहे थे। मात्र पांच रुपए में उन्होंने मेरा भी हाथ देखा। कुछ मित्रों से उनके बारे में पूछा तो पता लगा कि दार्शनिकता इतनी अधिक सवार हो गई थी कि न तो रोजगार के लिए कुछ किया और पारिवारिक जीवन पर भी ध्यान नहीं दिया। मुझे बहुत अफसोस हुआ। जिस शख्स में अपार संभावनाएं थीं, वह ज्ञान के अतिरेक में तिरोहित हो गईं। वस्तुत: ज्ञान का बोझ वे सहन नहीं कर पाए। हालत ऐसी हो गई, जैसा वेदांत को जान कर उसी में डूब जाने वालों की होती है। बेशक वेदांत वेदों का सार है, बहुत गहरा ज्ञान, मगर माना जाता है कि जो भी वेदांत को जीवन में अपना लेता है, वह अकर्मण्य हो जाता है। हो ही जाएगा। उसे पेड़, पशु-पक्षी, पत्थर में भी ईश्वर का भान होता है। उसका पूरा व्यवहार भिन्न हो जाएगा। ऐसे में भौतिक जगत में वह मिसफिट हो जाएगा। कमोबेश यही हालत मेरे उस अति विद्वान मित्र की हो गई। 

असल में दुनियाभर में अपने क्रांतिकारी प्रवचनों के कारण प्रसिद्ध ओशो को समझना बहुत मुश्किल है। आम आदमी तो उनकी पुस्तक एक पन्ना तक नहीं समझ सकता। भाषा बहुत सामान्य, मगर निहितार्थ इतने गहरे होते हैं, कि कई लोगों के सिर के ऊपर से गुजर जाते हैं। मेरी समझ में उनके जैसा ज्ञानी व तार्किक अब तक तो दूसरा नहीं हुआ। उन्होंने जीवनभर परंपराओं और व्यवस्थाओं का अतिक्रमण किया। बहुत अति दुस्साहपूर्ण तर्क दिए। इस कारण विवादास्पद भी खूब हुए। वे जिस तरह की बातें करते थे, अगर आदमी उन पर हूबहू चलने की कोशिश करेगा तो दुनिया की व्यवस्थाओं के साथ चल ही नहीं सकता। समझने वाले जानते हैं कि उन्होंने जो तर्क दिए हैं, वे कभी काटे नहीं जा सकते, अकाट्य हैं, जो दृष्टि दी, वह सत्य के बिलकुल करीब है, मगर चूंकि दुनिया उनसे बिलकुल उलट है, उसको स्वीकार करने को तैयार नहीं है, इस कारण उन पर चलने वाला मिसफिट हो ही जाएगा। मुझे बेहद अफसोस है कि मेरे मित्र ने ओशो के ज्ञान का संतुलित उपयोग नहीं किया, नतीजतन उनका सांसारिक जीवन बेकार सा हो गया। जो शख्स बहुत नाम कमा सकता था, वह गुमनामी में खो गया। इसमें दोष ओशो का नहीं। वे सदैव करते रहे कि मेरा अनुकरण या अनुसरण न करें, स्वविवेक से निर्णय करें। मगर मेरे मित्र एक और ओशो बनने के प्रयास में सामान्य मानव व्यवहार को ही भूल बैठे।

यद्यपि इस दुनिया का जितना भी ज्ञान है, वह दर्शन की ही देन है, मगर दार्शनिक कई बार दुनिया में हंसी का पात्र बन जाता है। उनकी खिल्ली उड़ती है। जैसे एक दार्शनिक एक बार एक गांव में गया। उसने देखा कि दीवारों पर गाय का गोबर थापा हुआ है। आम गंवार भी समझ सकता है कि वे कंडे हैं, मगर वह दार्शनिक सोच में डूब गया कि गाय ने आखिर किस प्रकार खड़े हो कर दीवार पर गोबर किया है?

