शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

अपनी प्रार्थना खुद ही बना लो

प्रार्थना का बड़ा महत्व है। ऋषियों-मुनियों व विद्वानों ने भगवान व देवी-देवताओं की जितनी भी प्रार्थनाएं बनाई हैं, बहुत चिंतन-मनन से रची गई हैं। वे किसी भी ईष्ट को रिझाने के लिहाज से संपूर्ण होती हैं। निश्चित रूप से वे प्रभावकारी भी होती हैं, अगर हम उसके अर्थ को जानते हुए पूरे भाव से करें। मगर अमूमन होता ये है कि हमें प्रार्थना का अर्थ पता ही नहीं होता। यदि अर्थ पता भी होता है तो कई बार पूरे मनोयोग से नहीं करते। नतीजतन वह जिस भी देवी-देवता के लिए की गई है, उस तक पहुंचती ही नहीं। ऐसे में उनका फल कैसे मिल सकता है?
जो प्रार्थना सरल हिंदी में होती है, उसका अर्थ तो हमें पता होता है, उसमें केवल भाव को संयुक्त करना होता है, मगर संस्कृत, संस्कृत निष्ट, अन्य भाषा या क्लिस्ठ हिंदी भाषा की प्रार्थना का अर्थ आम आदमी के समझ में नहीं आता। वह की तो जाती है, मगर चूंकि उसके शब्दों के साथ भावना नहीं जुड़ पाती है, इस कारण निष्फल ही होती है। विभिन्न मंत्रों का शाब्दिक अर्थ जाने बिना अथवा ठीक से उच्चारण किए बिना ही बोला जाता है तो वह भी निष्फल ही होता है। प्रार्थना तो छोडि़ए, जब हम भगवान शब्द का उच्चारण कर रहे होते हैं, तब भी अमूमन उसके साथ भाव नहीं जोड़ते। जैसे किसी ने आप से पूछा कि क्या हाल-चाल है, तो हम जवाब देते हैं कि भगवान की कृपा है। जरा गौर कीजिए, क्या जब हम भगवान शब्द बोलते हैं तो उस वक्त हमारे जेहन में भगवान की कल्पना होती है? आम तौर पर नहीं होती। ऐसे में उसका कोई मतलब ही नहीं रह जाता। 
आपकी जानकारी में होगा कि हमारे यहां देवी-देवताओं के नाम पर नाम रखने की परंपरा रही है। ऐसा इसलिए कि जब हम किसी को पुकारें तो अमुक देवी-देवता का स्मरण आए, मगर सच्चाई ये है कि हमारे मन में उसका ख्याल ही नहीं होता। हम केवल रटे हुए तरीके से शब्द का उच्चारण करते हैं। जैसे किसी का नाम राम लाल है तो जब हम उसे पुकारते हैं तो क्या राम भगवान का ख्याल आता है? नहीं। केवल जुबान हिलती है, उसके पीछे कल्पना या भाव नहीं होता। 
खैर, बात प्रार्थना की। एक प्रसंग मैंने किसी पुस्तक में पढ़ा था। जरा उस पर विचार कीजिए। एक बार एक गडरिया जंगल में भेड़ें चरा रहा था।  वह आसमान की ओर मुंह करके खुदा से बात कर रहा था। जाहिर है, वह अनपढ़-गंवार था, इस कारण उसे न तो प्रार्थना आती थी और न ही नमाज। वह खुदा से संवाद करता हुआ कह रहा था कि या खुदा तू आसमान में अकेला कैसे रहता होगा? मेरी भेड़ों की तरह तेरे भी जुएं पड़ जाती होंगी, वहां तेरी जुएं कौन निकालता होगा? आ, मैं तेरी जुएं निकाल दूं। स्वाभाविक है कि जो निपट गंवार गडरिया भेड़ों के साथ रहता होगा तो उसकी सोच भी वैसी रही होगी। उसी मानसिक स्तर पर सोचता होगा। उसे क्या पता कि खुदा के कोई जुएं नहीं पड़ती, मगर वह तो अपनी भेड़ों की तरह उसकी कल्पना कर रहा है। संयोग से उधर से कोई मौलवी गुजर रहा था। उसने जब देखा-सुना कि गडरिया खुदा से किस तरह की भाषा में बात कर रहा है तो उसे बहुत गुस्सा आया। वह गडरिये से बोला कि बेवकूफ ये तू क्या कर रहा है? खुदा के भी कोई जुएं पड़ती हैं? आ तुझे मैं खुदा की इबादत का तरीका बताता हूं। मैं तुझे नमाज पढऩा सिखाता हूं। गडरिया मान गया। मौलवी ने उसे नमाज पढऩा सिखाया। जैसे ही वह मौलवी वहां से आगे गया तो आकाशवाणी हुई। ऐ मौलवी, तूरे ये क्या किया? तूने मेरा एक सच्चा और भोला मुरीद छीन लिया? तूने उसकी सच्चे दिल से की जा रही इबादत उससे छीन ली? तूने बडा अनर्थ कर दिया। वह पूरी शद्दत से मुझे याद कर रहा था और तूने उसे नमाज सिखा दी। वह भला क्या नमाज का अर्थ व भाव समझ पाया होगा? जितनी बुद्धि उसकी है, उसी का इस्तेमाल करके वह मुझ से बात कर रहा था। उसकी वह इबादत मुझ तक पहुंच रही थी। तूने उसे नमाज सिखा कर अच्छा नहीं किया। तूने मेरे मुरीद व मेरे बीच नमाज की बाधा डाल दी है।
इस प्रसंग से मुझे यह ख्याल आया कि क्यों नहीं हम भी अपनी ही भाषा में भगवान की प्रार्थना बना लें। चूंकि वह हमारी बनाई हुई होगी, इस कारण उसका अर्थ हमें ठीक से पता होगा। उसके साथ हमारी भावना जोडऩा भी आसान रहेगा। एक महत्वपूर्ण बात ये भी कि हमारी जरूरत के अनुसार बनाई गई प्रार्थना ज्यादा कारगर होगी। फर्क इससे नहीं पड़ता कि प्रार्थना संस्कृत या किसी और भाषा में रची गई हो। फर्क इससे पड़ता है कि वह हमें पूरी तरह से समझ में आती हो और पूरे भाव से उसके जरिए भगवान से संवाद करें। मूलत: भावना का ही महत्व है।
आपको मेरा यह नजरिया कैसा लगा? जरा इसको आजमा कर देखिए। मैं विद्वानों द्वारा रचित प्रार्थनाओं कि खिलाफ नहीं हूं। जो भी प्रार्थना मुझे गहरे में समझ में आ गई है, वह भी जरूर उपयोग में लाता हूं। फिर भी मैने अपनी प्रार्थना अपनी कामना के अनुसार सरल हिंदी में ही बना रखी है। मेरा अकीदा है कि वह अधिक कारगर है। उस प्रार्थना को करके मुझे बहुत सुकून मिलता है क्योंकि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान से मेरी सीधी बातचीत हो रही है। मेरी माता जी पुरुषार्थ के लिये कभी कभी कहती हैं कि आपणी घोट तो नशा हो। इसका शाब्दिक अर्थ तो भांग के संदर्भ में है, लेकिन इसके मायने भी इस रूप में ले सकते हैं,  जिसकी हम चर्चा हम कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

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