बताते हैं कि जब मुद्रा चलन में नहीं आई थी, तब वस्तु विनिमय किया जाता था। लोग एक दूसरे की जरूरत की वस्तुओं का आदान-प्रदान किया करते थे। प्रकृति भी इसी व्यवस्था पर काम करती है। वस्तु के बदले वस्तु मिलती है। कहते हैं न कि जो बोओगे, वही काटोगे। यानि कि प्रकृति में इस हाथ दे, उस हाथ ले वाला सिद्धांत काम करता है। दान की महिमा का आधार भी यही है। यज्ञों में समिधा की आहुति से वातावरण में तो सकात्मकता आती ही है, साथ ही अग्नि को समर्पित वस्तु से कई गुना प्राप्ति का भी उल्लेख है शास्त्रों में।
प्रकृति के इस गूढ़ रहस्य का प्रमाण एक बार अजमेर में भी प्रकट हो चुका है। नई पीढ़ी को तो नहीं, मगर मौजूदा चालीस से अस्सी वर्ष की पीढ़ी के अनेक लोगों को जानकारी है कि पुष्कर में एक बंगाली बाबा हुआ करते थे। कहा जाता है कि वे पश्चिम बंगाल में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे और संन्यास धारण करके तीर्थराज पुष्कर आ गए। वे कई बार अजमेर में मदार गेट पर आया करते थे और बोरे भर कर आम व अन्य फल गायों को खिलाया करते थे। वे कहते थे कि फलों पर केवल हमारा ही अधिकार नहीं है, गाय भी उसकी हकदार है।
बताया जाता है कि बंगाली बाबा के शिष्यों ने कोई पैंतालीस-पचास साल पहले पुष्कर में एक भंडारा आयोजित किया था। रात में देशी घी खत्म हो गया। यह जानकारी शिष्यों ने बाबा को दी और कहा कि रात में नया बाजार से दुकान खुलवा कर देशी घी लाना कठिन है। तब पुष्कर घाटी व पुष्कर रोड सुनसान व भयावह हुआ करते थे। बाबा ने कहा कि पुष्कर सरोवर से चार पीपे पानी के भर लाओ और कढ़ाह में डाल दो। शिष्यों ने ऐसा ही किया तो देखा कि वह पानी देशी घी में तब्दील हो गया। सब ने मजे से भंडारा खाया। दूसरे दिन बाबा के आदेश पर शिष्यों ने चार पीपे देशी घी के खरीद कर पुष्कर सरोवर में डाले। इसके मायने ये कि बाबा ने जो चार पीपे पानी के घी के रूप में उधार लिए थे, वे वापस घी के ही रूप में अर्पित करवा दिए। पानी कैसे घी बन गया, इसे तर्क से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता, मगर प्रकृति का सारा व्यवहार लेन-देन का है, यह तो समझ में आता है। इसी किस्म का किस्सा कबीर का भी है, जब उन्होंने अपने बेटे कमाल के हाथों पड़ौस की झोंपड़ी से गेहूं की चोरी करवाई थी। उसकी चर्चा फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
प्रकृति के इस गूढ़ रहस्य का प्रमाण एक बार अजमेर में भी प्रकट हो चुका है। नई पीढ़ी को तो नहीं, मगर मौजूदा चालीस से अस्सी वर्ष की पीढ़ी के अनेक लोगों को जानकारी है कि पुष्कर में एक बंगाली बाबा हुआ करते थे। कहा जाता है कि वे पश्चिम बंगाल में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे और संन्यास धारण करके तीर्थराज पुष्कर आ गए। वे कई बार अजमेर में मदार गेट पर आया करते थे और बोरे भर कर आम व अन्य फल गायों को खिलाया करते थे। वे कहते थे कि फलों पर केवल हमारा ही अधिकार नहीं है, गाय भी उसकी हकदार है।
बताया जाता है कि बंगाली बाबा के शिष्यों ने कोई पैंतालीस-पचास साल पहले पुष्कर में एक भंडारा आयोजित किया था। रात में देशी घी खत्म हो गया। यह जानकारी शिष्यों ने बाबा को दी और कहा कि रात में नया बाजार से दुकान खुलवा कर देशी घी लाना कठिन है। तब पुष्कर घाटी व पुष्कर रोड सुनसान व भयावह हुआ करते थे। बाबा ने कहा कि पुष्कर सरोवर से चार पीपे पानी के भर लाओ और कढ़ाह में डाल दो। शिष्यों ने ऐसा ही किया तो देखा कि वह पानी देशी घी में तब्दील हो गया। सब ने मजे से भंडारा खाया। दूसरे दिन बाबा के आदेश पर शिष्यों ने चार पीपे देशी घी के खरीद कर पुष्कर सरोवर में डाले। इसके मायने ये कि बाबा ने जो चार पीपे पानी के घी के रूप में उधार लिए थे, वे वापस घी के ही रूप में अर्पित करवा दिए। पानी कैसे घी बन गया, इसे तर्क से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता, मगर प्रकृति का सारा व्यवहार लेन-देन का है, यह तो समझ में आता है। इसी किस्म का किस्सा कबीर का भी है, जब उन्होंने अपने बेटे कमाल के हाथों पड़ौस की झोंपड़ी से गेहूं की चोरी करवाई थी। उसकी चर्चा फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
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इस बंगाली बाबा से मैं भी निजी तौर से मिला था और बड़े ही विचित्र थे कई बार ट्रकों के ट्रकों पल्ला करके गायों में और गरीबों में बांटता था और उसके पास पैसे इतने कहां से आते थे यह किसी को पता नहीं सबसे बड़ी बात थी उसके रात को रहने का ठिकाना किसी को पता नहीं था वह जंगल में ही गायब हो जाते थे और रात कहां बिताते थे किसी को पता नहीं अब वह कहां गायब हो गया है पता नहीं
जवाब देंहटाएंतुलसी सोनी
सर सत्य तो प्रतीत नहीं होता इस बात से जो आपने इसमे बता रखा है, मगर इस बात में सत्यता जरूर दिखती है कि जिसका लिया है उसे जरूर देना चाहिए. बहुत ही अच्छा ब्लॉग लिखा है आपने.
जवाब देंहटाएंजी, शुक्रिया
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