वाणी का चमत्कार देखिए, भारतीय संस्कृति में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें देवता, ऋषि-मुनि, सती आदि के मुख से जो भी श्राप या वरदान निकलता है, वह अक्षरश: सत्य साबित होता है। उन पर विस्तार से विचार फिर कभी, अभी सिर्फ दो उदाहरण। ये दोनों उदाहरण अपने आप में अद्वितीय हैं।
महाराज धृतराष्ट्र की पतिव्रता धर्मपत्नी महारानी गांधारी ने अपने सौ पुत्रों के वध के लिए भगवान श्रीकृष्ण को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें श्राप दिया कि जैसे कौरव वंश को उन्होंने नष्ट कर दिया, वैसे ही युद वंश का भी नाश हो जाएगा। बताते हैं कि यह श्राप पूरी तरह से सफल हुआ।
इसी प्रकार महाराजा दशरथ ने आखेट करते समय नदी किनारे पानी की कल-कल आवाज को सुन कर वहां हिरण होने व उसके पानी पीने के भ्रम में तीर चलाया और वृद्ध माता-पिता को तीर्थाटन को निकले श्रवण की उससे मौत हो गई। इस पर उनके माता-पिता ने पुत्र वियोग में दशरथ को श्राप दिया कि उनकी मृत्यु भी पुत्र वियोग में होगी। ज्ञातव्य है कि भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास के दौरान पुत्र वियोग में ही दशरथ का देहांत हो गया था।
खैर, अब शीर्षक में दिए गए विषय पर चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि प्रकृति ने हर मनुष्य को भी इसी प्रकार की शक्ति प्रदान कर रखी है। लेकिन उसकी सीमा ये है कि पूरे चौबीस घंटे में केवल किसी एक पल में मनुष्य की जिव्हा पर वाणी की देवी सरस्वती विराजमान होती है। उस पल में मनुष्य के मुख से जो भी वचन निकलता है, वह सच साबित हो जाता है। यही वजह है कि हमारे यहां परंपरा है कि सामान्य बोलचाल में भी पूरी सावधानी बरती जाती है। यानि कि शब्दों का चयन सोच-समझ कर किया जाता है, कहीं कोई गलत शब्द उस पल की वजह से किसी पर फलित न हो जाए।
जैसे जब कोई दुकानदार पूरे दिन काम करने के बाद दुकान के पट बंद करता है तो यह नहीं कहता कि दुकान बंद कर दी। कहता है कि दुकान मंगल कर दी। कहीं दुकान बंद शब्द का इस्तेमाल कर दे और वाकई दुकान सदा के बंद न हो जाए। इसी प्रकार रात्रि में शयन के वक्त दीया शांत करने को यह नहीं कहते कि दीया बुझा दिया, बल्कि ये कहते हैं कि दीया बढ़ा दिया। यहां तक कि किसी को गुस्से में अपशब्द कहने के दौरान भी पूरी सावधानी बरती जाती है। अपशब्द के विलोम शब्द का उपयोग किया जाता है। जैसे किसी से कोई वस्तु टूट जाए या कोई और गलती हो जाए तो सिंधी भाषा में यह नहीं कहा जाता कि अंधो आहीं छा, बल्कि ये कहा जाता है कि सजो आहीं छा? अंधो माने अंधा व सजा माने आंख का पूरा।
यदि कोई घर से बाहर गया हुआ हो तो उसके बारे में पूछने पर पहले उसकी खैर की कामना की जाती है, तब उसका नाम लिया जाता है।
इतना ही नहीं घर में कोई वस्तु के बारे पूछने पर यह नहीं कहा जाता कि क्या अमुक वस्तु नहीं है क्या, बल्कि ये पूछा जाता है कि अमुक वस्तु है क्या? अर्थात नकारात्मकता से बचा जाता है।
इसी प्रकार किसी के घर से बाहर जाने के वक्त पीछे से ये नहीं पूछा जाता कि कहां जा रहे हो। यह अशुभ माना जाता है।