इसी के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं। मुझे तो मेरे मित्र ने यही सीख दी है कि निखालिस ज्ञान अर्थात सार व संसार के बीच तालमेल होना ही चाहिए।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

बेमिसाल डॉक्टर एन. सी. मलिक का एक और दिलचस्प प्रसंग


मैं हूं अजमेर के हृदयस्थल नया बाजार की गोल प्याऊ। हर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक हलचल के केन्द्र इस बाजार में होने वाली हताई, सुगबुगाहट व गप्पबाजी की गवाह। गर कहें कि यही नब्ज है अजमेर की तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शहर में पत्ता भी हिले तो उसकी खबर यहां पहुचंती है। सियासी गणित की गणना यहीं पर होती है। यहीं से हवा बनती है। ऐसे अनेक किस्से मेरे जेहन में दफ्न हैं। पेश है ये किस्सा-


मैं राजेन्द्र प्रसाद शर्मा हूं। मेरा छोटा भाई जगदम्बा प्रसाद, जो कि दिल्ली में रहता है, दिसंबर 1995 में बीमार रहने लगा। हम उसे अजमेर इलाज के लिए लेकर आए। तबीयत उसकी काफी ज्यादा खराब थी। जे एल एन हॉस्पिटल में उसे भर्ती करवाया गया। उसका इलाज बहुत ही कुशल डॉक्टर्स की टीम द्वारा किया जा रहा था। उसको भर्ती हुए पच्चीस दिन से भी ज्यादा समय  हो गया था। 

राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

उस वार्ड में रेजिडेंट डॉक्टर दीपक थे, जो की एक नेक इंसान थे। मैने एक दिन निश्चय किया कि क्यों न इस बारे में डॉक्टर मलिक साहब से सलाह ली जाए। मैं पूरे पेपर्स की फोटो कॉपी करवा कर मलिक साहब के पास गया। उन्होंने सारे पेपर्स देखे और बोले कि ये क्या कोई केमिकल से संबंधित काम करता है। मैने बताया कि पहले वह बिरला टैक्सटाइल में कार्य करता था और वहां इसके विभाग में कलर मिक्सिंग का काम होता था। इस पर वे बोले कि इसको टीबी बताई गई है, जबकि कलर की फ्यूम्स इसके लंग्स में जम गई है। इसको जब तक इन दवाओं के साथ कार्टीसोरोन नहीं दोगे, तब तक ये ठीक नहीं होगा। मैने कहा कि सर, मैं वहां से डिस्चार्ज करवा कर आपसे इलाज करवा लूं। उनका जवाब था कि नहीं पेशेंट को इस कंडीशन में हॉस्पिटल में होना जरूरी है। बहरहाल वार्ड के रेजीडेंट डॉक्टर दीपक को कह कर दूसरे दिन कार्टीसोरोन चालू की गई और तीन-चार दिन में तबीयत में सुधार होना चालू हो गया। इस तरह बिना पेशेंट को देखे उन्होंने अपने अनुभव से इलाज में मदद की।

अगर आपका भी कोई अनुभव हो या आपको कोई पुराना किस्सा याद हो तो मुझ से संपर्क कर सकते है।-

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

रविवार, 6 सितंबर 2020

श्राद्ध में पूर्वज की पसंदीदा वस्तुएं क्यों अर्पित नहीं की जातीं?

क्या मृतात्मा तक भोजन पहुंचता है?

हिंदू धर्म में मान्यता है कि मनुष्य की मृत्यु हो जाने पर पुनर्जन्म होता है। अर्थात एक शरीर त्यागने के बाद आत्मा दूसरा शरीर ग्रहण करती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब हमारे किसी पूर्वज की आत्मा मत्योपरांत कहीं और, किसी और शरीर में होती है तो श्राद्ध के दौरान हम उन्हें पंडित के माध्यम से जो भोजन अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंच सकता है? उनके स्वयं आ कर भोजन ग्रहण करने का तो सवाल ही नहीं उठता। बावजूद इसके हम जब श्राद्ध करते हैं तो पंडित को उतना ही सम्मान देते हैं, जितना पूर्वज को। वस्तुत: हम पंडित में हमारे पूर्वज की उपस्थिति मान कर ही व्यवहार करते हैं। भोजन अर्पित करने के विषय से हट कर बात करें तो भी इस सवाल का क्या उत्तर है कि उन्हें हम जो याद करते हैं अथवा श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, वह उन तक कैसे पहुंचती होगी?


