सोमवार, 22 मार्च 2021

मूर्ति को प्रसाद चढ़ाते समय पर्दा क्यों किया जाता है?


आप जानते ही हैं कि जब भी भगवान की मूर्ति को प्रसाद चढ़ाया जाता है तो प्रसाद चढ़ाने के बाद पर्दा किया जाता है, ताकि वे प्रसाद ग्रहण कर लें। यदि मंदिर में पर्दे की व्यवस्था नहीं है तो प्रसाद की थाली पर ही कपड़ा ढ़क दिया जाता है। बिना पर्दे के भी तो प्रसाद चढ़ाया जा सकता है, उसमें दिक्कत क्या है? मगर नहीं, पर्दा करते ही हैं। आखिर वजह क्या है?

कल्पना कीजिए कि आपने बिना पर्दे के प्रसाद चढ़ाया और मूर्ति से एक हाथ निकल कर प्रसाद उठाए तो आप पर क्या बीतेगी? या आपकी आंखों के सामने ही प्रसाद कम होता जाए, तो क्या आप उस दृश्य को देख पाएंगे? हम जानते हैं कि भगवान की मूर्ति से हाथ निकल कर प्रसाद ग्रहण करने आने वाला नहीं है। आ सकता होगा तो भी नहीं आएगा, क्योंकि भगवान रहस्य में ही रहना चाहता है। हालांकि पर्दा करने के बाद भी भगवान के प्रसाद ग्रहण करने के बाद प्रसाद का तौल वही रहता है। अर्थात वे सूक्ष्म रूप से प्रसाद ग्रहण करते हैं। उससे भी बड़ा सच ये है कि वे प्रसाद नहीं, बल्कि हमारे भाव ग्रहण करते हैं। फिर भी प्रसाद चढ़ाने के दौरान पर्दा करने की परंपरा है।

आप देखिए कि नागौर जिले बवाल माता मंदिर में देवी मां की प्रतिमा ढ़ाई प्याला शराब पीती है। यह रहस्यपूर्ण और चमत्कार है। मंदिर से श्रद्धालु को इतना दूर रख जाता है कि उसे यह तो पता लगे कि प्याला खत्म हो गया है, मगर खत्म होता दिखाई देता नहीं है। जब पुजारी मूर्ति के होंठों पर प्याला रखता है तो वह उसे देखता नहीं है, बल्कि अपना चेहरा विपरीत दिशा में कर देता है। क्यों? एक तो वह मर्यादा का पालन कर रहा होता है, दूसरा उसमें भी सामथ्र्य नहीं कि वह प्याले को खत्म होता देख सके। आपने लोक देवताओं के परचों की चर्चा भी सुनी होगी। वे चमत्कार करते हैं, मगर प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में। 

एक बात और। जब भी किसी की मृत्यु होती है तो उसका सजीव शरीर निर्जीव हो जाता है। हलचल खत्म हो जाती है। मान्यता है कि उसमें से आत्मा निकल गई है। कल्पना कीजिए कि आत्मा निकलते वक्त दिखाई दे जाए तो हमारा क्या हाल होगा? इसीलिए प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है। अपने उस रहस्य को छिपा लिया है। ऐसे ही मृत्यु के साथ ही जीवन भर की स्मृति पर ताला जड़ देती है। अगले जन्म में उसे कुछ भी याद नहीं रहता। कल्पना कीजिए कि हर किसी को पिछले जन्म की याद रह जाए तो पूरे संसार में आपाधापी मच जाएगी। इसीलिए प्रकृति ने रहस्य को ओढ़ दिया है।

असल में प्रकृति बहुत रहस्यपूर्ण है। वह रहस्यपूर्ण ही रहेगी। प्रकृति न तो रहस्य को उघाड़ती है और न ही उसने इमें इतनी शक्ति दी है कि हम पूरी तरह से उघाड़ सकें। इस तथ्य को हमने भी उसे स्वीकार कर लिया है। बेशक इंसान ने इसके राज के बहुत पर्दे उठाए हैं, मगर आज भी उसके अधिकतर रहस्य बापर्दा हैं। उन्हें उठाया नहीं जा सकेगा। अलबत्ता संकेत जरूर हासिल किए जा पाए हैं, आगे भी किए जा सकते हैं, मगर प्रकृत्ति को कभी भी नग्न नहीं किया जा सकेगा। अर्थात कोरा सच कभी नहीं देखा जा सकेगा। यदि किसी विरले को दिखाई भी दे जाता है तो उसकी जुबान पर ताला पड़ जाता है। वह जरूरी भी है।

