बुधवार, 4 दिसंबर 2019

एक ही बार राम का नाम लिया और खेल खत्म

एकाग्रता का बड़ा महत्व है। चाहे ध्यान या समाधि में, चाहे संसार के दैनंदिन कार्यों में। जो भी काम हम एकाग्रता से करते हैं, उसके पूरे होने की संभावना बढ़ जाती है। एकाग्रता के अनेक उदाहरण भी हमारी जानकारी में हैं। सर्वाधिक चर्चित है अर्जुन और चिडिय़ा की आंख वाला प्रसंग। अर्जुन जब चिडिय़ा की आंख को भेदने की कोशिश करते हैं तो उन्हें सिर्फ आंख ही दिखाई देती है, आसपास का कुछ भी नजर नहीं आता, तभी तीर सीधा आंख के बीचोंबीच जा कर लगता है।
एकाग्रता के मायने भी हम जानते हैं। मन की सारी शक्ति लगाते हुए विचारों को एक ही जगह केन्द्रित करने को हम एकाग्रता कहते हैं। एकाग्रता से हमारी बिखरी हुई सारी शक्ति संगठित हो जाती है। जैसे एक उत्तल लैंस को सूर्य के सामने रखते हैं तो दूसरी ओर सूर्य की सारी किरणें एक ही दिशा में बढ़ते हुए एक बिंदू पर आ कर फोकस हो जाती है, और वहां रखा कागज या कपास जलने लगता है। वस्तुत: सूर्य की हर किरण में तपिश होती है और जैसे ही बहुत सारी किरणें आगे बढ़ते हुए एक जगह केन्द्रित होती है तो तापमान इतना बढ़ जाता है कि वस्तु जलने लगती है। 
विद्यार्थियों को एकाग्रचित्त हो कर पढ़ाई करने को इसलिए कहा जाता है, ताकि वे जो कुछ पढ़ रहे हैं, वह स्मृति में ठीक से संग्रहित हो जाए। यदि नजरें तो किताब में लिखी पंक्तियों पर है, मगर चित्त इधर-उधर भटक रहा है तो वह सारा पढ़ा हुआ बेकार चला जाता है, अर्थात स्मृति पटल पर अंकित होने से रह जाता है।
इसी प्रकार जब हम किसी मंदिर में मूर्ति के सामने खड़े हो कुछ अरदास कर रहे होते हैं और हमारा ध्यान बाहर रखी चप्पल पर रहता है कि कोई उठा कर न ले जाए तो अरदास फलित नहीं हो पाती। अर्थात चित्त एकाग्र नहीं है। आंखें मूर्ति को देख रही है, जुबान से अरदास के शब्द भी निकल रहे हैं और मन कहीं और है, दुकान पर है, दफ्तर पर है, घर पर है, तो अरदास ईष्ट तक नहीं पहुंचती।
एकाग्रता का एक सटीक उदाहरण मैंने ओशो के प्रवचन में सुना। उसे एकाग्रता की पराकाष्ठा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि वह हूबहू तो याद नहीं, मगर उसका सार ठीक से ख्याल में है। आप भी जानिये। एक थे भट्टोजी दीक्षित। उम्र तकरीबन 85 साल। घोर धार्मिक। प्रतिदिन सुबह-शाम मंदिर जाते। घंटा बजाते, दीया जलाते, आराधना करते, दिनभर माला फेरते। हर वक्त राम का नाम ही बुदबुदाते। उनका एक पुत्र था। उम्र तकरीबन 60 साल। घोर नास्तिक। ईश्वर में कोई आस्था नहीं। न कभी मंदिर जाता, न ही राम का नाम लेता। बाप ताजिंदगी बेटे को समझाते-समझाते थक गया कि कि बेटा मंदिर जाया कर, राम का नाम लिया कर, मगर बेटा इस कान से सुनता, दूसरे कान से निकाल देता। बाप रोजाना टोकता, मगर बेटे के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन बाप ने बहुत जोर देकर कहा, बेटा अब तो तू भी बूढ़ा होने को है। पूरी जिंदगी यूं ही गुजार दी। कभी तो राम का नाम ले। बेटा बाप की नसीहत सुनते-सुनते तंग आ गया था। उसने कहा, ठीक है आज मंदिर जाता हूं, राम का नाम लूंगा, मगर आप बैठे मेरे लौटने की प्रतिक्षा मत करना। बाप समझा नहीं। उसने सोचा, चलो बेटा आज तैयार तो हुआ। खैर, बेटा मंदिर गया। घंटा बजाया। मूर्ति के सामने खड़ा हुआ। उसने राम का नाम लिया। एक ही बार। पूरे मन से, पूरी बुद्धि से, पूरी शिद्दत से, रोयें-रोयें से, अपनी समग्र ताकत से, राम का नाम लिया एक बार और प्राण त्याग दिए।
यह प्रसंग कितना सही है, मुझे नहीं पता, मगर एकाग्रता का इससे सटीक वाकया मैने नहीं सुना। देखिए, बाप ने पूरी जिंदगी राम का नाम लेने में गुजार दी, मगर ऊपरी मन से, औपचारिकता से। चले तो बहुत, मगर पहुंचे कहीं नहीं। दूसरी ओर बेटे ने एक ही बार राम का नाम लिया, मगर मन की समग्र शक्ति से। और वह राम को उपलब्ध हो गया।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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