इससे जुड़ी एक बात और। क्या किसी ने अनुभव किया है कि पूर्व जन्म में वह क्या था, कहां था? वस्तुत: प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि वह पूर्व जन्म की सारी स्मृतियों को लॉक कर देती है। वह उचित भी है। अन्यथा सारा गड़बड़ हो जाएगा। स्मृति समाप्त हो जाने का स्पष्ट मतलब है कि हमारा पूर्व जन्म से कोई नाता नहीं रहता। तब सवाल ये उठता है कि क्या हमें भी हमारे पूर्वजन्म के परिजन की ओर से किए जा रहे श्राद्ध कर्म का अनुभव होता है? क्या किसी ने अनुभव किया है कि श्राद्ध पक्ष के दौरान किसी तिथी पर पूर्व जन्म के परिजन हमें भोजन करवा रहे हैं? क्या कभी हमने अनुभव किया है कि बिन भोजन किए ही हमारा पेट भर गया हो? यदि हमारा कोई श्राद्ध रहा है तो ऐसा होना चाहिए, मगर होता नहीं है। 

वाकई गुत्थी बहुत उलझी हुई है। अब चूंकि शास्त्र के अनुसार श्राद्ध पक्ष माना जाता है, श्राद्ध कर्म किया जाता है, तो जरूर इस व्यवस्था के पीछे कोई तो विज्ञान होगा ही। हजारों से साल ये यह परंपरा यूं ही तो नहीं चली आ रही। इस बारे में अनेक पंडितों व विद्वानों से चर्चा की, मगर आज तक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाया है। हद से हद ये उत्तर आया कि भोजन पूर्वज तक पहुंचता हो या नहीं, मगर श्राद्ध के बहाने हम अपने पूर्वजों को याद करने, उनके प्रति सम्मान प्रकट करने और उनकी बताई गई अच्छी बातों का अनुसरण करने के लिए पखवाड़ा मनाते हैं।

इस बारे प्रसिद्ध मायथोलॉजिस्ट श्री देवदत्त पटनायक का अध्ययन बताता है कि मृत्यु के बाद शरीर का एक हिस्सा, जो उसके ऋणों की याद है, जीवित रहता है। वह हिस्सा वैतरणी पार कर यमलोक में प्रवेश करता है। वहां पितर के रूप में रहता है। यदि वह वैतरणी पार नहीं कर पाता तो प्रेत बन कर धरती लोक पर रहता है और तब तक परेशान करता है, जब तक कि उसका वैतरणी पार करने का अनुष्ठान पूरा नहीं किया जाता। 

वे बताते हैं कि हर पूर्वज के लिए हर साल उसकी पुण्यतिथी पर अनुष्ठान करना संभव नहीं है, इसलिए श्राद्ध पक्ष का निर्धारण किया गया। इस काल में मृतक जीवित लोगों के सबसे करीब होता है। 

उन्होंने एक बहुत दिलचस्प बात भी कही है। वह ये कि हम पूर्वजों को याद तो करते है, सम्मान भी देते हैं, मगर साथ ही डरते भी हैं, उन्हें बहुत सुखद भी अनुभव नहीं करने देते, अन्यथा वे फिर प्रेत बन कर धरती लोग पर आ सकते हैं। 

हालांकि उन्होंने इसका खुलासा नहीं किया है कि उन्हें कैसे सुखद अनुभव नहीं होने देते, मगर लगता ऐसा है कि श्राद्ध के दौरान सामान्य दाल-चावल का भोजन इसीलिए दिया जाता है। विभिन्न स्वादिष्ट व्यंजन नहीं खिलाते कि कहीं वह फिर आकर्षित हो कर पितर लोक छोड़ कर न आ जाएं। 

