कभी भोला नजर आता हूं तो कभी चतुर। षाबाषी दीजिए कि चंट-चालाक-कुटिल नहीं हूं। सज्जन हूं। सदाषयी हूं। दयालु हूं। सहृदय हूं। मदद को तत्पर। कोराना काल में यह साबित कर चुका हूं। कुल जमा बहुत प्यारा हूं। मुझे अपने आप से बहुत प्यार है। जरा गौर करेंगे तो मेरे जैसे अजमेरी लालों के चेहरे आपकी दिमागदानी में घूमने लग जाएंगे। काष मुझे चंबल का पानी पीने को मिल जाए।
शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025
मैं अजमेरीलाल हूं
मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025
क्या सिंधियों के लिए इष्ट देव झूलेलाल की सवारी पल्ले का सेवन उचित है?
https://youtu.be/FCed4_0FczA
सोमवार, 10 फ़रवरी 2025
सिंधियों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल पाएगा?
असल में कोई पच्चीस साल पहले भी सिंधियों को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की कवायद हुई थी। अजमेर में भी काफी हलचल हुई थी। वरिष्ठ वकील व कांग्रेस नेता अशोक मटाई ने गहन अध्ययन किया। बहुत मेहनत की। उन्हें लगता था कि कानूनी लडाई ठीक से लडी जाए तो सिंधियों को अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सकता है, मगर उनको समाज का अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया। जैसे किसी जमाने में जैनियों ने जनगणना के वक्त धर्म के खाने में जैन लिखने की मुहिम चलाई, वैसी सिंधी समाज में नहीं चल पाई। असल में सिंधियों को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की मांग के पीछे यह भाव कत्तई नहीं था कि वे सनातनी हिंदू धर्म से पृथक होना चाहते थे। वे चाहते थे कि विस्थापित होने की त्रासदी के बाद पुनर्स्थापित होने के संघर्ष में सत्ता का सहयोग मिल जाए। जैसे अन्य अल्पसंख्यकों को विशेष परिलाभ हैं, उसी प्रकार अल्प संख्या वाले सिंधियों को भी मिलने चाहिए। हिंदू धर्म की मान्यताओं व परंपराओं का पालन करते हुए उन्हें आर्थिक रूप से सरकारी संबल मिल जाए। अलग दर्जे को ऐसे समझा जा सकता है, जैसे मुसलमान होने के बावजूद खुद्दाम हजरात को अलग दर्जा हासिल है। जैसे हिंदू होते हुए भी तीर्थ पुरोहितों को अलग दर्जा मिला हुआ है। चलो, पाकिस्तान से आने के बाद अलग राज्य, अलग भूभाग नहीं मिल पाया, मगर कम से कम अपने धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने की बिना पर कुछ तो विशेष अधिकार मिल जाएं। कदाचित अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल करने की वजह से ही यह आभास हुआ होगा कि सिंधी सनातन से अलग होना चाहते हैं। भला जो जमात सनातन की रक्षा के लिए अपनी जमीन जायदाद छोड कर भारत आई, यहां नए सिरे से आजीविका का संघर्ष किया, वह सनातन को छोडने की कल्पना भी कैसे कर सकती है?
