आप जानते ही हैं कि जब भी भगवान की मूर्ति को प्रसाद चढ़ाया जाता है तो प्रसाद चढ़ाने के बाद पर्दा किया जाता है, ताकि वे प्रसाद ग्रहण कर लें। यदि मंदिर में पर्दे की व्यवस्था नहीं है तो प्रसाद की थाली पर ही कपड़ा ढ़क दिया जाता है। बिना पर्दे के भी तो प्रसाद चढ़ाया जा सकता है, उसमें दिक्कत क्या है? मगर नहीं, पर्दा करते ही हैं। आखिर वजह क्या है?
कल्पना कीजिए कि आपने बिना पर्दे के प्रसाद चढ़ाया और मूर्ति से एक हाथ निकल कर प्रसाद उठाए तो आप पर क्या बीतेगी? या आपकी आंखों के सामने ही प्रसाद कम होता जाए, तो क्या आप उस दृश्य को देख पाएंगे? हम जानते हैं कि भगवान की मूर्ति से हाथ निकल कर प्रसाद ग्रहण करने आने वाला नहीं है। आ सकता होगा तो भी नहीं आएगा, क्योंकि भगवान रहस्य में ही रहना चाहता है। हालांकि पर्दा करने के बाद भी भगवान के प्रसाद ग्रहण करने के बाद प्रसाद का तौल वही रहता है। अर्थात वे सूक्ष्म रूप से प्रसाद ग्रहण करते हैं। उससे भी बड़ा सच ये है कि वे प्रसाद नहीं, बल्कि हमारे भाव ग्रहण करते हैं। फिर भी प्रसाद चढ़ाने के दौरान पर्दा करने की परंपरा है।
आप देखिए कि नागौर जिले बवाल माता मंदिर में देवी मां की प्रतिमा ढ़ाई प्याला शराब पीती है। यह रहस्यपूर्ण और चमत्कार है। मंदिर से श्रद्धालु को इतना दूर रख जाता है कि उसे यह तो पता लगे कि प्याला खत्म हो गया है, मगर खत्म होता दिखाई देता नहीं है। जब पुजारी मूर्ति के होंठों पर प्याला रखता है तो वह उसे देखता नहीं है, बल्कि अपना चेहरा विपरीत दिशा में कर देता है। क्यों? एक तो वह मर्यादा का पालन कर रहा होता है, दूसरा उसमें भी सामथ्र्य नहीं कि वह प्याले को खत्म होता देख सके। आपने लोक देवताओं के परचों की चर्चा भी सुनी होगी। वे चमत्कार करते हैं, मगर प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में।
एक बात और। जब भी किसी की मृत्यु होती है तो उसका सजीव शरीर निर्जीव हो जाता है। हलचल खत्म हो जाती है। मान्यता है कि उसमें से आत्मा निकल गई है। कल्पना कीजिए कि आत्मा निकलते वक्त दिखाई दे जाए तो हमारा क्या हाल होगा? इसीलिए प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है। अपने उस रहस्य को छिपा लिया है। ऐसे ही मृत्यु के साथ ही जीवन भर की स्मृति पर ताला जड़ देती है। अगले जन्म में उसे कुछ भी याद नहीं रहता। कल्पना कीजिए कि हर किसी को पिछले जन्म की याद रह जाए तो पूरे संसार में आपाधापी मच जाएगी। इसीलिए प्रकृति ने रहस्य को ओढ़ दिया है।
असल में प्रकृति बहुत रहस्यपूर्ण है। वह रहस्यपूर्ण ही रहेगी। प्रकृति न तो रहस्य को उघाड़ती है और न ही उसने इमें इतनी शक्ति दी है कि हम पूरी तरह से उघाड़ सकें। इस तथ्य को हमने भी उसे स्वीकार कर लिया है। बेशक इंसान ने इसके राज के बहुत पर्दे उठाए हैं, मगर आज भी उसके अधिकतर रहस्य बापर्दा हैं। उन्हें उठाया नहीं जा सकेगा। अलबत्ता संकेत जरूर हासिल किए जा पाए हैं, आगे भी किए जा सकते हैं, मगर प्रकृत्ति को कभी भी नग्न नहीं किया जा सकेगा। अर्थात कोरा सच कभी नहीं देखा जा सकेगा। यदि किसी विरले को दिखाई भी दे जाता है तो उसकी जुबान पर ताला पड़ जाता है। वह जरूरी भी है।