कई बार मुझे ख्याल आया है कि अगर हम अपने पूर्वजों का बहुत सम्मान करते हैं, उन्हें सुख पहुंचाना चाहते हैं तो पंडित को वह भोजन करवाना चाहिए, जो कि हमारे पूर्वज को अपने जीवन काल में प्रिय रहा हो। यथा हमारे किसी पूर्वज को शराब, बीड़ी, मांसाहार आदि पसंद रहा हो तो, हमें वहीं अर्पित करना चाहिए। मगर ऐसा नहीं करके सादा भोजन परोसते हैं।  मेरी इस शंका का समाधान श्री पटनायक की जानकारी से होता है, अगर उनका अध्ययन सही है तो।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

शनिवार, 5 सितंबर 2020

बेमिसाल डॉक्टर एन. सी. मलिक के कुछ और दिलचस्प प्रसंग


 मैं हूं अजमेर के हृदयस्थल नया बाजार की गोल प्याऊ। हर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक हलचल के केन्द्र इस बाजार में होने वाली हताई, सुगबुगाहट व गप्पबाजी की गवाह। गर कहें कि यही नब्ज है अजमेर की तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। शहर में पत्ता भी हिले तो उसकी खबर यहां पहुचंती है। सियासी गणित की गणना यहीं पर होती है। यहीं से हवा बनती है। ऐसे अनेक किस्से मेरे जेहन में दफ्न हैं। पेश है ये किस्सा-

आजकल छोटी से छोटी बीमारी का इलाज भी बिना टेस्ट के नहीं होता। एक जमाना था जब हमारे यहां के वैद्य नाड़ी देख कर बीमारी का पता लगा लेते थे। ऐसे में अगर कोई डॉक्टर बीमार की दास्तां सुन कर इलाज कर दे तो उसे क्या कहेंगे? बेशक, ऐसे डॉक्टर को लंबे अनुभव से शरीर विज्ञान की गहरी समझ हो गई होगी। ऐसे अनुभवी और बेमिसाल डॉक्टर थे डॉ. एन. सी. मलिक। उनके बारे में एक किस्सा शहर के बुद्धिजीवियों में कहा-सुना जाता रहा है।

डॉक्टर मलिक से जुड़े कुछ प्रसंग पिछले ब्लॉग में आपसे साझा किए थे। हाल ही उनके सुपुत्र जाने-माने इंटरनेशनल टेबल टेनिस अंपायर श्री रणजीत मलिक ने डाक्टर साहब के बारे में कुछ और जानकारियां भेजी हैं, जो कि उनको द संस्कृति स्कूल में कार्यरत श्री राजेन्द्र प्रसाद शर्मा ने उनसे साझा कीं। श्री शर्मा की ही लेखनी में संस्मरण हूबहू आपके समक्ष प्रस्तुत है:-

राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

1. यह घटना 1976 की है। उस समय मेरे पिताजी की पोस्टिंग पुलिस हॉस्पिटल में कंपाउंडर के पद पर थी। एक सज्जन, जो कि शास्त्री नगर में रहते थे, की वृद्ध माताजी अस्वस्थ चल रही थीं। उस समय के अच्छे फिजीशियन डॉक्टर आर. एन. माथुर का इलाज चल रहा था। उसके तहत उनके ड्रिप पिताजी द्वारा लगाई जा रही थी। दो दिन तक ड्रिप बराबर चली, लेकिन तीसरे दिन उनको जबरदस्त रिएक्शन हो गया। पिताजी के पास जो भी एंटी डोज थे, वो देकर हालत को काबू किया गया। साथ ही उनको सलाह दी कि वे डॉक्टर माथुर को दिखाएं। उन्होंने भी एंटी रिएक्शन का जो भी ट्रीटमेंट था, वो दिया, लेकिन उनकी हालत में सुधार नहीं हुआ। फिर उन्होंने डॉक्टर एम. एस. माथुर, जो कि अच्छे फिजिशियन माने जाते थे, से इलाज करवाया, लेकिन फिर भी रिएक्शन खत्म नहीं हुआ। आखिर एक दिन वो पापा से सलाह करने आए। पापा ने उनको सलाह दी कि वो डॉक्टर मलिक साहब को दिखाए। उस समय डॉक्टर साहब हरिनगर, शास्त्री नगर में निवास करते थे। डॉक्टर साहब अपने डेकोरम का पूरा ध्यान रखते थे। डॉक्टर साहब से जब उन सज्जन ने घर पर चल कर देखने को कहा तो डॉक्टर साहब ने उनसे अपने डेकोरम के अनुसार टैक्सी लेकर आने को कहा। उन दिनों शहर में गिनी-चुनी टैक्सी हुआ करती थी। टैक्सी लाई गई। डॉक्टर मलिक साहब ने पेशेंट को देख कर एनाल्जिन लिख कर दी। पहले दिन, दिन में तीन बार, दूसरे दिन दो बार व तीसरे दिन एक बार देकर बंद करने की हिदायत दी। साथ ही कहा कि सिर्फ एनाल्जिन ही देनी है, उसका कोई भी सब्सीट्यूट नहीं होना चाहिए। उन सज्जन ने अपना सिर पीट लिया और यह सोच कर तीन दिन तक गोली नहीं दी कि मेरी मां को कोई जुकाम-बुखार-बदन दर्द थोड़े ही है। तीसरे दिन वो पापा के पास झगड़े के मूड से आए कि उन्होंने कहाकि कैसा अच्छा डॉक्टर बतलाया, जो इतना उनका खर्चा भी करवा दिया और दवा के नाम पर केवल एनाल्जिन दे दी। पापा ने उनको समझाया कि अगर मलिक साहब ने लिखी है तो सोच समझ कर लिखी है, वो देकर तो देखें। दूसरे दिन से एनाल्जिन चालू की गई और उनको आश्चर्य तब हुआ जब पहले दिन ही रिएक्शन का आधा असर खत्म हो गया और वो माताजी तीन दिन एनाल्जिन लेकर बिल्कुल स्वस्थ हो गईं।


2. यह घटना 1959 की है। मेरे पिताजी अभी का जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय, जो कि तब विक्टोरिया हॉस्पिटल हुआ करता था, में कंपाउंडर के पद पर कार्यरत थे। उस समय उनके पास हॉस्पिटल के स्टोर का चार्ज था। स्टोर की ऑडिट करने के लिए टीम आई हुई थी। एक दिन टीम के इंचार्ज ने पापा को बताया कि उनके बहुत तेज घबराहट, बेचैनी आदि हो रही है और ये समस्या उनको पिछले काफी सालों से है। उन्होंने कई डॉक्टर्स को दिखा कर इलाज लिया, लेकिन फर्क नहीं पड़ा। पिताजी ने उनसे कहा कि वे घबराए नहीं दोपहर में डॉक्टर मलिक अपने चेंबर में आएंगे, तब उनको दिखा देंगे। डॉक्टर मलिक उस समय विक्टोरिया हॉस्पिटल के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे। डॉक्टर मलिक साहब को दिखाया गया। उन्होंने केवल उनसे उनकी मेडिकल हिस्ट्री पूछी और पिताजी से बोले इनका यूरीन टेस्ट करवा कर लाओ। यूरीन टेस्ट की रिपोर्ट ले जा कर दिखाई तो वे बोले पेट का एक्सरे करवा कर लाओ। एक्सरे की रिपोर्ट देखने के साथ ही डॉक्टर मलिक बोले, मरना चाहता है क्या, ये इतना बड़ा स्टोन पेट में लेकर क्यों घूम रहा है, इसका जल्द से जल्द ऑपरेशन करवाओ। जब वह सज्जन पेट संबंधी कोई बीमारी नहीं बता रहे थे, कई एक्सपर्ट डॉक्टर्स से इलाज ले चुके, लेकिन कोई भी ठीक से डायग्नोस नहीं कर पाया। ऐसे जानकार डॉक्टर थे मलिक साहब।

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

...तो वैज्ञानिकों की पूजा क्यों नहीं होनी चाहिए?