असल में प्रकृति इसलिए रहस्यपूर्ण है, क्योंकि यह हमारी समझ की सीमा से परे है। प्रकृति में इतना कुछ है कि हमारी इंद्रियों की क्षमता उन तक नहीं पहुंच पाती। जैसे ब्रह्मांड में अनेक ध्वनियां विचरण कर रही हैं, मगर हमारे कान उन सब को सुनने की क्षमता नहीं रखते। हमें सीमित फ्रिक्वेंसी की आवाजें ही सुनाई देती है। हां, हमने ऐसे ट्रांसमीटर जरूर बना लिए हैं, जो उन ध्वनियों को पकड़ लेते हैं, मगर हमारे कान सीधे उनको नहीं पकड़ सकते। प्रकृति में और भी अनेक चीजें ऐसी हैं, जो हमारी बुद्धि से परे हैं। इसीलिए वे हमारे लिए रहस्यपूर्ण ही रहेंगी। सच बात तो यह है कि प्रकृति में चारों ओर चमत्कार बिखरे पड़े हैं। कई चमत्कारों की जड़ तक हम पहुंचे भी हैं। जैसे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति। जब तक न्यूटन ने इस शक्ति का पता नहीं लगाया, तब तक कोई वस्तु ऊपर फैंकने पर वापस नीचे आ जाना हमारे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। इसी प्रकार जब तक विज्ञान को यह पता नहीं था कि बारिश होती कैसे है, तब तक वह चमत्कार ही था कि आसमान से पानी कैसे बरस रहा है? विज्ञान बहुत अंदर तक गया है, लेकिन आज भी बहुत कुछ अछूता है। चिकित्सा विज्ञान ने शरीर को बहुत गहरे में जाना है, बीमारियों के इलाज तलाशे हैं, अंग प्रत्यारोपण तक करने में कामयाब हो गया है, मगर आज तक आत्मा नामक तत्व का पता नहीं लगाया जा सका है। शरीर मृत हो पर ऐसी कौन सी चीज है, जो निकल जाती है और कहां चली जाती है, इसका पता विज्ञान नहीं लगा पा रहा है। अलबत्ता, अध्यात्म ने इस पर काम किया है, लेकिन वह भी उसे तर्कपूर्ण तरीके से सिद्ध नहीं कर पाया है। आत्मा भ्रूण मे कब प्रवेश करती है, शरीर को छोडऩे पर उसकी आगे की यात्रा क्या होती है, उसे कर्म के अनुसार कैसे और कहां दंड दिया जाता है, वह सब कुछ शास्त्र बताता है, मगर वह विज्ञान की तरह उसे दो और दो चार की तरह साबित नहीं कर सकता। क्योंकि वह अनुभूति की वस्तु है और सारी अनुभूतियां अभिव्यक्त नहीं की जा सकतीं, क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था रहस्यपूर्ण है।

यूं ते सारी प्राकृतिक शक्तियां अपने आप में चमत्कार ही हैं। क्या सूर्य का रोज उगना और अस्त होना चमत्कार नहीं है? वो तो हम आदी हो गए हैं, इस कारण हमें उसमें कुछ अनोखा नहीं दिखाई देता। क्या हमारा शरीर किसी चमत्कार से कम है? चमड़ी के एक हिस्से को दिखाई देता है, एक को सुनाई देता है, एक स्वाद का पता लगाता है तो एक गंध को महसूस करता है? मगर हमें सब कुछ सामान्य सा लगता है। वजह सिर्फ इतनी है कि कि हम अब उसके अभ्यस्त हो चुके हैं।

लब्बोलुआब, प्रकृति बहुत रहस्यपूर्ण है। कभी पूरी तरह से अनावृत्त नहीं की जा सकेगी। कम से कम सार्वजनिक रूप से तो नहीं। इसीलिए कई सुधि जन कहते हैं कि इसमें मत उलझो की प्रकृति कर रहस्य क्या है, बल्कि प्रकृति को केवल जीयो। उसका आनंद लो।


-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 21 मार्च 2021

कभी एडवोकेट दशोरा व डॉ. बाहेती की दोस्ती के किस्से जवान थे


अजमेर शहर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व राजस्व मामलों के नामी वकील श्री पूर्णा शंकर दशोरा हमारे बीच नहीं रहे। यह अजमेर के लिए अपूरणीय क्षति है। उनके पिछले जन्मदिन पर एक ब्लॉग लिखा था। उसके तत्व आज भी कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। ऐसी आत्मा को नमन। यही मेरी शब्दाजंलि है। पेश है हूबहू आपकी नजर::-


हाल ही शहर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष व राजस्व मामलों के वरिष्ठ वकील श्री पूर्णाशंकर दशोरा का जन्मदिन था, तो यकायक ख्याल आया कि उन पर भी एक शब्दचित्र खींचने का प्रयास करूं। वैसे उनके बारे में लिखने  का विचार बहुत दिन से था कि चर्चाओं से दूर ऐसे शख्स से मौजूदा पीढ़ी को रूबरू कराया जाए, ताकि उसे भी कोई प्रेरणा मिले।

