बुद्धिजीवियों में कबीर व उनके पुत्र कमाल का एक प्रसंग खूब चर्चा में रहा है। पहले उस पर बात करते हैं कि वह क्या था और फिर उसके निहितार्थ पर गुफ्तगू करेंगे।
एक बार कबीर व उनके पुत्र कमाल एक चक्की के पास बैठे थे। संसार पर बातचीति कर रहे थे। कबीर ने जो कहा, वह इन दो पंक्तियों में है:-
चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय,
दो पाटन के बीच में साबुत बचा कोय।
हो ये रहा था कि चक्की के दो पाटों के बीच गेहूं के जो दाने आ रहे थे, पिस कर आटा हो रहे थे। असल में वे यह संदेश देना चाह रहे थे, जिस प्रकार चक्की के दो पाटों के बीच गेहूं साबुत नहीं बचता, वैसे ही आसमान व धरती नामक दो पाटों के बीच जिंदगियां नष्ट हो रही हैं। संसार चूंकि क्षणभंगुर है, इस कारण हर कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा है। इसी पर वे अफसोस जता रहे थे।
इस पर कमाल ने पलट कर जवाब दिया:-
चलती चक्की देख कर दियो कमाल हंसाय,
कील सहारे जो रहे, सो साबुत बच जाए।
अर्थात चक्की की कील के सहारे जमा हुए गेहूं के दानों का कुछ नहीं बिगड़ रहा था। वस्तुत: वे यह कहना चाह रहे थे कि भले ही दो पाटों के बीच कोई नहीं बच पाता, मगर जो कील का सहारा ले लेता है, वह बच जाता है। उनका इशारा भगवान की ओर था कि जो भी उनका आश्रय ले लेता है, वह सुरक्षित रहता है। हालांकि मोटे तौर पर उनकी बात में भी त्रुटि है, क्योंकि भगवान का आश्रय न लेने वाला भी मर रहा है और आश्रय लेने वाला भी मृत्यु को उपलब्ध हो रहा है। मगर गूढ़ अर्थ ये है कि जो भगवान का आश्रय नहीं लेता, वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ा रहता है, जबकि ईश्वर का सहारा लेने वाले का कल्याण हो जाता है, यानि मोक्ष को हासिल हो जाता है।
आश्रय का जिक्र आया तो एक प्रसंग याद आ गया। एक बार भगवान श्रीकृष्ण भोजन के बैठे थे। पत्नी रुक्मणी पंखा कर रही थी। भगवान भोजन का पहला ग्रास मुंह के पास लाए और अचानक वह ग्रास थाली में रख कर महल के मुख्य द्वार की ओर दौड़े। कुछ देर तक वे बाहर देखते रहे। फिर वापस आ गए और भोजन शुरू कर दिया। रुक्मणी ने सवाल किया कि स्वामी, आपको क्या हुआ था? इस पर श्रीकृष्ण ने जवाब दिया कि असल में मेरा एक भक्त दुश्मनों से घिर गया था। वे उस पर पत्थर फैंक रहे थे। भक्त अपने आपको असहाय पा कर मुझे पुकार रहा था। मेरा भक्त कष्ट में हो और मुझे पुकारे, मेरा सबसे पहला कर्तव्य ये होता है कि मैं उसको बचाऊं। इसी कारण मैं भागा। मगर कुछ देर बाद जब देखा कि मेरे भक्त ने खुद भी पत्थर उठा लिया है और वह दुश्मनों का मुकाबला कर रहा है, तो मेरी मदद की जरूरत ही नहीं थी, इस कारण मैं लौट आया।
इस प्रसंग से भी यही अर्थ निकलता है कि जब तक हमारे भीतर अहम भाव होता है और हम सोचते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह हम कर रहे हैं, तब तक भगवान हमारी मदद को नहीं आता। जैसे ही हम सब कुछ उस पर छोड़ देते हैं, तो सारी जिम्मेदारी भगवान अपने ऊपर ले लेता है।