हाल ही मेरे एक मित्र ने मेरे सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जिसने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया। उनकी बात तर्क के लिहाज से ठीक प्रतीत होती है, मगर होना क्या चाहिए, इस पर आप सुधि पाठक विचार कर सकते हैं।

सवाल है कि सुखी रहने के लिए हम देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। उनके चित्रों-मूर्तियों के आगे दिया-बत्ती, अगरबत्ती जलाते हैं, मगर जिन वैज्ञानिकों ने हमारी जिंदगी में भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए एक से बढ़ कर एक अविष्कार किए, उनकी पूजा तो दूर, याद तक नहीं करते। उनके सवाल में तनिक नास्तिकता झलकती है, वो इसलिए कि उन्होंने जिस ढ़ंग से सवाल किया, वह ऐसा आभास देता है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि पंक्चर ठीक करने वाला एक दुकानदार सुबह दुकान खोलने पर किसी न किसी देवता के आगे अगरबत्ती जलाता है, इस उम्मीद में कि उसकी रोजी-रोटी ठीक से चले। पता नहीं, अगरबत्ती करने से ऐसा होता भी है या नहीं, पता नहीं, क्योंकि बावजूद पूजा के उसके जीवन में कष्ट होते ही हैं। सुख के साथ सारे दु:ख भी भोगता है। कोरोना महामारी में लॉक डाउन के दौरान सभी देवी-देवताओं के मंदिरों के पट बंद हो गए। वे पूजा-अर्चना से वंचित रह गए। वे महामारी के असर से अपने आपको नहीं बचा पाए। इसके आगे वे कहते हैं कि वह दुकानदार ऐसे ही देवी-देवता के आगे अगरबत्ती करता है, मगर जिन वैज्ञानिकों के अविष्कारों के बदोलत वह पंक्चर ठीक कर पाता है, उनका उसे ख्याल ही नहीं। जिन विज्ञान ऋषियों के सदके उसकी रोजी-रोटी चलती है, उनका उसे कोई स्मरण ही नहीं। जिस वैज्ञानिक ने बिजली की खोज की, जिस वैज्ञानिक ने प्रेशर पंप बनाया, क्या उसके चित्र के आगे उसे अगरबत्ती नहीं करनी चाहिए? उसके मन में ये विचार क्यों नहीं आता कि जिन वैज्ञानिकों के कारण उसकी आजीविका चल रही है, उनका चित्र लगा कर भी अगरबत्ती कर दे। सच तो ये है जिन वैज्ञानिकों ने विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, उसी की बदोलत में हमारे जीवन में सारे भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन मौजूद हैं। जिस प्रकार ज्ञान के भंडार वेदों की ऋचाएं किसी एक ऋषि ने नहीं लिखी, एक लंबी शृंखला है ऋषियों की। उनकी वजह से ही हमें आध्यात्मिक समझ है। ठीक उसी प्रकार वैज्ञानिकों की भी एक लंबी शृंखला है, जिन्होंने उत्तरोत्तर नई नई खोजें कीं। सुख-सुविधाओं के साधनों के नाम पर आज क्या नहीं है हमारे पास।

बहरहाल, मेरे मित्र का सवाल सीधे-सीधे तो मेरे गले नहीं उतरा, क्योंकि देवी-देवता अपनी जगह हैं, वैज्ञानिक अपनी जगह। वस्तुत: देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना आस्था का सवाल है। हमें यकीन है कि हमारे शास्त्रों में जो कुछ भी बताया गया है, वह सही है। कई लोगों ने अनुभव भी किया होगा कि देवी-देवता आराधना, पूजा-अर्चना करने पर वे फल देते हैं। अत: उस पर तो सवाल बनता ही नहीं। हां, ये ठीक है कि जिन वैज्ञानिकों ने वास्तव में प्रत्यक्षत: हमारे जीवन में सुख के साधन जुटाएं हैं, वे भी सम्मान के पात्र हैं। जब हम अपने पूर्वजों, अपने नेताओं की मूर्तियों के आगे हर साल जयंती व पुण्य तिथी पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो वैज्ञानिकों को क्यों नहीं श्रद्धा के साथ याद करना चाहिए? क्या उनके नाम भी एक दिया नहीं बनता?

