हाल ही मेरे एक ब्लॉग को लेकर फेसबुक पर कई प्रतिक्रियाएं आईं। कुछ तो बेहद आपत्तिजनक व अतार्किक थीं। ब्लॉग का शीर्षक था - हिंदू धर्म में छिपकली लक्ष्मी का प्रतीक तो इस्लाम में दुश्मन नंबर वन। इसमें हिंदू व मुस्लिम धर्म में जो मान्यताएं है, उसको तथ्यात्मक तरीके से बताया गया है। इसमें मैने अपनी ओर से कुछ भी नहीं लिखा। अर्थात उसमें मेरे कोई भी विचार नहीं हैं। सिर्फ मान्यताओं का उल्लेख है। महज जानकारी है। बेशक एक ही विषय पर भिन्न धर्मों में भिन्न मान्यताओं का जिक्र जरूर है, जिससे कुछ लोगों को लग सकता है कि इसमें तुलना की गई है, मगर सच ये है कि वह तुलनात्मक अध्ययन नहीं है। न तो उसमें किसी मान्यता को सही या अच्छा बताया गया है और न ही किसी मान्यता को गलत या खराब। कहीं भी ये नहीं लिखा है कि हिंदू अच्छा करते हैं व मुस्लिम गलत करते हैं। उसके लिए मैं कोई अथॉरिटी हूं भी नहीं। दोनों मान्यताएं अपनी-अपनी जगह ठीक हो सकती हैं। वैसे भी मान्यता तो मान्यता होती है, आस्था तो आस्था होती है, उसे गलत या सही ठहराया भी नहीं जा सकता।
बावजूद इसके कुछ सज्जनों ने या तो केवल शीर्षक पढ़ कर, या कुछ विघ्र संतोषी लोगों ने पढऩे के बाद उसके गलत निहितार्थ निकालने की कोशिश की। बहुत आपत्तिजनक, तर्कविहीन व भद्दी टिप्पणियां कीं। जब मैने दिलचस्प जानकारी को साझा करने के लिए कलम उठाई थी तो मेरे दिमाग में हिंदू-मुस्लिम कहीं पर भी नहीं था। हो भी नहीं सकता। मैं केवल दिमागी तौर पर धर्मनिरपेक्ष नहीं, बल्कि मेरे खून में धर्मनिरपेक्षता व्याप्त है। मैं भले ही हिंदू परिवार में जन्म लेने के कारण हिंदू रीति-रिवाजों की पालना करता हूं, जो कि मेरा धर्म भी है, मगर असल में मेरे लिए इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है। इस सोच पर मुझे नाज भी है। केवल इतना ही नहीं, अब तक के जीवन में मैने कभी न तो हिंदू-मुस्लिम तरीके से सोचा और न ही ऐसा कोई कृत्य किया।
ऐसे में कुछ लोगों ने पूर्णत: शोधपरक व तथ्यात्मक आलेख को हिंदू-मुस्लिम नजरिये से देखा तो बहुत दुख हुआ। किसी को गलतफहमी हुई होगी तो कुछ ने जानबूझ कर विषय में गंदगी डालने की कोशिश की। चूंकि मेरे विषय में कहीं भी ऐसा विचार नहीं, जो गलतफहमी पैदा करता हो, इस कारण मुझे न तो कोई अफसोस है और न ही स्पष्टीकरण देने की जरूरत है। अभी जो पंक्तियां लिख रहा हूं, वे कोई स्पष्टीकरण नहीं है। यह एक दर्द है, जिसने पंक्तियों का आकार ले लिया है। दर्द ये कि लोग अपने दिमाग का इस्तेमाल किए बिना कैसे टिप्पणियां करते हैं? साथ ही लोग कैसे अपने दिमाग का इस्तेमाल केवल इसीलिए करते हैं कि किस प्रकार किसी विषय को हिंदू-मुस्लिम किया जाए। मुझे उनकी बुद्धि पर तरस आता है। होना तो यह चाहिए था कि आप मुझे शाबाशी देते कि मैने शोध करके एक जानकारीपूर्ण आलेख लिखा, मगर आपने उलटे मुझे व्यक्तिगत रूप से टारगेट करने की कोशिश की। मेरा विनम्र आग्रह है कि आप एक बार फिर तटस्थ भाव से पूरे आलेख को पढ़ें। किसी के बारे में बिना सोचे-विचारे या बिना उसके बारे में जाने कोई धारणा बनाने या टिप्पणी करने को कत्तई सही नहीं ठहराया जा सकता। अव्वल तो आलेख में ऐसा कुछ नहीं, जैसा आप सोच रहे हैं, दूसरा ये कि आप पहले पता तो करें कि जिसके बारे में आप टिप्पणी कर रहे हैं, उसका पूरा जीवन व पृष्ठभूमि कैसी रही है?
खैर, ताजा वाकये के बाद ऐसा लगता है कि कोई भी पोस्ट सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुत करनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि कुछ जाहिल लोग उसका सत्यानाश कर देंगे। नतीजतन हम जिस विषय को आम जन तक पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, उसका मकसद ही भटक जाएगा। कुछ साल पहले जब मैने फेसबुक अकाउंट खोला था तो कुछ अनुभवी व संभ्रांत महानुभाव ने कहा था कि उन्होंने कहा कि उन्होंने अपना अकाउंट या तो बंद कर रखा है, या फिर बहुत जरूरी या सूचनात्मक पोस्ट ही डाला करते हैं, क्योंकि इस खुले मंच पर कोई भी आ कर गंदगी कर जाता है। आज मुझे उनकी बात अक्षरश: सही दिखाई दे रही है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
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