अपने वकालत के पेशे के प्रति पूरी ईमानदारी व लगन के बलबूते ही आज वे प्रदेश के दिग्गज वकीलों में शुमार हैं। यह उनकी निजी उपलब्धि है। उनके परम मित्र, जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार श्री ओम माथुर की पंक्तियों को चुराने की धृष्टता करते हुए सुखद लग रहा है कि हमारे यहां ऐसी विषय विशेषज्ञ शख्सियत है, जिससे रेवेन्यू मेंबर, चेयरमैन, यहां तक राजस्व मंत्री तक उनसे कानूनी राय लेते हैं। मगर मुझे अफसोस कि राजनीति ने उनकी सेवाएं तो पार्टी हित में ले लीं, मगर मौका पड़ा तो राज्य स्तर पर उनका कोई उपयोग नहीं लिया। कदाचित इस वजह से कि राजनीति का सबसे पहला गुण, चाटुकारिता उन्हें नहीं आती।

एक जमाने में वे बहुत सक्रय रहे। राजनीति के साथ-साथ लायंस क्लब के जरिए समाजसेवा में खूब काम किया। शहर के जाने-माने बुद्धिजीवियों में उनकी गिनती रही है। उनकी बदोलत शहर ने कई कवि सम्मेलनों के दीदार किए। शहर की बहबूदी का शायद ही कोई ऐसा मुद्दा रहा हो, जिसमें उनकी भूमिका न रही हो। सबसे अधिक रेखांकित करने वाली बात ये है कि राजनीति में पूर्ण रूप से सक्रिय रहते हुए भी उन्हें राजनीति कभी छू तक नहीं पाई। राजनीति बाहर नाचती रही और भीतर वे स्थितप्रज्ञ बने रहे। ऐसा होना विलक्षणता का प्रमाण है। ऐसे सरल, सौम्य, सहज, योग्य व ईमानदार विरले ही पैदा होते हैं। विशेष रूप से राजनीति में। महात्मा गांधी से उन्होंने भले ही प्रेरणा न ली हो, मगर मेरी नजर में वे एक सच्चे गांधीवादी व्यक्तित्व हैं। आपको मेरा यह कथन अटपटा जरूर लगेगा। स्वाभाविक है। असल में हमने गांधीजी व आरएसएस के बीच एक दीवार उठा रखी है। एक नेरेटिव सेट कर रखा है। हालांकि बदलते जमाने में अब भाजपा भी गांधीजी को उतना ही सम्मान देने लगी है, जितना कांग्रेसी देते रहे हैं। उसके अपने कारण हैं, हम अभी उसमें नहीं जा रहे। हां, प्रसंगवश यह बताना उचित रहेगा कि कुछ विद्वानों ने आरएसएस कार्यकर्ताओं व गांधीजी के अनुयाइयों की सामान्य जीवनशैली में राजनीतिक तौर पर नहीं, मगर निजी तौर पर साम्य पाया है। इस विषय पर बाकायदा गहन अध्ययन तक हुआ है। कारण साफ है, इन धाराओं में बाद में भले ही कितनी ही राजनीतिक विषमताएं आई हों, मगर जड़ में सादा जीवन, उच्च विचार ही मौलिक लक्षण रहा है। भाजपा में इसके दो उदाहरण और हैं- पूर्व विधायक स्वर्गीय श्री नवलराय बच्चानी व पूर्व विधायक श्री हरीश झामनानी। उनका चेहरा ख्याल में आते ही, मेरी बात आपके समझ में आ जाएगी। चालबाजी के अभाव ने उन्हें राजनीति ने मिसफिट कर दिया। श्री दशोरा जी भी वर्तमान में हर दृष्टि से फिट हैं, मगर कुटिल राजनीति ने उन्हें भी एक तरह से हाशिये पर खड़ा कर रखा है।