-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

बुधवार, 2 सितंबर 2020

उबासी आने पर चुटकी क्यों ली जाती है?


उबासी व जम्हाई एक सामान्य शारीरिक क्रिया है। हर किसी को आती है उबासी। उसके अपने कारण हैं, लेकिन कई लोग उबासी आने पर होंठों के आगे चुटकी बजाते हैं। संभव है, इसकी आपको भी जानकारी हो। आप भी चुटकी बजाते हों। मगर ये चुटकी क्यों ली जाती है, उसका ठीक-ठीक क्या कारण है, यह ठीक से नहीं पता। जाहिर तौर पर उबासी ऊब, थकावट या नीरसता अनुभव होने का संकेत है। हो सकता है ऊब मिटाने के लिए चुटकी ली जाती हो। यह भी हो सकता है कि ऐसा इसलिए भी किया जाता हो कि उबासी के दौरान मुंह खुला रहने के दौरान कोई मक्खी-मच्छर श्वास के साथ भीतर न प्रवेश कर जाए।

बहरहाल उबासी के दौरान चुटकी लेने का एक प्रसंग रामायण में आता है। जरा इस पर बात कर लेते हैं।

वस्तुत: भक्त हनुमान द्वारा भगवान राम की निरंतर सेवा से सीता जी, भरत, लक्ष्मण आदि ईष्र्या करने लगे थे। भगवान राम के राज्याभिषेक के बाद सब कुछ आनंद से चल रहा था। हनुमान जी भी अयोध्या में ही रह कर भगवान राम की सेवा करते थे। हर वक्त, यहां तक शयन कक्ष में भी हनुमान सेवा में उपस्थित रहते थे। ईष्र्यावश सीता जी, भरत व लक्ष्मण ने एक योजना बनाई, ताकि हनुमान को सेवा से दूर रखा जा सके। राम दरबार में भरत ने राम की ओर से एक आदेश सुनाया। इसके तहत उन्होंने शयन कक्ष में सिर्फ सीता जी के, दरबार में भरत जी के और भोजन और भ्रमण के दौरान लक्ष्मण जी ने सेवा के अधिकार ले लिए। हालांकि भगवान राम ने हनुमान के लिए सेवा के लिए कुछ न छोडऩे पर संशय किया था, मगर सब टाल गए। अपने लिए सेवा का अवसर न बचने पर हनुमान हनुमान गढ़ी में दुखी हो कर रोने लगे। अपनी सेवा में हनुमान जी को न पाकर श्रीराम का भी मन नहीं लगा, तब उन्होंने हनुमान का पता करवाया और उनको बुलावा भेजा। हनुमान के दु:ख कारण जान कर भगवान राम ने उनसे सेवा को कोई मौका मांगने को कहा। चतुर हनुमान ने भगवान राम को उबासी आने पर चुटकी बजाने की सेवा मांगी। भगवान राम ने स्वीकृति दे दी। हनुमान से ईष्र्या करने वाली मंडली को यह बहुत ही सामान्य सी सेवा लगी, सो उन्होंने कोई ऐतराज नहीं किया। लेकिन इस सेवा के बहाने हनुमान हर पल भगवान राम के साथ ही रहने लगे। पता नहीं कब उबासी आ जाए और उन्हें चुटकी बजानी पड़े। एक दिन रात में सीता जी ने हनुमान को शयन कक्ष से बाहर भेज दिया। भगवान राम ने उबासी ली, और उनका मुंह खुला का खुला रह गया। यह स्थिति देख कर सभी घबरा गए। किसी को कुछ नहीं समझ आया कि क्या किया जाए। इस पर हनुमान को बुलवाया गया। उनके चुटकी बजाते ही भगवान राम सामान्य हो गए। है न दिलचस्प प्रसंग।