तस्वीर का दूसरा पहलु यह है कि संविधान के प्रावधानुसार केवल अलग धर्म वालों को ही अल्पसंख्यक घोषित किया जा सकता है। ऐसे में सनातन को मानने वाले सिंधियों को अल्पसंख्यक घोषित किया ही नहीं जा सकेगा। अल्पसंख्यक होने के लिए कानून में जो मापदंड हैं, उन्हें सिंधी पूरा नहीं करते। अलबत्ता सिंधी भाशा व संस्कृति के वाहक सिंधियों का अल्पभाषायी होने का दावा मजबूत बना रहेगा। इसमें कोई दोराय नहीं कि झूलेलाल जी सभी सिंधियों के इष्ट देवता हैं, मगर अल्पसंख्यक होने का यह आधार पर्याप्त नहीं। कोई अलग पंथ बना लें तो बात अलग है। वैसे एक बात है कि अगर सभी सिंधी अपने इष्ट देवता के प्रति एकनिष्ठ हो जाएं तो कम से कम उन्हें अन्य पंथों में जाने से रोका जा सकता है। सच तो यह है कि ज्यादा खतरा यह है कि वे इष्टदेवता झूलेलाल जी के होते हुए अन्य पंथों में जा रहे हैं।
प्रसंगवश यह जानना उचित रहेगा कि एक समय वह भी था कि कुछ सिंधियों ने अल्पसंख्यक के नाते आरक्षण की मांग की थी, मगर पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी यह कह इंकार कर दिया कि सिंधियों को आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वे पुरूशार्थी हैं। यह बात सच भी है। आज बीपीएल श्रेणी में जीने को मजबूर एक बडे तबके के बावजूद अनेक सिंधी न केवल अर्थ संपन्न हो चुके हैं और परमार्थ के भी काम जम कर रहे हैं। तभी तो कहते हैं कि सिंधी किसी भी स्तर की मेहनत करने को तैयार रहता है, मगर भीख नहीं मांगता। यह सिंधियों के लिए गौरव की बात है। जिसे पूरी दुनिया मानती है। सिंधियों के अल्पसंख्यक होने का मुद्दा समाप्त होता नजर नहीं आता, मगर ज्यादा जरूरी यह है कि सिंधी अपनी सभ्यता, संस्कृति व भाषा को कायम रखने पर ध्यान रखें। आपस में और बच्चों से सिंधी भाषा में ही बात करें। अगर भाषा व संस्कृति ही नहीं बचा पाए तो केवल नाम मात्र को सिंधी कहलाएंगे।
आखिर में बहुत पीडादायक बात। भले ही हिंदू होने के कारण संविधान में स्थापित कानून के तहत सिंधियों को तकनीकी रूप से अल्पसंख्यक का दर्जा न मिल पाए, मगर वे विशिष्ट दर्जे के हकदार तो हैं। विस्थापन के बाद जीरो से उठने के यातनातुल्य सफर का जो दर्द सिंधियों ने सहा है, उसका अहसास केवल सिंधी ही कर सकते हैं। हों भले सनातनी, मगर जिस महान सिंधु घाटी की सभ्यता का वे प्रतिनिधित्व करते हैं, उसकी सनातनता कायम रहनी ही चाहिए। इल्तजा यही है कि सिंधी भाषा व संस्कृति की रक्षा के लिए शासन का समर्थन मिल जाए।
-तेजवाणी गिरधर
7742067000
शनिवार, 25 जनवरी 2025
महज 16 साल की उम्र में हुई विद्वान होने की गलतफहमी
मैं आज भी उस काल खंड की मानसिकता व गलतफहमी के बारे में सोच कर अपने आप पर हंसता हूं कि वह कैसा पागलपन था। खैर, अब तो यह अच्छी तरह से समझ आ चुका है कि दुनिया में इतना ज्ञान भरा पड़ा है कि एक जिंदगी बीत जाए तब भी उसे अर्जित नहीं किया जा सकता। मुझे अच्छी तरह से पता है कि अलविदा के वक्त तक बहुत, बहुत कुछ जानने से रह जाएगा। हालांकि यह सही है कि उन नौ साल के दौरान जितना कुछ स्वाध्याय किया, वही संचय आज काम आ रहा है। यद्यपि मैं ओशो रजनीश से कई मामलों में असहमत हूं, मगर मेरे चिंतन पर उनके सोचने के तरीके व तर्क की विधा का ही प्रभाव है। पहले जहां दुनिया का सारा ज्ञान अर्जित करने की चाह रही, वहीं अब परिवर्तन ये आ गया है कि अब दुनिया का ज्ञान तुच्छ लगने लगा है। पिछले लंबे समय से सारा ध्यान प्रकृति के रहस्य व स्वयं को जानने पर केन्द्रित हो गया है। पता नहीं, ये पूरा हो पाएगा या नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
बुधवार, 8 जनवरी 2025
संपादक के भीतर का लेखक मर जाता है?