खैर, यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि गांधीवादी माने जाने वाले मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत के स्थानीय प्रतिबिंब पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती से तब भी उनकी खूब पटती थी, जबकि वे भी शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष हुआ करते थे। यह कोई गोपनीय तथ्य नहीं, बाकायदा जनचर्चा का विषय था। दोनों अपनी-अपनी पार्टी की विचारधारा व कार्यक्रमों के प्रति एक निष्ठ रहे, फिर भी दोस्ती कायम रही। न तो कोई निजी विवाद हुआ और न ही सार्वजनिक। वस्तुत: तब राजनीति का मिजाज कुछ और हुआ करता था। डॉ. बाहेती आज भी राजनीति में सक्रिय हैं, इस कारण उनमें राजनीति से जुड़ी आवश्यक बुराइयां गिनाई जा सकती हैं, मगर निजी जिंदगी कितनी सरल, सहज, सौम्य है, यह सब जानते हैं। खबर के मामले में भी दशोरा जी व डॉ. बाहेती में एक साम्य है। जैसा कि श्री माथुर बताते हैं कि आमतौर पर राजनीतिज्ञ, पत्रकारों से इस मोह में रिश्ता रखते हैं कि उन्हें प्रचार का ज्यादा अवसर मिलेगा, लेकिन दशोरा जी ने कभी संबंधों का इसके लिए दुरुपयोग नहीं किया। ठीक ऐसा ही है, डॉ. बाहेती भी खबर या नाम के लिए बहुत ज्यादा फांसी नहीं खाते। बहुत जरूरी हो तो ही खबर जारी करते हैं। 

अरे, एक और मजेदार बात। श्री माथुर की डॉ. बाहेती से उतनी ही गहरी छनती है, जितनी दशोरा जी से। दोनों नेताओं के बीच जो साम्य है, कहीं वही तत्त्व श्री माथुर के भीतर तो गहरे छिपा हुआ नहीं है। बेशक, श्री माथुर की पत्रकारिता की धार बहुत पैनी है, इस कारण हो सकता है, उनसे कई को तकलीफ भी हुई हो, मगर अजमेर की पत्रकारिता में उनके जैसे साफ-सुथरी छवि के पत्रकार गिनती के ही हैं, जिन पर इतने लंबे पत्रकारिता के जीवन में कोई दाग नहीं लगा। 

बात कहां से शुरू हुई और कहां तक पहुंच गई। लब्बोलुआब ये कि दशोरा जी एक आदर्श व्यक्तित्व हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस पार्टी के हैं, महत्वपूर्ण ये है कि हमारे बीच ऐसे प्रकाश स्तम्भ मौजूद हैं, जिनसे हमारी भावी पीढ़ी को रोशनी मिलती रहेगी।

जरा दशोरा जी के जीवन परिचय पर भी नजर डालें:-

उनका जन्म 1 जनवरी 1950 को श्री रामलाल दशोरा के घर हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा चितौडग़ढ़, माध्यमिक शिक्षा बस्सी जिला चितौडग़ढ़, स्नातक शिक्षा चितौडग़ढ़ और एलएलबी की शिक्षा उदयपुर में हासिल की। उन्होंने बीए. एलएलबी की शिक्षा अर्जित की और वकालत को अपना पेशा बनाया। उन्हें करीब 43 वर्ष तक राजस्व मामलों की वकालत का अनुभव है। वे राजस्थान राजस्व अभिभाषक संघ के अध्यक्ष और सचिव और राजस्थान अधिवक्ता परिषद के संयुक्त सचिव रहे हैं। वे करीब पचास साल से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए हैं। प्रदेश भाजपा विधि प्रकोष्ठ के उपाध्यक्ष रहे हैं। सन् 1998 से 2007 तक शहर जिला अध्यक्ष पद पर रहते हुए उन्होंने अपनी विशेष पहचान बनाई है। विभिन्न चुनावों में पार्टी प्रत्याशियों के मुख्य चुनाव एजेंट रहे हैं। वे लायन्स क्लब पृथ्वीराज के अध्यक्ष रहे।


-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 16 मार्च 2021

माताश्री को हुआ था मृत्यु का पूर्वाभास


मृत्यु का पूर्वाभास होने की अनेक घटनाएं आपने सुनी होंगी। कुछ पूर्ण सत्य हो सकती हैं तो कुछ आंशिक सत्य। कोई ऐसी घटनाओं को मात्र संयोग मानते हैं तो कोई वास्तविक। मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।

हाल ही मेरी माताश्री का देहावसान हो गया। उन्होंने पिछले दिनों जिस तरह के संकेत दिए, वे ऐसा आभास देते हैं कि मृत्यु का पूर्वाभास होता है। उन्होंने पिछले कुछ माह के दौरान अपने पास जो भी जमा राशि थी, वह सब अपनी औलादों व उनके बेटे-बेटियों को बांट दी। कदाचित उन्हें पूर्वाभास था कि चंद माह में उनका निधन हो जाएगा, इसलिए जीते-जी जमा राशि बांट दी जाए। मृत्यु से तीन दिन पहले उन्होंने एक सपने का जिक्र किया था। वो यह कि उन्होंने सपने में देखा है कि मेरे पिताश्री ने स्नेहपूर्वक उनके कंधे पर हाथ रखा। इस पर उन्होंने उन्हें टोका कि यह क्या कर रहे हो, सामने ही बेटा खड़ा है। पिताश्री ने कहा कि कोई बात नहीं। उन्होंने बताया कि आज भले ही पति-पत्नि आपस में चिपक कर खड़े हो जाते हैं, पति-पत्नि एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर फोटो खिंचवाते हैं और उसे फेसबुक तक पर सार्वजनिक कर देते हैं, मगर पुराने समय में ऐसा कत्तई नहीं किया जाता था। न तो ऐसी मुद्रा में अपनी संतान के सामने खड़े होते थे और न ही माता-पिता के सामने।