कुछ इसी आपने एक उक्ति सुनी होगी-
जांको राखे साइयां, मार सके न कोय।
बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय।
अर्थ यही है कि ईश्वर की शरण में रहने वाले का कुछ नहीं बिगड़ता।
यह तो हुई आध्यात्मिक दृष्टिकोण, मगर भौतिक जीवन में भी यह फिट बैठता है कि जो भी सत्ता के साथ रहता है, वही सुखी रहता है। जिसने बॉस इज आल्वेज राइट की सूत्र अपना लिया, वह चैन के साथ नौकरी करता है, जबकि तर्क व प्रतिवाद करने वाला हर वक्त तकलीफ में रहता है।
आपने ये भी सुना होगा कि जिसकी खाओ बाजरी, उसी की बजाओ हाजिरी।
मेरे एक मित्र सता के साथ रहने वालों को राजपूत की संज्ञा देते हैं। असल में राजपूत एक जाति-समुदाय है, जिसे बहादुर व दिलेर कौम माना जाता है, उनकी बहादुरियों की कहानियां इतिहास में भरी पड़ी हैं, विशेष रूप से राजस्थान के संदर्भ में, जिसे राजपूताना भी कहा जाता है। कदाचित यह शब्द राजपतों को राजघराने के वंशज बताने के लिए बना हो। मगर उनका प्रयोजन समुदाय से नहीं, शब्द मात्र से है। इसका अर्थ वे निकालते हैं कि जिसका राज, उसी के पूत बन जाओ, कभी दुखी नहीं रहोगे। आपने व्यवहार में भी देखा होगा कि अधिसंख्य बड़े व्यवसायी सत्ता के साथ रहते हैं। उन्हें इससे कोई प्रयोजन नहीं कि सत्ता किस विचारधारा की है। उन्हें तो अपने व्यवसाय को बढ़ाने से मतलब होता है। इसी कारण किसी राजनीतिक मतभेद में पड़े बिना हर सरकार के साथ खड़े हो जाते हैं।
इस श्रेणी के लोगों के बारे में एक प्रसंग और ख्याल में आता है। एक दिन बादशाह अकबर और बीरबल महल के बागों में सैर कर रहे थे। वे बीरबल से बोले, देखो यह बैंगन, कितनी सुंदर लग रहे हैं। इनकी सब्जी कितनी स्वादिष्ट लगती है। बीरबल, मुझे बैंगन बहुत पसंद हैं। हां महाराज, आप सत्य कहते हैं। यह बैंगन है ही ऐसी सब्जी, जो न सिर्फ देखने में बल्कि खाने में भी इसका कोई मुकाबला नहीं है। भगवान ने भी इसीलिए इसके सिर पर ताज बनाया है। कुछ दिनों बाद अकबर और बीरबल उसी बाग में घूम रहे थे। बादशाह अकबर को कुछ याद आया और मुस्कुराते हुए बोले, बीरबल देखो यह बैंगन कितना भद्दा और बदसूरत है और यह खाने में भी बहुत बेस्वाद है। हां हुजूरे, आप सही कह रहे हैें, बीरबल बोला। इसीलिए इसका नाम बे-गुण है। यह सुन कर बादशाह अकबर को गुस्सा आ गया। उन्होंने झल्लाते हुए कहा, क्या मतलब है बीरबल? मैं जो भी बात कहता हूें, तुम उसे ही ठीक बताते हो। बीरबल ने कहा, हुजूर, मैं आपका नौकर हूें, बैंगन का नहीं।
खुद्दार लोगों यह बात गले नहीं उतरेगी, मगर सच्चाई ये ही है हवा का रुख जिस ओर हो, उसी ओर चलिए, कभी तकलीफ में नहीं रहेंगे। वक्त के खिलाफ चलने वाला सदैव कष्ट ही पाता है।
हालांकि मैं स्वभावत: इस फैक्ट के विपरीत रहा हूं, सदा व्यवस्था में व्याप्त अव्यवस्था के विपरीत बोला, ऐसे में बहुत तकलीफ में रहा। इस कारण इस फैक्ट को मेरा अनुभव सिद्ध तथ्य मानिये।
-तेजवानी गिरधर
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