वस्तुतः होता ये है कि लगातार संपादन करने वाले पत्रकार की दृष्टि सिर्फ वर्तनी के त्रुटि संशोधन, व्याकरण और बेहतर शब्द विन्यास पर होती है। अच्छे से अच्छे लेखक की रचना या न्यूज राइटिंग करने वाले का समाचार बेहतर से बेहतर प्रस्तुत करने की विधा में वह इतना डूब जाता है कि उसके भीतर मौजूद लेखक विलुप्त प्रायः हो जाता है। यद्यपि संपादक को हर शैली की बारीकी की गहरी समझ होती है, मगर सतत अभ्यास के कारण अपनी खुद की शैली कहीं खो सी जाती है। जब भी वह कुछ लिखने की कोशिश करता है, तो उसका सारा ध्यान हर वाक्य को पूर्ण रूप से शुद्ध लिखने पर होता है। जगह-जगह पर अटकता है। हालांकि उसकी रचना में भरपूर कसावट होती है, गलती निकालना बेहद कठिन होता है, मगर रचना की स्वाभाविकता कहीं गायब हो जाती है। दरअसल उसमें वह फ्लो नहीं होता, झरने की वह स्वच्छंद अठखेली नहीं होती, जो कि एक लेखक की रचना में होता है। वह लेखन सप्रयास होता है। इसके विपरीत लेखक जब लिखता है तो उसका ध्यान भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति पर होता है। अतिरिक्त प्रयास नहीं होता। इस कारण उसमें सहजता होती है। उसमें एक मौलिक महक होती है। हर लेखक की अपनी विधा व शैली होती है। बेशक वह वर्तनी या व्याकरण की त्रुटियां कर सकता है, क्योंकि उस पर उसका पूरा ध्यान नहीं होता, मगर अभिव्यक्ति में विशिष्ट गंध होती है।
कुछ ऐसी ही सुगंध ओशो को कबीर के दोहों में नजर आती है, जिसमें भाषा का बहुत अधिक ज्ञान नहीं। उलटबांसी भी होती है तो अनगढ़, मगर गूढ़ अर्थ लिए हुए। इसके विपरीत बुद्ध की भाषा में शब्दों की बारीक नक्काशी तो होती है, परिष्कृत, बहुत ज्ञानपूर्ण, मगर वह रस नहीं, जो कि कबीर की वाणी में होता है।
खैर, मूल विषय को यूं भी समझ सकते हैं कि जैसे संगीतकार को संगीत की जितनी समझ होती है, उतनी गायक को नहीं होती, मगर वह अच्छा गा भी ले, इसकी संभावना कम ही होती है। गायक संगीतकार या डायरेक्टर के दिशा-निर्देश पर गाता है, मगर गायकी की, आवाज की मधुरता गायक की खुद की होती है। जैसे अच्छा श्रोता या संगीत का मर्मज्ञ किसी गायक की गायकी में होने वाली त्रुटि को तो तुरंत पकड़ सकता है, मगर यदि उसे कहा जाए कि खुद गा कर दिखा तो वह ऐसा नहीं कर सकता।
इस सिलसिले में एक किस्सा याद आता है। एक बार एक चित्रकार ने चित्र बना कर उसके नीचे यह लिख कर सार्वजनिक स्थान पर रख दिया कि दर्शक इसमें त्रुटियां निकालें। सांझ ढ़लते-ढ़लते दर्शकों ने इतनी अधिक त्रटियां निकालीं कि चित्र पूरी तरह से बदरंग हो गया। दूसरे दिन उसी चित्रकार ने चित्र के नीचे यह लिख दिया कि इसमें जो भी कमी हो, उसे दुरुस्त करें। शाम को देखा तो चित्र वैसा का वैसा था, जैसा उसने बनाया था। अर्थात त्रुटि निकालना तो आसान है, मगर दुुरुस्त करना अथवा और अधिक बेहतर बनाना उतना ही कठिन।