खैर, उन्होंने सपने में दिखाई दिए जिस प्रसंग का जिक्र किया, वह इस बात का संकेत था कि जल्द ही वे प्रस्थान करने वाली हैं। इस प्रकार का हवाला शास्त्रों में भी आया है कि यदि आपका कोई बहुत निकट संबंधी सपने में आपके बिलकुल करीब आ जाए तो उसका अर्थ ये होता है कि देह त्यागने और उसके साथ जाने का समय आ गया है। मुझे नहीं पता कि उन्होंने सपने का जिक्र इस तथ्य को जानते हुए किया अथवा सहज भाव से, मगर शास्त्रानुसार उन्होंने इशारा कर दिया था कि अब वे छोड़ कर जाने वाली हैं। वैसे वे पहले भी कई बार पिताश्री के सपने में आने का जिक्र करती रहीं। कई बार कहा कि पिताश्री को अमुक चीज खाने की इच्छा है। हम उनकी सपने की बात सुन कर वह चीज बना कर कन्या अथवा गाय को खिला दिया करते थे। पिताश्री उन्हें परिवार में कोई शुभ कार्य होने की भी पूर्व सूचना दिया करते थे।

एक और महत्वपूर्ण बात। वे मृत्यु से एक दिन पूर्व पूर्ण स्वस्थ थीं। खुद का सारा काम खुद ही किया। रात में उनक तबियत कुछ खराब हुई। तकरीबन साढ़े तीन बजे उन्होंने भूख लगने की बात कही। मैंने उन्हें उनकी पसंदीदा खिचड़ी व दही खाने को दी। उन्होंने बाकायदा पालथी मार कर थाली में चम्मच से उसे पूरा खाया। उसके बाद दो-तीन बार पानी भी मांगा। सुबह तबियत ज्यादा खराब होने पर उन्हें अस्पताल ले गए, जहां ऑक्सीजन लेवल कम होने के कारण उनका निधन हो गया। इसका जिक्र मैने अपने मित्र वरिष्ठ पत्रकार श्री सुरेश कासलीवाल से किया तो उन्होंने कहा कि आपको उनके खाना मांगने पर ही समझ जाना चाहिए था। इस सिलसिले में उन्होंने अपने पिताश्री व अन्य के अनेक प्रसंगों का जिक्र किया। इस बारे में अन्य जानकारों से पूछा तो उन्होंने भी यह बताया कि शुद्धत्माएं खाली पेट देह नहीं छोड़तीं। अर्थात तृप्त हो कर ही प्रस्थान करती हैं।

बहरहाल, इन चंद घटनाओं से मुझे ये आभास होता है कि मृत्यु से पूर्व उसका आभास होता है, किसी को कम, किसी को ज्यादा।


-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 15 मार्च 2021

अच्छे लोगों को भगवान अपने पास जल्दी बुला लेता है?


आम तौर पर यदि किसी सज्जन व्यक्ति का कम उम्र में ही देहावसान हो जाता है तो यही कहा जाता है कि भगवान अच्छे लोगों को अपने पास जल्द बुला लेता है। ऐसे उदाहरण ऐसे हैं भी, मगर इस धारणा का आधार क्या है, इसको लेकर सवाल उठते हैं। ऐसी क्या वजह है कि भगवान अच्छे लोगों की उम्र कम ही रखता है? उसका भला क्या प्रयोजन हो सकता है? यदि इस धारणा को सही मानें तो सवाल ये भी उठता है कि जिनकी उम्र अधिक होती है तो क्या वे बुरे होते हैं? इसके विपरीत हमारे यहां तो अधिक उम्र वालों को सौभाग्यशाली माना जाता है। यदि कोई अपने जीवन में पड़पोता या पड़पोती देखे तो उसे बहुत ही भाग्यवान मानते हैं। अधिक उम्र अच्छी होती है, इसी कारण तो हम लोग चिरायु होने की कामना करते हैं, लंबी उम्र की दुआ करते हैं। हमें पता है कि मनुष्य की अधिकतम उम्र एक सौ साल की होती है, फिर भी हम किसी के जन्मदिन पर तुम जीयो हजारों साल की शुभेच्छा जाहिर करते हैं। कदाचित मृत्यु के बाद भी कीर्ति पताका वर्षों तक फहराने के भाव से ऐसा किया जाता होगा।