असल में प्रकृति इसलिए रहस्यपूर्ण है, क्योंकि यह हमारी समझ की सीमा से परे है। प्रकृति में इतना कुछ है कि हमारी इंद्रियों की क्षमता उन तक नहीं पहुंच पाती। जैसे ब्रह्मांड में अनेक ध्वनियां विचरण कर रही हैं, मगर हमारे कान उन सब को सुनने की क्षमता नहीं रखते। हमें सीमित फ्रिक्वेंसी की आवाजें ही सुनाई देती है। हां, हमने ऐसे ट्रांसमीटर जरूर बना लिए हैं, जो उन ध्वनियों को पकड़ लेते हैं, मगर हमारे कान सीधे उनको नहीं पकड़ सकते। प्रकृति में और भी अनेक चीजें ऐसी हैं, जो हमारी बुद्धि से परे हैं। इसीलिए वे हमारे लिए रहस्यपूर्ण ही रहेंगी। सच बात तो यह है कि प्रकृति में चारों ओर चमत्कार बिखरे पड़े हैं। कई चमत्कारों की जड़ तक हम पहुंचे भी हैं। जैसे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति। जब तक न्यूटन ने इस शक्ति का पता नहीं लगाया, तब तक कोई वस्तु ऊपर फैंकने पर वापस नीचे आ जाना हमारे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। इसी प्रकार जब तक विज्ञान को यह पता नहीं था कि बारिश होती कैसे है, तब तक वह चमत्कार ही था कि आसमान से पानी कैसे बरस रहा है? विज्ञान बहुत अंदर तक गया है, लेकिन आज भी बहुत कुछ अछूता है। चिकित्सा विज्ञान ने शरीर को बहुत गहरे में जाना है, बीमारियों के इलाज तलाशे हैं, अंग प्रत्यारोपण तक करने में कामयाब हो गया है, मगर आज तक आत्मा नामक तत्व का पता नहीं लगाया जा सका है। शरीर मृत हो पर ऐसी कौन सी चीज है, जो निकल जाती है और कहां चली जाती है, इसका पता विज्ञान नहीं लगा पा रहा है। अलबत्ता, अध्यात्म ने इस पर काम किया है, लेकिन वह भी उसे तर्कपूर्ण तरीके से सिद्ध नहीं कर पाया है। आत्मा भ्रूण मे कब प्रवेश करती है, शरीर को छोडऩे पर उसकी आगे की यात्रा क्या होती है, उसे कर्म के अनुसार कैसे और कहां दंड दिया जाता है, वह सब कुछ शास्त्र बताता है, मगर वह विज्ञान की तरह उसे दो और दो चार की तरह साबित नहीं कर सकता। क्योंकि वह अनुभूति की वस्तु है और सारी अनुभूतियां अभिव्यक्त नहीं की जा सकतीं, क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था रहस्यपूर्ण है।
यूं ते सारी प्राकृतिक शक्तियां अपने आप में चमत्कार ही हैं। क्या सूर्य का रोज उगना और अस्त होना चमत्कार नहीं है? वो तो हम आदी हो गए हैं, इस कारण हमें उसमें कुछ अनोखा नहीं दिखाई देता। क्या हमारा शरीर किसी चमत्कार से कम है? चमड़ी के एक हिस्से को दिखाई देता है, एक को सुनाई देता है, एक स्वाद का पता लगाता है तो एक गंध को महसूस करता है? मगर हमें सब कुछ सामान्य सा लगता है। वजह सिर्फ इतनी है कि कि हम अब उसके अभ्यस्त हो चुके हैं।
लब्बोलुआब, प्रकृति बहुत रहस्यपूर्ण है। कभी पूरी तरह से अनावृत्त नहीं की जा सकेगी। कम से कम सार्वजनिक रूप से तो नहीं। इसीलिए कई सुधि जन कहते हैं कि इसमें मत उलझो की प्रकृति कर रहस्य क्या है, बल्कि प्रकृति को केवल जीयो। उसका आनंद लो।
-तेजवानी गिरधर
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बेअंत माया। भक्ति में शक्ति। आस्था से बड़ा न कोई। और सबसे बढ़कर कण कण में भगवान। इससे इतर - नजर का पाप या नजर का पुण्य। विचार का पाप या विचार का पुण्य।
जवाब देंहटाएंऐसी ही व्याख्याओं में सृष्टि के गुण-धर्म और सूत्र खोजने के प्रयासों में से एक उपक्रम है प्रकृति के रहस्य जाने के लिए सूक्ष्म विषयों का अन्वेषण । ऐसा ही है इस प्रभावी आलेख में।
श्रेष्ठ रचना के लिए साधुवाद।