एक बार की बात है। तब दैनिक न्याय के प्रकाशक व संपादक स्वर्गीय बाबा श्री विश्वदेव शर्मा अजमेर में थे। बाद में वे अहमदाबाद शिफ्ट हो गए। न्याय में एक प्रूफ रीडर थे। नाम भूल गया। शायद सरनेम मिश्रा था। निहायत सज्जन। निहायत सज्जन माने निहायत सज्जन। एकदम सीधे। अल्लाह की गाय समान। बिलकुल शुद्ध हिंदी में बात करते थे। बहुत मीठा बोलते थे। धीरे से बात करते थे। प्रूफ रीडिंग का काम रात में होता था। तब लेटर टाइप से कंपोजिंग हुआ करती थी। स्वाभाविक रूप से उनका कंपोजीटरर्स से वास्ता पड़ता था। हालांकि कंपोजीटर्स उनसे अच्छे से बात करते थे, लेकिन आपस में गाली गलौच में ही बतियाते थे। जैसा कि आम बोलचाल में गालियां बकी जाती हैं, उनका उपयोग किया करते थे। उनकी अश्लील बातें उन सज्जन मिश्राा जी को बहुत इरीटेट किया करती थी। वे बहुत परेशान रहते थे। नौकरी छोडऩे का ही मन बना लिया। आखिरकार एक दिन तंग आ कर उन्होंने इस्तीफा दे दिया। बाबा ने उनको बुलाया। पूछा कि क्या तकलीफ है। वे बोले कंपोजीटर गंदी भाषा में बात करते हैं। बाबा ने पूछा कि क्या आपसे बदतमीजी करते हैं तो वे बोले नहीं। इस पर बाबा ने कहा कि तो फिर आपको क्या परेशानी है? उन्होंने कहा कि कंपोजीटरर्स की आपस की गाली-गलौच की बातचीत उनको पसंद नहीं। बाबा ने समझाया कि वे आपस में ही तो गालियां बकते हैं, आपको तो कुछ कहते नहीं, फिर काहे को परेशान होते हो। इस पर उन सज्जन ने कहा कि वे ऐसे माहौल में काम नहीं कर सकते। तब बाबा ने उनको जो जवाब दिया, वह मेरे इस राइट अप का मूल सूत्र है।
बाबा ने अपने जीवन का सार बताते हुए समझाया कि बेटा दुनिया तो बुरी ही है। हर जगह बुरे लोग हैं। हर जगह कोई न कोई समस्या है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां समस्या नहीं। यहां से छोडोगे और दूसरी जगह जाओगे तो वहां भी कोई ने कोई समस्या होगी। बस समस्या का रूप बदल जाएगा। किसी भी जगह बिलकुल आपके अनुकूल माहौल नहीं मिलेगा। इस दुनिया में जीना है तो समझौते करने ही होंगे। आप तो अपने काम से काम रखो। दूसरे क्या करते हैं, इस पर ध्यान मत दो। आप तो सज्जन बने रहो ना, कौन रोक रहा है आपको सज्जन बने रहने से? बाबा ने बहुत समझाया, मगर वे इस्तीफा देने पर अड़ ही गए। नौकरी छोड़ कर ही माने।
खैर, इस प्रसंग से बाबा की अनुभव सिद्ध बात मेरे मन में घर कर गई। वाकई चारों ओर बेईमानी है, चालाकी है, स्वार्थपरता है, उसे ठीक करना हमारे बस की बात नहीं। ठीक करना हमारा ठेका भी नहीं। कितनों को ठीक कर लोगे। उलटे खुद की खराब हो जाओगे। बेहतर ये है कि केवल अपने आप को देखो। स्वांत: सुखाय जीयो। आपको जैसा उचित लगता है, वैसा आचरण करो, दुनिया को छोड़ हो अपने हाल पर। उस पर अपना दिमाग अप्लाई मत करो। खुद की सज्जनता से वास्ता रखो, दूसरे की दुर्जनता से क्या लेना देना। अपने मन को शांत रखो। मन चंगा तो कठौती में गंगा। अगर दुनिया की आपाधापी से टकराओगे तो तनाव ही मिलेगा। वाकई ये कहावत सही है कि जो सुख चावे जीव को तो बौंदू बन कर रह।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
बाबा ने अपने जीवन का सार बताते हुए समझाया कि बेटा दुनिया तो बुरी ही है। हर जगह बुरे लोग हैं। हर जगह कोई न कोई समस्या है। ऐसी कोई जगह नहीं, जहां समस्या नहीं। यहां से छोडोगे और दूसरी जगह जाओगे तो वहां भी कोई ने कोई समस्या होगी। बस समस्या का रूप बदल जाएगा। किसी भी जगह बिलकुल आपके अनुकूल माहौल नहीं मिलेगा। इस दुनिया में जीना है तो समझौते करने ही होंगे। आप तो अपने काम से काम रखो। दूसरे क्या करते हैं, इस पर ध्यान मत दो। आप तो सज्जन बने रहो ना, कौन रोक रहा है आपको सज्जन बने रहने से? बाबा ने बहुत समझाया, मगर वे इस्तीफा देने पर अड़ ही गए। नौकरी छोड़ कर ही माने।
खैर, इस प्रसंग से बाबा की अनुभव सिद्ध बात मेरे मन में घर कर गई। वाकई चारों ओर बेईमानी है, चालाकी है, स्वार्थपरता है, उसे ठीक करना हमारे बस की बात नहीं। ठीक करना हमारा ठेका भी नहीं। कितनों को ठीक कर लोगे। उलटे खुद की खराब हो जाओगे। बेहतर ये है कि केवल अपने आप को देखो। स्वांत: सुखाय जीयो। आपको जैसा उचित लगता है, वैसा आचरण करो, दुनिया को छोड़ हो अपने हाल पर। उस पर अपना दिमाग अप्लाई मत करो। खुद की सज्जनता से वास्ता रखो, दूसरे की दुर्जनता से क्या लेना देना। अपने मन को शांत रखो। मन चंगा तो कठौती में गंगा। अगर दुनिया की आपाधापी से टकराओगे तो तनाव ही मिलेगा। वाकई ये कहावत सही है कि जो सुख चावे जीव को तो बौंदू बन कर रह।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
बहुत शानदार लिखा है सर, सर बौंदू से आपका अभिप्राय मुर्ख या गुमशुम से है या और कोई अर्थ है
जवाब देंहटाएंभोलाभाला या बेवकूफ
हटाएंजब मैं नवज्योति में काम करता था यह बात 1974 - 75 की है, तब बाबा विश्वदेव जी का मुझ पर वृहद हस्त था और कई बार मेरे अच्छे समाचार न्याय में प्रकाशित करते थे।
जवाब देंहटाएं*मेरी ओर से उन्हें शत-शत नमन करता हूं।*
भैरोंसिंह गुर्जर