शास्त्रों व पुराणों में कई ऋषियों के हजारों साल तक जीने के प्रसंग आते हैं। शास्त्रानुसार यह भी स्थापित तथ्य है कि हनुमानजी चिरंजीवी हैं। बताते हैं कि सीता माता ने हनुमानजी को लंका की अशोक वाटिका में राम का संदेश सुनने के बाद आशीर्वाद दिया था कि वे अजर-अमर रहेंगे। यानि कि वे चिरयुवा भी हैं। मान्यता है कि जहां भी भक्ति-भाव से भगवान राम की पूजा-अर्चना होती है, हनुमानजी वहां विद्यमान होते हैं। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को चिरकाल तक पृथ्वी पर भटकते रहने का श्राप दिया था। वे आज भी पृथ्वी पर अपनी मुक्ति के लिए भटक रहे हैं। इसी प्रकार ऋषि मार्कण्डेय, भगवान वेद व्यास, भगवान परशुराम, राजा बलि, विभीषण और कृपाचार्य भी चिरंजीवी माने जाते हैं।

बहरहाल, अब मौलिक सवाल पर आते हैं। एक ओर हम ये मानते हैं कि भगवान अच्छे लोगों को अपने पास जल्दी बुला लेते हैं तो दूसरी ओर चिरायु होने को अच्छा माना जाता है। है न अजीबोगरीब विरोधाभास। ऐसा प्रतीत होता है कि केवल मन की संतुष्टि के लिए ऐसा कहा जाता है कि अच्छे लोगों के परिजन को सांत्वना देने के लिए यह कहा जाता है कि भगवान अच्छे लोगों को जल्द बुला लेता है। सच तो ये है कि मृत्यु का अच्छे या बुरे होने से कोई ताल्लुक नहीं है। 


-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 9 मार्च 2021

झूठ बोलने से कोई पाप नहीं लगता?


सत्य की बड़ी महिमा है। इतनी कि उसके लिए बाकयदा एक सूत्र है:- सत्यमेव जयते। अर्थात सत्य की सदा जीत होती है। सत्य को ईश्वर का ही रूप माना जाता है। इसीलिए यह शिक्षा दी जाती है कि सत्य बोलो, झूठ मत बोलो। झूठ बोलने से पाप लगता है। सवाल उठता है कि क्या झूठ बोलने से वाकई पाप लगता है? क्या विधि का कोई विधान है, जिसके तहत झूठ नामक पाप का दंड मिलता हो? बेशक सत्य के मार्ग पर चलने से आत्मशक्ति मजबूत होती है और असत्य के मार्ग पर चलने से न केवल प्रकृति अपितु सामाजिक व्यवस्था में दंड का भागी होना होता है, लेकिन क्या झूठ बोलने से भी कोई अपराध कारित होता है, जिसका प्रकृति दंड देती है? क्या यह सही है कि झूठ बोलने से कौआ काटता है, जैसा कि एक कहावत में कहा गया है। इस पर तो एक फिल्मी गीत भी बना हुआ है:- झूठ बोले कौआ काटे, काले कौए से डरियो।

गहन चिंतन-मनन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि झूठ बोलने  प्राकृतिक रूप से कोई पाप नहीं लगता। प्रकृति इसका हिसाब भी नहीं लगाने बैठी कि उसे पाप की श्रेणी में डाल कर आपको दंड दे। असल में इसका कोई विधान नहीं है। वस्तुत: होता यह है कि जब भी हम झूठ बोलते हैं तो हमें पता होता है कि सत्य क्या है और हम निहित स्वार्थवश झूठ बोल रहे हैं। चूंकि झूठ बोलने का स्पष्ट भान होता है तो हमारे भीतर ही अपराध बोध जागृत होता है। यह बोध हमारी आत्मशक्ति को कमजोर करता है। आमतौर पर झूठ बोलने वाले के भीतर एक ग्रंथी बन जाती है, जो उसे कचोटती रहती है। उसका सुख-चैन छिन जाता है। कई लोग तो बात-बात में झूठ बोलने की आदी हो जाते हैं। अगर हम प्राकृतिक व्यवस्था में झूठ बोलने को पाप की श्रेणी में डालें तो कह सकते हैं कि झूठ बोलने से पाप लगता है। मगर सच ये है कि ऊपर का कोई विधान नहीं, बल्कि यह हमारे भीतर का विधान है। भीतर की रासायनिक क्रिया है।