हम सब की जानकारी में है कि जब किसी अतिथि अथवा घर के ही किसी सदस्य को पानी पिलाते हैं तो यह नही कहते कि पानी दो, बल्कि ये कहते हैं कि पानी पिलाओ। वजह ये कि पानी देना शब्द का इस्तेमाल मृतक के लिए किया जाता है। वैसे प्रसंगवश यह जिक्र करना भी जरूरी है कि पानी पिलाने को किसी को परास्त करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
मान्यता ये भी है कि किसी-किसी की जुबान काली होती है और उसके मुख से निकली वाणी सत्य साबित हो जाती है। जब उस व्यक्ति को भी इसका ज्ञान हो जाता है तो वह कुछ बोलने से पहले सावधानी बरतता है, ताकि किसी का अनिष्ट न हो जाए।
वाणी की सदाशयता देखिए। कई लोगों को आपने देखा होगा कि हर बात कहने के साथ यह जोड़ देते हैं कि भगवान आपको नेकी दे। वाणी के उपयोग में अतिरिक्त सावधानी का उदाहरण ये है कि जब कि कोई भगवान, देवी-देवता या गुरु से जुड़ा कोई प्रसंग बताते हैं तो कान पकड़ते हैं। इसका मतलब ये है कि कोई भूलचूक हो जाए तो अग्रिम माफी मांग ली जाए।
वाणी की महिमा अपरंपार है। एक दिलचस्प अपवाद मेरी जानकारी है, वह आपसे शेयर करता हूं। स्वामी हिरदाराम साहेब के बारे कहा जाता था कि वे अपने शिष्यों में से जिस को भी नाराज हो कर अपशब्द कहते थे, उसका सौभाग्य उदय हो जाता था। वह अपने आप को धन्य समझता था। यानि अपशब्द उसी को बोलते थे, जिसके प्रति उनका स्नेह होता था।
यह तो हुई वाणी की महिमा। ऐसी मान्यता है कि कभी-कभी दृ्रश्य या स्थिति भी फलित हो जाती है। इस कारण ऐसे अनिष्टकारी दृश्यों से बचा जाता है। जैसे उसके बारे में चर्चा फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
महाराज धृतराष्ट्र की पतिव्रता धर्मपत्नी महारानी गांधारी ने अपने सौ पुत्रों के वध के लिए भगवान श्रीकृष्ण को जिम्मेदार ठहराते हुए उन्हें श्राप दिया कि जैसे कौरव वंश को उन्होंने नष्ट कर दिया, वैसे ही युद वंश का भी नाश हो जाएगा। बताते हैं कि यह श्राप पूरी तरह से सफल हुआ।
इसी प्रकार महाराजा दशरथ ने आखेट करते समय नदी किनारे पानी की कल-कल आवाज को सुन कर वहां हिरण होने व उसके पानी पीने के भ्रम में तीर चलाया और वृद्ध माता-पिता को तीर्थाटन को निकले श्रवण की उससे मौत हो गई। इस पर उनके माता-पिता ने पुत्र वियोग में दशरथ को श्राप दिया कि उनकी मृत्यु भी पुत्र वियोग में होगी। ज्ञातव्य है कि भगवान राम के चौदह वर्ष के वनवास के दौरान पुत्र वियोग में ही दशरथ का देहांत हो गया था।
खैर, अब शीर्षक में दिए गए विषय पर चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि प्रकृति ने हर मनुष्य को भी इसी प्रकार की शक्ति प्रदान कर रखी है। लेकिन उसकी सीमा ये है कि पूरे चौबीस घंटे में केवल किसी एक पल में मनुष्य की जिव्हा पर वाणी की देवी सरस्वती विराजमान होती है। उस पल में मनुष्य के मुख से जो भी वचन निकलता है, वह सच साबित हो जाता है। यही वजह है कि हमारे यहां परंपरा है कि सामान्य बोलचाल में भी पूरी सावधानी बरती जाती है। यानि कि शब्दों का चयन सोच-समझ कर किया जाता है, कहीं कोई गलत शब्द उस पल की वजह से किसी पर फलित न हो जाए।
