बुधवार, 22 अप्रैल 2020

गिलास से नहीं, लोटे से पीयें पानी

हाल ही सोशल मीडिया पर एक रोचक पोस्ट देखी, जिसमें गिलास की बजाय लोटे से पानी पीने की सलाह दी गई है। हालांकि उसमें वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाया गया है, जिनकी प्रमाणिकता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर प्रस्तावना में स्वदेशी की पैरवी और विदेशी का परित्याग करने का भाव अधिक है। विषय दिलचस्प है, लिहाजा सोचा कि इसे विमर्श के लिए आपके समक्ष रखा जाए। इस पोस्ट में अनावश्क विस्तार था, जिसे हटा दिया गया है। भाषा को भी परिमार्जित किया गया है।
इसमें लिखा है कि भारत में हजारों साल की पानी पीने की जो सभ्यता है, वो गिलास नही है, ये गिलास जो है, विदेशी है। गिलास भारत का नहीं है। गिलास यूरोप से आया। और यूरोप में पुर्तगाल से आया था। ये पुर्तगाली जब से भारत देश में घुसे थे, तब से गिलास में हम फंस गये। गिलास अपना नहीं है, अपना लौटा है। लौटा कभी भी एकरेखीय नहीं होता, तो वागभट्ट जी कहते हैं कि जो बर्तन एकरेखीय हैं, उनका त्याग कीजिये।
आपको तो सबको पता ही है कि पानी को जहां धारण किया जाए, उसमे वैसे ही गुण उसमें आते हैं। पानी के अपने कोई गुण नहीं हैं, जिसमें डाल दो उसी के गुण आ जाते हैं। दही में मिला दो तो छाछ बन गया, दूध में मिलाया तो दूध का गुण। जिस आकार के पात्र में डाला जाएगा, उसी का गुण धारण कर लेता है। अगर थोड़ा भी गणित आप समझते हैं तो हर गोल चीज का सरफेस टेंशन कम रहता है। क्योंकि सरफेस एरिया कम होता है। स्वास्थ्य की दष्टि से कम सरफेस टेंशन वाली चीज ही आपके लिए लाभदायक है। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पेय आप पीयेंगे तो बहुत तकलीफ देने वाला है।
चूंकि कुआं गोल है, इस कारण उसका पानी सबसे अच्छा है। आपने देखा होगा कि सभी साधु-संत कुएं का ही पानी पीते हैं। न मिले तो प्यास सहन कर जाते हैं। साधु-संत अपने साथ जो केतली रखते हैं, वह लोटे के तरह के आकार वाली होती है। गोल कुए का पानी है तो बहुत अच्छा है। गोल तालाब का पानी, पोखर अगर गोल हो तो उसका पानी बहुत अच्छा है। नदी में गोल कुछ भी नहीं है। वो सिर्फ लम्बी है, उसमे पानी का फ्लो होता रहता है। नदी का पानी हाई सरफेस टेंशन वाला होता है और नदी से भी ज्यादा खराब पानी समुद्र का होता है। उसका सरफेस टेंशन सबसे अधिक होता है।
प्रकृति में देखेंगे तो बारिश का पानी गोल होकर धरती पर आता है। सभी बूंदें गोल होती हैं, क्योंकि उसका सरफेस टेंशन बहुत कम होता है।
एक तर्क ये दिया गया है। सरफेस टेंशन कम होने से पानी का सफाई करने वाला गुण लम्बे समय तक जीवित रहता है। पानी का ये गुण इस प्रकार काम करता है- बड़ी आंत और छोटी आंत में मेम्ब्रेन है और कचरा उसी में जा कर फंसता है। उसकी सफाई तभी संभव है, जब कम सरफेस टेंशन वाला पानी आप पी रहे हो। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पानी है तो ये कचरा बाहर नहीं आएगा, मेम्ब्रेन में ही फंसा रह जाता है।
एक प्रयोग भी बताया गया है-
थोड़ा सा दूध लें और उसे चेहरे पे लगाइए। 5 मिनट बाद रुई से पोंछिये, रुई काली हो जाएगी। स्किन के अन्दर का कचरा और गन्दगी बाहर आ जाएगी। इसे दूध बाहर लेकर आया। असल में दूध का सरफेस टेंशन सभी वस्तुओं से कम है। दूध ने स्किन का सरफेस टेंशन कम किया व त्वचा थोड़ी सी खुल गयी और त्वचा खुली तो अंदर का कचरा बाहर निकल गया। यही क्रिया लोटे का पानी पेट में करता है।
अगर आप गिलास का हाई सरफेस टेंशन का पानी पीयेंगे तो आंतें सिकुड़ेंगी क्योंकि तनाव बढ़ेगा। तनाव बढ़ते समय चीज सिकुड़ती है और तनाव कम होते समय चीज खुलती है। अब तनाव बढ़ेगा तो सारा कचरा अंदर जमा हो जायेगा और वो ही कचरा भगन्दर, बवासीर जैसी बीमारियां उत्पन्न करेगा।
कुल मिला कर गिलास की बजाय पानी लौटे में पीयें। गिलास का प्रयोग बंद कर दें। जब से आपने लोटे को छोड़ा है, तब से भारत में लोटे बनाने वाले कारीगरों की रोजी रोटी खत्म हो गयी। गांव-गांव में कसेरे कम हो गये। वो पीतल और कांसे के लोटे बनाते थे। सब इस गिलास के चक्कर में भूखे मर गये। तो वागभट्ट जी की बात मानिये और लोटे वापस लाइए।

1 टिप्पणी:

  1. पहले गिलास नहीं बनते थे पत्तल दो ने नहीं होते थे कहीं जिमने जाने पर थाली साथ ले जानी पड़ती थी कुए बावड़ी आज की तरह ग्नदगी भरे नहीं होते थे लौटे से पानी पीने से पेट में हवा जाती है लोग पैदल नहीं चलते खाना हजम नहीं होता है वर्तमान गिलास ही उत्तम है
    Suresh garg

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