झूठ बोलने का परिणाम ये होता है कि कई बार तो एक झूठ बोलने के बाद उसे छिपाने के लिए एक के बाद एक झूठ बोलने पड़ते हैं। इससे अपराध बोध और घनिभूत हो जाता है। दूसरा ये कि झूठ बोले हुए को याद भी रखना पड़ता है। सत्य की चूंकि एक ही होता है, इस कारण वह सदा जेहन में रहता है। अत: यथा संभव सत्य ही बोलना चाहिए। अगर आप सदा सच ही बोलते हैं तो आपको याद रखने की कोई जरूरत नहीं है। झूठ बोलने पर यह ख्याल रखना होता है कि पहले क्या झूठ बोला था। अमूमन वह कठिन हो जाता है और अंतत: वह पकड़ा जाता है। कहने का यही तात्पर्य है कि जब तक बहुत जरूरी न हो, झूठ नहीं बोलना चाहिए। 

हां, कई ऐसे भी मौके भी आते हैं, जबकि झूठ बोलना अनिवार्य हो जाता है। इस सिलसिले में एक कहानी आपने सुनी होगी। एक सत्पुरुष के सामने से गाय दौड़ती हुई गुजरी। एक कसाई उसके पीछे भागता हुआ आया और उस सत्पुरुष से पूछा कि गाय किस दिशा में गई है? अगर वह सच बोलता तो कसाई उस गाय तक पहुंच जाता और उसकी मौत सुनिश्चित थी, जिसके पाप का भागी वह भी होता, क्योंकि गाय की मौत में उसकी भी तनिक भूमिका होती। सत्परुष ने कुछ सोच कर झूठ बोला और कसाई को गलत दिशा बता दी। और इस प्रकार गाय मरने से बच गई। हालांकि सत्पुरुष सदा सच ही बोला करते थे, मगर उन्हें दूसरे की भलाई के लिए झूठ बोलना पड़ा। इस प्रसंग में झूठ बोलना उचित ही था। हालांकि सत्परुष को झूठ बोलने से अपराध बोध हुआ, मगर उसके गुरू ने बताया कि तुम्हारे एक छोटे से झूठ से गाय बच गई, इसलिए तुम्हें मलाल नहीं होना चाहिए। झूठ बोलने से तुम्हें जितनी ग्लानी हो रही है, उससे कई गुना अधिक गाय के बच जाने का पुण्य तुम्हें हासिल होगा। अर्थात कभी भलाई के लिए झूठ बोलना पड़ जाए तो झिझकना नहीं चाहिए। तब झूठ बोलना ही धर्म है। 


-तेजवानी गिरधर

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सोमवार, 8 मार्च 2021

आदमी से ज्यादा जीव-जंतु समझते हैं प्रकृति के इशारों को


इसमें कोई दोराय नहीं कि आदमी का दिमाग सुपर कंप्यूटर है। उसी सुपर कंप्यूटर ने अद्भुत वैज्ञानिक अविष्कार किए हैं। प्रकृति के संकेतों को समझने के लिए कई उपकरण भी बनाए हैं। बारिश का पूर्वानुमान लगाने के लिए यंत्र बनाए हैं, मगर वे भी कई बार विफल हो जाते हैं। दूसरी ओर मंद बुद्धि जीव-जंतु प्रकृति के इशारों को आदमी से बेहतर समझते हैं। वस्तुत: प्रकृति ने उन्हें विशेष क्षमता दी है।

आप देखिए हवाई मखलूकात या भूत-प्रेत की मौजूदगी का अहसास आम आदमी को नहीं हो पाता। कदाचित कुछ लोगों को हो भी सकता होगा, लेकिन जानवरों को तो हवाई मखलूकात बाकायदा नजर आती हैं। यह सर्वविदित मान्यता है कि भूत-प्रेत दिखाई देने पर कुत्ता रात में भौंकने लगता है। यदि किसी की मौत सन्निकट हो तो कुत्ते को यमदूत नजर आते हैं और वह उसके घर के बाहर जोर से रोना शुरू कर देता है।

अन्य पशु-पक्षियों को भी प्रकृति के संकेत समझ में आते हैं। यह पुरानी मान्यता है कि कौआ छत की मुंडेर पर कांव-कांव करे तो वह मेहमान के आने का इशारा होता है। इसी प्रकार चिडिय़ा अगर धूल में नहाए तो उसे बारिश के आने का संकेत माना जाता है। यह वैज्ञानिक तथ्य ही है कि बारिश के आगमन से पहले चींटियों सहित अन्य जंतु ऊंचे स्थान पर अपने अंडे शिफ्ट करते हैं। इसी प्रकार मोर भी बारिश के आगमन की पूर्व सूचना देते हैं। नक्षत्र भी बारिश के बारे में संकेत दिया करते हैं। जैसे अगस्त्य नामक तारे का उदय हो तो मान लीजिए कि बारिश समाप्त होने वाली है। कहावत है- अगस्त ऊगा, मेह पूगा। इसी कड़ी में कहावत है कि जे मंडे तो धार न खंडे, अर्थात यदि बारिश फिर भी हो जाए तो मान कर चलिए कि बारिश जम कर होगी, थमेगी ही नहीं।