जैसे जब कोई दुकानदार पूरे दिन काम करने के बाद दुकान के पट बंद करता है तो यह नहीं कहता कि दुकान बंद कर दी। कहता है कि दुकान मंगल कर दी। कहीं दुकान बंद शब्द का इस्तेमाल कर दे और वाकई दुकान सदा के बंद न हो जाए। इसी प्रकार रात्रि में शयन के वक्त दीया शांत करने को यह नहीं कहते कि दीया बुझा दिया, बल्कि ये कहते हैं कि दीया बढ़ा दिया। यहां तक कि किसी को गुस्से में अपशब्द कहने के दौरान भी पूरी सावधानी बरती जाती है। अपशब्द के विलोम शब्द का उपयोग किया जाता है। जैसे किसी से कोई वस्तु टूट जाए या कोई और गलती हो जाए तो सिंधी भाषा में यह नहीं कहा जाता कि अंधो आहीं छा, बल्कि ये कहा जाता है कि सजो आहीं छा? अंधो माने अंधा व सजा माने आंख का पूरा।
यदि कोई घर से बाहर गया हुआ हो तो उसके बारे में पूछने पर पहले उसकी खैर की कामना की जाती है, तब उसका नाम लिया जाता है।
इतना ही नहीं घर में कोई वस्तु के बारे पूछने पर यह नहीं कहा जाता कि क्या अमुक वस्तु नहीं है क्या, बल्कि ये पूछा जाता है कि अमुक वस्तु है क्या? अर्थात नकारात्मकता से बचा जाता है।
इसी प्रकार किसी के घर से बाहर जाने के वक्त पीछे से ये नहीं पूछा जाता कि कहां जा रहे हो। यह अशुभ माना जाता है।
हम सब की जानकारी में है कि जब किसी अतिथि अथवा घर के ही किसी सदस्य को पानी पिलाते हैं तो यह नही कहते कि पानी दो, बल्कि ये कहते हैं कि पानी पिलाओ। वजह ये कि पानी देना शब्द का इस्तेमाल मृतक के लिए किया जाता है। वैसे प्रसंगवश यह जिक्र करना भी जरूरी है कि पानी पिलाने को किसी को परास्त करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।
मान्यता ये भी है कि किसी-किसी की जुबान काली होती है और उसके मुख से निकली वाणी सत्य साबित हो जाती है। जब उस व्यक्ति को भी इसका ज्ञान हो जाता है तो वह कुछ बोलने से पहले सावधानी बरतता है, ताकि किसी का अनिष्ट न हो जाए।
वाणी की सदाशयता देखिए। कई लोगों को आपने देखा होगा कि हर बात कहने के साथ यह जोड़ देते हैं कि भगवान आपको नेकी दे। वाणी के उपयोग में अतिरिक्त सावधानी का उदाहरण ये है कि जब कि कोई भगवान, देवी-देवता या गुरु से जुड़ा कोई प्रसंग बताते हैं तो कान पकड़ते हैं। इसका मतलब ये है कि कोई भूलचूक हो जाए तो अग्रिम माफी मांग ली जाए।
वाणी की महिमा अपरंपार है। एक दिलचस्प अपवाद मेरी जानकारी है, वह आपसे शेयर करता हूं। स्वामी हिरदाराम साहेब के बारे कहा जाता था कि वे अपने शिष्यों में से जिस को भी नाराज हो कर अपशब्द कहते थे, उसका सौभाग्य उदय हो जाता था। वह अपने आप को धन्य समझता था। यानि अपशब्द उसी को बोलते थे, जिसके प्रति उनका स्नेह होता था।
यह तो हुई वाणी की महिमा। ऐसी मान्यता है कि कभी-कभी दृ्रश्य या स्थिति भी फलित हो जाती है। इस कारण ऐसे अनिष्टकारी दृश्यों से बचा जाता है। जैसे उसके बारे में चर्चा फिर कभी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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