इस तथ्य को मैने गहरे से अनुभव किया है। अजमेर के अनेक लेखकों की रचनाओं व पत्रकारों की खबरों का मैने संपादन किया है। मुझे पता है कि किसके लेखन में क्या खासियत है और क्या कमी है? मगर मैं चाहूं कि उनकी शैली में लिखूं तो कठिन हो जाता है। दैनिक न्याय में समाचार संपादक के रूप में काम करने के दौरान एक स्तम्भ लेखक को उसकी अपेक्षा के अनुरूप पारिश्रमिक दिलवाने की स्थिति में नहीं था तो उसने एकाएक स्तम्भ लिखने से मना कर दिया। उस स्तम्भ की खासियत ये थी कि व्यंग्य पूरी तरह से उर्दू का टच लिए होता था। चूंकि वह स्तम्भ मैने ही आरंभ करवाया था, इस कारण उसका बंद होना मेरे लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया। उसके जैसा लिखने वाला कोई दूसरा था नहीं। मजबूरी में वह स्तम्भ मैने लिखना आरंभ किया। यह ऊपर वाले की ही कृपा समझिये कि पाठकों को पता ही नहीं लगा कि लेखक बदल गया है। हूबहू उस स्तम्भकार की शैली में लिखा। मगर मन ही मन मैं जानता था कि उस स्तम्भ को लिखने में मुझे कितनी कठिनाई पेश आई। एक बार रफ्तार में व्यंग्य लिखता और फिर उसे उर्दू टच देता। समझा जा सकता है कि मौलिक स्तम्भकार की रचना में जो स्वाद हुआ करता था, उसे मेन्टेन करना कितना मुश्किल भरा काम हो गया था। पाठकों को भले ही पता नहीं लग पाता हो, मगर मुझे अहसास था कि ठीक वैसा स्वाद नहीं दे पाया हूं।
एक संपादक के रूप में लंबे समय तक काम करने के कारण जब भी मुझे अपना कुछ लिखने का मन करता तो परेशानी होती थी। एक बार सहज भाव से लिखता और फिर उसमें फ्लेवर डालता। दुगुनी मेहनत होती थी। अब भी होती है।
यह आलेख मूलतः लेखकों व पत्रकारों के लिए साझा कर रहा हूं, लेकिन सुधि पाठक भी इस विषय को जान लें तो कोई बुराई नहीं।
मंगलवार, 31 दिसंबर 2024
पौराणिक काल में भी था एआई?
इसे समझने की कोषिष करते हैं। कहते हैं न कि आज जो विमान है, उसका आयाम कुछ और है, वैज्ञानिक। रामायण काल में पुश्पक विमान था, वह भी आज जैसा विमान रहा होगा, बस फर्क इतना है कि उसका आयाम और था, आध्यात्मिक। उसकी तकनीक, उसकी कीमिया कुछ और थी। आज जिसे हम परमाणु बम कहते हैं, वह पहले ब्रह्मास्त्र के रूप में था। आज टीवी के जरिए हम दूरदराज की घटना हाथोंहाथ देख रहे हैं, ठीक वैसी दिव्य दृश्टि महाभारत के संजय के पास थी, जिसका उपयोग कर वे धृतराश्ट को युद्ध का वर्णन कर रहे थे। आज सर्जरी के जरिए हार्ट टांसप्लांट हो रहा है, किडनी का टांसप्लांट हो रहा है, ठीक उसी तरह किसी काल में षिव जी ने हाथी का सिर गणेष जी पर लगा दिया था। ऐसे अनेक उदाहरण हैं। इस परिप्रेक्ष्य में विचार करें तो आज जिसे हम एआई कह रहे हैं, उसी से मिलती जुलती विधा प्राचीन काल में रही होगी। आपको ज्ञात होगा कि जैन दर्षन पूर्णतः विज्ञान आधारित है, तभी तो तीर्थंकरों के बारे में पहले से संकेत मिलते थे। वह उस जमाने की एआई का कमाल था। पुराणों में वर्णित प्रसंगों में आने वाले समय व युग में होने वाली घटनाओं का जिक्र स्पश्टतः एआई की तरह की ही कीमिया है। उसे भले ही ज्योतिशीय गणना माना जाए, मगर सारे युगों के बारे में विस्तार से जिस विधा से जाना गया, वह एआई जैसी ही रही होगी। कलयुग में भगवान विश्णु के अंतिम अवतार कल्कि के बारे में पहले से जान लिया गया तो वह अतीन्द्रिय बुद्धिमत्ता की वजह से ही संभव हुआ होगा। आपकी जानकारी में होगा कि पिरामिड इतने बडे पत्थरों से बने हैं, जिन्हे क्रेन से भी नहीं उठाया जा सकता। उस जमाने में क्रेन नहीं थी, तो फिर उन्हें कैसे उठाया गया। इसी प्रकार पहाडियों पर मंदिर निर्माण के लिए बडे बडे पत्थर कैसे पहुंचाए जा सके? जाहिर है ऐसा एआई जैसी विधा से ही संभव हो पाया होगा।