अकाल पडऩे के बारे में नक्षत्र संकेत देते हैं, वो यह कि अक्षय तृतीया पर रोहणी नक्षत्र न हो, रक्षाबंधन पर श्रवण नक्षत्र न हो और पौष की पूर्णिमा पर मूल नक्षत्र न हो तो अनावृष्टि की आशंका होती है। इसको लेकर कहावत है- अक्खा रोहण बायरी, राखी सरबन न होय। पो ही मूल न होय तो, म्ही डूलंती जोय।

मान्यता ये भी है कि आप कहीं जा रहे हैं और अचानक बिल्ली रास्ता काट जाए तो किसी अनिष्ट का सूचक माना जाता है। इसी कारण लोग कुछ समय रुक कर फिर रवाना होते हैं ताकि अनिष्ट के पल टल जाएं।

यदि गिरगिट पेड़ पर उल्टा होकर अर्थात पूंछ ऊपर की ओर करके चढ़े तो समझना चाहिए कि इतनी वर्षा होगी कि पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। इसकी कहावत है - उलटे गिरगिट ऊँचे चढै। बरखा होइ भूइं जल बुडै।।

एक कहावत है- अम्मर रातो, मेह मातो, यानि कि अगर आसमान में लालिमा हो तो समझिये बारिश जोरदार पडऩे वाली है। इसी क्रम में कहते हैं- अम्मर हरियो, चूव टपरियो। अर्थात आसमान में हरीतिमा दिखाई दे तो वह सामान्य बारिश होने का संकेत है।

ऐसी मान्यता है कि यदि तीतर के पंख बादल जैसे रंग के हो जाएं तो पक्का जानिये कि बारिश होगी ही, जिसमें कोई संदेह नहीं है। इसकी कहावत है:- तीतर पंखी बादळी, विधवा काजळ रेख, बा बरसै बा घर करै, ई में मीन न मेख। यदि रात में विचरण करते वक्त ऊंटनी को आलस्य आए या वह ऊंघने लगे तो इसका मतलब है कि बारिश की उम्मीद है। एक कहावत है कि अत तरणावै तीतरी, लक्खारी कुरलेह। सारस डूंगर भमै, जदअत जोरे मेह। इसका अर्थ है कि तीतरी जोर से आवाज करे, लक्कारी कुरलाए, सारस ऊंचे स्थान का चयन करे तो तेज बारिश आ सकती है।

इसी प्रकार कहते हैं कि बारिश के मौसम में लोमड़ी ऊंचे स्थान पर खड्डा खोद कर अपना विश्राम स्थल बनाए और उछल-कूद करे तो समझिये अच्छी बारिश होगी। इसकी कहावत है- धुर बरसालै लूंकड़ी, ऊंची घुरी खिणन्त। भेळी होय ज खेल करै, तो जलधर अति बरसन्त।

ऊंटनी भी बारिश का संकेत जमीन पर पैर पटक कर, एक स्थान पर न टिक कर और बैठने से आनाकानी करके यह संकेत देती है कि बारिश जरूर आएगी। इसकी कहावत है- आगम सूझे सांढणी, दौड़े थळा अपार। पग पटकै बैसे नहीं, जद मेह आवणहार।

यूं आदमी में भी प्रकृति के कुछ संकेत पकडऩे की क्षमता होती है। जैसे कहीं जाते वक्त अचानक छींक आ जाए तो उसे अनिष्टकारी माना जाता है और कुछ पल ठहर कर यात्रा आरंभ की जाती है। इसी प्रकार यदि बच्चा झाड़ू लगाए तो माना जाता है कि कोई मेहमान आने वाला है।

ऐसी मान्यता है कि जब हम किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए निकलते हैं तो शव यात्रा, झाडू़ लगाती महिला सफाई कर्मचारी, पानी का घड़ा भर कर लाती महिला आदि के सामने आने को शुभ माना जाता है। अर्थात जिस कार्य के लिए हम जा रहे हैं, उसके संपन्न होने की पूरी संभावना होती है। ठीक इसके विपरीत विधवा महिला, धोबी या स्वर्णकार का सामना होने सहित अन्य कई दृश्य निर्मित होने को अच्छा नहीं माना जाता। यानि कि हमने अनुभव के आधार पर प्रकृति के संकेतों को समझने की कोशिश की है। कई लोग आसमान में वायु व बादलों की हरकतों से यह बता देते हैं कि इस बार बारिश कब आएगी और कितनी आएगी। 

लब्बोलुआब, प्रकृति बहुत रहस्यपूर्ण है और उसके इशारों को समझने में पशु-पक्षी हमसे कहीं अधिक सक्षम हैं।


-तेजवानी गिरधर

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