खैर, उबासी आती क्यों है, इस पर विदुषी निशी खंडेलवाल ने एक विस्तृत आलेख लिखा है। आइये, उसके कुछ अंश जान लेते हैं। 

जानकारी ये है कि हम ही नहीं, बल्कि गर्भस्थ शिशु भी उबासी लेता है। अल्ट्रा साउंड निरीक्षण के दौरान 20 सप्ताह के शिशुओं की गर्भ में उबासिया रिकॉर्ड की गई हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि उबासी का आना हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है और इस पर नियंत्रण कर पाना सम्भव नहीं। रात को सोने से पहले, सुबह उठने के बाद, किसी काम को लगातार करते रहने से, बहुत ज्यादा थकान महसूस होने जाने आदि-आदि परिस्थितियों में सभी के उबासी लेने के अनुभव हैं।

उबासी क्यों आती है, इसका पता लगाने और किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए बहुत-से अध्ययन किए गए हैं। सन् 1986 में महाविद्यालय के कुछ छात्रों पर किए गए प्रयोगों में पाया कि उस समय उबासी ज्यादा आती है, जब छात्रों को बोरियत महसूस होती है। 

एक मान्यता थी कि उबासी तब ली जाती है, जब शरीर को ज्यादा ऑॅक्सीजन की जरूरत होती है, लेकिन मैरीलैण्ड विश्वविद्यालय के डॉ. रॉबर्ट प्रॉविन द्वारा किए गए अध्ययनों ने अन्तत: इस धारणा को खारिज कर दिया। 

ऐसा माना जाता है कि थके होने पर उबासी ज्यादा आती है। यह देखा जाता है कि अक्सर उबासी नींद आने की स्थिति में आती है। व्यावहारिक अध्ययन भी लगातार यह बताते हैं कि सबसे ज्यादा उबासी सोने से पहले और सो कर उठने के समय आती है, क्योंकि इस समय सक्रियता का स्तर बहुत कम होता है। परन्तुु बाद में हुए कुछ प्रयोगों से यह पता चला कि सतर्कता का स्तर अक्सर उबासी के बाद नहीं, उससे पहले बढ़ जाता है और सतर्कता के अन्य सम्भावित कारण भी पाए गए। तो यह परिकल्पना भी बहुत सटीक साबित नहीं हुई।

कई जानवर उबासी लेते हैं - शेर-बिल्ली, कुत्ते-भेडि़ए, बन्दर-वानर, सांप, मछली, चूहे, घोड़े, तोते, पेंग्विन, उल्लू आदि। मनुष्यों की तरह सामाजिक समूहों में रहने वाले जानवरों में किसी को उबासी लेते हुए देख कर अन्य को भी उबासी आ जाती है। इनमें चिम्पैन्ज़ी, बॉनबो और तोते शामिल हैं। शोध से यही पता चला है कि कुत्ते अपने मालिक को उबासी लेते देख खुद उबासी लेने लगते हैं। अर्थात उबासी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में भी फैल सकती है।

1986 में रॉबर्ट प्रॉविन द्वारा उबासी पर अध्ययन अध्ययन किए। इनमें प्रमुख रूप से उबासी को ऑक्सीजन की कमी की आपूर्ति करने हेतु, कान के पर्दे को दबाव से बचाने की जरूरत के लिए, जैव-विकास की प्रक्रिया में बनी एक आदत की तरह या मस्तिष्क के तापमान को सामान्य बनाए रखने के लिए पडऩे वाली एक जरूरत के रूप में समझने-समझाने की कोशिश की गई, लेकिन अब तक किए गए सभी अध्ययन सम्पूर्ण रूप से उबासी की प्रक्रिया की व्याख्या नहीं कर पाए हैं।


-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

जगदीप धनखड अजमेर में एक चूक की वजह से हार गए थे

अज्ञात परिस्थितियों में उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने वाले जगदीप धनखड का नाम इन दिनो सुर्खियों में है। उनको लेकर कई तरह की चर्चाएं हो रही...