वैसे एआई अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता का इतिहास भी कुछ पुराना है। इसका आरंभिक विकास 1950 के दशक में हुआ, जब शोधकर्ताओं ने यह समझना शुरू किया कि कंप्यूटर को सोचने और निर्णय लेने जैसी क्षमताओं के लिए प्रोग्राम किया जा सकता है। 1950 के दशक में
एलन ट्यूरिंग ने ट्यूरिंग टेस्ट का प्रस्ताव दिया, जो यह जांचने के लिए था कि क्या कोई मशीन इंसानों की तरह बौद्धिक व्यवहार कर सकती है।
1956 में डार्टमाउथ सम्मेलन में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस शब्द पहली बार गढ़ा गया। इसे एआई शोध का औपचारिक आरंभ माना जाता है।
1960-70 के दशक में प्रारंभिक एआई प्रोग्राम जैसे चौटबॉट और शृंखला-आधारित विशेषज्ञ सिस्टम बनाए गए। एआई का उपयोग मुख्य रूप से गणितीय प्रमेयों को हल करने और तर्कसंगत समस्याओं को सुलझाने के लिए किया गया।
1980 के दशक में एक्सपर्ट सिस्टम का विकास हुआ, जो विशेष ज्ञान-आधारित निर्णय लेने में सक्षम था। मशीन लर्निंग और न्यूरल नेटवर्क्स पर नए शोध सामने आए।
1990 के दशक में डीप ब्लू नामक कंप्यूटर ने 1997 में शतरंज चैंपियन गैरी कास्पारोव को हराया। इसने साबित किया कि कंप्यूटर जटिल निर्णय लेने और रणनीति बनाने में भी सक्षम हैं।
2000 के बाद के युग में मशीन लर्निंग और डीप लर्निंग ने एआई को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। सिरी, एलेक्सा और गूगल असिस्टेंट जैसे वॉयस असिस्टेंट्स एआई को रोजमर्रा के जीवन में लाए। अब एआई लगभग हर क्षेत्र में मौजूद है, यथा स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, परिवहन, और उद्योग। कुल जमा एआई न केवल समस्याओं को हल कर रहा है, बल्कि नई संभावनाओं को भी उत्पन्न कर रहा है, जैसे रचनात्मक लेखन, संगीत निर्माण, वैज्ञानिक अनुसंधान आदि।
शनिवार, 28 दिसंबर 2024
यह नर्क, पृथ्वी कोई और है?
जगदीप धनखड अजमेर में एक चूक की वजह से हार गए थे
अज्ञात परिस्थितियों में उप-राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने वाले जगदीप धनखड का नाम इन दिनो सुर्खियों में है। उनको लेकर कई तरह की चर्चाएं हो रही...

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ये सुनी-सुनाई बात नहीं। आंखों देखी है। काली माता की एक मूर्ति ढ़ाई प्याला शराब पीती है। यह नागौर जिले में मुख्यालय से 105 किलोमीटर दूर, रिया...
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दोस्तो, नमस्कार। क्या आपको ख्याल है कि सिंधी समुदाय हिंदू धर्म का ही पालन करता है, फिर भी सिंधी माह अक्सर हिंदू माह की तुलना में लगभग 15 दिन...